
उज्जवल नागर
उज्जवल हिंदुस्तानी वोकलिस्ट हैं. कोक स्टूडियो और दी डीवारिस्ट जैसे मशहूर म्यूजिक शोज में परफॉर्म कर चुके हैं. अद्वैता नाम के बैंड के लीड क्लासिकल सिंगर हैं. उनका एक पैर लोक में है, तो दूसरा शास्त्र में. और देह, इस कथित पॉपुलर कल्चर के बीच पूरी ठसक के साथ खड़ी है. लय होती हुई.
उज्जवल पहली मर्तबा हिंदी में इस तरह से कुछ लिख रहे हैं. आपके लिए. मुस्कुरा दीजिए अब.
इस लड़के को सुर के सबक कोख से ही मिलने शुरू हो गए थे. मां पहली गुरु बनीं. हमेशा ही होती हैं. श्रीमती उर्मिला नागर. खुद कथक और हिंदुस्तानी म्यूजिक में रची पगी. ककहरा पूरा हुआ तो संगत मिली मरहूम उस्ताद बशीर अहमद खान की. सीकर वाले गुरुजी. वह पंडित सोमनाथ मरदूर और पंडित श्रीराम उमदेकर से भी संगीत की बारीकियां सीख रहे हैं. मुझे यकीन है कि सीखने का ये सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा.
संगीत विनय देता है. और विनयशील व्यक्ति स्वयं को लघु रख ही विराट से जुड़ता है. विराट तक पहुंचने का रास्ता गुरुओं से होकर जाता है. जैसे स्वर. जिसे हम तक पहुंचने के लिए माध्यम चाहिए. हवा. निर्वात को भरती. गुरुता देती. दत्तात्रेय हुए हैं. पुराणों में. वह तो जीव जंतुओं तक को अपना गुरु मानते थे.
अब आप उज्जवल नागर की कलम से, नजर से, बीकानेर में अल्लाह जिलाई बाई के बरोठे में पहुंचिए. बाई कुछ गुनगुना रही है. जर्दे की खुशबू का पैरहन पहन तखत पर दी थाप तैर रही है. और रौशनी आ रही है उनके गले से. गुनगुनाहट नाम की. उज्जवल के ही शब्दों को उधार लेकर कहूं तो. बलम केसरिया हो रहा है. क्योंकि अल्लाह उसे ये रंग अदा कर रही हैं.
अल्लाह जिलाई बाई. जिंदाबाद - सौरभ द्विवेदी
मैं लौटकर 1902 के बीकानेर में जा रहा हूं. अब वहां खड़ा हूं. धूल भरा, ब्लैक एंड वाइट, धूसर, चिलचिलाता, गर्म. दूर तक कोई पेड़ नहीं. ज्यादातर खेजड़ियां हैं जो इस जांगल प्रदेश का कल्पवृक्ष हैं. या फिर कींकर है. कांटों वाला. कड़वा. छाया देता है. गोंद देता है. पीपल, नीम भी हैं. लालगढ़ पैलेस है जहां 21 साल के युवा महाराजा गंगा सिंह रहते हैं. पैलेस में रंग-बिरंगे फूल हैं, दुनिया की बहुत सारी लग्जरी है. शांति है. शान है. संगीत है.
म्यूजिक एक रास्ता है जिससे इंसान ऊपर वाले से मुलाकात कर सकता है. उसमें खोकर मोक्ष भी पा सकता है. मांड और भी ज्यादा लोग गाएं.’
- अल्लाह जिलाई बाई (1902-1972)
इसी समय पैलेस से नाक की सीध पर कोई तीन किलोमीटर दूर जूनागढ़ किले के पास एक किलकारी वजूद में आई है. पास ही मुख्य बाजार की सड़क है. जहां इधर-ऊधर घूमती बकरियां, पानी ढोते ऊंट, कपड़े बेचते बांठिया, बर्तन बनाते ठंठेरे, परचून-नमकीन-सब्जी और दूसरे सामानों के व्यापारी बसे हैं. यहीं कहीं वो है. इस कठोर, पथरीली, धूप से तपती, सादी, सरल जमीन पर जन्मी. अल्लाह की बच्ची! अल्लाह जिलाई बाई.
लेकिन वो गुरबत में है. छोटी है. पिता नबी बख़्श रहे नहीं. मां हज्जन अलीमन पर्दानशीं हैं. जीवन पत्थर है. लेकिन बुआ उन्हें पाल रही हैं. मां साथ हैं.
