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कौन हैं बदरुद्दीन अजमल, जिनका रिश्ता आर्मी चीफ बांग्लादेशी घुसपैठियों से बताते हैं

नेता, बिजनेसमैन या अपना थूक मिला पानी पिलाने वाले पीर?

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आर्मी चीफ बिपिन रावत को किसी एक खास पार्टी या नेता पर टिप्पणी करने से बचना चाहिए था. जब सेना या इससे जुड़ा कोई शख्स, खासतौर पर खुद सेना प्रमुख कोई राजनैतिक बयान दें, तो इससे एक गैरजरूरी विवाद पैदा होता है. कहीं न कहीं ऐसा लगता है कि सेना किसी का साइड ले रही है और किसी के खिलाफ उंगली उठा रही है.
बहुत जल्द तरुण गोगोई मर जाएगा. इंशाअल्लाह. मैं उसके श्राद्ध का भोज जरूर खाऊंगा.                                                                                                  : मौलाना बदरुद्दीन अजमल
आपने महापुरुषों की कही बातों को इसी शैली में पढ़ा होगा. एक लाइन. और उस महापुरुष का नाम. शैली देखकर धोखा मत खाइएगा. मौलाना बदरुद्दीन अजमल महापुरुष नहीं हैं. महापुरुष वैसे भी यूं किसी के मरने की दुआएं नहीं मांगते. कहावत है कि कौआ मेंढक को देखकर मन ही मन सोचता है. काश मेंढक मर जाए और मुझे खाना मिले. ऊपर लिखी लाइन उसी कौए की याद दिलाती है.
पीर, जो अपने थूक मिले पानी से लोगों का इलाज करता है सवाल है, कौन हैं ये मौलाना? जवाब है- बहुत कुछ हैं. नेता हैं. कारोबारी हैं. मौलाना हैं. कई लोग उन्हें पीर कहते हैं. पीर, यानी गुरु. जो धर्म की राह दिखाए. और वो क्या करते हैं? उनके कई कामों में से एक अपने समर्थकों को 'चमत्कारी पानी' देना भी है. समर्थक कहते हैं कि ये पानी कोई भी बीमारी ठीक कर सकता है. इस पानी की खासियत है इसमें मिला अजमल का थूक. जिसको उनके समर्थक बड़ी श्रद्धा से पीते हैं. अजमल नरेंद्र मोदी को अपना 'बड़ा भाई' कहते हैं. सोनिया गांधी के खासमखास अहमद पटेल के साथ भी उनका बड़ा भला सा रिश्ता है. मगर कांग्रेस और बीजेपी, दोनों इनके विरोधी हैं. और क्या पहचान है इनकी? हालिया रेफरेंस तो ये है कि देश के सेना प्रमुख बांग्लादेश के रास्ते होने वाली घुसपैठ का जिक्र करते हुए अजमल का जिक्र कर देते हैं. आर्मी चीफ बिपिन रावत ने कहा कि असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के आने और बदरुद्दीन अजमल की पार्टी AIUDF के विस्तार का आपस में रिश्ता है. आपने सेना प्रमुख को नेताओं पर टिप्पणी करते हुए पहले कब सुना था? तरुण गोगोई ने सवाल किया था, नौ साल बाद जवाब मिला इस कहानी की शुरुआत करने के लिए तरुण गोगोई के जिक्र से बेहतर कुछ नहीं. ये 2006 की बात है.  असम के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के नेता तरुण गोगोई ने मजाक उड़ाने की अदा से एक शख्स के बारे में पूछा:
ये बदरुद्दीन अजमल कौन है?
और घड़ी घूमी. कैलेंडर पलटा. करीब नौ साल बीत गए. तारीख आई- 12 अप्रैल, 2015. नागांव के धिंग में एक जनसभा थी. एक बुजुर्ग दिखने वाला शख्स बोलने के लिए मंच पर खड़ा हुआ. और उसने सवाल किया:
ये तरुण गोगोई कौन है?
2009 में बदरुद्दीन अजमल पहली बार सांसद चुने गए. इस साल वो अपनी पार्टी के इकलौते सांसद थे.
