70 के दशक का शुरुआती साल. देश भर में एक बड़ी हड़ताल की सुगबुगाहट चल रही थी. काम के घंटे तय करने और बेहतर तनख्वाह को लेकर रेलवे कर्मचारियों में भीतर ही भीतर असंतोष पल रहा था. नाराजगी का गुस्सा फूटा- साल 1974 के मई महीने में. करीब 17 लाख रेलवे कर्मचारी हड़ताल पर चले गए. जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में. करीब तीन हफ्ते तक देश भर में एक भी ट्रेन ठीक से नहीं चल पाई. प्रोटेस्ट बहुत लंबा नहीं चला, क्योंकि इंदिरा गांधी सरकार इसे कुचलने में कामयाब रही.
मालचा महल की बेगम की कहानी, जो 11 कुत्ते लेकर दिल्ली में घुसीं तो पूरी दुनिया में खलबली मच गई
बेगम विलायत ने पूरे देश को भ्रम में रखा. 10 साल तक दिल्ली रेलवे स्टेशन के एक कमरे में रहीं. फिर इंदिरा गांधी की सरकार ने उन्हें दिल्ली का Malcha Mahal दे दिया. इस कहानी में इतने ट्विस्ट और टर्न हैं कि आपका सिर घूम जाएगा. जब भी लगेगा कि कहानी अब खत्म हो गई, एक दूसरा सस्पेंस उभर आएगा.
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प्रोटेस्ट से कोई समाधान तो नहीं निकला. लेकिन इसका असर लंबे अरसे तक रहा. जॉर्ज बड़े नेता बने. 1975 में जब इमरजेंसी लगी तो नाराज इंदिरा ने उनको जेल भेजा. लेकिन ये कहानी इतनी भर नहीं है. राजनीति से परे, इस हड़ताल की जड़ों में कुछ स्वतंत्र कहानियां भी पनपीं. हड़ताल के दौरान, दुनियाभर के खबरनवीस, खबरों की तलाश में देशभर के रेलवे स्टेशनों की खाक छान रहे थे. वैसे तो ये प्रोटेस्ट पूरे देश में हुआ, लेकिन नई दिल्ली स्टेशन पर विदेशी पत्रकारों को एक अलग ही कहानी मिल गई. एक ऐसी कहानी जिसकी गुत्थियां आज तक सुलझ नहीं पाईं.
"इंदिरा गांधी से बात कराओ, वर्ना यहीं रहूंगी…"स्पष्ट रूप से ये किस साल की घटना है? सार्वजनिक रूप से इसकी सूचना उपलब्ध नहीं है. लेकिन ये हड़ताल शुरू होने से पहले की बात है. हर रोज की ही तरह एक सामान्य दिन. लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं… कुछ कर्मचारी काम कर रहे हैं, कुछ हड़ताल पर हैं और कुछ हड़ताल की तैयारी कर रहे हैं.
इसी बीच एक महिला अपने बेटे और बेटी के साथ स्टेशन पर दिखी. उनके साथ कुछ नौकर थे और डॉबरमैन ब्रीड के करीब 11 कुत्ते. नौकरों ने लकड़ी के भारी संदूक और महंगे झूमर उठा रखे थे. ये लोग स्टेशन पर कहां से आए? कैसे आए? किस ट्रेन से आए? किसी को कोई अंदाजा नहीं था. अब तक ये पूरा दृश्य, हर रोज के माहौल से थोड़ा अलग जरूर था, लेकिन इतना अजूबा नहीं. इसलिए लोगों ने बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया. लेकिन अगले ही घंटे में, वहां कुछ ऐसा हुआ कि देश और दुनिया के मीडिया संस्थानों के ऑफिस में फोन की घंटियां बजने लगीं.
हुआ यूं कि प्लेटफॉर्म नंबर 1 से ये लोग, वहीं पास के वीआईपी वेटिंग रूम में पहुंच गए. नौकरों ने वहां रखे एक थ्री सीटर सोफे को घुमाया और किसी सिंहासन की तरह सजा दिया. महिला उस पर किसी रानी की तरह बैठीं. अब उस वेटिंग रूम में कोई और नहीं घुस सकता था. नौकरों ने उसे एक कमरे की शक्ल दे दी. वहीं चूल्हा-चौका लगाया गया. झूमर टांग दिए गए. कुत्ते वहीं घूमने लगे. टेबल को ऐसे सजाया गया जैसे वो कोई राजदरबार हो.
