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जिन्ना के अंतिम संस्कार की रस्में छिपाकर क्यों की गईं?

Muhammad ali jinnah death mystery: पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना की मौत पर सवाल क्यों उठते हैं? अंतिम संस्कार की रस्म दो बार क्यों हुई थी?

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मुहम्मद अली जिन्ना की मौत 11 सितंबर 1948 को हुई थी (तस्वीर: getty)

BBC के एक आर्टिकल में पाकिस्तान के इतिहासकार, अकील जाफरी मुहम्मद अली जिन्ना (muhammad ali jinnah) से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा बताते हैं. ये बात है जुलाई 1948 की. जिन्ना बीमार थे. TB की बीमारी. ऐसी हालत में किसी ने उन्हें जियारत जाने की सलाह दी. किसने दी? ये पाकिस्तान में एक बड़ा सवाल है. बहरहाल जिन्ना जियारत गए. जियारत बलूचिस्तान का एक ऊंचाई वाला इलाका है. देवदार के घने जंगलों से घिरा हुआ. जिसके चलते यहां काफी ठंड पड़ती थी. ये मौसम जिन्ना की सेहत के लिए ठीक नहीं था. जिन्ना की तबीयत काफी खराब थी. खाना पचता नहीं था. इसलिए कुछ खाने का मन भी नहीं होता था. डॉक्टर ने एक रोज़ जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना से कहा, "आपके भाई को खाने के लिए तैयार करना जरूरी है. बताइए उनका पसंदीदा खाना क्या है?".

फातिमा जिन्ना ने बताया कि बंबई में एक बावर्ची हुआ करता था, जिसके हाथ का खाना जिन्ना शौक से खाते थे. लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद बावर्ची कहीं चला गया था.  

ये सुनकर डॉक्टर सरकार ने पंजाब सरकार से गुजारिश की कि उस बावर्ची को ढूंढा जाना चाहिए. वे जिन्ना थे और ये पाकिस्तान था. इसलिए सरकार ने बावर्ची की खोज में पूरा जोर लगा दिया. बावर्ची फैसलाबाद में जाकर मिला. उसे तुरंत जियारत भेजा गया. जिन्ना को इसकी कोई खबर नहीं थी. अगली रोज़ जिन्ना को खाने की मेज़ पर लाया गया. जिन्ना ने खाना चखा. स्वाद इतना अच्छा था कि उस रोज़ जिन्ना ने अच्छे से खाना खाया. और फिर पूछा, आज खाना किसने बनाया है?

तब फातिमा जिन्ना ने बताया कि सरकार ने उनका फेवरेट बावर्ची भेजा है. जिन्ना ने बहन से पूछा कि इस बावर्ची को तलाश करने और यहां भिजवाने का खर्च किसने उठाया है. जब उन्हें बताया गया कि ये काम पंजाब सरकार ने किया है तो जिन्ना ने बावर्ची से संबंधित फाइल मंगवाई. उस पर लिख दिया- "गवर्नर जनरल की पसंद का बावर्ची और खाना मुहैया कराना सरकार के किसी विभाग का काम नहीं है. खर्च का ब्यौरा तैयार किया जाए ताकि मैं उसे अपनी जेब से अदा कर सकूं." और फिर ऐसा ही हुआ भी.

Jinnah की एम्बुलेंस का पेट्रोल ख़त्म 

11 सितंबर, 1948. शाम के 4.15 बजे थे. पाकिस्तान के मौरीपुर एयरपोर्ट पर एक स्पेशल प्लेन लैंड हुआ. इस विमान में जिन्ना थे. लगभग एक साल पहले जब जिन्ना मौरीपुर आए थे, लाखों की भीड़ उन्हें देखने के लिए आई थी. लेकिन उस रोज़ एयरपोर्ट खाली था. जिन्ना स्ट्रेचर पर थे. उन्हें एक मिलिट्री एम्बुलेंस में लिटाया गया. और एम्बुलेंस धीमी रफ्तार से आगे बढ़ गई. कराची की सड़कों पर इस एम्बुलेंस को सिर्फ आधे घंटे का सफ़र करना था. लेकिन बीच में ही एम्बुलेंस रुक गई. पता चला कि पेट्रोल ख़त्म हो गया है.