2009 में बदरुद्दीन अजमल पहली बार सांसद चुने गए. इस साल वो अपनी पार्टी के इकलौते सांसद थे (फोटो: लोकसभा टीवी)

इतने कम वक्त में इतना आगे निकल गए ये सवाल करने वाले शख्स का नाम था मौलाना बदरुद्दीन अजमल. जिन तरुण गोगोई ने एक दिन अजमल को नकारा था, वो अपने करियर की निचली सीढ़ी उतर रहे थे. 1934 में पैदा हुए एक उम्रदराज नेता की पूरी जिंदगी, उसके सारे किए-धरे को इस एक सवाल ने फीका कर दिया. जुमा-जुमा 10 साल पहले राजनीति में आए एक शख्स ने इतने पुराने नेता को पीछे छोड़ दिया था.
बहुत भारी-भरकम सीवी है इस मौलाना की 12 फरवरी, 1950. मौलाना बदरुद्दीन अजमल की पैदाइश का दिन. जगह थी, गोपाल नगर. असम में एक जगह है- नागांव. वहीं. गुवाहाटी से पूरब की ओर करीब 170 किलोमीटर दूर है ये जगह. मां का नाम था मरियमउन्निसा. अब्बा थे अजमल अली. मौलाना शब्द सुनकर दिमाग में एक तस्वीर बन जाती है. ऊंचे पहुंचे का सफेद पजामा. कंधे पर चेक प्रिंट का तौलियानुमा कपड़ा. एक खास गोलाई में कटी दाढ़ी. मूंछों की जगह पर उस्तरा चला हुआ. सिर के ऊपर सफेद मुसलमानी टोपी. और शायद, मेहंदी से रंगे लाल बाल. ऐसा इंसान जो बस कुरान और हदीस की दुनिया में जीता हो. मौलाना बदरुद्दीन अजमल के जिक्र में इनमें से कई बातें सच हैं. कई सच नहीं हैं. मसलन- उनके कंधे पर रखा तौलिया अलग होता है. सफेद कपड़े पर लाल पार. असमी स्टाइल वाला. मौलाना सच में मौलाना हैं. उत्तर प्रदेश के देवबंद से पढ़ाई की. फाजिल-ए-देवबंद किया. यानी, इस्लामिक थिओलॉजी में एमए. दारुल उलूम से अरबी की पढ़ाई भी की. मगर इन डिग्रियों से उनके बारे में कोई राय मत बनाइएगा. क्योंकि अभी तो हमने उनके सीवी की शुरुआत भर की है.
बदरुद्दीन अजमल की राजनीति चाहे जो है, कहते वो खुद को सेक्युलर ही हैं.
बदरुद्दीन अजमल की राजनीति चाहे जो है, कहते वो खुद को सेक्युलर ही हैं.

दुनिया की सबसे आलीशान दुकानें इनका बनाया सेंट बेचती हैं दुबई का एक पता नोट कीजिए. फाइनैंशल सेंटर रोड, दुबई, यूनाइटेड अरब अमीरात. यहां एक आलीशान मॉल है. दुबई मॉल. मॉल के अंदर करीब 1,200 दुकानें हैं. लक्जरी में तर. इस अति-लक्जरी दुकान में आपको एक हिंदुस्तानी ब्रैंड का परफ्यूम भी मिलेगा. जिसकी गिनती दुनिया के सबसे आलीशन परफ्यूम ब्रैंड्स में होती है. ये ब्रैंड है अजमल ग्रुप ऑफ कंपनीज. जिसके मालिक हैं मौलाना बदरुद्दीन अजमल. दुबई इकलौती जगह नहीं. पैरिस, एम्सटर्डम जैसी जगहों पर भी जो अति-लक्जरी दुकानें हैं, वहां भी आपको मौलाना की कंपनी का बनाया परफ्यूम मिल जाएगा.
