मैं बड़ी विनम्रता से इस सरकार को मिली भारी जीत स्वीकार करती हूं. मगर उन्हें मिले सर्मथन का जो आधार है, जो इसका स्वभाव है, उसकी वजह से ये ज़रूरी हो जाता है कि हमारी असहमतियां सुनी जाएं. अगर बीजेपी (और NDA) को मिला समर्थन थोड़ा भी कम होता, तो उन पर नियंत्रण रखने, संतुलन बनाने, 'चेक और बैलेंस' के लिए एक स्वाभाविक मशीनरी होती. मगर ऐसा नहीं है. ये सदन विपक्ष की जगह है. इसीलिए मैं आज इस जगह पर खड़ी होकर बोल रही हूं. हमें (संविधान) ने जो अधिकार दिया है, उस अधिकार पर अपना दावा रख रही हूं. शुरुआत मैं मौलाना आज़ाद से करना चाहती हूं, जिनकी मूर्ति इस सदन से बाहर लगी है. जिस देश को आज़ाद कराने के लिए उन्होंने संघर्ष किया, उसी देश के बारे में उन्होंने कभी कहा था- ये भारत की ऐतिहासिक तकदीर है कि इंसानों की कई सारी नस्लें और संस्कृतियां इसका हिस्सा हैं. ये मुल्क, यहां की आदरभाव वाली मिट्टी उनका घर होना चाहिए. कई सारे कारवां यहां ठहरकर आराम कर सकें, सांस ले सकें. ये ऐसा देश हो जहां हमारी अलग-अलग संस्कृतियां, हमारी भाषाएं-बोलियां, हमारी कविताएं, हमारा साहित्य, हमारी कला और हम अपने रोज़मर्रा के जीवन में जो अनगिनत चीजें करते हैं, उसपर हमारी साझा पहचान की मुहर हो. हमारी साझा पहचान का असर हो उसपर. ये ही वो आदर्श थे, जिनसे प्रेरणा लेकर हमारा संविधान लिखा गया. वही संविधान, जिसकी रक्षा की हम सबने शपथ ली है. मगर ये संविधान आज ख़तरे में है. हो सकता है आप मुझसे असहमत हों. आप कह सकते हैं कि अच्छे दिन आ गए. कि ये सरकार जिस तरह का भारत बनाना चाह रही है, वहां कभी सूर्यास्त नहीं होगा. मगर ऐसा कहने वाले संकेतों को नहीं देख पा रहे हैं. अगर आप अपनी आंखें खोलें, तो आपको ये संकेत हर जगह नज़र आ जाएंगे. ये देश टुकड़ों में बांटा जा रहा है. यहां बोलने के लिए जो कुछ मिनट मुझे मिले हैं, उनमें मुझे कुछ संकेत गिनाने दीजिए- पहला संकेत- एक बेहद ताकतवर और सतत राष्ट्रवाद की भावना है जो हमारी राष्ट्रीय पहचान को नोच रही है. उसे नुकसान पहुंचा रही है. ये राष्ट्रवाद छिछला है. दूसरों के लिए एक भय बनाने वाली भावना है इसमें. ये संकीर्ण है. इसका मकसद हमें जोड़ना नहीं, बांटना है. देश के नागरिकों को उनके घर से निकाला जा रहा है. उन्हें अवैध घुसपैठिया कहा जा रहा है. पचासों साल से यहां रह रहे लोगों को कागज़ का एक पर्चा दिखाकर ये साबित करना पड़ रहा है कि वो भारतीय हैं. ऐसे देश में जहां मंत्री कॉलेज से ग्रेजुएट होने का सबूत देने के लिए अपनी डिग्री नहीं दिखाते! और आप गरीबों से उम्मीद करते हैं कि वो अपनी नागरिकता साबित करें! साबित करें कि वो इसी देश का हिस्सा हैं! हमारे यहां मुल्क के प्रति वफ़ादारी की जांच के लिए नारों और प्रतीकों को इस्तेमाल किया जा रहा है. असलियत में ऐसा कोई इकलौता नारा नहीं, ऐसा कोई एक अकेला प्रतीक ही नहीं जिसके सहारे लोग इस मुल्क के प्रति अपनी वफ़ादारी साबित कर पाएं.