पैसेंजर्स ने इसकी शिकायत स्टेशन मास्टर से की. स्टेशन मास्टर वेटिंग रूम में पहुंचे और महिला को कहा कि यहां से ये सब तामझाम हटाओ. इससे पहले कि बात खत्म होती, बीच में ही एक नौकर ने स्टेशन मास्टर को टोक दिया.
नौकर ने कहा कि जिस महिला से उनकी बात हो रही है, वो कोई साधारण औरत नहीं है. बल्कि वो अवध के महाराजा वाजिद अली शाह के खानदान से हैं. वो एक ‘रानी’ हैं. उनका नाम है- बेगम विलायत महल. साथ में उनके बेटे प्रिंस अली रजा उर्फ प्रिंस साइरस और बेटी प्रिंसेज सकीना हैं.
इस परिवार का जो एडिट्यूड था, वो किसी राजसी खानदान से कम नहीं था. बात करने के लहजे और पहनावे ने सबको भ्रम में डाल दिया. यहां तक कि वहां मौजूद नौकर बेगम विलायत से ऐसे बात करते जैसे वो किसी पुराने जमाने में जी रहे हों. सिर झुकाकर संवाद करते और सिर झुकाकर ही चलते. कभी पीठ नहीं दिखाते. उल्टे पैर पीछे की ओर हट जाते.
स्टेशन के कर्मचारी ये समझ नहीं पा रहे थे कि बेगम विलायत महल, सच में महाराजा वाजिद अली शाह के खानदान से हैं या वो झूठ बोल रही हैं. इसलिए उन्होंने सोच समझकर कदम उठाने का फैसला किया. देश का माहौल ठीक नहीं था. कई हड़ताल हो रहे थे. ऐसे में कोई ये नहीं चाहता था कि अवध के पुराने महाराजा से जुड़े लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचे. बेगम विलायत महल से पूछा गया कि आखिर वो चाहती क्या हैं? जवाब सुन सब चौंक गए… बेगम ने कहा,
"वाजिद अली शाह के वंशज के पास रहने को घर नहीं…"मुझे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से बात करनी है. और जब तक वो मुझसे बात नहीं कर लेतीं, मैं यहीं रहूंगी.
प्रोटेस्ट कवर करने आए पत्रकारों की नजर उन पर पड़ी. विलायत महल ने पत्रकारों से कहा कि अंग्रेजों और भारतीय सरकारों ने अवध के नवाब की संपत्ति गैरकानूनी तरीके से जब्त कर ली है. विलायत वो सारी संपत्ति वापस चाहती थीं.
वाजिद अली शाह के खानदान की बेगम के पास रहने को घर नहीं है.
भारत में एक राजकुमारी रेलवे स्टेशन पर रहने को मजबूर है.
अगले दिन से अखबारों में इस तरह की हेडलाइन्स छपने लगीं. इंटरनेशल मीडिया के लिए ये एक मसालेदार स्टोरी थी. लिहाजा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे प्रमुखता से कवर किया गया. लिहाजा बात तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी के कानों तक पहुंच ही गई. इसका मतलब ये नहीं है कि बेगम के दावे को सच मान लिया गया.
लेकिन एक कहानी बुनी जा रही थी. सरकारी महकमे के हिसाब से वो लोकेशन तो स्टेशन था. पर अगले 10 साल के लिए वो बेगम की ‘रियासत’ बनने जा रहा था. एक ऐसी रियासत जिसे ना युद्ध करके जीता गया था, ना ही कोई कागज दिखाकर, बस एक दावा था और कब्जाया गया कमरा.
उस रियासत के सरकारी मालिक अतिक्रमण की दुहाई देकर बीच-बीच में कार्रवाई करते. लेकिन जब भी कोशिश को धार देते, बेगम उन पर अपने डॉबरमैन कुत्ते छोड़ देतीं. और कहतीं कि अगर किसी ने उन्हें परेशान किया तो वो सांप का जहर पीकर अपनी जान दे देंगी.
घुटनों के बल चलते थे नौकर, जब चांद ढल रहा हो…बेगम विलायत महल की कहानियां हर कुछ दिनों पर सुर्खियां बनने लगीं. एक कारण ये भी था कि इस परिवार के कई रहस्य थे जिसको लेकर लोगों में उत्सुकता थी. इतिहासकार सलीम किदवई लिखते हैं,
बेगम विलायत महल के नेपाली नौकर घुटनों के बल चला करते थे.