बहुत लंबा-चौड़ा बिजनस है, इतनी तो कंपनियां हैं मौलाना के कई कारोबारों में एक कारोबार परफ्यूम का भी है. 2,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का धंधा है उनके इस परफ्यूम बिजनस का. उनका ये बिजनस दुनिया के सबसे बड़े परफ्यूम बिजनस में से एक है. रियल एस्टेट में भी उनका काम है. उनकी कंपनी 'अजमल एस्टेट्स ऐंड प्रॉपर्टीज प्राइवेट लिमिटेड' इसी फील्ड में है. एक और कंपनी- अंसा हाउसिंग ऐंड डिवेलपमेंट प्राइवेट लिमिटेड लक्जरी अपार्टमेंट्स बनाती है. मगर उनकी जायदाद का ये फुल स्टॉप नहीं है. एक और कंपनी है- सिराज रियल एस्टेट्स प्राइवेट लिमिटेड. फिर एक है फ्लावर वैली परफ्यूम्स प्राइवेट लिमिटेड. फिर एक है अजमल फ्रेगरेंसेज ऐंड फैशन्स प्राइवेट लिमिटेड. एक है अजमल होल्डिंग ऐंड इनवेस्टमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड. एक है बेलेजा, एन्टरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड. फिर एक है, हैपी नेस्ट डिवेलपर्स प्राइवेट लिमिटेड. एक है- हैपी नेस्ट लेज़र इन इंडिया प्राइवेट लिमिटेड. एक है- अल-माजिद डिस्टिलेशन ऐंड प्रॉसेसिंग प्राइवेट लिमिटेड. एक और है- फ्लावर वैली अग्रो-टेक प्राइवेट लिमिटेड. सोनारगांव प्रॉजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड. अजमल बायेटेक प्राइवेट लिमिटेड. टेक्सटाइल, चमड़ा, हेल्थकेयर, एजुकेशन इन सबमें भी खूब लंबा-चौड़ा कारोबार है मौलाना का.
पूरा शहर खरीद रखा है जैसे नागांव में एक जगह है. होजाई. करीब 40,000 की आबादी का शहर. यहीं पर रहते हैं अजमल. समझिए कि ये पूरा शहर उनका ही है. आपको यहां चप्पे-चप्पे पर अजमल परिवार के निशान मिलेंगे. कहीं पोस्टर लगा है. कहीं होर्डिंग्स लगे हैं. कहीं स्कूल है. कहीं कॉलेज है. कहीं अस्पताल है. कहीं मदरसा है. कहीं बाजार है. कहीं इमारतें हैं. और इसी शहर में है अजमल एस्टेट. एक आलीशान अहाता. इस अहाते के अंदर एक महल है.
इतने बड़े महल का मालिक आप कितना भी मॉडेस्ट बनना चाहें, मगर इस महल को घर नहीं कह सकते. महलनुमा घर भी नहीं चलेगा. ये सच में किसी किले जैसा है. एक जगह अलग-अलग रंगों और कंपनियों की आलीशान कारें लगी दिखेंगी आपको. इसको कारों का 'बंदरगाह' मान लीजिए. एक बड़ा सा तालाब है. जहां मछलियां पाली जाती हैं. असम की ज्यादातर आबादी को मछली खाने की आदत है. सो ये तालाब खास महल की रसोई में मछलियों की सप्लाई के लिए है. एक बहुत बड़ा बाग भी है इस अहाते में. देखने में ऐसा लगता है मानो किसी फौज का खेमा गाड़ने की जगह हो. ये महल दर्जनों लोगों को रोजगार देता है. आपको किसी भी वक्त इसके अंदर कर्मचारियों की एक फौज नजर आ जाएगी. कोई बाग में ड्यूटी कर रहा है. कोई रसोई में तैनात है. किसी के हिस्से सफाई का काम आया है. कोई मेहमानों की आवभगत में लगा है. मौलाना बदरुद्दीन अजमल से मिलने यहां रोजाना इतने लोग आते हैं कि कई कर्मचारियों को बस इन आने-जाने वालों को चाय-पानी देने के वास्ते नौकरी मिली हुई है.
मस्कट के ग्रैंड मॉल में बिक्री के लिए रखा अजमल परफ्यूम.
मस्कट के ग्रैंड मॉल में बिक्री के लिए रखा अजमल परफ्यूम.

