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महाराष्ट्र की लोककला 'तमाशा', जिसे अगर बच्चे देखने की ज़िद करें तो मांएं कूट देती थीं

जिसे हमेशा अश्लील समझा गया, वो शान है मराठी लोककलाओं की.

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'नटरंग' फिल्म की मशहूर लावणी 'मला जाऊ दया न घरी' का एक दृश्य. (इमेज: यूट्यूब)
महाराष्ट्र का कोई भी एक गांव. नब्बे के दशक से पहले का कोई भी एक दिन. उबासी ले रही दोपहर का सन्नाटा कुछ गाड़ियों की आवाज़ से टूटता है. उन गाड़ियों के इंजन की आवाज़ को मात देती है लाउडस्पीकर की तेज़ आवाज़. सारा गांव यूं हड़बड़ाकर कर जागता है, जैसे किसी ने कंधों को पकड़कर झिंझोड़ दिया हो. लाउडस्पीकर पर हो रही अनाउंसमेंट जवान, बूढ़े, बच्चों में उत्तेजना की लहर दौड़ा देती है. गांव में 'तमाशा पार्टी' आई है. शाम गुलज़ार होने वाली है.
जहां एक ओर मर्द बिरादरी खुश है, वहीं औरतों के माथे पर बल पड़ गए हैं. उन्हें लगता है कि उनके पति/बेटे/भाई का पतन करने वाली आत्माओं ने हमला बोल दिया है. मर्दों पर बस तो चलता नहीं, इसलिए भुनभुनाते हुए ही सही, उनकी खाना जल्दी बना लेने जैसी सूचनाओं पर अमल करती रहती हैं. अपनी भड़ास उन बच्चों पर निकालती हैं, जो 'तमाशा' देखने जाने की ज़िद करने लगे हैं. उस शाम गांव में थोक के भाव में कूटे जाते हैं बच्चे.
मशहूर तमाशा आर्टिस्ट मालती ईनामदार का फड़.
मशहूर तमाशा आर्टिस्ट मालती ईनामदार का फड़.


शाम होते-होते सारी मर्द बिरादरी उधर का रुख कर लेती है, जिधर 'तमाशा पार्टी' का तम्बू गड़ा हुआ है. बच्चों के लिए जारी निषेधाज्ञा का जमकर उल्लंघन हो रहा है. एंट्री तो कर नहीं सकते तम्बू में, तो इधर-उधर से उचककर या परदे की झीरियों में से झांककर कुछ देख ले रहे हैं. ऐसा औना-पौना देखा हुआ कुछ, आनेवाले कई महीनों तक दोस्तों पर रौब झाड़ने के लिए पर्याप्त मसाला है.
उधर पुरुष बिरादरी अपनी-अपनी हैसियत का टिकट खरीदकर कुर्सियों पर या ज़मीन पर टिक चुकी है. खेल शुरू होता है और शाम रात में तब्दील होते-होते एक 'झिंगाट' मस्ती का दस्तावेज बन जाती है. अगले कुछ घंटों तक अगर कुछ नज़र आता है, तो सिर्फ हिलते हुए नारंगी रंग के फेटे (साफ़े), सीटियों का शोर, हवा में उछलते रुमाल और इन सबके साथ ताल से ताल मिलाती ढोलक, घुंगरु और अन्य वाद्ययंत्रों की आवाज़. यही है 'तमाशा', जिसे न जाने क्यों बरसों तक एक अश्लील लोककला समझा गया.
लावणी मराठी संगीत का सबसे आकर्षक हिस्सा है. (इमेज: सामना)
लावणी मराठी संगीत का सबसे आकर्षक हिस्सा है. (इमेज: सामना)


कहते हैं तमाशा शब्द तम (अंधेरा) और आशा को मिलाकर बना है. उदासियों के अंधेरों से आशाओं की तरफ ले जाने वाली लोककला. अश्लीलता का ठप्पा लगा होने के बावजूद इसने महाराष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत में अपनी खासुलखास जगह बनाई है. इतनी मज़बूत जगह कि अगर मराठी लोककलाओं में से तमाशा को निकाल दिया जाए, तो ऐसा लगेगा कि हज़ार पेज की किताब में सिर्फ 50 पेज ही बच गए हैं.