यूनाइटेड प्रेस इंटरनेशनल ने लिखा,
बेगम ने फोटो खिंचवाने की एक शर्त रखी थी. उनकी तस्वीर सिर्फ तभी खींची जा सकती थीं जब चांद ढल रहा हो.
बेगम की एक शर्त ये भी थी कि वो सीधे-सीधे किसी से बात नहीं करेंगी. वो कहतीं कि जो भी कहना है उसे एक विशेष तरह के उभरे हुए कागज पर लिखा जाए, उसे चांदी की थाली में रखा जाए और फिर नौकर उसे जोर से पढ़ें. कहते हैं कि पत्रकारों ने इन शर्तों का पालन भी किया. स्टेशन पर आने-जाने वाले लोगों ने बताया, “बेगम के बच्चे कुत्तों से भी ज्यादा आज्ञाकारी थे. वो अपनी मां से पूछे बिना कुछ भी नहीं करते.”
सरकार को किस बात की चिंता?सरकार को चिंता होने लगी. क्योंकि मुसलमान लामबंद हो रहे थे. मुहर्रम का मौका था. स्टेशन पर एक अलग ही नजारा. बेगम कुछ लोगों से घिरी हुई थीं. लोग उनके सामने खुद को रेजर ब्लेड वाले जंजीर से जकड़े हुए थे. चारों तरफ खून ही खून. मानों जैसे वो साक्षात अपनी रानी के सामने धार्मिक अनुष्ठान कर रहे हों. अधिकारियों को डर था कि अगर लोगों को लगा कि बेगम के साथ दुर्व्यवहार हो रहा है, तो लखनऊ में अशांति फैल सकती है.
1975 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री के सहयोगी अम्मार रिजवी को संपर्क अधिकारी के रूप में नई दिल्ली भेजा गया. वो बताते हैं कि उन्होंने विलायत को 10,000 रुपये का एक लिफाफा सौंपा, ताकि वो लखनऊ में अपना घर बसा सकें. बेगम ने प्रस्ताव ठुकरा दिया. उस समय के लिए ये एक बड़ी रकम थी. लेकिन वो नाराज हो गईं, उन्होंने लिफाफा फेंक दिया, नोट उड़ने लगे. अधिकारी हवा से नोट पकड़ने लगे.
इसके बाद भी बेगम को मनाने की कोशिश की गई. रिजवी ने बाद में उन्हें लखनऊ में चार बेडरूम वाला मकान देने की पेशकश की. फिर बात नहीं बनी. बेगम ने कहा कि ये बहुत छोटा है.
सुर्खियां बनती रहीं. जितनी बार खबरें छपतीं, अशांति का खतरा बढ़ता. 1981 में टाइम्स मैगजीन ने लिखा, “भारत की एक ऐसी राजकुमारी जो रेलवे स्टेशन पर राज करती हैं.” इस लेख में उनके पूर्वजों को मुक्ति दिलाने, सदियों से सहे गए अन्याय और न्याय की लड़ाई का ज़िक्र था. पीपल मैगजीन ने लिखा, “दुनिया को पता चले कि अवध के अंतिम नवाब के वंशजों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है.”

जैसा कि पहले बताया था, स्टोरी मसालेदार थी. खासकर वेस्टर्न मीडिया के लिए, तो मसाले के साथ ही बेची गई. बेगम विलायत ने भी इसका बखूबी इस्तेमाल किया. दिल्ली स्टेशन पर बिताए अपने 10 सालों में और आगे भी, इस परिवार ने देश की मीडिया से दूरी बनाकर रखी. जब भी कुछ कहना हुआ, विदेशी मीडिया से ही कहा. और ये खेल 10 साल तक चलता रहा. जी हां, पूरे दस साल.
इंदिरा गांधी ने दावा स्वीकार कियामुसलमानों की भावनाएं और सरकार की फजीहत… फिर आया साल 1984. इस साल नई दिल्ली स्टेशन पर पहुंचीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी. बेगम से मुलाकात हुई. इसके बाद इंदिरा ने गृह मंत्रालय को आदेश दिया कि विलायत महल के लिए आवास की व्यवस्था की जाए. मंत्रालय ने एक साल बाद 1985 के जून महीने में इसका समाधान निकाला. समाधान था- दिल्ली का मालचा महल. साथ में 500 रुपये प्रतिमाह का भत्ता.