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 जियारत में जिन्ना का घर जहां उन्होंने आख़िरी दिन गुजारे थे (तस्वीर: wikimedia commons)

जिस देश के लिए जिन्ना ने अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया था. उसकी राजधानी की एक सड़क पर जिन्ना भयंकर गर्मी और उमस में एम्बुलेंस में लेटे हुए थे. तबीयत इतनी ख़राब थी कि चेहरे पर मंडरा रही मक्खियों को हाथ से हटाने की ताकत भी उनमें नहीं बची थी. बहन फातिमा और एक नर्स ये काम कर रहे थे. एक लम्बे इंतज़ार के बाद दूसरी एम्बुलेंस आई. जिन्ना को गवर्नर जनरल के बंगले तक पहुंचाया गया. डॉक्टर ने देखा. जिन्ना की हालत नाजुक थी. इसके बावजूद जिन्ना का इलाज करने के बजाय उन्हें उनकी बहन के हवाले करके, डॉक्टर चले गए. 

दो घंटे बाद जिन्ना को होश आया. फातिमा जिन्ना बगल में बैठी थीं. जिन्ना ने सिर हिलाकर इशारे से उन्हें पास बुलाया. फातिमा अपना कान जिन्ना के मुंह के नजदीक लेकर गईं. पूरी ताकत के बावजूद लगभग फुसफुसाते हुए जिन्ना के मुंह से सिर्फ दो शब्द निकले. फातिमा, खुदा हाफिज. इसके बाद जिन्ना ने हमेशा के लिए आंखें बंद कर लीं. जिन्ना के आख़िरी शब्द यही थे या कुछ और थे, इस मुद्दे पर आगे चलकर पाकिस्तान में काफी हंगामा हुआ. जियाउल हक के दौर में जिन्ना की एक डायरी पेश की गई. जिसके अनुसार जिन्ना ने मरते हुए इस्लाम पाकिस्तान कहा था. बाद में ये डायरी खारिज भी हो गई. 

फातिमा जिन्ना की स्पीच रोक दी

जिन्ना जब पाकिस्तान पहुंचे. वो काफी बीमार थे. उन्हें लंबे समय से TV की बीमारी थी. इसके बावजूद वो सिगरेट पीना नहीं छोड़ते थे. क्रैवन ए. ये उनका पसंदीदा सिगरेट ब्रांड था. यही सिगरेट आगे चलकर उनके फेफड़े में कैंसर का कारण बनी. जिन्ना की बीमारी की बात किसी को पता नहीं थी. बाकायदा उनकी बहन को भी इस बात का पता काफी देर से लगा. फातिमा जिन्ना चाहती थीं कि जिन्ना सही से इलाज़ कराएं. लेकिन जिन्ना को डॉक्टरों से डर लगता था. बीमारी के बावजूद वो सूटबूट पहनकर तैयार होते और फंक्शनों में जाते. ताकि किसी को उनकी बीमारी की भनक न लगे. ठीक और फिट दिखने का इतना मोह था उनको कि जब चलने के लायक नहीं रहे, तो भी बहन से जिद करते थे कि उनको सूट-बूट पहनाकर, जेब में रुमाल रखकर ही स्ट्रेचर पर लिटाया जाए. जिन्ना का कहना था कि पाकिस्तान का इतना काम पड़ा है कि वो बीमार पड़ना अफॉर्ड नहीं कर सकते. उन्हें शायद लग रहा था कि वो बिस्तर पर पड़े नहीं कि एकदम कगार पर धकेल दिए जाएंगे. और फिर पाकिस्तान पटरी से उतर जाएगा.

