भारत कब आजाद हुआ- 15 अगस्त, 1947 को. आजादी के बाद पहली बार तिरंगा कहां फहराया गया? - राजधानी दिल्ली में, लाल किले की प्राचीर पर. अब मुश्किल सवाल, इस काम के लिए लाल किले को ही क्यों चुना गया? जवाब लम्बा है, इसलिए चलेंगे इतिहास पर. 12 मई की तारीख थी. साल था 1639. जब मुग़ल बादशाह शाहजहां ने लाल किले (Red Fort) की नींव रखी थी. यहां से शुरुआत हुई एक अफ़साने की. जिसमें बादशाह था, साजिशें थी, एक क्रांति थी और था एक मुक़दमा. अफसाना साल दर साल बदलता रहा, किरदार बदलते रहे लेकिन मंच एक ही रहा. लाल किला. क्या है लाल किले का इतिहास. (Red Fort History)
15 अगस्त को तिरंगा फहराने के लिए लाल किला ही क्यों चुना गया?
हर 15 अगस्त को प्रधानमंत्री लाल किले से तिरंगा फहराते हैं और देश को सम्बोधित करते हैं. 1947 से ये प्रथा चली आ रही है, लेकिन लाल किला ही क्यों चुना गया?
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किला-ए-मुबारक
बादशाह हुमायूं के वक्त से आगरा मुगलों की राजधानी रहा था. फिर 1638 में शाहजहां ने राजधानी दिल्ली ट्रांसफर कर दी. दिल्ली जिसे हम आज कहते हैं, तब ऐसी नहीं थी. पिछले बादशाहों ने इस शहर को अपने-अपने हिसाब से बनाया था. शाहजहां ने दिल्ली के नक़्शे में एक नई नक्काशी जोड़ी. और इसे नाम दिया, शाहजहानाबाद. जिसे हम आज पुरानी दिल्ली के नाम से जानते हैं. 1639 में उन्होंने यमुना के पास एक जमीन चुनी, एक नया किला बनाने के लिए. और इसकी जिम्मेदारी सौंपी, दो भाइयों को. उस्ताद हामिद और उस्ताद अहमद. दोनों भाइयों का CV बेहतरीन था. दोनों इससे पहले ताजमहल में हाथ की कारीगरी दिखा चुके थे. इसलिए दोनों को इस काम के लिए एक करोड़ रूपये की रकम दी गयी. और किले का काम शुरू हो गया. किला बनाने में 10 साल का समय लगा. बनाने में ज्यादातर लाल पत्थर का इस्तेमाल हुआ. इसलिए आगे जाकर इसका नाम लाल किला पड़ गया. हालांकि तब इसे किला-ए-मुबारक कहा जाता था.
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आज जो किला आप देखते हैं, वो इसकी असली भव्यता का मात्र एक कंकाल है. जब पहली बार ये बना था, इसमें आठ किनारे थे. किले के आसपास ढाई किलोमीटर लम्बा परकोटा बनाया गया था. जिसकी ऊंचाई लगभग 33 मीटर थी. किले में पांच दरवाज़े थे, पश्चिम में लाहौरी दरवाजा, चांदनी चौक की ओर खुलता था. और दक्षिण में दिल्ली दरवाज़ा था जो पुराने शहर की ओर खुलता था. औरंगज़ेब के काल में इन दोनों दरवाज़ों पर घूंघट डाल दिए गए थे. ताकि महल के अंदर और बाहर रहने वालों में पर्दा हो सके. आज देखेंगे तो लाहौरी गेट अब उत्तर दिशा में खुलता है. जिसके अंदर जाते हुए छत से ढका रास्ता है- छत्ता चोक, जिसके दोनों ओर दुकानें लगती हैं.
दीवान-ए-खास और तख़्ते ताऊस
किले की सबसे महत्वपूर्ण जगह थी- दीवान-ए-खास. वो जगह, जहां बादशाह अपने खास लोगों से मिलता था. दीवाने खास में संगमरमर के चौकोर खंभों पर खूबसूरत नक्काशी की गई थी. और खंभों के ऊपर की छत चांदी की बनी हुई थी. चारों कोनों के ऊपर छोटी बुर्जियां थीं जिनके छोटे-छोटे गुंबद पहले तांबे के थे और उन पर सोने का पत्तर चढ़ा हुआ था. दीवान-ए-खास के बीच में चबूतरे पर हीरे-जवाहिरात से जड़ा सोने का बेशकीमती तख़्ते ताऊस रखा गया था. फ्रेंच यात्री, फ्रांस्वा बर्नियर ने तख्ते ताऊस के बारे में लिखा है:
“छह सोने के पायों पर यह तख़्त बना था. कहते हैं कि यह बिलकुल ठोस था, इसमें याकूत और कई प्रकार के हीरे जड़े हुए थे. इसके निकट जाने की किसी को आज्ञा नहीं है. इसका मूल्य चार करोड़ रुपया आंका गया था. इस तख़्त को औरंगजेब के पिता शाहजहां ने इसलिए बनवाया था कि खजाने में पुराने राजाओं और पठानों के समय-समय पर नजराने से जो जवाहरात इकट्ठे हुए थे, लोग उन्हें देखें सकें.”