अखबारों में फिर से सुर्खियां बनीं. 10 सालों की लड़ाई के बाद, बेगम विलायत को आखिरकार महल मिल ही गया! कहानी समाप्त? नहीं! ये तो कहानी की शुरुआत है. पॉपकॉर्न लेकर बैठ जाइए. इस कहानी में इतने ट्विस्ट और टर्न हैं कि आपका सिर घूम जाएगा. जब भी लगेगा कि कहानी अब खत्म हो गई, एक दूसरा सस्पेंस उभर आएगा. दिलचस्प बात ये है कि इतने सारे रहस्यों से पर्दा उठने के बाद भी ये मामला संदेह के घेरे में है. कई गंभीर सवालों के जवाब अब भी नहीं मिले हैं.
पहला सवाल- इंदिरा गांधी की सरकार ने बेगम विलायत को मालचा महल दे कैसे दिया? क्या सरकार ने ये मान लिया कि वो सच में वाजिद अली शाह की वंशज हैं. क्या दावे की जांच की गई? अगर विलायत का दावा झूठा निकला तो… सवाल सिर्फ सरकार को लेकर ही नहीं है. बेगम विलायत के फैसले (यूपी सरकार का ऑफर ठुकराना) और उनके बेटे-बेटियों का गुमनाम जीवन भी कई सवाल खड़े करता है. सबसे पहले बात करेंगे कि ये वाजिद अली शाह कौन थे. जिनके वंशज को एक सरकारी महल दे दिया गया. और इतनी छूट दी गई कि उन्होंने दस सालों तक दिल्ली रेलवे स्टेशन के वीआईपी वेटिंग रूम पर कब्जा जमाए रखा.
कौन थे वाजिद अली शाह?अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह के चरित्र के कई दिलचस्प किस्से विख्यात हैं. पेश है अवध का एक लोकप्रिय किस्सा जिससे नवाब साहेब के मिजाज का पता चलेगा-
1857 की बात है. अंग्रेज अवध पर कब्जा करना चाहते थे. ब्रिटिश सरकार का कहना था कि ये राजा अवध को ले डूबेंगे. क्योंकि इन्होंने भयंकर कर्ज ले रखा है और अय्याशी में डूबे हुए हैं, स्त्रीमोह के अलावा इनको कुछ सूझता नहीं है. अंग्रेजी सेना अवध पहुंची. वाजिद अली लखनऊ के अपने महल में थे. नवाब भाग नहीं पाए. क्योंकि उस वक्त उनके पांवों में जूता/जूती/चप्पल पहनाने के लिए, महल में कोई नौकर नहीं था. नवाब साहेब इस “चुनौती” को पार ना कर पाए और पकड़े गए. उनको गिरफ्तार करके कलकत्ता भेज दिया गया.
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वाजिद अली की कई लोकप्रिय तस्वीरें उनकी पर्सनालिटी की झलकियां देती हैं. मसलन एक तस्वीर में उनका एक निप्पल कपड़े से बाहर नज़र आ रहा है. इसे उनके 'मनमौजी मिजाज' से जोड़कर देखा जाता है. कहते हैं कि वाजिद अली शाह की कई पत्नियां थीं. और इसके अलावा भी उनके कई औरतों से संबंध थे. संख्या सैकड़ों में बताई जाती है. इसलिए कहा जाता है कि लखनऊ में आज भी उनके वंशज मौजूद हैं.
उनके कलकत्ता जाने के बाद, लखनऊ में उनका महल वीरान पड़ गया. महल के आसपास जंगल उग आए. लेकिन इस महल से भी ज्यादा वीरान था, बेगम को मिला मालचा महल.
अकेलेपन का पर्याय बना मालचा महलकहने को तो मालचा महल के नाम में ‘महल’ लगा है. लेकिन ये किसी सिनेमा वाले भूतहा बंगले से कम नहीं है. फिरोजशाह तुगलक ने इस महल को 13वीं शताब्दी में बनवाया था. जब नवाब शिकार करने आते तो इसी महल में रुकते थे. महल का हाल समझिए. ना पीने का साफ पानी और ना ही बिजली की व्यवस्था… नल से एकदम ही खाड़ा पानी मिलता. चारों तरफ सिर्फ छिपकलियां, सांप, चमगादड़ और बंदर… फिर भी बेगम ने इसे स्वीकार लिया. इसी के साथ शुरू हुई अकेलेपन की एक दर्दनाक कहानी. ऐसी कहानी जिससे आज भी लोग सहानुभूति रखते हैं. अफसोस कि इस बारे में कुछ किया नहीं जा सकता. क्योंकि ये फैसला भी उसी परिवार का था.