फातिमा जिन्ना ने एक किताब लिखी. नाम था- माय ब्रदर. ये किताब लंबे समय तक पाकिस्तान में प्रकाशित नहीं हो पाई. इजाजत नहीं मिली. फिर जब इसे पब्लिश किया गया, तब भी इसके कई सारे अहम हिस्से उड़ा दिए गए. ऐसे हिस्से, जिसमें फातिमा पाकिस्तानी हुकूमत की आलोचना कर रही थीं. इस किताब में फातिमा जिन्ना ने लिखा कि उनके करीबी उनके मरने का इंतजार कर रहे थे. जिन्ना अपने जीते-जी ही काफी हद तक अलग-थलग किए जा चुके थे. उनके आख़िरी दिनों में कई करीबी बस इसलिए उन्हें देखने जाते थे कि टटोल सकें और कितनी जिंदगी बची है जिन्ना के अंदर. उन्हें जिन्ना के मरने का इंतजार था.

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लियाकत जिन्ना के भरोसेमंद साथी थे. यही वजह थी कि जिन्ना ने लियाकत को पाकिस्तान का पहला प्रधानमंत्री बनाया. मगर फिर लियाकत और उनके बीच दरार आ गई(तस्वीर : getty)

पाकिस्तान के इतिहास में जिन्ना की मौत एक बहुत बड़ा सवाल है. ऐसा कयास लगाने वालों की कमी नहीं कि शायद जिन्ना की मौत की साजिश रची गई. या कम से कम उन्हें मर जाने दिया गया. इस कयास के कई कारण हैं. जिन्ना की मौत के दो साल बाद तक फातिमा जिन्ना को किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में बोलने की इजाजत नहीं दी गई. 1951 में जिन्ना की तीसरी बरसी आई. तब जाकर फातिमा को इजाजत मिली कि वो पाकिस्तान के नाम एक रेडियो संदेश दें. अपने रेडियो संदेश में जैसे ही फातिमा ने जिन्ना की मौत वाले दिन एम्बुलेंस के रुकने का जिक्र करना शुरू किया, प्रसारण काट दिया गया. फातिमा को ताउम्र शक रहा कि उस दिन यूं ही नहीं एम्बुलेंस का पेट्रोल खत्म हुआ था. बल्कि ये शायद कोई साजिश थी.

जिन्ना का इलाज कर रहे डॉक्टरों का रवैया उन्हें लेकर बहुत ढुलमुल था. जिन्ना के डॉक्टरों को पता था कि उनकी तबीयत बहुत खराब है. टीबी की बात पता चलने से पहले भी जिन्ना को सांस लेने में परेशानी हो रही थी. अक्सर वो बेदम होने तक खांसते रहते. फिर भी डॉक्टरों ने उन्हें क्वेटा जाने की सलाह दी. ये कहकर कि क्वेटा का मौसम उनके लिए बेहतर होगा. फिर उन्हें क्वेटा से जियारत भेज दिया गया. ये कहकर कि जियारत का ठंडा मौसम उन्हें रास आएगा. जिन्ना को सिल्क का पाजामा पहनकर सोने की आदत थी. वो रात भर बिस्तर में कांपते-ठिठुरते रहते. ठंड में जिन्ना की टीबी की बीमारी और बढ़ गई. निमोनिया भी हो गया उन्हें. इन्फेक्शन बहुत बढ़ गया. फिर उन्हें क्वेटा लाया गया. फिर कुछ दिन बाद कराची लाया गया. इतनी बुरी हालत में की गई इतनी यात्राओं ने उनकी तबीयत को और बिगाड़ा. क्वेटा में रहने के दौरान कई हफ्तों से बिस्तर पर पड़े रहने के बाद उनकी तबीयत में मामूली सुधार हो रहा था. लेकिन डॉक्टरों की सलाह इस दौरान भी हैरान करने वाली थी.

