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चार ग्राम चिड़िया की 'पॉटी' के बदले एक ग्राम सोना, रईसी में अमेरिका को मात देने वाले मुल्क की कहानी

एक समय इस देश में इतनी अमीरी आ गई कि लोगों ने नोट को टॉयलेट पेपर की तरह इस्तेमाल किया. एक पुलिस चीफ ने तो लैंबॉर्गिनी गाड़ी मंगा डाली, पर बाद में पता चला वो उसमें बैठने के लिए वो थोड़ा मोटा था.

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नाहरु आईलैंड पर पक्षियों की बीट से बना फॉस्फेट का खजाना था (PHOTO-Wikipedia)

दुनिया का सबसे छोटा गणराज्य, टापू पर बसा एक देश. कार में बैठकर घंटे भर में यहां का चक्कर लगाया जा सकता है. ये हमारी राजधानी दिल्ली से भी कई गुना छोटा है. पर छोटे साइज से क्या? एक वक्त में यहां के लोग अमेरिकियों से ज्यादा अमीर थे. कहें तो औसत प्रति व्यक्ति आय दुनिया में दूसरे नंबर पर. वो भी खाड़ी देशों से इतर, बिना तेल के. ना यहां पेट्रोलियम मिला. ना सोना मिला, ना चांदी. पर फिर भी इस देश की अर्थव्यवस्था अचानक बढ़ी. चिड़िया की पूप बेचकर. सही सुना आपने, पूप - चिड़ियों का मल, छी-छी. टेक्निकल नाम ग्वानों. कभी जिसके चार ग्राम के बदले एक ग्राम सोना आ जाता था. लेकिन फिर इस देश का पतन होता है. तरक्की में बढ़ता ये देश डूब जाता है. कहते हैं ये देश खुद को खा गया. इसलिए इसे नाम दिया जाता है, “कंट्री दैट एट इट-शेल्फ"

नाहरू, वेटिकन सिटी और मोनाको के बाद तीसरा सबसे छोटा देश है. साथ ही ये सबसे छोटा रिपब्लिक यानी गणराज्य और टापू देश है. एरिया महज 21 वर्ग किलोमीटर. प्रशांत महासागर के बीच बसा ये देश, एकांत में भी है. यहां से सबसे पास का आइलैंड, तीन सौ किलोमीटर दूर है. पापुआ न्यू-गिनी से कुछ ढाई हजार. और ऑस्ट्रेलिया से चार हजार किलोमीटर दूर, इतना दूर कि यहां से नाहरू खाने का सामान महीनों, महीनों बाद पहुंचता है. दूसरी तरफ, बड़े जहाजों को यहां के तट पर रोकना भी आसान नहीं. चारों तरफ की कोरल रीफ इन्हें डुबा सकती है. मानो कुदरत ने ही इस देश को एक दम अलग-थलग रखा हो. पर ये सब भी इस देश को इतना खास नहीं बनाते, जितना यहां का इतिहास… इतिहास जिसमें तमाम यूरोपीय यहां आए, दुनिया भर के अखबारों ने इस पर खबरें की. ये कहानी है, एक देश के खुद को खा जाने की.

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मैप पर नाहरु की लोकेशन (PHOTO- Google Maps)

जैसा कि विचारक कार्ल मार्क्स ने एक बार कहा था,

“इतिहास खुद को दोहराता है. पहले त्रासदी और फिर तमाशे की तरह.”

नाहरू के इतिहास ने भी त्रासदी देखी. एक नहीं कई. यूरोपीय कब्जा, दो विश्व युद्ध, गुलामी, आजादी और फिर बेशुमार पैसा. लेकिन आजादी के बाद इतिहास ने खुद को दोहराया. वो हुआ, जो कभी रोमन साम्राज्य में हुआ था, पतन. ताश के ढेर की तरह इस देश का अर्थ ढह गया. चलिए जानते हैं कि इतने एकांत में बसा एक देश. चिड़ियों का मल बेचकर अमीर कैसे बना? कैसे इसका पतन हुआ? और आज इसकी क्या हालत है?  नाहरू की कहानी एक दम शुरुआत से.