दुनिया की सबसे बेहतरीन परफ्यूम्स में शुमार है इनका ब्रैंड होजाई शहर के पास ही एक जंगलनुमा जगह है. यहां अगर के पेड़ लगे हैं. अगर का इस्तेमाल परफ्यूम बनाने में होता है. सबसे उम्दा किस्म के परफ्यूम बनाने में. यूरोप के सबसे बेहतरीन परफ्यूमरीज अगर को खोजते रहते हैं. बदरुद्दीन अजमल तो खुद वर्ल्ड क्लास परफ्यूम्स बनाते हैं. तो उनमें इस्तेमाल होने वाला अगर भी उनके ही बागों से आता है. मगर बदरुद्दीन अजमल का जिक्र उनके बिजनस की वजह से नहीं है. वो राजनीति के खिलाड़ी हैं. और आज की तारीख में उनकी सबसे बड़ी पहचान यही है.
और अजमल असम में गेम-मेकर बन गए ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रैटिक फ्रंट. शॉर्ट में AIUDF. 2005 में इसी पार्टी को बनाकर बदरुद्दीन अजमल राजनीति में घुसे थे. असम में हर किसी की अलग राजनीति है. जैसे बीजेपी. उसकी राजनीति है बांग्लादेश से आए अवैध शरणार्थियों को बाहर निकालो. ऐसे ही AIUDF की राजनीति के केंद्र में हैं बांग्लादेश से आए मुस्लिम शरणार्थी. यानी, बदरुद्दीन अजमल का 'टारगेट वोटर'. अपनी पैदाइश के नौ साल के भीतर-भीतर बदरुद्दीन अजमल की पार्टी कांग्रेस की बराबरी में आ गई. और अजमल गेम-मेकर कहे जाने लगे.
ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रैटिक फ्रंट (AIUDF) के समर्थक एक चुनावी रैली के दौरान.
ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रैटिक फ्रंट (AIUDF) के समर्थक एक चुनावी रैली के दौरान.

असम की टॉप-5 पार्टियों में शामिल है असम में पांच बड़ी पार्टियां हैं. बीजेपी. कांग्रेस. असम गण परिषद. बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट. और AIUDF. सबके अपने-अपने टारगेट वोटर हैं. असम गण परिषद और बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट, दोनों का गठन 1985 में हुआ. असम गण परिषद असम मूवमेंट की संतान है. वो पार्टी, जिसने बाहरियों की नाक में दम कर दिया. जिसने असम के अंदर असमिया लोगों का सिक्का सबसे मजबूत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. इसी चक्कर में उसने 1985 का चुनाव भी जीता था. प्रफुल्ल महंता के नेतृत्व में. फिर 1996 का चुनाव भी जीता. मगर इसके बाद सिमटती चली गई. BPF, जैसा कि नाम से जाहिर है, बोडो समुदाय के दम पर है. असम की कुल आबादी में करीब 12 फीसद हिस्सा इसी समुदाय का है. बाकी बचे कांग्रेस और बीजेपी. उनको तो आप जानते ही हैं. AIUDF सबसे नई पार्टी है. बावजूद इसके इसने इतनी तेजी से तरक्की की है. 2005 में बनने के करीब छह महीने बाद अजमल की पार्टी ने राज्य में अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़ा. और बात ही बात में 10 सीटें भी निकाल लीं. उसी चुनाव से अजमल की राजनैतिक पारी शुरू हुई. कोई चांस नहीं लेना चाहते थे. सो दो सीटों पर लड़े. दक्षिणी सलमारा. और जमुनामुख. दोनों से जीत गए.