मसलन फातिमा जिन्ना अपनी किताब में बताती हैं कि एक बार जिन्ना ने अपने डॉक्टर से पूछा- डॉक्टर, मुझे सिगरेट पीना पसंद है. मैंने कई दिन से सिगरेट नहीं पी है. क्या मैं अब स्मोक कर सकता हूं? डॉक्टर इलाही बख्श ने भरोसा दिलाने के अंदाज में कहा- जी सर, अभी दिनभर में एक सिगरेट पीने से शुरू कीजिए. मगर धुआं अंदर मत लीजिएगा.

जिन्ना का अंतिम संस्कार दो बार क्यों? 

जिन्ना के शरीर से खिलवाड़ किया गया लेकिन इससे भी बड़ा खिलवाड़ जिन्ना की पहचान. उनकी शख्सियत के साथ हुआ. जिन्ना की शख्सियत में एक विरोधाभास था. जब तक पाकिस्तान नहीं बना, जिन्ना मुसलमान-मुसलमान की रट लगाते नहीं थकते थे. पाकिस्तान का आइडिया ही यही था कि हिंदुओं और मुसलमानों का एक साथ निभना नामुमकिन है. लेकिन फिर जब पाकिस्तान बन गया, तब जिन्ना को धार्मिक कट्टरपन सताने लगा. जिन्ना खुद कभी धार्मिक नहीं रहे. उन्हें पारसी रतनबाई से इश्क हुआ. वो सूअर का मांस खाते थे. जो कि मुसलमानों के लिए हराम समझा जाता है. शराब पीते थे. कहते हैं कि उन्होंने कभी पाबंदी से पांच वक्त की नमाज तक नहीं पढ़ी. जिन्ना के दोहरेपन की एक झलक 11 अगस्त, 1947 को दिए गए उनके भाषण में भी दिखती है. वहां बोलते हुए जिन्ना ने कहा था-

“आप आजाद हैं. आप अपने मंदिरों में जाने के लिए आजाद हैं. आप अपनी मस्जिदों में जाने को आजाद हैं. इस मुल्क में आप अपनी इबादत की मनचाही जगह जाने को आजाद हैं. आप किसी भी धर्म के हो सकते हैं. किसी भी जाति, किसी भी संप्रदाय के हो सकते हैं. आपके मजहब का, आपकी जाति का या फिर आपके संप्रदाय का सरकार के कामकाज से कोई लेना-देना नहीं. पाकिस्तान की नजर में उसका हर नागरिक बराबर है.”

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जिन्ना के पूर्वज गुजरात में राजकोट ज़िले के पानेली मोटी गांव के रहने वाले थे  (तस्वीर: getty)

जिन्ना के कद के कारण उनकी इस बात को कोई काट नहीं सकता था. लेकिन अंदर की असलियत ये थी इस भाषण ने मुस्लिम लीग को पसीना-पसीना कर दिया था. इस भाषण के बाद कराची में प्रेस को निर्देश दिया गया कि जिन्ना के भाषण का ये अंश न छापे. मुस्लिम लीग के नेता किसी हालत में नहीं चाहते थे कि जिन्ना की विचारधारा के सेक्युलर हिस्से को कहीं कोई प्रचार-प्रसार मिले. इसके लिए मुस्लिम लीग ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. जिन्ना की मौत के बाद भी ये कोशिश चलती रही. ये बात कि जिन्ना शराब पीते थे और सूअर का मांस खाते थे, छुपाने की कोशिश की गई. आगे चलकर ज़ियाउल हक ने तो ये तक साबित करने की कोशिश की कि 11 अगस्त को भाषण देते वक्त जिन्ना अपने होशो-हवास में नहीं थे. कहते हैं कि पाकिस्तान सरकार ने एक बार दीना वाडिया (जिन्ना की बेटी) से संपर्क किया था. दीना न्यूयॉर्क में रहती थीं. उनसे कहा गया कि वो ये बात कहें कि उनके पिता ने कभी शराब नहीं पी. कभी हैम (पोर्क) नहीं खाया. ये भी किस्सा ही है कि दीना वाडिया ने ये कहने से इनकार कर दिया था. कहते हैं कि दीना के इनकार करने पर पाकिस्तानी हुकूमत की ओर से उन्हें धमकाया गया था. कहा गया था कि वो किसी से भी इस बात का जिक्र न करें.

