12 दिसंबर की शाम ईरान के मशहद का चलता-फिरता बाज़ार अचानक से ठिठक गया. वहां मौजूद लोगों की आंखें एक दिशा में घूमकर जम जा रहीं था. जिस जगह पर आंखें ठहर रही थीं, उस तरफ़ एक क्रेन खड़ी थी. उसकी केबल से 70 किलो का एक शरीर लटका था. शांत, सीधा और प्राणहीन. वो शरीर 23 बरस के मजीदरज़ा रहनावाद का था. मजीदरज़ा को ईरान में हिजाब के ख़िलाफ़ हो रहे प्रदर्शनों के दौरान दो सैनिकों की हत्या के लिए मौत की सज़ा सुनाई गई थी. मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि अदालत ने एक अस्पष्ट सीसीटीवी फ़ुटेज के आधार पर मजीदरज़ा को सज़ा सुना दी. उसे निष्पक्ष ट्रायल का मौका नहीं दिया गया. जो वकील उसे मुहैया कराया गया, उसने बचाव में कुछ भी नहीं कहा. फिर उसे एक चौराहे में क्रेन से लटका कर फांसी दे दी गई.
ईरान को मौत की सज़ा की राजधानी क्यों कहते हैं?
प्रोटेस्ट करने पर क्रेन से लटका दिया!
ईरान में पब्लिक के सामने मौत की सज़ा देने की घटना कोई नई नहीं है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि वहाँ हर साल सैकड़ों लोगों को सज़ा-ए-मौत दे दी जाती है. मजीदरेज़ा ऐसे दूसरे व्यक्ति हैं जिन्हें एंटी-हिजाब प्रोटेस्ट्स भड़क उठने के बाद फाँसी दी गई. उनसे पहले 08 दिसंबसर को मोहसिन शेख़ारी को फांसी पर लटका दिया गया था.
आज हम ईरान में मौत की सज़ा और एंटी-हिजाब प्रोटेस्ट पर विस्तार से बात करेंगे.
13 सितंबर 2022 के रोज़ तेहरान के एक मेट्रो स्टेशन पर ट्रेन से उतरते ही महसा अमीनी चौंक गई. किसी ने पीछे से उसका कंधा पकड़ा था. महसा घूमने के इरादे से तेहरान आई थी. वहां उसे शायद ही कोई जानता था. उसने मुड़कर देखा तो उसका चकित होना जायज लगा. सामने मॉरेलिटी पुलिस खड़ी थी. पुलिस ने महसा के हिजाब पहनने के तरीके पर आपत्ति जताई. जब महसा ने उनसे सवाल करने की कोशिश की, तब वे उसे अपनी गाड़ी में बिठाकर थाने ले गए. फिर तीन दिनों के बाद महसा की लाश तेहरान के एक अस्पताल में नज़र आई. उसके शरीर पर चोट के निशान थे. पुलिस का कहना था कि महसा थाने में चक्कर खाकर गिर गई थी. जबकि उसके घरवाले आरोप लगा रहे थे कि उनकी बच्ची का टॉर्चर हुआ. इसी में उसकी जान गई. जब महसा की मौत की ख़बर बाहर आई, तब पहले तेहरान, फिर उसके होमटाउन और फिर पूरे ईरान में रैलियां निकलने लगी.
महिलाएं हिजाब जलाने लगीं, अपने बाल काटने लगीं, उन्होंने सड़कों पर उतरकर कट्टरपंथी कानूनों का विरोध शुरू कर दिया. छात्र यूनिवर्सिटीज़ में हड़ताल करने लगे. ईरान सरकार ने उन्हें कुचलने के लिए हर चाल चली. जैसा कि चलन रहा है, भोंपू मीडिया ने प्रदर्शनकारियों को विदेशी एजेंट बताकर उन्हें खारिज करने की कोशिश की. अक्टूबर 2022 में ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह सैय्यद अली होसैनी खामेनई ने यहां तक कहा कि, ईरान के दंगों और अराजकता के पीछे अमेरिका, इज़रायल और उनके भाड़े के एजेंट्स का हाथ है. ये भी कि, विदेशों में रह रहे कुछ गद्दार ईरानियों ने उनकी मदद की है.