धुबरी सीट: जहां अजमल का गढ़ है 2009 में अजमल ने लोकसभा चुनाव लड़ा. लोकसभा पहुंचे. उनकी सीट थी धुबरी. उस साल ये उनकी पार्टी को मिली इकलौती सीट थी. धुबरी असम के पश्चिमी छोर पर है. इसके पास ही वो जगह है, जहां ब्रह्मपुत्र भारत की सरहद से बाहर निकलकर बांग्लादेश में दाखिल होती है. सोचिए. अजमल की राजनीति के हिसाब से क्या अजीब विरोधाभास है. सीट ऐसी जहां से ब्रह्मपुत्र भारत से बाहर जाती है. और राजनीति ऐसी, जो बांग्लादेश से भारत आए अवैध शरणार्थियों के लिए लड़ती है. यहां ज्यादातर आबादी बंगाली मुसलमानों की ही है. 2011 की जनगणना के मुताबिक, धुबरी की करीब 80 फीसद आबादी मुस्लिम है. उन्हें लगता है कि बोडो चरमपंथियों से बचाने को अजमल ही काम आएंगे. ये भी कि अजमल ही हैं, जो उनके फायदे के लिए हाथ-पैर मारेंगे. उनके इस डर को अजमल ने अपना हथियार भी बनाया है. विरोधियों का आरोप है कि AIUDF असम में सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ रही है. चरमपंथ को बढ़ावा दे रही है.
बांग्लादेश से आकर बस गए अवैध शरणार्थियों का मुद्दा नया नहीं है. न ही पूर्वी बंगाल से असम आने वाले मुसलमानों का चलन ही नया है.
बांग्लादेश से आकर बस गए अवैध शरणार्थियों का मुद्दा नया नहीं है. अंग्रेजों के समय से ही बड़ी संख्या में पूर्वी बंगाल से मुसलमान काम की तलाश में असम आते थे. 1930 के दशक से स्थानीय आबादी के बीच इसका विरोध जोर पकड़ने लगा.

एक ही मुद्दे के दो छोर पर हैं बीजेपी और AIUDF फिर आया 2011 का विधानसभा चुनाव. AIUDF को 18 सीटें मिलीं. उस साल बीजेपी के हिस्से में केवल पांच सीटें ही आई थीं. और शायद इसीलिए 2014 आते-आते बीजेपी को लगने लगा कि असम में उसका सबसे बड़ा मुकाबला कांग्रेस से नहीं है. बल्कि AIUDF से है. मौलाना बदरुद्दीन अजमल से है. इसीलिए बीजेपी ने 2016 के विधानसभा चुनाव की तैयारी बहुत फूंक-फूंककर की थी. सर्बानंद सोनोवाल को असम भेजा गया. सोनोवाल कभी असम गण परिषद के नेता थे. ऑल आसामा स्टूडेंट्स यूनियन के जुड़े हुए थे. उनका बांग्लादेश से आकर बसे अवैध शरणार्थियों के विरोध का लंबा अतीत रहा है.
इस गणित के हिसाब से बीजेपी और AIUDF एक ही समीकरण के दो छोर पर हैं. बीजेपी बंगाली बोलने वाले मुसलमानों (बांग्लादेशी शरणार्थियों) के खिलाफ है. और अजमल की पार्टी उनके साथ है. एक और बात भी ख्याल में रखनी चाहिए. कि असम में धर्म (हिंदू बनाम मुस्लिम) का मुकाबला उतना बड़ा नहीं. जितना भाषा (बंगाली बनाम असमी) का है. तभी तो बीजेपी यहां असमी बोलने वाले मुसलमानों को लुभाने की कोशिश करती है. और AIUDF भाषा की सरहद लांघकर सारे मुसलमानों को अपनी तरफ लाना चाहती है. वैसे एक बात जोड़ दें. असम की राजनीति कभी दो टीमों का खेल नहीं रही. यहां अलग-अलग पार्टियों की अलग-अलग पिच है. सबके खेलने की स्थितियां अलग-अलग हैं. यहां की राजनीति बिहार और उत्तर प्रदेश नहीं है. कि जाति और धर्म ही सबके माई-बाप बन जाएं.
सत्ताविरोधी लहर से कहीं ज्यादा फायदा इस अवैध शरणार्थियों के मुद्दे ने बीजेपी को फायदा पहुंचाया.
सत्ताविरोधी लहर से कहीं ज्यादा फायदा इस अवैध शरणार्थियों के मुद्दे ने बीजेपी को फायदा पहुंचाया.