तख़्त-ए-ताऊस और लाल किले की ये शान औरंगज़ेब और उसके कुछ तीन दशक बाद तक बरक़रार रही. फिर 1738 में नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला किया और वो तख़्त-ए-ताऊस को भी लूट कर अपने साथ फ़ारस यानी ईरान ले गया. कहा जाता है कि तख़्त को तोड़ताड़ कर, उसके टुकड़ों से उसने नादरी तख़्त ताऊस बनाया गया था. तख़्त का एक हिस्सा आज भी सेंट्रल आफ़ बैंक ऑफ़ ईरान के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखा हुआ है और दूसरा हिस्सा तुर्की के तोपकापी महल में रखा हुआ है.
नादिर शाह के हमले के बाद मुग़ल लगातार कमजोर होते गए और 1752 में लाल किले पर मराठाओं का अधिकार हो गया था. 1761 में पानीपत के मैदान में मराठाओं का सामना अहमद शाह अब्दाली से हुआ. इस दौरान मराठाओं ने दीवान-ए-ख़ास की चांदी की छत को पिघला कर उससे पैसा इकठ्ठा किया. गुणाकर मुले अपनी किताब, भारत के प्रसिद्ध किले में लिखते हैं,
“1760 ई. में मराठा सेना प्रमुख सदाशिवराव भाऊ दीवान-ए-खास की छत में लगी चांदी को उखाड़कर उसके 17 लाख सिक्के ढलवाए थे; अब वहां केवल लकड़ी की छत रह गई है.”
1857 की क्रांति और बहादुर शाह ज़फर
लाल किले में अगली बड़ी घटना 1788 में हुई. मुग़ल बादशाह शाह आलम को एक रोहिल्ला सरदार ग़ुलाम क़ादिर ने क़ैदकर के उन्हें अंधा कर दिया. शाही परिवार के कई सदस्य मारे गए. और कई दिनों तक लूटपाट मची. इस भयानक घटना के चलते बाद में ये अफवाह भी शुरू हुई कि लाल किले में भूत विचरते हैं.
भूतों का तो पता नहीं, अंग्रेज़ जरूर यहां विचरते थे, 1803 के बाद उन्होंने दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया था. शाह आलम कहने को बादशाह थे. लेकिन सिर्फ कहने को. बाकायदा एक कहावत शुरू हो गई थी. अज दिल्ली ता पालम, बादशाह शाह आलम,. यानी शाह आलम की सल्तनत दिल्ली से पालम तक है, बस. 1806 में शाह आलम की मौत के बाद उनके बेटे अकबर द्वितीय ने गद्दी संभाली. और उसके बाद बादशाह बने, बहादुर शाह ज़फर. ज़फर मुगलिया सल्तनत के आख़िरी बादशाह साबित हुए. लाल किला अब तक पूरी तरह अंग्रेज़ों के कन्ट्रोल में आ गया था. नाम के लिए अब भी उस पर बादशाह का हक़ था लेकिन दीवान-ए-खास में दरबार तक लगाने की मनाही थी. दिल्ली की जनता के लिए लाल किला बस बाहर से देखने की चीज थी.
अंदर जाने का आख़िरी मौका मिला 1857 में, जब बागियों ने ज़फर के हाथ में क्रांति की मशाल थमा दी. हालांकि क्रांति असफल रही और बहादुर शाह जफ़र पर मुक़दमा चलाकर उन्हें रंगून भेज दिया गया. विडम्बना देखिए कि ये मुकदमा उसी दीवाने खास में चला था, जहां मुग़ल अपना दरबार लगाते थे. 1857 के बाद दीवान-ए-खास ब्रिटिश अधिकारियों के लिए नाच-गान व महफिलों का अड्डा बनकर रह गया! दिल्ली पर पूरी तरह कब्ज़े ने बाद अंग्रेज़ों ने लाल किला छावनी में तब्दील कर दिया. समय के साथ किले के दो तिहाई महल नष्ट कर दिए गए. जो बचे उन्हें अंग्रेज़ों की सैनिक छावनियां, बंगले, ऑफ़िस और गोदाम बना दिया. दीवान-ए-ख़ास को अस्पताल में तब्दील कर दिया गया.