आसमान से बरसा ‘सोना’

इरफान सिद्दीकी साहब लिखते हैं,

“तुम परिंदों से ज़ियादा तो नहीं हो आज़ाद

शाम होने को है अब घर की तरफ़ लौट चलो”

पर आजा़द परिंदे भी एक वक्त पर घर तो लौटते हैं, लौटते रहे हैं. ऐसे ही घर लौटते तमाम परिंदों ने समंदर के बीच नाहरू के टापू को अपना ठिकाना बनाया. यहां ये खाते-पीते और मल त्याग करते. पर वो कहते हैं, ना किसी का कचरा किसी का खजाना. पक्षियों का मल यहां लाखों सालों तक इकट्ठा होता रहा. और धीरे धीरे जीवाश्म में बदलता रहा. जिसकी वजह से यहां फास्फेट और नाइट्रेट के भंडार इकट्ठा हो गए. जो उस वक्त बेहद कीमती थे और खाद वगैरा की तरह इस्तेमाल किए जाते थे. दरअसल पौधों के लिए जरूरी तीन जरूरी तत्वों, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटैशियम में से दो, यहां की मिट्टी में भरपूर जमा हो गए थे. खासकर फॉस्फोरस. भला हो आज़ाद परिंदों का. पर यहां रहने वाले स्थानीय लोगों को भनक नहीं थी कि वो सोने के ढेर पर रह रहे हैं. खैर सालों तक यहां के स्थानीय लोग इस भंडार से अंजान जीते रहे. और फिर साल आया 1798.

Nauru – the Pleasant Isle
नाहरु पर जारी एक डाक टिकट (PHOTO- Naval Historical Society of Australia)

इसी साल के नवंबर महीने की आठ तारीख को - ब्रिटिश जहाज ‘स्नो हंटर’ यहां से गुजरा. जहाज देखकर सैकड़ों नाहरूरियन नागरिक, तट पर इकट्ठा हो गए और नाविकों का अभिवादन करने लगे. अंजान टापू के लोग मिलनसार लग रहे थे. पर जहाज के कैप्टन जॉन फैअर्न ने अपने क्रू को उतरने की इजाजत नहीं दी. ना ही कोई नाहरूवियन जहाज पर चढ़ा. पीटर डेवर्जनी इस वाक्ये के बारे में अपनी किताब, ‘एनवॉयरमेंटलिज्म ऑफ द रिच’ में जिक्र करते हैं,

“यहां के मिलनसार लोग, यहां की खुशनुमा गर्म हवा और हरियाली देखकर, जॉन ने इसका नाम प्लीजेंट आइलैंड रख दिया. ये वाक्या और यूरोप के साथ इस टापू की मुलाकात छोटी ही थी. पर ये आने वाले स्याह दिनों की बस शुरुआत थी."

Environmentalism of the Rich
पीटर डेवर्जनी की किताब ‘एनवॉयरमेंटलिज्म ऑफ द रिच’ (PHOTO-Wikipedia)

त्रासदी; हत्या और हलचल

ये वो दौर था, जब तमाम ब्रिटिश मुजरिमों को देश निकाले की सज़ा दी जाती थी. इन्हें सुदूर कॉलोनियों और टापुओं पर भेज दिया जाता था. यहां इनसे कड़े काम करवाए जाते थे. ऐसे में तमाम मुजरिम सजा से बचने, और आसान जीवन की तलाश में टापुओं पर जाकर बस जाते थे. इन्हें ‘बीच-कॉम्बर्स’ की संज्ञा दी जाती थी. ऐसा ही एक ‘बीच-कॉम्बर्स’, 1830 के दशक में नाहरू के टापू पर आता है. ये था एक ब्रिटिश भगोड़ा मुज़रिम, जॉन जोन्स. जिसने भय और हत्या से यहां अपना आधिपत्य जमा रखा था. इसने यहां आने वाले दर्जनों दूसरे ‘बीच-कॉम्बर्स’ की जान ली. ये सुकून से टापू के तट पर रहता था. और आने-जाने वाले जहाजों से व्यापार करता था. जिनसे नारियल और सुअर के बदले इसे - तंबाकू, शराब और राइफल मिल जाया करती थीं. 

लेकिन एक रोज़ नाहरू के मुखियाओं को पता चला कि जोन्स अपनी की हत्याओं का ठीकरा इनके सर फोड़ रहा था. दरअसल यहां कई अलग-अलग स्थानीय कबीले थे, जिनके अलग-अलग मुखिया भी थे. खैर जोन्स से नाराज़ मुखियाओं ने उसे साल 1841 में टापू से निकाल दिया.

