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'मुंह से निकला वाह-वाह, वो शेर पढ़ा जो साहब ने'

अपनी बेचैनी भरी कविताओं के साथ पीयूष मिश्रा लौट आए हैं.

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लफ्ज़ों से लेकर उच्चारण और आलाप तक, पीयूष मिश्रा के गीतों का आकर्षण एक खुरदुरा आकर्षण है. इसीलिए बॉलीवुड की गुलाबी और चमकदार सी दुनिया में एक कलाकार के तौर पर वह हर कतार से अलग खड़े नज़र आते हैं. अपनी बेचैनी भरी कविताओं के साथ पीयूष मिश्रा लौट आए हैं. राजकमल प्रकाशन से उनकी नई किताब आई है, 'कुछ इश्क किया, कुछ काम किया' नाम से. हाल ही में दिल्ली में हुए वर्ल्ड बुक फेयर में यह किताब लॉन्च की गई.
पेश हैं इस किताब से कुछ गीत:

1

कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया... वो काम भला क्या काम हुआ जिस काम का बोझा सर पे हो वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जिस इश्क़ का चर्चा घर पे हो... वो काम भला क्या काम हुआ जो मटर सरीखा हल्का हो वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जिसमें ना दूर तहलका हो... वो काम भला क्या काम हुआ जिसमें ना जान रगड़ती हो वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जिसमें ना बात बिगड़ती हो... वो काम भला क्या काम हुआ जिसमें साला दिल रो जाए वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जो आसानी से हो जाए... वो काम भला क्या काम हुआ जो मज़ा नहीं दे व्हिस्की का वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जिसमें ना मौक़ा सिसकी का... वो काम भला क्या काम हुआ जिसकी ना शक्ल इबादत हो वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जिसकी दरकार इजाज़त हो... वो काम भला क्या काम हुआ जो कहे 'घूम और ठग ले बे' वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जो कहे 'चूम और भग ले बे'... वो काम भला क्या काम हुआ कि मज़दूरी का धोखा हो वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जो मजबूरी का मौक़ा हो... वो काम भला क्या काम हुआ जिसमें ना ठसक सिकंदर की वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जिसमें ना ठरक हो अंदर की... वो काम भला क्या काम हुआ जो कड़वी घूंट सरीखा हो वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जिसमें सब कुछ ही मीठा हो... वो काम भला क्या काम हुआ जो लब की मुस्कां खोता हो वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जो सबकी सुन के होता हो... वो काम भला क्या काम हुआ जो 'वातानुकूलित' हो बस वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जो 'हांफ के कर दे चित' बस... वो काम भला क्या काम हुआ जिसमें ना ढेर पसीना हो वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जो ना भीगा ना झीना हो... वो काम भला क्या काम हुआ जिसमें ना लहू महकता हो वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जो इक चुम्बन में थकता हो... वो काम भला क्या काम हुआ जिसमें अमरीका बाप बने वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जो वियतनाम का शाप बने... वो काम भला क्या काम हुआ जो बिन लादेन को भा जाए वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जो चबा...'मुशर्रफ' खा जाए... वो काम भला क्या काम हुआ जिसमें संसद की रंगरलियां वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जो रंगे गोधरा की गलियां...

2

अरे, जाना कहां है...? उस घर से हमको चिढ़ थी जिस घर हरदम हमें आराम मिला... उस राह से हमको घिन थी जिस पर हरदम हमें सलाम मिला... उस भरे मदरसे से थक बैठे हरदम जहां इनाम मिला... उस दुकां पे जाना भूल गए जिस पे सामां बिन दाम मिला... हम नहीं हाथ को मिला सके जब मुस्काता शैतान मिला... और खुलेआम यूं झूम उठे जब पहला वो इन्सान मिला... फिर आज तलक ना समझ सके कि क्योंकर आखिर उसी रोज़ वो शहर छोड़ के जाने का हम को रूखा ऐलान मिला...
 

3

थैंक यू साहब...

मुंह से निकला वाह-वाह वो शेर पढ़ा जो साहब ने उस डेढ़ फीट की आंत में ले के ज़हर जो मैंने लिक्खा था... वो दर्द में पटका परेशान सर पटिया पे जो मारा था वो भूख बिलखता किसी रात का पहर जो मैंने लिक्खा था... वो अजमल था या वो कसाब कितनी ही लाशें छोड़ गया वो किस वहशी भगवान खुदा का कहर जो मैंने लिक्खा था... शर्म करो और रहम करो दिल्ली पेशावर बच्चों की उन बिलख रही मांओं को रोक ठहर जो मैंने लिक्खा था... मैं वाकिफ था इन गलियों से इन मोड़ खड़े चौराहों से फिर कैसा लगता अलग-थलग-सा शहर जो मैंने लिक्खा था... मैं क्या शायर हूं शेर शाम को मुरझा के दम तोड़ गया जो खिला हुआ था ताज़ा दम दोपहर जो मैंने लिक्खा था...