दिल्ली के बरअक्स अधिकतर समय तक अंग्रेज़ों की राजधानी कलकत्ता रही. हालांकि दिल्ली बहुत मायने रखती थी, इसलिए 1877, 1903 और 1911 तक ब्रिटिशर्स ने 3 शाही दरबारों का आयोजन दिल्ली में ही किया. दिसंबर 1911 में आयोजित दिल्ली दरबार में किंग जॉर्ज का राज्याभिषेक किया गया. राज्याभिषेक के बाद राजा और रानी लाल किले के झरोखे पर खड़े हुए और लोगों का अभिवादन लिया. इसी झरोखे से कभी मुग़ल बादशाह जनता के सामने आते थे, इसलिए एक तरह से ये कहने का तरीका था कि अब हम बादशाह हैं. 1911 के दिल्ली दरबार में एक और घोषणा हुई. कलकत्ता से राजधानी दिल्ली लाई गई.
किंग जॉर्ज का दिल्ली दरबार
1857 से 1940 तक लाल किला अंग्रेज़ो की गुलामी का प्रतीक बना रहा. लेकिन फिर 1943 में हुई एक घटना ने लाल किले को आजादी के आंदोलन का प्रतीक बना दिया. उस साल नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापोर से दिल्ली चलो का नारा दिया. आजाद हिन्द सरकार के गठन के बाद वो रंगून गए और बहादुर शाह ज़फर की कब्र का दर्शन किया. यहां उन्होंने आजाद हिन्द फौज से कहा “हमारा काम तब तक ख़त्म नहीं होगा, जब तक हमारे सिपाही दिल्ली पहुंचकर ब्रिटिश साम्राज्य की कब्र, लाल किले में विक्ट्री परेड नहीं निकाल लेते”. नेताजी इस काम में सीधे तो सफल नहीं हो पाए लेकिन इत्तेफाक से द्वितीय विश्व के बाद INA के तीन अफसरों पर मुक़दमा लाल किले में चलाया गया.
ये मुकदमा ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में आख़िरी कील साबित हुआ. INA के तीन अफसरों की रिहाई के लिए पूरा देश सडकों पर उतर आया. 1946 में मुंबई में रॉयल इंडियन नेवी के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया, और अंत में इन तीन सिपाहियों को छोड़ना पड़ा. अंग्रेज़ों के दिन भी गिनती के रह गए थे. और लगभग एक साल बाद 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हो गया.
15 अगस्त को लाल किले पर ही तिरंगा क्यों?
इतनी कहानी से आपको इतना समझ आया होगा कि आजादी के आंदोलन में लाल किले का एक प्रतीक के रूप में ख़ास महत्व था. होने को लुटियंस दिल्ली भी था , जिनकी इमारतों से अंग्रेज़ों का राजकाज चलता था. लेकिन वो सब उनके आने के बाद बनी थी. जबकि लाल किला 1857 की क्रांति से पहले और 1947 के बाद के भारत को जोड़ता था. वहां तिरंगा फहराया जाना, एक सांकेतिक यात्रा के पूरे होने जैसा था, आजादी से गुलामी और फिर आजादी तक यात्रा. आजादी के समारोह के लिये लाल किले का चुना जाना भारत के लिये अपनी विरासत को दोबारा प्राप्त करने जैसा था. यहां पर एक रोचक बात और बतातें हैं आपको. हर साल 15 अगस्त के रोज़ देश के प्रधानमंत्री लाल किले से झंडा फहराते हैं. और देश को सम्बोधित करते हैं. ये परम्परा अगस्त 1947 से चली आ रही है लेकिन पहली बार लाल किले पर तिरंगा 15 नहीं 16 अगस्त को फहराया गया था.
15 अगस्त को झंडा रोहण का कार्यक्रम इंडिया गेट के पास प्रिंसेज़ पार्क में रखा गया था. इसकी अगली रोज़ नेहरू ने लाहौरी गेट पर तिरंगा फहराया और देश को सम्बोधित किया. अपने पहले भाषण में उन्होंने विशेष रूप से नेताजी को याद किया, जिन्होंने 1943 में ही लाल किले पर आजाद भारत का झंडा देखने की तमन्ना जाहिर कर दी थी. एक दिलचस्प तथ्य ये भी है कि 1947 से लाल किले का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा भारतीय सेना के अधिकार में रहा. इस दौरान किले के भीतर की कई पुरानी इमारतों व बागों को मिटाकर उनके स्थान पर सैनिकों के लिए बैरकें बनाई गई. और अंत में, 22 दिसंबर, 2003 को सेना ने इसे खाली करके भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सौंप दिया.
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