एक और दो अक्टूबर की दरमियानी रात ईरान ने इजरायल की ओर कई बैलिस्टिक मिसाइलें दागीं. कहा गया कि ये हिजबुल्लाह के चीफ कमांडर नसरल्लाह और ईरान समर्थित मिलिशिया गुटों के नेताओं की मौत का बदला है. आज यानी 2 अक्टूबर के दिन भारत समेत दुनियाभर में इस हमले से पैदा हुए नए संकट की चर्चा है. और आज ही महात्मा गांधी की 155वीं जयंती है. देश-दुनिया उन्हें अहिंसा के सबसे बड़े समर्थक के रूप में जानते हैं. ऐसे में ये जानना दिलचस्प है कि इजरायल और फिलिस्तीन के मुद्दे पर गांधी क्या सोचते थे (Mahatma Gandhi on Israel Palestine). उन्होंने 86 साल पहले ‘फिलिस्तीन के सवाल’ पर अपना जवाब रख दिया था.
इजरायल और फिलिस्तीन में से किसके समर्थक थे महात्मा गांधी?
गांधी का यहूदियों से जुड़ाव पुराना रहा है. 1893 से 1914 के बीच वो दक्षिण अफ्रीका में रहे. जहां उनके ज्यादातर दोस्त यहूदी थे. खासकर हरमन कालेनबाख, जो गांधी के आजीवन सहयोगी रहे.
कोई कहेगा कि गांधी होते तो शायद मिडिल ईस्ट में चल रही इस लड़ाई का खुलकर विरोध करते. कोई ये बताएगा कि गांधी इजरायल की तरफ झुकते. हालांकि गांधी ने साल 1938 में ही अपनी राय रख दी थी. ‘हरिजन’ पत्रिका में लिखे ‘The Jews’ नाम के एक आर्टिकल में गांधी ने बताया था,
“फिलिस्तीन उसी तरह अरबों का है जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेजों का, या फ्रांस फ्रांसीसियों का है.”
लेकिन इस एक लाइन मात्र से फिलिस्तीन को लेकर गांधी की सोच को समेटा नहीं जा सकता. गांधी जी यहूदियों के प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे. इंडियन एक्सप्रेस में छपे अपने एक आर्टिकल में अर्जुन सेनगुप्ता बताते हैं कि इस मुद्दे पर गांधी क्या सोचते थे. उनके मुताबिक हरिजन में गांधी लिखते हैं,
“मेरी पूरी सहानुभूति यहूदियों के साथ है. वे ईसाई धर्म में अछूत रहे हैं. ईसाइयों द्वारा उनके साथ किए गए व्यवहार और हिंदुओं द्वारा अछूतों के साथ किए गए व्यवहार में बहुत समानता है. दोनों मामलों में उनके साथ किए गए अमानवीय व्यवहार को उचित ठहराने के लिए धर्म का सहारा लिया गया.”
गांधी ने एडोल्फ हिटलर को खुश करने की ब्रिटेन की नीति पर चिंता भी व्यक्त की थी. सितंबर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने से पहले गांधी ने इस पर अपने विचार साझा किए. उन्होंने कहा,
“मानवता के हित में और यहूदी लोगों पर अत्याचार को रोकने के लिए जर्मनी के साथ युद्ध भी पूरी तरह से उचित होगा.”
गांधी का यहूदियों से जुड़ाव पुराना रहा है. अखबार ने बताया है कि 1893 से 1914 के बीच वो दक्षिण अफ्रीका में रहे. जहां उनके ज्यादातर दोस्त यहूदी थे. खासकर हरमन कालेनबाख, जो गांधी के आजीवन सहयोगी रहे.
इस चर्चा के बीच एक किताब का जिक्र जरूरी है. मार्गरेट चटर्जी की Gandhi and his Jewish Friends (1992). आर्टिकल में लिखा है कि इस किताब में मार्गरेट लिखती हैं कि गांधी दक्षिण अफ्रीका में पूर्वी यूरोप के यहूदी प्रवासियों को ऐसे लोगों के समूह के रूप में देखते थे जो भारतीयों की तरह बिना किसी गलती के यातनाएं झेल रहे थे. ये सभी लोग गांधी के सबसे करीबी दोस्त बन गए. जोहान्सबर्ग और लंदन में गांधी सामाजिक और राजनीतिक कार्यों के लिए इन लोगों पर ही निर्भर रहते थे.