जोन्स का निकाला जाना, एक दूसरे बीच कॉम्बर विलियम हैरिस के लिए वरदान साबित हुआ. जो इसके ठीक एक साल बाद इस टापू पर आया. दूसरों की तरह इसने भी यूरोपीय जहाजों से व्यापार में नाहरू के लोगों की मदद की. पर ये जोन्स जैसा बवाली नहीं था. इसने एक स्थानीय महिला से शादी कर ली. और पारिवारिक जीवन में रहने लगा. वो भी अगले पचास साल तक. भगोड़े यूरोपियों के लिए मानो ऐसे टापू कोई स्वर्ग हों.

दूसरी तरफ यूरोपियों के साथ रिश्ते नाहरू के लोगों के लिए इतने खुशनुमा नहीं थे. 1870 के दशक तक यहां बंदूकों ने घर कर लिया था. नाहरू के लोग भी तंबाकू फूंकने लगे थे. और खूब शराब पीने लगे थे. एक दिन तो शराब के नशे में हुए एक झगड़े में एक मुखिया को गोली मार दी गई. धीरे-धीरे नाहरू हिंसा की जद में आ गया. कई कबीलों के बीच गृह युद्ध के हालात हो गए. अब तक टापू पर ब्रिटिश जहाजों का आना-जाना हो गया था. पर अंग्रेजी हुकूमत के लिए यह टापू किसी काम का नहीं था. इसलिए शुरुआत में इसमें ज्यादा रुचि नहीं दिखाई गई. लेकिन फिर एक पत्थर जियॉलजिस्ट अल्बर्ट एलिस के दरवाजे पर मिलता है.

फॉस्फेट रश

एक रोज़ अल्बर्ट एलिस, सिडनी में ‘पैसिफिक आइलैंड कंपनी’ के ऑफिस पहुंचते हैं. अल्बर्ट एक जियॉलजिस्ट थे, जो पत्थरों और जमीन के भीतर के अयस्क वगैरह का अध्ययन करते थे. ऑफिस के दरवाजे पर अल्बर्ट को एक पत्थर दिखा. बताया गया कि यह टुकड़ा नाहरू का है जो कि समय के साथ जीवाश्म में बदल गई एक लकड़ी है. पर अल्बर्ट को ये बात नहीं हजम हुई. उन्होंने पत्थर की जांच की.  पता चला यह असल में बेहतरीन क्वालिटी का फॉस्फोरस अयस्क है जो कि एक सुपर फर्टिलाइजर है. दूसरे शब्दों में कहें तो उस वक्त का खजाना, या कहें चिड़ियों की मेहरबानी.

बहरहाल इस खजाने की तलाश में अल्बर्ट साल 1901 में नाहरू पहुंचा. पता चला कि 80 फीसद टापू फॉस्फेट के चूने से भरा था. कुछ वक्त बाद कंपनी ने जर्मनी के साथ एक डील की. जिसने उस वक्त टापू पर कब्जा कर रखा था. फिर जर्मन्स और अंग्रेजों के बीच, फॉस्फोरस के खजाने का बंदर-बांट होने लगा. ये बंदर बांट चलता रहा, पर फिर साल आया 1914. पहला विश्व युद्ध शुरू हो चुका था. और जंग के चलते ऑस्ट्रेलियाई सैनिकों ने नाहरू पर कब्जा कर लिया. माइनिंग के उपकरण यहां लाए गए. और निर्यात बढ़ाया गया. 1920 आते-आते कुछ दो लाख मेट्रिक टन फॉस्फेट हर साल निकाला जा रहा था. अगले दो दशकों में ये खनन चार गुना से भी ज्यादा हो गया. पर इसका फायदा इस देश को नहीं मिल रहा था. यह फॉस्फोरस दुनिया के औसत से कम दाम पर बेचा जा रहा था. ऑस्ट्रेलिया, न्यूजिलैंड और बिर्टेन के किसानों को खूब सब्सिडी दी जा रही थी.

फिर ये जंग खत्म हुई. देश बदले, पर फॉस्फोरस का बंदर बांट चलता रहा. एक वक्त बाद दूसरा विश्व युद्ध भी फूट पड़ा और जापान ने इस टापू पर कब्जा कर लिया. नाहरू की दो तिहाई आबादी को गुलाम बना लिया गया. उन्हें पास के एक नौसेना बेस पर मजदूरी के लिए भेज दिया. इनमें से 500 लोग भूख और बमों की चपेट में आकर मर गए. देश के तमाम लोगों ने इस युद्ध में अपनी जान गंवाई. बकौल पीटर डेवर्जनी, युद्ध खत्म होते - होते यहां 600 से भी कम लोग बचे थे.