जिन्ना शिया थे. उनके दादा काठियावाड़ी हिंदू थे. नाम था- पूंजा गोकुलदास मेघजी ठक्कर. उन्होंने धर्म बदला था. मुसलमान हो गए थे. इस्माइली एक सेक्ट है इस्लाम में. मुसलमानों की सबसे सताई हुई कौमों में से एक. ज्यादातर मुसलमान इनको मुसलमान ही नहीं मानते. गुजरात में इसका बहुत असर था पहले. मतलब उस दौर में जिसकी हम बात कर रहे हैं. उधर ही शुरू हुआ था ये. जिन्ना के दादा इस्माइली हो गए थे. बाद में जिन्ना ने शिया इस्लाम कबूल किया. लेकिन जिन्ना का शिया होना पाकिस्तानी हुकूमत और मुस्लिम लीग के लिए शर्मिंदगी की बात थी. जब तक पाकिस्तान बनने का संघर्ष चला, तब तक इस बात ने ज्यादा सिर नहीं उठाया. लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद जिन्ना का शिया होना कइयों को पाकिस्तान की शान में बट्टा लगने लगा.

जिन्ना की शिया पहचान को छुपाने के प्रयास हुए. मौत के बाद जिन्ना का अंतिम संस्कार दो अलग तरीकों से हुआ. एक, जो उनकी बहन फातिमा जिन्ना ने करवाया. दूसरा, जो पाकिस्तानी हुकूमत ने किया. पहले फातिमा और चंद करीबियों ने मिलकर चुपके-चुपके शिया रवायतों के मुताबिक उनका अंतिम संस्कार किया. जिन्ना की लाश को गुसल करवाया गया. फिर गवर्नर जनरल के उसी बंगले में, जहां जिन्ना ने आखिरी सांस ली थी, उनका नमाज-ए-जनाजा पढ़ा गया. उस वक्त उस कमरे के भीतर बस तीन-चार शिया ही मौजूद थे. लियाकत अली खान चूंकि सुन्नी थे, सो कमरे के बाहर खड़े थे. शिया तौर-तरीकों से अंतिम संस्कार की ये रस्में अदा करने के बाद फातिमा ने जिन्ना की लाश पाकिस्तान सरकार के सुपुर्द कर दी. पाकिस्तानी हुकूमत इतिहास से, लोगों के दिमाग से ये याद खुरचकर फेंक देना चाहती थी कि जिन्ना शिया थे. इसीलिए आधिकारिक कार्यक्रम में राजकीय सम्मान के साथ जिन्ना की अंतिम विदाई हुई. मगर सुन्नी रवायतों के मुताबिक मरने वाला क्या था, किसमें यकीन रखता था, इस बात का भी ध्यान नहीं रखा गया.

जिन्ना बन गए थे गले की फांस 

जिन्ना को भारत में जिस भी नज़र से देखा जाता हो. पाकिस्तान के लिए वो सबसे बड़े नेता हैं. जिन्ना ने पाकिस्तान बनाने के लिए जी जान लगा दिया. अपना प्यारा बम्बई छोड़ दिया. घर छोड़ दिया. और पाकिस्तान बनने के बाद भी जो हो सकता था, करते रहे. यहां तक कि तराजू पर तुल गए. कलात के राजा ने पाकिस्तान के लिए फंड दिया. कहा, जितना जिन्ना का वजन है, उतना ही सोना दान देंगे. दुबले-पतले जिन्ना का वजन निकला 40 किलो. कलात के ख़ान ने 40 किलो सोना दान दे दिया. फिर फातिमा जिन्ना को तराजू पर बैठाया गया. कलात की रानी ने फातिमा को एक हार दिया. जिसकी कीमत उस जमाने में 10 लाख रुपये थी.