गोगोई का कद घट गया, अजमल के बराबर आ गए 2014 के लोकसभा चुनाव में AIUDF की मार्कशीट और अच्छी थी. असम में कुल 14 लोकसभा सीटें हैं. इनमें से बीजेपी के हिस्से में गईं सात सीटें. कांग्रेस को तीन मिलीं. और AIUDF, जिसे बने तब 10 साल भी पूरे नहीं हुए थे, उसने भी कांग्रेस के बराबर तीन सीटें जीतीं. तब कांग्रेस के मुखिया थे तरुण गोगोई. इस लिहाज से अजमल ने अपना कद उठाकर गोगोई से बराबरी कर ली. ये भी कह सकते हैं कि गोगोई का कद घटकर अजमल के बराबर तक आ गया.
पिछले विधानसभा चुनाव का रिपोर्ट कार्ड 2016 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सबसे ज्यादा 55 सीटें मिलीं. कांग्रेस को 26 सीटें मिलीं. बीजेपी की सहयोगी पार्टियों- असम गण परिषद को 14 और बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट को 12 सीटें मिलीं. AIUDF ने कुल 74 सीटों पर चुनाव लड़ा. और 13 सीटें जीतीं. यानी, कांग्रेस से ठीक आधी सीटें. अजमल कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते थे. सो खुद भी चुनाव लड़े. दक्षिणी सलमारा सीट से. मगर हार गए. कांग्रेस के वाजिद अली चौधरी ने उन्हें हरा दिया. सीटें भी 18 से घटकर 13 पर पहुंच गईं. कहां तो अजमल 30-35 सीटें जीतने की बातें कर रहे थे. कह रहे थे कि उनके सपोर्ट के बिना कोई सरकार नहीं बन सकेगी. मगर ये सब नहीं हुआ. तो क्या ये मान लिया जाए कि अजमल का असर कम हो रहा है? ये बड़ी ट्रिकी सिचुएशन है. क्योंकि अजमल के केस में सीटें कम होने का मतलब ये कतई नहीं है कि उनका असर खत्म हो रहा है. अगर ऐसा होता, तो चुनाव बाद AIUDF का इतना चर्चा न होता. आपने भैंस की पीठ पर बैठे कौए को देखा है. वो वहीं से भोजन पाता है. दोनों के बीच एक अंडरस्टैडिंग होती है. दोनों को पता है, वो एक-दूसरे को मिलेंगे. AIUDF और असम का फिलहाल ऐसा ही है. अजमल को जो चाहिए, वो असम में खूब है. उनके सामने चुनौती ये है कि उनको अपना दायरा बढ़ाना होगा. क्योंकि कॉम्पीटिशन बढ़ गया है.
अजमल ने अपने भाषणों में कई बार तरुण गोगोई को निशाना बनाया. उनका कहना था कि जब तक असम में कांग्रेस की कमान गोगोई के हाथों में है, तब तक कांग्रेस
अजमल ने अपने भाषणों में कई बार तरुण गोगोई को निशाना बनाया. उनका कहना था कि जब तक असम में कांग्रेस की कमान गोगोई के हाथों में है, तब तक कांग्रेस खड़ी नहीं हो सकती.

AIUDF ने सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को पहुंचाया असम की कुल आबादी में करीब 34 फीसद हिस्सा मुसलमानों का है. एक वक्त था जब ये वोट कांग्रेस के पास था. मगर बीते सालों में ये धड़ा कांग्रेस से छिटक गया है. इसकी एक वजह बेशक 15 सालों तक चला उनका शासन है. इतने लंबे शासन के बाद सत्ता-विरोधी लहर दिखे, तो स्वाभाविक है. मगर इस वोट शेयर के छिटकने की एक और वजह है. वो है असम की राजनीति पर हावी हो चुके अवैध बांग्लादेशियों का मुद्दा. इनके खिलाफ जितने लोग हैं, उनके एक बड़े धड़े को बीजेपी ने कैश कर लिया. दूसरी तरफ वाले वोटों को कैश करने के लिए AIUDF आ गई. उसने कांग्रेस का वोट काटा. असम में जो ध्रुवीकरण हुआ, उसका सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही हुआ.
