1916 का बॉम्बे क्वाड्रैंगुलर टूर्नामेंट शुरू होने वाला था. इसी टूर्नामेंट की बदौलत हिंदुस्तान को क्रिकेट की पहली पांत के दिग्गज मिले—चाहे वह सी. के. नायडू हों या आंबेडकर के पसंदीदा क्रिकेटर पलवंकर बालू. खैर, मैच का दिन आया, लेकिन पहली बार हिंदू टीम का वह खिलाड़ी, जिसने ब्रिटिश खिलाड़ियों के होश उड़ा दिए थे, मैदान में नहीं था. पलवंकर बालू गायब थे!
रोहित-विराट ने जिसे बुलंदियों पर पहुंचाया, उस इंडियन क्रिकेट की शुरुआत पारसियों ने की
भारत में पारसी समुदाय ने सबसे पहले क्रिकेट खेलना शुरू किया. फिर 1907 में हिंदुओं ने अपनी टीम बनाई और यूरोपियन, पारसी और हिंदुओं के बीच त्रिकोणीय मुकाबले होने लगे. कुछ साल बाद मुस्लिम भी इस लीग में शामिल हो गए और बॉम्बे क्वाडरैंगुलर का गठन हुआ.


बालू की गैरमौजूदगी ने टीम को कमजोर कर दिया, लेकिन नियति को एक नई कहानी लिखनी थी. एक नौजवान, जो अपना पहला प्रथम श्रेणी मैच खेल रहा था, टीम में शामिल हुआ. नाम था सी. के. नायडू.
मैच से पहले इस नए खिलाड़ी को रणजी ने कुछ टिप्स दीं. ये वही रणजी हैं, जिनके नाम पर आज रणजी ट्रॉफी खेली जाती है. रणजी की दी गई इन टिप्स ने सी. के. नायडू का करियर बना दिया. जो लोग क्रिकेटर बनने का सपना देखते हैं, उन्हें रणजी की ये टिप्स ज़रूर याद रखनी चाहिए.

क्रिकेट अंग्रेजों ने ईजाद किया. अपनी मिट्टी से दूर रह रहे अंग्रेजों के लिए स्पोर्ट्स उनकी माशूका जैसा था. भारत में भी विदेशियों के लिए घर की याद के तौर पर ही क्रिकेट आया. रामचंद्र गुहा अपनी किताब अ कार्नर ऑफ अ फॉरेन फील्ड में लिखते हैं—
भारत में क्रिकेट का पहला जिक्र 1721 में मिलता है. कांबे के तट पर अंग्रेज नाविकों ने मैच खेला. एक खिलाड़ी लिखता है— 'जब हमारी बोट किनारे पर रुकी थी, तब परदेस की धरती पर हमने क्रिकेट खेलकर मन बहलाया. हमें देखने के लिए स्थानीय दर्शक भी आते. एडमिरल और जनरल्स को मालूम था कि उनके सैनिकों को घर की याद आएगी.'
जैसा कि एक क्रिकेट इतिहासकार ने लिखा था, "हॉर्स गार्ड्स के आदेश से बैरकों के बगल में क्रिकेट मैदान बनाए जाते थे. जहाजों में बैट-बॉल रखे जाते थे, ताकि समंदर में काकरोचों, तट के केकड़ों और कछुओं को अचंभित कर सकें."
मतलब यह था कि जहां-जहां रानी के सर्वेंट्स (नौकर) अपनी विजय-पताका लेकर गए, वहां-वहां क्रिकेट की धमक पहुंची.