चाय की दुकानों पर, रिक्शेवालों के बीच… मालचा महल कौतूहल का विषय बना रहा. कुछ कहते कि यहां कोई रानी रहती है, कुछ कहते कि यहां चुड़ैलों का वास है, कुछ ये भी कहते कि इसमें जिन्न रहते हैं. बेगम के परिवार ने इसके दरवाजे पर लिख रखा था,
प्रवेश निषेध. शिकारी कुत्तों से सावधान. घुसपैठियों को गोली मार दी जाएगी.

ये परिवार बाहरी दुनिया से बिल्कुल कट गया. किसी से कोई संपर्क नहीं. कुछ सालों के बाद, ये परिवार टाइम्स मैगजीन को मालचा महल में इंटरव्यू देने को तैयार हुआ. अचानक पता चला कि बेगम विलायत ने आत्महत्या कर ली. प्रिंस साइरस और प्रिसेंज सकीना की तस्वीरें सालों बाद बाहर आईं, अथाह पीड़ा से भरी हुईं तस्वीरें. 1997 में ये पता चला कि बेगम विलायत महल कई साल पहले मर चुकी हैं. साइरस ने बताया कि उनकी मां ने भारत सरकार और अंग्रेजों के खिलाफ प्रोटेस्ट किया. और इसी प्रोटेस्ट के तहत उन्होंने हीरे और मोती को पीसकर जहर बनाया. और 10 सितंबर, 1993 को 62 साल की उम्र में उन्होंने जहर पीकर अपनी जान दे दी.
दोनों ने अपनी मां के शव को दस दिनों तक उनकी स्टडी डेस्क पर रखा. काले रंग का कपड़ा पहनकर कई दिनों तक मातम मनाया. और फिर वहीं पास में लाश को दफना दिया. तब तक इलाके में अफवाह फैल गई थी कि रानी ने इस महल में खजाना छिपा रखा है. 24 जून, 1994 को कुछ लोग उसी खजाने की खोज में भीतर घुस गए. दोनों भाई-बहन डर गए. उन्हें डर हो गया कि कहीं ये लोग उनकी मां की कब्र ना खोद दें. उन्होंने शव निकाला और जला दिया.
हीरा पीसते कैसे हैं?महल में अब प्रिंस साइरस और प्रिंसेज सकीना थीं. कुछ नौकर और कुछ कुत्ते… इनका खर्चा कैसे चलता था? कौन पैसे देता था इन्हें? इन्हीं सवालों से बेगम विलायत के दावों पर संदेह बढ़ने लगा. कहानी में एक अहम कड़ी बनीं, न्यूयॉर्क टाइम्स की एक पत्रकार. नाम है- एलेन बेरी. एलेन विलायत के परिवार से संपर्क कर रही थीं. लेकिन प्रिंस साइरस की ओर से कोई जवाब नहीं मिल रहा था. 2016 में वो भारत में काम कर रही थीं. लंबे इंतजार के बाद, एक दोपहर को उनके ऑफिस में फोन की घंटी बजी. बताया गया कि प्रिंस साइरस, पत्रकार एलेन से मिलने को राजी हो गए हैं.
एलेन से अकेले आने और कार को महल से दूर खड़ा करने को कहा गया. एलेन महल के दरवाजे पर पहुंचीं. फिर झाड़ियों से सरसराहट की आवाज आई. और राजकुमार साइरस सामने आए. दोनों अंदर गए. बातचीत हुई. साइरस ने वही पुरानी शिकायतें दोहराईं. कहा कि वो और उनकी बहन राजकुमारी सकीन खत्म हो रही हैं. सरकार ने उनके साथ विश्वासघात किया है, वगैरह वगैरह… एलेन चालाकी से बात-बात में साइरस से सच उगलवाने की कोशिश कर रही थीं. जैसे कि उनका जन्म कहां हुआ? उनके पिता का नाम क्या था? हीरे को कैसे पीसा जाता है? सामने वाले ने और भी ज्यादा चालाकी दिखाई. कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया.
