आशीष, आराधना और उनका वो कैमरा
सोचिए कि दिन भर शिव के मंत्र बुदबुदाने के बाद भी रात में एक शव आपको आवाज देता नजर आए. मक्रील कहानी सा. जहां आओ-आओ क्रूरता की हद तक बेबस कर देता है. हमेशा की तरह.
नैरेटर- आराधना सिंह. फोटो- आशीष सिंह
दशाश्वमेध के बांयी तरफ़ जाने पर ललिता घाट के ठीक पहले सुरंग जैसी सीढ़ियां हैं. इतनी संकरी कि आगे पीछे होकर ही चला जा सकता है. और अगर ऊपर से कोई उतरा तो 'पैदल जाम'.
एक दिन हम जाम पार कर ऊपर पहुंचे. लगा ही नहीं कि बनारस में हैं. कोई और ही मुलुक लग रहा था. एक साफ़-सुथरा आंगन. उसके पार "नेपाली आर्किटेक्चर " में बना "पशुपतिनाथ" का मन्दिर. लाल रंग का. वहां पर जितने लोग दिखे वे भी अपनी वेश-भूषा से नेपाली ही लग रहे थे. सिर्फ सामने बहती गंगा बनारस में होने का यक़ीन दिला रही थी.
और इसके बाद शुरू हुआ रुटीन. आशीष ने मुझे अपने फ़ोटोग्राफ़िक फ़्रेम्स में न घुसने की हिदायत दी. और अपने काम में जुट गए. मैंने भी कहा, मैं क्यों आऊंगी तुम्हारे फ्रेम्स में. और फिर हमेशा की तरह उनके फ्रेम्स में आ रहे ऑब्जेक्ट्स से बात करने के मोह में पड़ गई. चारों तरफ़ देखती हूं. सब अपने में मगन हैं. हमारी तरफ़ देखने भर की उत्सुकता भी किसी की आंखों में नज़र नहीं आती. एक वक्त के बाद यहां पसरी निर्लिप्तता रहस्यमयी लगने लगती है. एक किस्म का सम्मोहन बंधने लगता है. वहीं एक चबूतरे पर बैठ जाती हूं. यहां से मंदिर भी दिख रहा है. और सामने गंगा भी नज़र आ रही हैं. गोया आप नेपाल में बैठ गंगा निहार रहे हों.
बगल में बैठे एक आदमी से बातचीत में पता चला कि यहां एक विधवा आश्रम है. इसमें ज़्यादातर नेपाली विधवाएं रहती हैं. पूजा-पाठ करने भी नेपाली ही ज्यादा आते हैं. ऐसी ही एक महिला पूजा खतम कर पास बैठ जाती हैं. उम्र लगभग साठ पैंसठ साल. मैं उनसे प्रसाद मांगती हूं तो वह हल्का सा मुस्करा कर देखती हैं और फिर प्रसाद दे देती हैं. उसके बाद वह बुजुर्ग आंख मूंद कर मंत्र जाप शुरू कर देती हैं. मैं उनसे बात करना चाहती हूं पर वह मुझे कोई मौक़ा नहीं देतीं काफी देर तक. जब जाप ख़त्म होता है, तो मेरा सवाल शुरू हो जाता है. "आप यहीं की हैं?" वो बताती हैं कि 'हम नेपाल से आया है, यहीं आश्रम में रहता है. पोखरा सुना है न, उसके पास ही हमारा गांव है."
फिर मैं उनके बिना पूछे ही अपना हल्का-फुल्का ब्योरा दे देती हूं. आशीष को भी उनसे मिलवाती हूं. अब वह धीरे-धीरे थोड़ी सहज होती हैं और अपने बारे में बताती हैं.
'पन्द्रह साल पहले हमारा पति नदी में डूब गया. हमारा पाँच ठू बच्चा है. चार लड़की और एक लड़का. सबका शादी और बाल-बच्चा हो गया है. सब बिजी हैं अपने में. हमने ज़रूर कोई पाप किया होगा, जिसके चलते हमारा पति डूब गया. हमको ख़ूब सपना आता है कि वो डूब रहा है और हमको बुला रहा है. हम बोत अच्छा तैर लेता था न. सब हमारी ग़लती थी.'वह कहीं खो सी जाती हैं. फिर मैं उनसे मंदिर के बारे में पूछने लगती हूं. थोडी देर इधर-उधर की बातों के बाद वह बोलती हैं,
"हम अपनी ग़लती के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया. अब बस पशुपतिनाथ का ध्यान-पूजा करता है. वही रक्षा करेगा, हमको पार लगाएगा"उनसे विदा लेते हुए पांव छूती हूं, तो वह आशीर्वादों से भर देती हैं. जबकि मेरे पास उन्हें देने के लिए कुछ भी नहीं. ये भी नहीं कह पाती कि 'जिनका आप प्रायश्चित कर रहीं हैं, उन गुनाहों को करना तो दूर, वह गुनाह थे ही कहां ?
वापस लौटते हुए सोचती हूं "निर्लिप्त जीवन अपने ऊपर ओढ़ लेना अतीत और ज़रूरत से जुड़ा हुआ चयन है"
लौटते वक्त एक भजन कानों में पड़ता है. घाट पर ही मंदिर के बगल की दुकान पर बज रहा था.
"गंगा मइया में जब तक पानी रहे, मेरे सजना तेरी ज़िन्दगानी रहे"