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प्रयागराज में महाकुंभ का आगाज, कैसे शुरू हुई शाही स्नान की परंपरा, अकबर का योगदान पता है?

Prayagraj Kumbh 2025: प्रयागराज में महाकुंभ 2025 का शुभारंभ हो चुका है. पहला शाही स्नान मंगलवार 14 जनवरी को है. कुंभ में अखाड़ों के शाही स्नान की परंपरा आदि शंकराचार्य ने शुरू की. जबकि मुगल बादशाह अकबर ने अपने सरकारी महकमे को कुंभ में घाटों के निर्माण और पब्लिक टॉयलेट जैसी मूलभूत जनसुविधाओं के विकास में लगाया. आजादी के बाद नेहरू सरकार ने 1954 में कुंभ के लिए एक करोड़ से ज्यादा का बजट आवंटित किया.

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महाकुंभ की पौराणिक कथा ही नहीं इतिहास भी दिलचस्प है (फोटो- इंडिया टुडे आरकाइव)

आस्था का संगम कुंभ. तीर्थराज प्रयाग से लेकर इलाहाबाद और अब प्रयागराज तक महाकुंभ के विकास की गाथा बड़ी दिलचस्प है. महाकुंभ मेला भारत में एक भव्य धार्मिक उत्सव है. एक ऐसा उत्सव जिसकी जितनी ऐतिहासिक अहमियत है. उतना ही आध्यात्मिक महत्व भी है। इसकी जड़ें प्राचीन भारतीय ग्रंथों में समाई हैं. ये 'संगम नगरी' में लाखों भक्तों के 'समागम'का एक मौका है. कुंभ परंपराओं, पुरानी कथाओं और आध्यात्मिकता की सही मायने में नुमाइंदगी करता है. जाने माने ब्रिटिश इतिहासकार सर सिडनी लो (Sir Sydney Lo) 1928 में लिखी अपनी किताब 'इंडिया ऑफ द इंडियन्स' (India of the Indians) में 1906 के इलाहाबाद (प्रयागराज का पुराना नाम) कुंभ को याद करते हुए लिखते हैं, 

इससे ज्यादा प्रभावशाली, दिल को लुभाने वाला और इससे अधिक जरूरी कोई त्योहार पूरे देश में नहीं हो सकता.

इस किताब के 62 साल बाद 1990 में एक और किताब आई. 'द एलिफेंट एंड द लोटस: ट्रैवल्स इन इंडिया' (The Elephant and the Lotus: Travels in India). लिखने वाले एक बार फिर ब्रिटिश थे. जाने माने पत्रकार और बीबीसी के भारत में तत्कालीन संवाददाता मार्क टली (Mark Tully). टुली ने 1989 के इलाहाबाद कुंभ के अपने अनुभव के बारे में लिखा,

भारत में मैंने अपना जो लंबा वक्त बिताया, उसमें कुंभ की तरह का कोई बेमिसाल इवेंट दूसरा नहीं था. ये एक बेहतरीन छवि पेश करता है. इसमें हिंदू धर्म की मजबूती और मत-मतांतर का अंतर और उनके बीच आपसी तालमेल साफ दिखाई देता है. ये मेला राजनीतिक प्रचार और व्यापार वगैरह के लिए तो बेहतरीन है ही. मगर आस्था ना हो तो इनका कोई अर्थ नहीं रहता. यही आस्था लाखों-करोड़ों श्रद्धालुओं को संगम की ओर खींच कर लाती है.

कुंभ पर हम भी आस्था की इस कभी ना खत्म होने वाले सफर के हर पड़ाव को करीब से जानेंगे. कुंभ से जुड़े एक-एक पल, हर एक पक्ष को गहराई से समझेंगे. मगर शुरुआत तो शुरू से ही करनी होगी. यानी वो पौराणिक कथा, जिसे कुंभ के आयोजन का आधार माना जाता है.