एक और अजीब बात ये हुई कि साइरस ने एलेन को इंटरव्यू छापने से मना कर दिया. उन्होंने कहा कि उनकी बहन अभी कहीं गई हैं. मालचा महल में नहीं हैं. इंटरव्यू के बारे में वो अपनी बहन से पूछकर बताएंगे. प्रिंस ने एलेन को सकीना की लिखी हुई एक डायरी दी. लेकिन उसको पढ़ना कठिन था. लेकिन ये साफ था कि सकीना ने इसमें अपने जीवन के बारे में लिखा था. लिखा था कि वो अपनी मां की तरह ही मर जाना चाहती हैं. और अगर वो जिंदा हैं तो सिर्फ अपने भाई की खुशियों के लिए.
एलेन जब ये सब पढ़ रही थीं तो उन्हें कोई अंदाजा नहीं था कि वो एक मरी हुई औरत की डायरी पढ़ रही हैं. इसका पता तब चला, जब एक रात साइरस का फोन आया. एलेन ने जैसे ही फोन उठाया, वो फफक कर रोने लगा. कहा कि उसने झूठ बोला था कि उसकी बहन बाहर गई है. दरअसल, वो मर चुकी है. और उसने शव को वहीं दफना रखा है.
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अकेलेपन और अंधेरे में जी रहे साइरस का फ्रस्टेशन स्पष्ट रूप से दिखा. धीरे-धीरे सारे नौकर जा चुके थे. कुत्ते मर गए थे. साइरस ने एलेन को कहा कि वो अकेला पड़ गया है. फिर उसने एक अजीब शर्त रख दी. कहा कि एलेन जब भी उससे मिलने आए कुछ चीजें लेकर आए. जैसे- एक गर्लफ्रेंड, एक बंदूक, एक तिरपाल और "फिडलर ऑन द रूफ" (म्यूजिकल ड्रामा फिल्म) की रिकॉर्डिंग.
एलेन ने गर्लफ्रेंड और बंदूक वाली बात तो नहीं मानीं. लेकिन तिरपाल और रिकॉर्डिंग लेकर फिर से वहां पहुंचीं. इसके बाद दोनों की कई बार मुलाकात हुई, कई महीनों तक दोनों में बातचीत होती रही.
साइरस अकेलेपन में इतना दब गया था कि एक दफा उसने एलेन से कहा कि वो उसे चूमे. इसके बाद उसने कहा कि एलेन उसके बारे में लिखे. लेकिन एलेन को तो सबकुछ जानना था. वो लिखने को तैयार तो हुईं लेकिन एक शर्त रख दी. कहा कि साइरस को अपना पूरा सच बताना होगा. तभी वो कुछ लिखेंगी. इस बार भी साइरस ने बातों को गोलमोल घूमाकर छोड़ दिया. एलेन ने साइरस को गले लगाया और वापस आ गईं.
प्रिंस साइरस की गुमनाम मौतएलेन और साइरस की ये आखिरी मुलाकात थी. संदेह से घिरीं एलेन ने स्टोरी नहीं लिखी. सितंबर 2017 में करीब आठ दिनों की बीमारी के बाद साइरस की मौत हो गई. मालचा महल के पास में ही गार्ड का काम करने वाले राजिंदर कुमार ने बताया कि उसे डेंगू हो गया था. आखिरी दिन जब उसे देखा गया तो वो साइकिल से लुढ़क कर गिर गया था. उसने गार्ड से नींबू पानी और एक आइसक्रीम मांगी.
राजिंदर ने साइरस से कहा कि वो पुलिस को बुला सकते हैं. या अस्पताल जा सकते हैं. उन्हें बचा लिया जाएगा. लेकिन वो नहीं माना. उसने कहा कि वो साधारण लोगों से अलग है. वो बाहरी है और अस्पताल जाना पसंद नहीं करता. साइरस ने कहा कि वो एक राजा है और आम लोगों की जिंदगी नहीं जी सकता. कई दिनों के बाद एक लड़के को उसे देखने भेजा गया. वहां मच्छरदानी में साइरस अधनंगा बिल्कुल स्थिर लेटा हुआ था. स्थिर इसलिए क्योंकि मर चुका था. उसके शव को एक नंबर दिया गया. और एक लावारिश लाश की तरह दफना दिया गया. जाहिर है, फिर से सुर्खियां बनीं. बेगम विलायत महल का खानदान खत्म हो गया. लेकिन क्या कहानी भी खत्म हो गई? नहीं! कहानी के असली पहलू की शुरुआत अब होती है.