लेकिन ये दौर भी बीता. नाहरू ऑस्ट्रेलिया की निगरानी में आ गया. पर एक वक्त बाद यहां भी आजादी का मांग बढ़ी. जिसके बाद साल 1968 में इसे आजादी मिली. और साथ में मिला खदानों का अधिकार.

निरंकुश आजादी

फॉस्फोरस की खदानें स्थानीय अधिकार में आईं और अब पैसा देश में आ रहा था. अगले दो दशकों में नाहरू के लोग दुनिया के सबसे रईस लोगों में शामिल होने वाले थे. कम से कम कागज पर तो यही दिखाया जा रहा था. साल 1975 में नाहरू के ‘फॉस्फेट रॉयल्टीज़ ट्रस्ट’ की कीमत एक बिलियन ऑस्ट्रेलियाई डॉलर आंकी गई. और इस देश की प्रति व्यक्ति GDP, सऊदी अरब के बाद दूसरे नंबर पर पहुंच गई. लोग भी कमाई कर ही रहे थे. यहां की सरकार ने कोई इनकम टैक्स नहीं लगाया. शिक्षा और स्वास्थ्य मुफ्त कर दी गई.

पर इस पैसे से हुआ हर काम अच्छा नहीं था. सरकार ने कई महंगे क्रूज़ शिप, एयरक्राफ्ट और दूसरे देशों में होटल तक खरीदे. नेता विदेशों में प्लेन से शॉपिंग के लिए जाने लगे. यहां तक कि स्पोर्ट्स कार का शौक भी यहां के लोगों में पनपा. एक पुलिस चीफ ने तो लैंबॉर्गिनी गाड़ी मंगा डाली, पर बाद में पता चला वो उसमें बैठने के लिए वो थोड़ा मोटा था. कुल मिलाकर कहें, तो फिजूलखर्ची चरम पर थी. पर ये कब तक चलता, एक वक्त में देश का खनिज भंडार खत्म होने लगा. निर्यात घटा और देश में मंदी आने लगी.

इस पर नाहरू में मौजूद डिटेंशन सेंटर के गार्ड, मानोआ टॉन्गामालो का बयान भी खूब चर्चा में आया था. उन्होंने कहा था,

“लोग दुकानों पर जाते, कुछ मिठाईयां खरीदते और पचास डॉलर का नोट पकड़ाकर चले आते. और छुट्टा भी नहीं लेते. उन्होंने पैसे का टॉयलेट पेपर की तरह इस्तेमाल किया.”

मुश्किल के दौर में नाहरू के लोगों ने पुराने जख्म याद किए. पहले खनन में हुए नुकसान के लिए, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और ब्रिटेन से - भरपाई की मांग की जाने लगी. एक वक्त पर नाहरू ने इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ मुकदमा भी ठोंक दिया. लेकिन ऑस्ट्रेलिया ने मामले को कोर्ट के बाहर निपटाना चुना. बीस सालों के लिए, 7 करोड़ 30 लाख डॉलर देने की डील हुई. न्यूजीलैंड और ब्रिटेन ने भी 82 लाख डॉलर देने की बात कही. पर ये सब नाकाफी था.

इस दौरान देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए हथकंडे भी अपनाए गए. पर रियल एस्टेट प्रोजेक्ट बुरी तरह फेल हुए. पर्यटन के लिए भी इस आइलैंड को नहीं बदला जा सका. क्योंकि खनन से ज्यादातर जगह बर्बाद हो चुकी थी. तमाम समुद्री जीव भी इसकी भेंट चढ़ गए थे. प्राकृतिक सुंदरता मानो हर ली गई हो. आगे पासपोर्ट बेचने, विदेशी पैसा उधार देने, यहां तक कि पैसों के बदले शरणार्थियों को रखने के कदम भी उठाए गए. दूसरे देशों में गैरकानूनी तौर पर घुस रहे लोगों को यहां डिटेन किया जाने लगा.

पर कुछ काम नहीं आया. दूसरी तरफ यहां के नागरिकों का स्वास्थ्य भी खराब हो रहा था. नई-नई उपभोगवाद की आदत ने यहां के लोगों को जरूरत से ज्यादा का आदी बना दिया. आज भी यहां ओबीसिटी रेट यानी मोटापे की दर बहुत ज्यादा है. करीब 70 फीसद वयस्क इसके शिकार हैं. कभी लग्जरी कारों का शौक रखने वाले लोग आज खाने के लिए दूसरे देशों पर निर्भर हैं. कहें तो इतिहास ने फिर अपने आप को दोहराया और निरंकुश शासन से एक और राष्ट्र का पतन हो गया.

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