कुंभ आयोजन की शुरुआत: पौराणिक पृष्ठभूमि

कुंभ मेले का शुरुआती ज़िक्र प्राचीन भारतीय पौराणिक कथाओं में मिलता  है. विशेष रूप से भगवद पुराण और महाभारत में. ये उत्सव समुद्र मंथन या अमृत मंथन की कथा से गहरे रूप से जुड़ा हुआ है. जिसमें देवता (देव) और असुर (राक्षस) अमरता (immortality) की तलाश में अमृत प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन करते हैं।

समुद्र मंथन की पौराणिक कथा:

भगवद पुराण के अनुसार, देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तो तमाम चीजों के बाद अंत में अमृत का कुंभ (कलश) निकला. जिसे देवताओं ने बड़ी चालाकी से हथिया लिया. जब असुरों को इस चाल का पता चला तो भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ उस अमृत कुंभ को लेकर भाग निकले. इसी भागमभाग और छीना झपटी में अमृत के घड़े से अमृत की चार बूंदें पृथ्वी पर गिर गईं. ये बूंदें चार स्थानों पर गिरीं: प्रयागराज (इलाहाबाद), हरिद्वार, उज्जैन और नासिक. इन चार स्थानों पर कुंभ मेला आयोजित किया जाता है, जो हर 12 वर्ष में सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति की विशेष ज्योतिषीय स्थितियों के साथ मनाया जाता है. प्रयागराज का विशेष महत्व इसकी तीन पवित्र नदियों के संगम के कारण है: गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती. इसे त्रिवेणी संगम के नाम से जाना जाता है. हिन्दू मान्यताओं के अनुसार इसे एक अत्यधिक आध्यात्मिक शक्ति का स्थल माना जाता है.

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समुद्र मंथन की पौराणिक कथा (फोटो: आजतक)
कुंभ का ऐतिहासिक विकास

बावजूद इसके कि कुंभ मेले की जड़ें पौराणिक हैं. इस संगठित उत्सव का एक रिकॉर्डेड इतिहास भी है. जो हजारों सालों में विकसित हुआ. ऐतिहासिक संदर्भों से पता चलता है कि यह आयोजन दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक मेलों में से एक के रूप में पहचाना जाता है.

प्राचीन काल: शुरुआती लिखित उल्लेख

1. ऋग्वेद: भारत के सबसे पुराने ग्रंथ, ऋग्वेद में नदियों को जीवन देने वाली शक्तियों के रूप में बताया गया है. पवित्र नदियों में स्नान करने की पवित्रता पर बल दिया गया है.
 
2. महाभारत: महाभारत में प्रयागराज को आध्यात्मिक स्नान के लिए सबसे पवित्र स्थल के रूप में दर्शाया गया है. भीष्म पितामह ने राजा युधिष्ठिर को त्रिवेणी संगम में स्नान करने की सलाह दी थी.

3. पौराणिक संदर्भ: मत्स्य पुराण और अग्नि पुराण में प्रयागराज के संगम को "तीर्थराज" (तीर्थों का राजा) के रूप में वर्णित किया गया है।

मध्यकाल: कुंभ परंपरा की स्थापना

1. आदि शंकराचार्य का योगदान (8वीं शताब्दी): प्रसिद्ध दार्शनिक आदि शंकराचार्य ने हिंदू तीर्थ यात्रा की परंपराओं को औपचारिक रूप से स्थापित किया. उन्होंने एक परंपरा शुरू की, जिसमें साधु संप्रदाय (अखाड़े) कुंभ मेले में एकत्रित होते थे और आध्यात्मिक चर्चा और धार्मिक क्रियाएँ करते थे.

2. चीनी यात्री ह्वेनसांग का विवरण (7वीं शताब्दी): चीनी यात्री ह्वेनसांग (Xuanzang) ने प्रयागराज में एक भव्य आयोजन का उल्लेख किया. जिसमें हजारों भक्त उपस्थित थे. हालांकि इसे कुंभ नाम से स्पष्ट रूप से नहीं जोड़ा गया, मगर ये संदर्भ इस परंपरा की ओर ही इशारा करता है.

आधुनिक काल: संगठित उत्सव का विकास

महाकुंभ मेला जैसा हम आज जानते हैं, वह मुग़ल काल और बाद में ब्रिटिश शासन के दौरान आकार लेने लगा.

1. अकबर का संरक्षण (16वीं शताब्दी): सम्राट अकबर ने प्रयागराज की पवित्रता को मान्यता दी और इस क्षेत्र का नाम इलाहाबाद (ईश्वर का निवास स्थान) रखा. अकबर के इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी कृति 'आइन-ए-अकबरी' में संगम पर आयोजित वार्षिक मेले और स्नान समारोहों का वर्णन किया. जाने माने इतिहासकार डॉ हेरम्ब चतुर्वेदी अपनी किताब 'कुंभ: ऐतिहासिक वांग्मय' में लिखते हैं कि,

अकबर ने बाकायदा दो अधिकारी कुंभ की व्यवस्था देखने के लिए तैनात किए थे. पहला मीर ए बहर, जो कि लैंड और वॉटर वेस्ट मैनेजमेंट का काम देखता था और दूसरा मुस्द्दी जिसके हवाले घाटों की जिम्मेदारी थी.