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कई महीनों बाद एलेन भारत लौटीं. उन्होंने फिर से मालचा महल देखने का फैसला किया. हजारों सवालों के साथ वो वहां पहुंची. उन्होंने देखा कि वहां कई लोग घूम रहे हैं. साइरस का सामान बिखरा पड़ा है. अलमारी और फर्श पुराने कागजों से भरा है. एलेन उस परिवार के किसी सदस्य का जन्म प्रमाण पत्र या पासपोर्ट खोज रही थीं. ताकि ये पता चल सके कि आखिर वो कहां से आए थे? ये सब तो नहीं मिला. लेकिन दो चीजें मिलीं.
पहला- रसीदों का ढेर. जिससे पता चला कि इस परिवार को लगातार कहीं बाहर से पैसे भेजे जा रहे थे. भेजने वाले ने अपनी पहचान साइरस का ‘सौतेला भाई’ बताई थी. दूसरा- 2006 में हाथ से लिखकर भेजी गई एक चिट्ठी. इस चिट्ठी को लिखा था शाहिद नाम के एक व्यक्ति ने. उसने अपना पता लिखा था- ब्रैडफोर्ड, यॉर्कशायर, इंग्लैण्ड. शाहिद ने लिखा कि उसकी हालत खराब है. वो बीमारी से जूझ रहा है, बहुत तकलीफ में है. उसने बेगम के परिवार के लिए लिखा कि वो अपने खर्चे की व्यवस्था खुद देख लें.
क्या ये परिवार इंग्लैंड से आया था? कुछ सवालों के जवाब मिलने लगे थे और कई नए सवाल उठ खड़े हुए थे.
बेगम विलायत का इंग्लैंड कनेक्शनएलेन इंग्लैंड के उस पते पर पहुंचीं. शाहिद के घर में घुसते ही उन्हें कमरे में लगी एक तस्वीर दिखी. उसमें बेगम विलायत महल और साइरस थे. पता चला कि शाहिद, साइरस का बड़ा भाई है. पहली मुलाकात में उसने भी पूरा सच नहीं बताया. लेकिन बेगम के कुछ रिश्तेदारों का पता चल गया. कुछ अमेरिका और पाकिस्तान में रह रहे थे. शाहिद से एलेन की कई बार मुलाकात हुई. कई रिश्तेदारों से बातचीत भी हुई. फिर जो सच सामने आया, वो चौंकाने वाला था.
सब झूठ थासाइरस और शाहिद के पिता का नाम इनायतुल्लाह बट था. वो लखनऊ विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार थे. तब जब भारत और पाकिस्तान का बंटवारा नहीं हुआ था. प्रिंस साइरस का ये नाम असली नहीं था. उसका नाम प्रिंस अली रजा भी नहीं था. दरअसल, वो कोई प्रिंस ही नहीं था. वो एक साधारण व्यक्ति था, जिसका नाम मिकी बट था. राजकुमारी सकीना का असली नाम फरहान बट था. बेगम विलायत महल, असल में विलायत बट थीं. और इस पूरे परिवार का कनेक्शन भारत-पाकिस्तान के बंटवारे से जुड़ा था.
बंटवारे के बाद बेगम ने लखनऊ में ही रहने का फैसला किया. उनका परिवार वहां खुशहाल जिंदगी जी रहा था. लेकिन एक रोज कुछ लोगों ने उनके पति पर हमला कर दिया. इलाके में दंगे-फसाद बढ़ गए. इसके बाद न चाहते हुए भी उन्हें लखनऊ छोड़ना पड़ा.
विलायत बट का पाकिस्तान कनेक्शनसाइरस/मिकी का सबसे बड़ा भाई सलाहुद्दीन जाहिद बट पाकिस्तान के वायु सेना में पायलट था. 1965 के युद्ध में उसने भारत के खिलाफ लड़ाई लड़ी. 2017 में उसकी मौत हो गई. टेक्सास में रहने वाली जाहिद की पत्नी ने बताया कि विलायत किसी राजसी खानदान से नहीं थीं. बल्कि वो मानसिक रूप मे बीमार थीं. बंटवारे की पीड़ा ने उनके दिल और दिमाग पर बहुत बुरा असर किया था. इस पर एक और ऊपरी मार ये पड़ी कि उनके पति का अचानक ही निधन हो गया.
शाहिद ने बताया कि उनका खुद पर नियंत्रण नहीं रहा. एक बार उन्होंने पब्लिक में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को फटकार लगाई और उन्हें थप्पड़ मार दिया. उन्हें छह महीने तक लाहौर के एक मानसिक अस्पताल में रखा गया. यहां उन्हें इलेक्ट्रोशॉक थेरेपी दी गई और कई इंजेक्शन लगाए गए.