तमाशा को अश्लील क्यों माना गया?

तमाशा यूं तो डांस, संगीत, नाटक का पूरा पैकेज होता है लेकिन ज़्यादा ज़ोर लावणी पर ही होता है. या यूं कहिए दर्शकों का एक बड़ा - बहुत बड़ा - तबका सिर्फ लावणी देखने ही आता है. दिल को गुदगुदाते शब्द, कदमों को नाचने के लिए मजबूर करने वाला संगीत और नर्तकियों की अद्भुत डांसिंग शैली का मुकम्मल गुलदस्ता ही लावणी है. रंगबिरंगी, भड़कीली साड़ियों में सजी, गहनों से लदी, पैरों में मोटे-मोटे घुंघरू पहने नाचती औरतें. ये नृत्यांगनाएं अक्सर आमंत्रित करते अंदाज़ में लोगों को उकसाती हैं. लोग भी इन्हीं का डांस देखने पहुंचते हैं.
मोहकता और उत्तेजना का सुरेख संगम है लावणी. (इमेज सोर्स: यूट्यूब)
मोहकता और उत्तेजना का सुरेख संगम है लावणी. (इमेज सोर्स: यूट्यूब)


वैसे भी पब्लिक के सामने नाचती औरतों को बदचलन मानने का हमारे यहां रिवाज़ रहा है. तमाशा में काम करने वाली नटियों (एक्ट्रेस) के चक्कर में कई मर्द अपना घर-बार बरबाद कर चुके हैं. शायद इसी वजह से एक बड़ा वर्ग इसका तिरस्कार करता रहा. इस पर अश्लीलता के, हल्केपन के आरोप लगे.

तमाशा में क्या-क्या होता है?

तमाशा का हर एक शो अमूमन पांच हिस्सों में बंटा हुआ होता है. गण-गवळण, बतावणी, सवाल-जवाब, लावणी और वग.

गण-गवळण

तमाशा की शुरुआत हमेशा ईश्वर की आराधना से शुरू होती है. 'हम कला के कद्रदानों की सेवा करने के लिए तैयार हैं और हमें तेरा आशीर्वाद चाहिए' की सदा ईश्वर तक पहुंचाने के बाद ही तमाशा शुरू होता है. इसे गण कहते हैं. ये गणपति से आया है.
गवळण यानी ग्वालिन. श्रृंगार रस में कृष्ण की महिमा से भारतभूमि अंजान नहीं. और कृष्ण से ग्वालिनों के कनेक्शन से भी. ऐसी ही कुछ ग्वालिनों का एक जत्था मथुरा जा रहा है और कृष्ण और उसके दोस्त पेंदया ने उनका रास्ता रोका है. इन्हीं के बीच हुई नोंकझोंक गवळण के रूप में सामने आती है. इन ग्वालिनों के साथ एक बूढ़ी महिला भी हमेशा होती है, जिसे मावशी कहते हैं.
गण-गवळण पर बाद में ऑडियो कैसेट्स भी बनीं.
गण-गवळण पर बाद में ऑडियो कैसेट्स भी बनीं.

बतावणी

इसे थोड़े में समझना है तो सर्कस के विदूषक का एक्ट याद कर लीजिए. कोई भी एक मज़ेदार घटनाक्रम निर्माण कर के हास्य पैदा किया जाता है. डबल-मीनिंग संवाद और हावभावों से भरपूर बतावणी का सबसे अहम किरदार होता है 'नाच्या'. नाच्या उस शख्स को बोलते हैं जो थर्ड जेंडर के हावभाव लिए हुए होता है. हाथों को झटके दे-देकर बोलना, नाज़ुक मिजाज़ी दिखाना, अश्लील इशारे करना जैसे तमाम काम नाच्या के ही हिस्से आते हैं. इस सेक्शन का वो सेंटर अट्रैक्शन होता है.
कुछ साल पहले अतुल कुलकर्णी ने फिल्म 'नटरंग' में नाच्या की भूमिका बेहद शानदार ढंग से निभाई थी.
फिल्म 'नटरंग' में नाच्या की भूमिका निभाना अतुल कुलकर्णी अपने जीवन का सबसे बड़ा चैलेंज मानते हैं.
फिल्म 'नटरंग' में नाच्या की भूमिका निभाना अतुल कुलकर्णी अपने जीवन का सबसे बड़ा चैलेंज मानते हैं.