दूसरा संकेत- सरकार के हर स्तर पर मानवाधिकारों के लिए तिरस्कार की एक प्रबल भावना नज़र आती है. 2014 से 2019 के बीच हेट क्राइम्स की तादाद में कई गुना इज़ाफा हुआ. इस देश में कुछ ऐसे तत्व हैं, जो इस तरह की घटनाओं को बस बढ़ा ही रहे हैं. दिनदहाड़े लोग भीड़ के हाथों पीट-पीटकर मार डाले जा रहे हैं. पिछले साल राजस्थान में मॉब लिंच हुए पहलू खान से लेकर झारखंड में मारे गए तबरेज़ अंसारी तक, ये हत्याएं रुक ही नहीं रही हैं. तीसरा संकेत- मास मीडिया को बड़े स्तर पर नियंत्रित किया जा रहा है. देश के सबसे बड़े पांच न्यूज मीडिया संस्थान आज या तो अप्रत्यक्ष रूप से कंट्रोल किए जा रहे हैं या वो एक व्यक्ति के लिए प्रति झुके हुए हैं. टीवी चैनल्स अपने एयरटाइम का ज्यादातर हिस्सा सत्ताधारी पार्टी के लिए प्रोपगेंडा फैलाने में खर्च कर रहे हैं. सारे विपक्षी दलों की कवरेज काट दी जाती है. सरकार को रेकॉर्ड्स देने चाहिए. कि मीडिया संस्थानों को विज्ञापन देने में कितना रुपया खर्च किया है उन्होंने. किस चीज के विज्ञापन पर कितना खर्च किया गया. और किन मीडिया संस्थानों को विज्ञापन नहीं दिए गए. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने 120 से ज्यादा लोगों को बस इसलिए नौकरी पर रखा हुआ है कि वो रोज़ाना टीवी चैनलों पर आने वाले कार्यक्रमों पर नज़र रखें. इस बात को सुनिश्चित करें कि सरकार के खिलाफ कोई ख़बर न चले. फेक न्यूज़ तो आम हो गया है. ये चुनाव सरकार के कामकाज या किसानों की स्थिति और बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर नहीं लड़ा गया. ये चुनाव लड़ा गया वॉट्सऐप पर, फेक न्यूज पर, लोगों को गुमराह करने पर. ये सरकार जिन ख़बरों को बार-बार दोहराती है, हर ख़बर जो आप देते हैं, आपके सारे झूठ, आप उन्हें इतनी बार दोहराते हैं कि वो सच बन जाते हैं. कल कांग्रेस पार्टी के नेता ने यहां कहा कि बंगाल में कोऑपरेटिव मूवमेंट नाकामयाब रहे हैं. मैं उनसे कहना चाहूंगी कि वो तथ्यों की दोबारा जांच करें. वो मुर्शिदाबाद के जिस भागीरथी कोऑपरेटिव का ज़िक्र कर रहे थे, वो लाभ में है. मैं ये कहना चाहती हूं कि हम जितनी भी ग़लत जानकारियां देते हैं, वो सब इस देश को बर्बाद कर रही हैं.