'हमारा मुकाबला कांग्रेस से नहीं, अजमल की पार्टी से है' हेमांता बिस्वा शर्मा. पहले कांग्रेस के मुख्य चुनाव प्रबंधक हुआ करते थे. फिर कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आ गए. उनके आने के बाद लोग कहने लगे कि 2016 का विधानसभा चुनाव असल में अजमल और हेमंता के बीच का मुकाबला है. हेमंता ने कहा भी था:
बीजेपी असम में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी. और AIUDF दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनेगी. हमारा सबसे बड़ा मुकाबला अजमल से है. न कि कांग्रेस से.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल. सोनोवाल छात्र राजनीति के दौर से ही अवैध बांग्लादेशी शरणार्थियों को असम से निकालने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल. सोनोवाल छात्र राजनीति के दौर से ही अवैध बांग्लादेशी शरणार्थियों को असम से निकालने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

कांग्रेस की गलतियां, अजमल का फायदा सोचिए. बस 10 साल की राजनीति में अजमल ने अपना कद कितना बढ़ा लिया था. इसकी कई वजहें थीं. कुछ ऐसी वजहें भी, जो किस्मत से हुईं. जैसे ये मामला. 2005 में जब अजमल ने अपनी पार्टी बनाई, उसी साल सुप्रीम कोर्ट ने विवादित IMDT ऐक्ट (इलिगल माइग्रेंट्स डिटरमिनेशन बाय ट्रायब्यूनल) को हटा दिया. सर्बानंद सोनोवाल ने अपने छात्र संगठन के दिनों से ही इस केस पर बड़ी मेहनत की थी. ये ऐक्ट अवैध बांग्लादेशी शरणार्थियों के बचाव का सबसे बड़ा आधार था. कहते हैं कि इसकी ही वजह से असम के अंदर मुस्लिम आबादी बहुत तेजी से बढ़ी. सर्बानंद सोनोवाल ने इस ऐक्ट को चुनौती दी. उन्हें जीत मिली. और सुप्रीम कोर्ट ने इसे खत्म कर दिया. असम की मुस्लिम आबादी के बीच कांग्रेस की मजबूती का एक बड़ा कारण ये कानून था. 1983 में, अपनी हत्या के एक साल पहले इंदिरा गांधी सरकार ने इसे संसद में पास करवाया था. सोनोवाल को मिली जीत का सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को हुआ. और फायदा? AIUDF को.
बंगाली मुसलमान कांग्रेस से छिटक गए फिर 2011 में तरुण गोगोई ने कहा कि वो हिंदू शरणार्थियों को हिफाजत करेंगे. यानी, शरणार्थियों में भी बंटवारा हो गया. कांग्रेस ने हिंदू शरणार्थियों का जिक्र करके खुद को उनके साथ खड़ा कर लिया. मुस्लिम शरणार्थी दूसरी तरफ हो गए. इस बंटवारे का फायदा मिला अजमल की पार्टी को. जो खुद को मुस्लिम शरणार्थियों की सबसे बड़ी हितैषी साबित करने पर तुली थी. शायद इसीलिए 2006 विधानसभा चुनाव में मिली 10 सीटों के मुकाबले 2011 के विधानसभा चुनाव में AIUDF को 18 सीटें मिलीं. ये सारी सीटें ऐसी थीं, जहां बंगाली बोलने वाली मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक थी.