सवाल-जवाब

इसमें मुख्य महिला और पुरुष किरदारों के बीच शाब्दिक जुगलबंदी हुआ करती है. अक्सर इसमें एक-दूसरे के आगे पहेलियां रखी जाती हैं. संगीतमय पहेलियां. एक-दूसरे को नीचा दिखाती शाब्दिक नोंकझोंक भी होती है. हालांकि ये पूरी तरफ स्क्रिप्टेड होता है, लेकिन मजेदार होता है. कभी-कभी किसी बड़े आयोजन में तमाशा के कई फड़ (ग्रुप) मौजूद होते हैं, तो किन्हीं दो में सवाल-जवाब किया जाता है. उस स्थिति में मामला काफी गंभीर हो जाता है. दोनों तरफ के समर्थक इसे जीने-मरने का सवाल बना लेते हैं. सर-फुटव्वल की नौबत आने के भी कई उदाहरण हैं.
मशहूर मराठी फिल्म 'सवाल माझा ऐका' से एक सवाल-जवाब:

वग

वग तमाशा का सबसे ज़्यादा प्रभावित करने वाला हिस्सा है. ये दिखाता है कि कैसे लोककलाएं अपने अंदर संस्कृति को, इतिहास को समुचित जगह दिए हुए हैं. इस हिस्से में मुख्यतः एक लघु-नाटिका होती है. तमाशा के शुरुआती दिनों में ये अक्सर पौराणिक कथाओं पर आधारित हुआ करती थीं. वक्त बीतते-बीतते इसमें सामाजिक विषयों को चुना जाने लगा. समाज की कुरीतियों को नाटक के रूप में पेश किया जाने लगा. जल्द ही वग तमाशा का अहम हिस्सा बन गया. कितने ही शाहीर (मोटे रूप से लेखक) हुए मराठी में जिन्होंने एक से बढ़कर एक वग लिखे.
एक 'नाच्या' के एक्ट का ये वीडियो देखकर आनंद लीजिए:

लावणी (या रंगबाज़ी)

तमाशा का वो हिस्सा, जिससे वो उत्तेजना क्रिएट होती थी जिसका ज़िक्र इस आर्टिकल की भूमिका में किया गया है. लावणी के लिए पागल दर्शकों के सामने एक से एक उम्दा गीतों पर नाचती लड़कियां. लावणी कोई भी रैंडम गीत नहीं होता. हर एक शो में इनकी कोई तयशुदा थीम होती है. बल्कि पूरा तमाशा ही किसी एक फिक्स थीम पर चलता है. अच्छे, भावपूर्ण बोल और बेधुंद कर देने वाला नाच. उस तम्बू-कनात में भावनाओं की, उत्तेजनाओं की जैसे सुनामी उतर आती है.
लावणी पर झूम-झूम कर नाचती नृत्यांगनाएं. (इमेज: यूट्यूब)
लावणी पर झूम-झूम कर नाचती नृत्यांगनाएं. (इमेज: यूट्यूब)


लावणी की एक ख़ास बात है. दशकों से लावणी का अस्तित्व है लेकिन इसमें नाचने वाली महिलाओं का मुख्य परिधान आज भी साड़ी ही है. वक़्त के साथ बदला नहीं है. उत्तर भारत की मशहूर 'नौटंकियों' में कपड़ों का साइज़ भले ही कम होता गया हो और फूहड़ता की मात्रा ज़्यादा, लेकिन लावणी में आदिकाल से औरतें साड़ियां ही पहन रही हैं. साड़ी के पदर (पल्लू) को झटका देती नृत्यांगना से दर्शकगण आज भी ज़्यादा कनेक्शन महसूस करते हैं. इसलिए और भी हैरत होती है कि इस पर अश्लील होने का ठप्पा लगा.
हाल ही के दिनों में मशहूर हुई एक लावणी पर नज़र डालिए.