चौथा संकेत- जब मैं छोटी थी, तब मेरी मां कहती थी कि ऐसा करो वैसा करो, नहीं तो काला भूत आ जाएगा. अभी देश का ऐसा माहौल है कि जैसे सारे लोग किसी अनजान से काले भूत के ख़ौफ़ में हों. सब जगह डर का माहौल है. सेना की उपलब्धियों को एक व्यक्ति के नाम पर भुनाया और इस्तेमाल किया जा रहा है. हर दिन नए दुश्मन गढ़े जा रहे हैं. जबकि पिछले पांच सालों में आतंकवादी घटनाएं काफी बढ़ी हैं. कश्मीर में शहीद होने वाले जवानों की संख्या में 106 फीसद इज़ाफा हुआ है. पांचवां संकेत- अब इस देश में धर्म और सरकार एक-दूसरे में गुंथ गए हैं. क्या इस बारे में बोलने की ज़रूरत भी है? क्या मुझे आपको ये याद दिलाना होगा इस देश में अब नागरिक होने की परिभाषा ही बदल दी गई है. NRC और नागरिकता संशोधन (सिटिजनशिप अमेंडमेंट) बिल लाकर हम ये सुनिश्चित करने में लगे हैं कि इस पूरी प्रक्रिया के निशाने पर बस एक खास समुदाय आए. इस संसद के सदस्य अब 2.77 एकड़ ज़मीन (राम जन्मभूमि के संदर्भ में) के भविष्य को लेकर चिंतित हैं, न कि भारत की बाकी 80 करोड़ एकड़ ज़मीन को लेकर. छठा संकेत- ये सबसे ख़तरनाक है. इस समय बुद्धिजीवियों और कलाकारों के लिए समूचे तिरस्कार की भावना है. विरोध और असहमतियों को दबाया जाता है. लिबरल एजुकेशन की फंडिंग दी जाती है. संविधान के आर्टिकल 51 में साइंटिफिक टेम्परामेंट की बात करता है. मगर हम अभी जो कर रहे हैं, वो भारत को अतीत के एक अंधेरे दौर की तरफ ले जा रहा है. स्कूली सिलेबस की किताबों में छेड़छाड़ की जा रही है. उन्हें मैनिपुलेट किया जा रहा है. आप लोग तो सवाल पूछना भी बर्दाश्त नहीं करते, विरोध तो दूर की बात है. मैं आपको बताना चाहती हूं कि असहमति जताने की भावना भारत के मूल में है. आप इसे दबा नहीं सकते. मैं यहां रामधारी सिंह दिनकर की लिखी कविता यहां उधृत करना चाहूंगी- हां हां दुर्योधन बांध मुझे. बांधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है? सूने को साध न सकता है, वह मुझे बांध कब सकता है?
सातवां संकेत- हमारे चुनावी तंत्र की आज़ादी घट रही है. इन चुनावों में 60 हज़ार करोड़ रुपये खर्च हुए. इसका 50 फीसद एक अकेली पार्टी ने खर्च किया. 2017 में यूनाइटेड स्टेट्स होलोकास्ट मेमोरियल म्यूजियम ने अपनी मुख्य लॉबी में एक पोस्टर लगाया. इसमें फासीवाद आने के शुरुआती संकेतों को शामिल किया गया था. मैंने जो सातों संकेत यहां गिनाए, वो उस पोस्टर का भी हिस्सा थे. भारत में एक खतरनाक फासीवाद उभर रहा है. इस लोकसभा के सदस्यों को ये तय करने दीजिए कि वो इतिहास के किस पक्ष के साथ खड़े होना चाहेंगे. क्या हम अपने संविधान की हिफ़ाजत करने वालों में होंगे या हम इसे बर्बाद करने वालों में होंगे. इस सरकार ने जो भारी-भरकम बहुमत हासिल किया है, मैं उससे इनकार नहीं करती. मगर मेरे पास आपके इस विचार से असहमत होने का अधिकार है कि न आपके पहले कोई था, न आपके बाद कोई होगा. अपना संबोधन खत्म करते हुए मैं राहत इंदौरी की कुछ पंक्तियां बोलना चाहूंगी- जो आज साहब-ए-मसनद हैं, वो कल नहीं होंगे किरायेदार हैं, जाती मकान थोड़े न है सब ही का खून शामिल है यहां की मिट्टी में किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़े ही है
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