Zionist राज्य पर गांधी के विचारगांधी यहूदियों के प्रति बहुत सहानुभूति रखते थे. लेकिन वो कभी भी Zionist राज्य के पक्ष में नहीं थे. उनका मानना था कि यहूदी देश की मांग यहूदी लोगों के उस उद्देश्य को कमजोर करेगी. उन्हें दुनिया में कहीं भी सम्मान और बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाएगा. गांधी लिखते हैं,
"अगर यहूदियों के पास फिलिस्तीन के अलावा कोई घर नहीं होगा, तो क्या वो दुनिया के उन दूसरे हिस्सों को छोड़ने के लिए मजबूर होने के विचार को पसंद करेंगे, जहां वे बसे हुए हैं?"
गांधी का मानना था कि Zionist राज्य के लिए यहूदियों का दावा जर्मनी द्वारा उन्हें निष्कासित करने की प्रक्रिया को एक ‘औचित्य रूप’ देगा. इस पर गांधी कहते हैं,
“यदि मैं यहूदी होता और जर्मनी में पैदा हुआ होता, तो मैं जर्मनी को अपना घर मानता. और किसी गैर-यहूदी जर्मन को चुनौती देता कि वो मुझे गोली मार दे या मुझे कालकोठरी में डाल दे. मैं निष्कासित होने या भेदभावपूर्ण व्यवहार को स्वीकार करने से इनकार कर देता.”
Zionist राज्य का समर्थन न करने के पीछे गांधी के अपने तर्क थे. वो मानते थे,
“यहूदियों को अरब लोगों पर थोपना गलत और अमानवीय है. ये मानवता के खिलाफ अपराध होगा कि अरब लोगों के गौरव को कम किया जाए, ताकि फिलिस्तीन को आंशिक या पूरी तरह से यहूदियों को उनके राष्ट्रीय घर के रूप में वापस किया जा सके.”
गांधी का मानना था कि ब्रिटिश समर्थन से जिस तरह से Zionist परियोजना को चलाया जा रहा था, वो मूलतः हिंसक थी.
इजरायल पर गांधी पिघल गए!यहूदियों के प्रति गांधी की सहानुभूति तो ठीक थी, लेकिन कई लोगों का तर्क है कि जब इजरायल का प्रश्न आया तो उनका मन बदल गया. कई लोगों का दावा है कि होलोकॉस्ट की भयावहता के बारे में पता चलने के बाद इस मुद्दे पर गांधी की राय में बड़ा परिवर्तन देखने को मिला. इसके लिए जून 1946 में गांधी की जीवनी लिखने वाले लुई फिशर के साथ हुई उनकी बातचीत को अक्सर कोट किया जाता है. इसमें गांधी कथित रूप से कहते हैं,
"यहूदियों की मांग अपनी जगह ठीक है. मैंने ब्रिटिश ज़ायोनी सांसद सिडनी सिल्वरमैन को बताया कि यहूदियों की फिलिस्तीन की मांग अपने आप में जायज है. अगर अरबों का फिलिस्तीन पर दावा है, तो यहूदियों का इस पर दावा पहले से ही है."
हालांकि, फिशर के लेखन के अलावा इस दावे को सपोर्ट करने वाले काफी कम सबूत हैं. एक अखबार ने फिशर से गांधी की बातचीत का हवाला देते हुए उनके यहूदीवाद के समर्थन के बारे में एक लेख प्रकाशित किया. लेख सामने आने के बाद गांधी ने जुलाई 1946 में हरिजन में ही एक स्पष्टीकरण सामने रखा. इसमें गांधी लिखते हैं,
“यहूदियों के निर्दयी उत्पीड़न के बाद शायद फिलिस्तीन में उनकी वापसी का कोई सवाल ही नहीं उठता.”
गांधी अंत में लिखते हैं कि यहूदियों ने अमेरिका और ब्रिटेन की सहायता से और बाद में हिंसा की मदद से फिलिस्तीन पर खुद को थोपने की कोशिश करके बड़ी गलती की है.
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