कुछ तमाशा फड़ तो अपने वक़्त में इतने मशहूर रहे थे कि सालभर उनका कैलेंडर फुल रहा करता था. मंगला बनसोड़े, दत्ता महाडिक, मालती ईनामदार, सुरेखा पुणेकर, काळू-बाळू लोकनाट्य तमाशा मंडल वो नाम हैं, जिन्हें महाराष्ट्र में बच्चा-बच्चा जानता है. बाद के दिनों में कुछ जाने-माने तमाशा कलावंतों ने अपनी लावणियों की कैसेट्स और सीडी भी निकालीं.
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फिल्मों में तमाशा

मराठी फिल्मों में तमाशा को भरपूर जगह मिली है. कितनी ही फ़िल्में हैं जिनमें तमाशा, उसकी गतिविधियां, उन कलाकारों का जीवन वगैरह पूरी शिद्दत से दिखाया गया है. ऐसी ही एक फिल्म है वी शांताराम की 'पिंज़रा'. डॉ. श्रीराम लागू और संध्या इसमें लीड किरदार थे. एक स्कूल मास्टर की एक तमाशा एक्ट्रेस के लिए आसक्ति और उससे उपजी विचित्र घटनाओं की श्रृंखला. अभिनय, संगीत और डायरेक्शन हर लिहाज़ से ये फिल्म एक मास्टरपीस है. इसे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था. हर सिनेमाप्रेमी की 'मस्ट वॉच' लिस्ट में होनी चाहिए ये फिल्म.
लिंक ये रहा:

इसके अलावा 'सांगत्ये ऐका', 'केला इशारा जाता-जाता', 'सवाल माझा ऐका' और रीसेंट हिट 'नटरंग' जैसी फ़िल्में हैं, जो इस लोककला को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करती हैं.

कुछ फेमस मराठी लावणियां जिन्होंने परदे पर आग लगा दी

सुलोचना चव्हाण, सत्यभामा पंढरपुरकर, यमुनाबाई वाईकर जैसे दिग्गज नाम हुए हैं लावणी गायिकी में. सुलोचना चव्हाण को तो लीजेंड माना जाता है. लता मंगेशकर, आशा भोंसले जैसी मशहूर गायिकाओं ने भी लावणी में हाथ आजमाए हैं. मराठी फिल्मों की मशहूर लावणियां अगर गिनवाने बैठे, तो घंटों बीत सकते हैं. हम आपको सिर्फ टॉप फाइव बताते हैं. खोज के सुनिएगा.
1. कसं काय पाटिल बरं हाय का? 2. कुण्या गावाचं आलं पाखरू 3. मला लागली कुणाची उचकी 4.दिसला ग बाई दिसला 5. फड़ सांभाळ तुर्याला ग आला
और एक बोनस के तौर पर मेरी फेवरेट लावणी. 1963 की फिल्म 'मराठा तितुका मेळवावा' फिल्म की ये लावणी आज आधी सदी बीत जाने के बाद भी उतनी ही फ्रेश लगती है.
सुनिए 'रेशमाच्या रेघांनी...'

ये  मराठा संस्कृति की प्रमुख पहचानों में से एक है. बिन लावणी, बिन तमाशा के मराठी माणूस की सांस्कृतिक विरासत अधूरी है. इधर इंटरनेट के बेतहाशा आक्रमण की मार इस लोककला पर भी पड़ी है. फड़ कम होने लगे हैं. डर है कि कहीं ये कला विलुप्त ही न हो जाए. वो वक़्त न ही आए ऐसी दुआ करनी ही होगी.


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