क्रिकेट शुरुआत में तटों तक ही सीमित रहा. भारतीय क्रिकेट के शुरुआती रिकॉर्ड्स में पहली हैट्रिक, पहला टाई और पहला शतक—ये सभी खिताब मिलिट्री के लोगों से जुड़े रहे हैं. वहीं, ब्रिटेन से बाहर पहला क्रिकेट क्लब 'कलकत्ता क्रिकेट क्लब' था, जिसे साल 1792 में स्थापित किया गया.
मैच के बाद क्रिकेट की एक्सरसाइज़, खाना-पीना और नाच-गाना भी होता था. 12 साल बाद क्लब ने 'ग्रैंड मैच ऑफ क्रिकेट' का आयोजन किया. यह मैच पुराने धुरंधरों और ईस्ट इंडिया कंपनी के कमतर समझे जाने वाले खिलाड़ियों के बीच हुआ था. यह मैच दो मायनों में अहम था—
भारतीय जमीन पर पहला शतक, जिसे राबर्ट वैंसिट्टार्ट ने इसी दौरान मारा.
भारत में क्रिकेट मैच में पहली बार सट्टा इसी मैच के दौरान लगाया गया.
इसके अलावा, साल 1792 में मद्रास में भी पहली बार क्रिकेट के सुराग मिलते हैं. अंग्रेजों को क्रिकेट खेलकर आराम तो मिलता था, लेकिन भारत के मौसम में वे कम ही आनंद उठा पाते थे. युद्ध और बीमारी के बीच मानसून ही ऐसा वक्त होता था जब अंग्रेज चैन से रह पाते थे और इंग्लैंड जैसी यादें बना पाते थे.
शुरुआती दिनों में स्थानीय लोगों को क्रिकेट सिखाने में अंग्रेजों की कोई रुचि नहीं थी. राज करने वाले खेलते थे और भारतीय उनकी सेवा करते थे.
1840 के कलकत्ता क्लब के रिकॉर्ड्स में इस बारे में जिक्र मिलता है. बताया जाता है कि...
भारतीयों के बीच क्रिकेटक्रिकेट के मैदान में दो बड़े टेंट लगे मिलते थे, जहां सोफा, कांच के ग्लास और कुर्सियां सजी रहती थीं. खिलाड़ी जो भी मांगते, उन्हें वह मुहैया करवाया जाता—चाहे सिगार जलाना हो, ठंडा पानी चाहिए हो या बर्फ. ये सब पगड़ी पहने अटेंडेंट उनकी सेवा में लगे रहते. स्थानीय लोग खेल से दूर ही रहते थे, लेकिन धीरे-धीरे भारतीयों के बीच क्रिकेट ने अपनी जगह बनाई.
गैर-यूरोपीय लोगों के बीच भी क्रिकेट लोकप्रिय हुआ. पारसी पहला समुदाय बने, जिन्होंने क्रिकेट खेलना शुरू किया. फिर, 1907 में हिंदुओं ने अपनी टीम बनाई, और यूरोपियन, पारसी और हिंदुओं के बीच त्रिकोणीय मुकाबले होने लगे. कुछ साल बाद मुस्लिम भी इस लीग में शामिल हो गए, और बॉम्बे क्वाड्रैंगुलर का गठन हुआ.
टूर्नामेंट हर साल मुंबई में खेला जाता था और जल्द ही यह सबसे ज्यादा फॉलो किया जाने वाला क्रिकेट कंपटीशन बन गया. टीमें धर्म के आधार पर बंटी रहती थीं, और बड़ी संख्या में भीड़ इन मैचों को देखने के लिए इकट्ठा होती. जल्द ही क्रिकेट का बुखार मुंबई पर चढ़ गया, जिससे क्वाड्रैंगुलर भारत का पहला लोकप्रिय खेल आयोजन बना. इसी बॉम्बे क्वाड्रैंगुलर में एक कमाल के भारतीय क्रिकेटर उभरे—पलवंकर बालू.
पालवंकर बालू स्लो लेफ्ट आर्म बॉलर थे, जो तथाकथित निचले वर्ग से आते थे. बालू ने हिंदुओं को यूरोपियंस के खिलाफ कई मैचों में जीत दिलाई और इंग्लैंड के पहले ऑल इंडिया टूर में 100 से ज्यादा विकेट लिए. 1895 से 1937 तक, बालू का करियर क्रिकेट और राजनीति दोनों से होकर गुजरा.
हालांकि, दलित होने की वजह से बालू को अपने ही टीममेट्स से भेदभाव झेलना पड़ा. उनके लिए पानी पीने का बर्तन अलग होता. उनके टीम के साथी उनकी बॉलिंग की तारीफ तो करते, लेकिन साथ में खाना खाने से मना कर देते. लेकिन क्रिकेट की दुनिया में बालू का खासा दबदबा था. उनके साथी सेशचारी ने एक बार द हिंदू अखबार को दिए एक इंटरव्यू में कहा था—
बालू इतना बेहतरीन खेलते हैं कि वो किसी भी देश के साथ खेल सकते हैं.
ब्रिटिश क्रिटिक ई. एच. डी. सेवेल ने तो यहां तक कहा कि...
बालू ऐसे बॉलर हैं जिन्हें ज्यादातर देश अपने प्लेइंग इलेवन में रखना चाहेंगे.
आगे चलकर ये बी. आर. आंबेडकर से भी मिले. दोनों दोस्त बने. लेकिन फिर साल 1932 में बालू ने आंबेडकर की सपरेट इलेक्टोरेट की मांग का समर्थन नहीं किया. बाद के सालों में उन्होंने हिंदू महासभा के टिकट पर बॉम्बे म्यूनिसिपैलिटी कांस्टीट्यूएंसी (निर्वाचन क्षेत्र) से चुनाव भी लड़ा, पर जीत नहीं सके. खैर, उस समय के एक यूरोपीय खिलाड़ी थे जॉनी ग्रेग. ग्रेग 1916 में आलोचकों को गलत साबित करने और बालू को हराने उतरे थे.

लेकिन इस साल इतिहास में पहली बार ग्रेग के विपरीत बालू नहीं उतरे. वह थोड़ा बीमार थे, और उनकी जगह नागपुर के एक युवा खिलाड़ी को मौका दिया गया. यह खिलाड़ी अपना पहला फर्स्ट-क्लास मैच खेल रहा था. ये थे सी. के. नायडू. वह ठीक-ठाक परिवार से आते थे. नायडू के पिता और चाचा कैंब्रिज में रणजी के पक्के यार थे. आज रणजी और सी. के. नायडू दोनों के नाम पर क्रिकेट प्रतियोगिताएं होती हैं. खैर, जब सी. के. नायडू अपना करियर शुरू कर रहे थे, तब उनके पिता ने रणजी से कुछ सलाह मांगी. उन्होंने तीन सुझाव दिए.
बल्ला सीधा रखो, जोर से मारो, और घबराओ मत.
रणजी की बातें सुनकर ये नया रंगरूट जब अपने पहले क्वाड्रैंगुलर मैच में मैदान में उतरा, तो खाता छक्का मारकर खोला.
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