इन सबके बावजूद प्रोटेस्ट नहीं रुका. फिर सरकार ने दमनचक्र और तेज़ किया. मसलन,
- नवंबर 2022 की न्यू यॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ईरानी सैनिकों ने प्रोटेस्टर्स तक पहुंचने के लिए एंबुलेंस का इस्तेमाल शुरू किया है. एंबुलेंस को आसानी से रास्ता मिल जाता है. वे खाली एंबुलेंस लेकर प्रोटेस्ट के बीच में घुसते हैं. फिर कुछ लोगों को पकड़कर निकल जाते हैं.
- ब्रिटिश अख़बार द गार्डियन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि सैनिक महिला प्रोटेस्टर्स के गुप्तांगों को निशाना बना रहे हैं. ईरानी सिक्योरिटी फ़ोर्स जान-बूझकर महिलाओं के चेहरों और स्तनों पर पैलेट गन से हमला कर रही है.
- दिसंबर 2022 से प्रोटेस्ट में शामिल लोगों को मौत की सज़ा दी जाने लगी है. पिछले एक हफ़्ते में दो प्रोटेस्टर्स को खुले में फांसी दी गई है. दोनों पर ईरान की बासिज फ़ोर्स के सैनिकों पर हमले का आरोप था.
ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट्स न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, सिक्योरिटी फ़ोर्सेज़ के हाथों 488 लोग मारे गए हैं. अभी तक 18 हज़ार से अधिक प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया गया है. एमनेस्टी इंटरनैशनल ने हिरासत में लिए गए ऐसे 20 लोगों की पहचान की है, जिन्हें किसी भी समय मौत की सज़ा दी जा सकती है. ये सभी लोग प्रोटेस्ट के सिलसिले में गिरफ़्तार हुए थे.
मजीदरज़ा की सज़ा ने इस आशंका को मज़बूत किया है. जानकारों का कहना है कि सरकार लोगों में खौफ़ पैदा करने के लिए जल्दी-जल्दी मौत की सज़ा दे रही है. क्रेन के इस्तेमाल के ज़रिए बाकी लोगों में संदेश देने की कोशिश की जा रही है.
मजीदरज़ा को महज 23 दिनों के ट्रायल के बाद फांसी पर चढ़ा दिया गया. कहा जा रहा है कि उसे अपना पक्ष रखने का मौका भी नहीं दिया गया. गिरफ़्तारी के दो दिन बाद ही उसका एक वीडियो सामने आया था. इसमें उसने ना तो बासिज फ़ोर्सेज़ की हत्या से इनकार किया था और ना ही आरोपों को स्वीकारा था. उस वीडियो में उसकी आंखों पर पट्टी बंधी थी. कहा जा रहा है कि उससे ज़बरदस्ती आरोप कबूल करवाए गए.
यूएन ह्यूमन राइट्स की रिपोर्ट कहती है कि राजनैतिक मामलों में सज़ायफ़्ता की फ़ैमिली को चुप रहने के लिए कहा जाता है. उन्हें शोक मनाने और अपनी मर्ज़ी से दफ़नाने की इजाज़त भी नहीं मिलती. मजीदरज़ा के मामले में भी ऐसा ही हुआ. अधिकारियों ने उसकी मां को फांसी के बारे में पहले से नहीं बताया था. उन्होंने क़ब्र की जगह भी अपनी इच्छा से तय की. उसकी मां को सिर्फ कब्र का पता देकर छोड़ दिया गया.