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जिन्ना का अंतिम संस्कार दो अलग तरीकों से हुआ. एक, जो उनकी बहन फातिमा जिन्ना ने करवाया. दूसरा, जो पाकिस्तानी हुकूमत ने किया (तस्वीर: getty)

बदले में जिन्ना के साथ क्या सुलूक हुआ? जिन्ना को मरने के बाद कायदे आजम' का खिताब दे दिया. नोटों पर छाप दिया. चौराहे बनवा दिए. इमारतों का नाम उनके नाम पर रख दिया. लेकिन जिन्ना को अपनाया नहीं. जिन्ना अपने एक भाषण में कहते हैं,

पाकिस्तान भले ही एक 'इस्लामिक रिपब्लिक' हो, लेकिन हमने बस मुसलमानों के लिए नहीं बनाया है पाकिस्तान. पाकिस्तान ऐसा मुल्क होगा, जहां सबके बराबर अधिकार होंगे. जहां मजहब देखकर या आपकी चमड़ी का रंग देखकर या आपकी आर्थिक स्थिति देखकर आपके साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा. यहां सबके समान अधिकार होंगे. अल्पसंख्यकों को अपने धार्मिक तौर-तरीके मानने, उनके मुताबिक जीने की पूरी छूट होगी.

इसके बरक्स जिन्ना के बाद पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ जो सुलूक हुआ, वो सबके सामने हैं. बकाया पाकिस्तान के हुक्मरानों ने सरकार द्वारा धार्मिक पक्षपात को सही ठहराने के लिए जिन्ना के नाम का बखूबी इस्तेमाल किया. जियाउल हक के वक्त में सरकारी मीडिया में जिन्ना के सिर्फ वही बयान छपते थे, जिनमें इस्लाम का जिक्र होता. जिन्ना की एक तस्वीर, जो 1944 में बनाई गई थी, कराची एयरपोर्ट पर लगी रहती थी. इस तस्वीर में जिन्ना सूटबूट पहने हुए थे. लेकिन जिया उल हक के कार्यकाल में इसे हटाकर एक ऐसी तस्वीर लगा दी गई, जिसमें जिन्ना ने शेरवानी पहन रखी थी.

ये जिन्ना की शख्सियत के एक जरूरी हिस्से को नकारना था. पकिस्तान ने अपने सबसे बड़े नेता को एक कैरिकेचर बनाकर रख दिया. हालांकि इसमें जिन्ना की अपनी गलती भी थी. जो धार्मिक अलगाव उन्होंने अपनाया, अंत में वो खुद भी उसके शिकार बने. बाद में उनकी बहन फातिमा जिन्ना के साथ भी ऐसा ही सुलूक हुआ. जिन्ना की मौत के करीब 16 साल बाद, जुलाई 1965 की बात है. आबिदा हुसैन नाम की एक महिला फातिमा से मिलने आईं. फातिमा ने उनसे कहा- “अगर मेरे भाई को पता होता कि ये सब होगा, तो क्या उन्होंने पाकिस्तान बनवाने के लिए इतनी कड़ी मेहनत की होती? क्या वो ऐसा देश बनाना चाहते, जिसके पास अपना संविधान तक न हो? जहां न्याय न हो? जहां माहिर चापलूस ताकतवर बन बैठे हों और ईमानदार-इज्जतदार लोग पीछे छूट जाएं? अगर पाकिस्तान को ऐसा ही बनना था, तो फिर पाकिस्तान बनाना एक गलती थी.”

वीडियो: तारीख: भारत-पाकिस्तान बंटवारे के वक्त करेंसी को लेकर क्या तय हुआ?