अस्पताल से छूटते ही विलायत ने अपने सामानों को एक ट्रंक में भरा. जैसे कि कालीन, झूमर, गहने, बर्तन… उन्होंने पाकिस्तान छोड़ दिया. और कश्मीर आ गईं. शाहिद उनके साथ नहीं आया. वो भाग गया और जैसे-तैसे इंग्लैंड पहुंच गया.
भारत वाया कश्मीर1962 में विलायत बट ने भारत सरकार से शरण मांगी. उन्होंने अपने आवेदन में लिखा,
पाकिस्तान में उनका उत्पीड़न हुआ. उनके पति पाकिस्तान एविएशन में एक शीर्ष अधिकारी थे. 1951 में उन्हें जहर दे दिया गया. उनके एक बेटे की मौत एयरफोर्स की एक विमान दुर्घटना में हुई. हमें जम्मू-कश्मीर राज्य में फिर से बसने दिया जाए.
पहली बार में उनका आवेदन स्वीकार नहीं किया गया. इसके बाद उन्होंने पॉलिटिकल सर्किल में अपनी पैठ बनाई. उन्होंने अपने पति के पॉलिटिकल सर्किल का भी इस्तेमाल किया. इसके बावजूद उन्हें भारत की नागरिकता नहीं मिली. लेकिन जुलाई 1963 में भारत में रहने की अनुमति मिल गई. तय हुआ कि इस ऑर्डर को सलाना रिन्यू किया जाएगा. प्रधानमंत्री पंडित जवाहर नेहरू की सरकार ने इस परिवार को कश्मीर में एक घर दे दिया. लेकिन 1971 में वो घर जल गया.
इसके बाद विलायत लखनऊ पहुंचीं और खुद को अवध के महाराजा वाजिद अली शाह का वंशज बता दिया. जब वो लखनऊ पहुंचीं, तब भी दिल्ली स्टेशन वाली ही स्थिति थी. लोगों को लगा कि उन्होंने साक्षात अपनी रानी को देख लिया है. लोग उनके सामने घुटने टेकने लगे, रोने लगे… लेकिन वहां कई ऐसे लोग भी थे जो खुद को वाजिद अली का सच्चा वंशज मानते थे. ऐसे लोगों ने उन पर संदेह किया. वहां विलायत बेगम की दाल नहीं गली. फिर उन्होंने दिल्ली जाने का फैसला किया. इसके बाद का तो आप जानते ही हैं…
नफरत या संवेदना?विलायत बट के दावों पर आम लोगों में और उनके खुद के परिवार में भी मतभेद हैं. पर किसी ने उन्हें सिर्फ एक झूठी औरत कहकर खारिज नहीं किया. ज्यादातर ने इसे बंटवारे के उस घाव से जोड़ा, जो लाखों जिंदगियों को उम्र भर रिसते जख्म देकर गया था. पाकिस्तान से लखनऊ लौटने की विलायत की जिद ने क्या कुछ नहीं करवाया! क्या वो किसी और की पहचान कब्जा करने की कोशिश थी? या एक खोई हुई अस्मिता को गढ़ने की जद्दोजहद?
सवाल उठते हैं कि आखिर झूठ किसने बोला? क्या ये विलायत का छल था? या उनके बच्चों की मासूमियत में पला भ्रम? क्या बच्चों को कभी पूरा सच बताया ही नहीं गया? या फिर वो सच जानते हुए भी झूठ को ही सच बना बैठे, क्योंकि इसमें ही उनका हित था. या फिर पूरा परिवार ही इस साजिश में बराबर का साझेदार था? क्या विलायत के दोनों बच्चे इसी जीवन के हकदार थे?
कुछ ये भी कहते हैं कि विलायत मानसिक रूप से इतनी बीमार थीं कि अपनी कल्पना को ही पूरी तरह सच मान बैठीं. कुछ ये मानने से इनकार करते हैं कि ये सब महज एक पागलपन था. कहते हैं ये सब कुछ जानबूझकर रचा गया था, एक गहरी नफरत या बदले की भावना से.
अपनी सफाई देने के लिए अब ना तो विलायत हैं, ना मिकी और ना ही फरहान… लेकिन सवाल अब भी हैं. विलायत के दावे अगर झूठ थे. तो सरकार सबके सामने सच क्यों नहीं ला सकी?
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