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कुंभ की कई परंपराओं का दिलचस्प इतिहास है 

इसी किताब में डॉ चतुर्वेदी ने आगे लिखा है कि 

अकबर की बादशाहत में मुगलों ने 1589 के इलाहाबाद कुंभ के रख रखाव पर 19000 मुगलियां सिक्के खर्च किए. जबकि कुंभ से मुगल सल्तनत को उस साल करीब 41000 सिक्कों की आमदनी हुई. यानी 22000 का शुद्ध मुनाफा.

2. औपनिवेशिक काल: पहला संगठित कुंभ (1858): ब्रिटिश प्रशासन ने 1858 में पहले दस्तावेजित कुंभ मेले का आयोजन किया। भक्तों के विशाल जमावड़े को देखकर, ब्रिटिश अधिकारियों ने स्नान घाटों और स्वच्छता सुविधाओं जैसी आधारभूत संरचनाओं में सुधार शुरू किया.

3. आजादी के बाद कुंभ: 1947 के बाद भारतीय सरकार ने महाकुंभ का आयोजन संभाला, जिससे बेहतर आधारभूत संरचना, सुरक्षा और समन्वय सुनिश्चित किया गया. 1954 के कुंभ मेला को विशेष रूप से याद किया जाता है, क्योंकि यह पहला ऐसा मेला था जिसमें एक समर्पित बजट आवंटित किया गया था. कुंभ का पहला बजट करीब एक करोड़ दस लाख रुपये था. जिससे इस विशाल आयोजन के प्रबंधन में एक नया युग शुरू हुआ.

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आजादी के बाद का पहला कुंभ 1954 (फोटो- पीटीआई)
महाकुंभ के विकास में मील के पत्थर: 

महाकुंभ मेला सदियों में विकसित हुआ है, जिसमें हर कुंभ का आयोजन समकालीन सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश को दर्शाता है.

पहला आधिकारिक बजट आवंटन (1954): भारतीय सरकार ने 1954 में महाकुंभ के लिए बजट आवंटित किया, जिससे इसकी राष्ट्रीय महत्ता का संकेत मिलता है. यह आयोजन आधुनिक योजना का प्रारंभ था, जिसमें सुरक्षा, आधारभूत संरचना और भीड़ प्रबंधन पर ध्यान दिया गया.

रेलवे का आगमन (19वीं-20वीं शताब्दी): ब्रिटिश काल में रेलवे प्रणाली के आगमन ने भक्तों के प्रयागराज यात्रा के तरीके को क्रांतिकारी रूप से बदल दिया. विशेष "कुंभ स्पेशल" ट्रेनों के माध्यम से लाखों तीर्थयात्रियों की यात्रा को सुविधाजनक बनाया गया.

डिजिटल युग में कुंभ (21वीं शताब्दी): 2013 और 2019 के कुंभ मेलों में मॉर्डन टेक्नॉलजी का उपयोग किया गया, जिसमें ड्रोन, डिजिटल मानचित्र और मोबाइल ऐप्स का उपयोग किया गया ताकि सुरक्षा, मार्गदर्शन और भीड़ प्रबंधन सुनिश्चित किया जा सके. 2019 का कुंभ मेला यूनेस्को द्वारा मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता प्राप्त हुआ.

महाकुंभ इतिहास की प्रमुख घटनाएं:

महाकुंभ एक धार्मिक उत्सव है, इसका विशाल आकार कभी-कभी दुखद घटनाओं की वजह भी बना है. यहां कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख है:

1. 1954 की भगदड़: स्वतंत्रता के बाद के पहले कुंभ मेले में एक भगदड़ के कारण 800 से अधिक भक्तों की जान चली गई. इस त्रासदी ने भीड़ प्रबंधन की आवश्यकता को उजागर किया और योजना और सुरक्षा प्रोटोकॉल में सुधार की आवश्यकता को बल दिया.