असम में बहुत पुराना है शरणार्थियों का मुद्दा ऐसा नहीं कि असम में रहने वाले बांग्ला-भाषी सारे मुसलमान 1971 की लड़ाई के समय या फिर इसके बाद के सालों में यहां आए. अंग्रेजों के जमाने में भी बड़ी संख्या में लोग यहां आए. ज्यादातर मजदूरी की तलाश में आए थे. 1930 के दौर में बाहरियों का मुद्दा जोर पकड़ने लगा. स्थानीय लोग पूर्वी बंगाल से आने वाले इन लोगों से चिढ़ने लगे. उन्हें डर था कि ये बाहरी लोग असम की ऑरिजिनल आबादी पर हावी हो जाएंगे. आजादी के बाद बाहरियों की ये बहस और उग्र हो गई. 1971 की लड़ाई के समय और इसके बाद के सालों में बहुत बड़े स्तर पर घुसपैठ हुई. लाखों लोग बांग्लादेश से पलायन करके असम आ गए. और यहीं बस गए. ये असम में एक बड़ा मुद्दा बना. इसे लेकर काफी हिंसा भी हुई. इसमें 1983 का नेल्ली नरसंहार भी शामिल है. स्थानीय आबादी ने विधानसभा चुनाव का बहिष्कार किया था. जबकि बंगाली बोलने वाले मुसलमान इस बहिष्कार का विरोध कर रहे थे. लोगों का गुस्सा भड़का और हजारों मुसलमान कत्ल कर दिए गए. इस तरह की घटनाएं समय-समय पर होती रहीं.
ये मरजीना बीवी हैं. गोपालगारा जिले में रहती हैं. पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया था. शक था कि वो बांग्लादेशी शरणार्थी हैं. जबकि मरजीना असमिया हैं. असमी बोलने वाले मुसलमान अक्सर इस गलतफहमी का शिकार होते हैं.
ये मरजीना बीवी हैं. गोपालगारा जिले में रहती हैं. पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया था. शक था कि वो बांग्लादेशी शरणार्थी हैं. जबकि मरजीना कहती हैं कि वो यहीं पैदा हुईं. असम ही उनका घर है.

राजनीति के लिए भाषा पकड़ी, अब बढ़कर धर्म पकड़ना चाहते हैं मगर अजमल बस बंगाली बोलने वाले शरणार्थियों के बूते आगे नहीं बढ़ सकते. उनका पहला लक्ष्य असम के सारे मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में मोड़ना है. उनका सबसे ज्यादा असर भी ऐसे ही इलाकों में है. खासतौर पर असम के गरीब मुस्लिम इलाकों में. जहां अजमल के कई खैराती संगठन गरीबों के लिए स्कूल, मदरसा, अस्पताल और अनाथालय चलाते हैं. अजमल धर्म का कार्ड खेलने का कोई मौका चूकते भी नहीं. लोग भले कहें कि AIUDF के नेता अपने इलाकों में काम नहीं कराते. मगर जिस घड़ी अजमल उनके सामने आ जाते हैं, उनकी बोलती बंद हो जाती है. अजमल को देखकर जैसे वो बाकी सारी चीजें भूल जाते हैं.
उनके कई विरोधी कहते हैं. कि नेता से तो लड़ा जा सकता है. मगर धर्म से कैसे लड़ें? अजमल की भी ये ही कोशिश है शायद. उन्होंने राजनीति शुरू करने के लिए भाषा को पकड़ा. अब वो धर्म को पकड़ना चाहते हैं. मगर पेच यहीं है. असम के मुस्लिम अगर शरणार्थी बंगाली मुसलमानों के साथ मिल गए, तो उन्हें बहुत नुकसान होगा. क्योंकि शरणार्थियों के ऊपर जो डिपोर्टेशन की जो तलवार लटक रही है, उसकी चपेट में वो भी आ सकते हैं. ये झगड़ा भाषा से आगे बढ़कर धर्म पर पहुंचा, तो असमिया मुसलमानों का बड़ा नुकसान होगा. उन्होंने वैसे भी इस वजह से बहुत झेला है. हिंदुस्तानी होते हुए भी वो बाहरी समझ लिए जाते हैं. बाहरी और भीतरी की इस बहसबाजी में एक बात बताना भूल ही गए. अजमल को बधाई दीजिए. वो इस देश की सबसे ताजा खानदानी पार्टी हैं. दोनों बेटे और भाई. वो खुद तो हैं ही हैं. परिवार वाली पार्टियों ने हिंदुस्तान में बहुत तरक्की की है. बहुत स्कोप है इसका यहां पर. इस पैमाने के हिसाब से देखें, तो अजमल और उनकी पार्टी का भविष्य बहुत ब्राइट लगता है.


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