ईरान में सज़ा देने के तरीके पर भी सवाल उठते रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में ही कहा गया है कि कुछ मामलों में क़ैदी को 15 मिनटों तक तड़पाया भी जाता है. ईरान को ‘मौत की सज़ा की राजधानी’ के तौर पर भी जाना जाता है. अकेले 2021 में 333 लोगों को मौत की सज़ा दी गई. इनमें से सिर्फ 60 मामलों की रिपोर्ट बाहर आई. ऐसे में ये पता लगाना मुश्किल है कि सज़ा पाने वालों को फ़ेयर ट्रायल मिला या नहीं? इसमें ये सवाल भी गौण हो जाता है कि, क्या केस इतना गंभीर था कि उसमें मौत की सज़ा दी जानी ज़रूरी थी?
ये तो हुई वर्तमान की बात. अब थोड़ा इतिहास में चलते हैं. ये जान लेते हैं कि 1979 की इस्लामिक क्रान्ति के पहले ईरान में सज़ा के क्या प्रावधान थे?
साल 1785 से 1925 तक ईरान में कज़ार वंश का शासन था. उनके शासन में लोगों को क्रूर सज़ाएं दी जाती थीं. कैसी सज़ाएं? जैसे खुले में फांसी देना, अपराधियों को ऊंची दीवार से नीचे फेंक देना, तोप के मुंह से बांधकर उड़ा देना. एक सज़ा का नाम ‘शमी अज्जिन' था. इसमें अपराधी के शरीर में चीरे लगाए जाते थे और उनके अंदर मोमबत्तियां जलाई जाती थीं.
फिर 1905 से ईरान में न्याययिक सुधार शुरू हुए. इस साल ईरान में फ़ारसी संवैधानिक क्रान्ति हुई. अब मौत की सज़ा सिर्फ फांसी वाले दस्ते में ही दी जाने लगी. लेकिन क्या ये सजाएं एकदम बंद हो गईं? ऐसा नहीं था. असली न्यायिक सुधार ईरान में रज़ा शाह पहलवी के दौर में आया. 1925 से 1979 तक किसी आम अपराध के लिए मृत्युदंड नहीं दिया जाता था. मृत्युदंड के पैमाने तय किए गए. जैसे, हत्या, बड़े राजद्रोह का केस या सशस्त्र विद्रोह के लिए मौत की सज़ा का प्रावधान कायम रखा गया.
फिर 1979 में ईरान में इस्लामिक क्रान्ति आई. अब ईरान एक इस्लामिक गणराज्य बन गया था. इसके बाद एक बार फिर से वहाँ सरेआम फाँसी देने का दौर शुरू हुआ. अगर किसी को मौत की सज़ा मिलती तो उसका मतलब यही था कि उसे खुले में सबके सामने फांसी पर चढ़ाया जाएगा. इसके लिए लंबी क्रेनों का इस्तेमाल किया जाने लगा. आम तौर पर स्टेडियम या किसी बड़े चौक में अपराधी को लाया जाता. उसे मंच पर चढ़ाया जाता. उसके गले पर रस्सी कसी जाती और क्रेन से उसे ऊपर खींच दिया जाता. इसके अलावा फांसी की रस्सी अपराधी के सिर पर बांधकर उसके पैर के नीचे से स्टूल हटा दिया जाता. ये भी फांसी देने का एक तरीका था. ईरान के कुछ इलाकों में अपराधी को भीड़ के हाथों संगसार करके यानी पत्थर मार-मार कर ख़त्म कर देने की प्रथा भी शुरू हुई.
दुनियाभर में मौत की सज़ा को ख़त्म करने की मुहिम चलती है. जहां ये कानून है, वहां ये मांग भी होती है कि सिर्फ जघन्य अपराधों में ऐसी सज़ा दी जाए. लेकिन ईरान धार्मिक के साथ-साथ राजनैतिक हित साधने के लिए भी इसका इस्तेमाल करता रहा है.
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