2. 1989 का महाकुंभ मेला: इस संस्करण में इतिहास का एक विशाल आयोजन हुआ, जिसमें 3 करोड़ से अधिक तीर्थयात्री उपस्थित थे। हालांकि कुछ भीड़ की समस्या आई, लेकिन यह आयोजन सफलता की मिसाल बना, जिससे भारत की बड़ी धार्मिक मेलों के आयोजन की क्षमता दिखी.

3. 2013 का महाकुंभ मेला: इस मेला में 12 करोड़ से अधिक लोगों की रिकॉर्ड भागीदारी रही, और इसने लॉजिस्टिक्स और आधारभूत संरचना के नए मानक स्थापित किए. प्रयागराज रेलवे स्टेशन पर एक भगदड़ में 36 लोगों की मौत हो गई, जिसने इतनी विशाल भीड़ के प्रबंधन की चुनौतियों को उजागर किया.

4. 2019 का कुंभ मेला: यह आयोजन मानव इतिहास का सबसे बड़ा शांतिपूर्ण कुंभ आयोजन था. जिसमें अनुमानित 24 करोड़ लोग शामिल हुए. प्रौद्योगिकी में नवाचार, स्वच्छता पहल और वैश्विक मान्यता ने इस आयोजन की सफलता को बढ़ाया.

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आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व

महाकुंभ सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक घटना है, जिसका गहरा आध्यात्मिक महत्व है. धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से इसके कई आर्कषण भी हैं.

1. अखाड़े और साधु: विभिन्न अखाड़ों के साधु, जिनमें नागा साधु और अन्य धार्मिक पुरुष शामिल होते हैं. इस मेला में भाग लेते हैं और विशिष्ट अनुष्ठान करते हैं. इन साधुओं द्वारा शाही स्नान (अखाड़ों का स्नाम) का आयोजन इस मेले का प्रमुख आकर्षण होता है.

2. संगम में धार्मिक स्नान: भक्तों का विश्वास है कि कुंभ मेला के दौरान संगम में स्नान करने से आत्मा शुद्ध होती है, पाप समाप्त होते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

3. दुनियाभर पर प्रभाव: कुंभ मेला ने अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया है. जिसमें दुनिया भर से आध्यात्मिक साधक भाग लेते हैं. 2017 में इसे यूनेस्को द्वारा मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के रूप में सूचीबद्ध किया गया. जिसने इसके सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व को और भी बढ़ाया.

सरकारी पहल और आधुनिक योजना: सालों के दौरान, सरकार ने महाकुंभ के सुचारू रूप से आयोजन के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं. जिनमें से कुछ अहम कदम इस प्रकार हैं,

आधारभूत संरचना का विकास: अस्थायी तंबुओं, अस्पतालों, स्वच्छता सुविधाओं और पॉन्टून पुलों का निर्माण किया गया है ताकि सुगम परिवहन सुनिश्चित हो सके.

पर्यावरणीय पहल: स्वच्छता अभियानों और प्लास्टिक मुक्त क्षेत्रों के माध्यम से इको सिस्टम पर प्रभाव को कम से कम करने की कोशिश की गई है.

डिजिटल और सुरक्षा उपाय: सुरक्षा और भीड़ नियंत्रण के लिए सीसीटीवी कैमरे, ड्रोन और एआई-आधारित निगरानी का उपयोग किया गया है.

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कुंभ में अखाड़ों की पेशवाई (फोटो- पीटीआई)
हर कुंभ एक नई शुरुआत

प्रयागराज का महाकुंभ मेला भारत की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर, आध्यात्मिक गहराई और संगठनात्मक क्षमता का एक शाश्वत प्रतीक है. इसके पौराणिक मूल से लेकर आधुनिक आयोजन तक, यह उत्सव एक वैश्विक घटना बन चुका है. चुनौतियों के बावजूद, यह लाखों तीर्थयात्रियों के बीच श्रद्धा, भक्ति और एकता की भावना को प्रेरित करता है. महाकुंभ भारत की सदियों पुरानी परंपराओं का प्रतीक है, जो हमें विश्वास की शक्ति, सांस्कृतिक संरक्षण के महत्व और चुनौतियों का सामना करते हुए मानवता की सहनशीलता की याद दिलाता है. इसका इतिहास केवल एक उत्सव की कहानी नहीं, बल्कि भारत के समय के साथ सफर की गवाही है.

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