मैं क्यों गया था अपने अवचेतन (Subconscious) में? Why in the world...? मेकिंग ऑफ अ लेजेंड देखने! जो कम्फर्ट में नहीं, ठोकरों में जन्म लेते हैं. बीकानेर के लोहा गांव में पैदा हुई रेशमा सुनसान पाकिस्तानी रेगिस्तान में बकरियां टोरते हुए एक दिन 'ऐसा बिछड़े अभी तो हम बस कल परसों..' गाती है कि हम रोने लगते हैं. हम भूल जाते हैं कि किस फिल्म का ये गाना है, हमें याद आता है तो मेकिंग ऑफ द लैजेंड की पथरीली कहानी. कि वो पूरी जिंदगी जब-जब गाती हम बेचैन होते, लेकिन उसकी कीमत उसने ये दी कि वो हमेशा गुरबत में रही. उसका भी प्रेम जीवन कैसा रहा होगा? बहुत से abstract विचार हैं जो जता नहीं सकता, पर वे रहते हैं. अल्ला जिलाई बाई के बचपन में जाना और उस माहौल में उन्हें देख पाना जिसने उन्हें एक लैजेंड में तब्दील किया मेरे लिए आज के दौर की सबसे फैसिनेटिंग कहानी या फिल्म हो सकती है.
उनमें (या उनकी कहानी में) ऐसा क्या खास है? आप पूछना चाहें..
1
जिस मारवाड़ी गीत 'केसरिया बालम आवो नी पधारो म्हारे देस..’ को आज रिएलिटी शोज़, कल्चरल प्रोग्रामों, सरकारी जलसों और इंटरनेशनल जैमिंग में बार-बार सुना जाता है, उसे पहली बार बाई जी ने ही महाराजा गंगा सिंह जी के दरबार में गाया था. उतना पहले जितना हम ट्रेस कर सकते हैं.बाद में यही गीत टूरिस्ट और म्यूजिक मैप पर राजस्थान की सबसे बड़ी पहचान हो गया. बहुत हद तक भारत की भी!
https://www.youtube.com/watch?v=ADFHGaZLxLo
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मांड गायन की जिस शैली में राजस्थान से ज्यादातर खूबसूरत गीत आते हैं वे उसकी शीर्ष गायिका हैं. उनसे पहले भी कई रहे लेकिन कोई मांड का चेहरा नहीं बन पाया.3
शहनाई लैजेंड उस्ताद बिस्मिल्लाह खां साहब (भारत रत्न) जब भी बीकानेर आते उनसे जरूर मिलते थे.4
उन्हें 1982 पद्मश्री दिया गया. हालांकि बहुत लोग मानते हैं कि वे भारत रत्न की हकदार थीं.5
आप ये बिलकुल नहीं जानते होंगे कि पाकीज़ा फिल्म का गाना थाड़े रहियो, ओ बांके यार.. पहले उन्हें पेश हुआ था.6
ये भी कि एक फिल्म में केसरिया बालम गाने से पहले लता मंगेशकर ने फोन करके उनसे इजाजत ली थी. जाहिर है यह लता की भी विनम्रता थी.7
इस 21वीं सेंचुरी में जब पढ़ी-लिखी महिलाएं भी आत्म-निर्भरता के तीन नियम (आर्थिक निर्भरता, निडरता से जीवन का हर फैसला खुद लेना, समाज की रूढ़ियों की परवाह न करना) भी पूरे नहीं कर पातीं. बाई जी ऐसी थी जो शिक्षित न होते हुए भी, सामंती समाज में रहते हुए भी इंडिपेंडेंट और आधुनिक महिला होने की मिसाल थीं. इस मामले में उनके जीवन निर्णय फौलादी रहे.उन्हीं अल्ला जिला बाई जी का जन्मदिन 1 फरवरी को होता है.
उनकी कहानी जानने से पहले वो गीत सुन लेते हैं जो ताउम्र उनके संगी-साथी थे. वे 1992 में अपने जीवन के आखिरी दिनों तक गाती रहीं.
# मूमल..
काली काली काजलिए री रेख जी, कोई भूरोड़े बादल में चमके बीजली, ढोले री मूमल हालो नी री, जाणो ढोले से देस.वैसे 'केसरिया बालम' को ज्यादा लोग जानते हैं लेकिन 'मूमल' मुझे बेहद पसंद है. मूमल जिसे अमरकोट के राजकुमार महेंद्र से प्रेम था. अनूठा. कितनी गलतफहमियों से गुजरा. विरह से गुजरा. प्रेम की वो गज़ब तड़प बाई जी की आवाज़ में सुनाई पड़ती है. मूमल-महेंद्र ने बाद में अपनी जिंदगियों का अंत कर लिया. जो इस गीत के शब्दों के मायने भौगोलिक-सांस्कृतिक रेफरेंस के साथ समझ ले, उसे बाई जी को सुनते समय बेचैन सी खुशी का झरना भीतर फूटता महसूस होगा. इन गीतों के गहरे मायने हैं. शायद कभी और हम विस्तार से सिर्फ इन्हीं पर बात कर पाएं.
https://www.youtube.com/watch?v=4QMG1gHqcEc
# कलाली
भर ला ए कलाली दारू दाखां रो..https://www.youtube.com/watch?v=mZm00rvJaUM
# पणिहारी
काली कलायण उमटी ए पिणिहारी जीएलो भरियो भरियो समद कलाव बालाजो... बेहद खूबसूरत और खुशी का गीत.https://www.youtube.com/watch?v=vDQeXNbgSEI
# गोरबंद
https://www.youtube.com/watch?v=oGH2eBiGQMw# बाई सा रा बीरा
म्हाने पीवरीए ले चालो सा, पीवरीए री म्हाने ओलू आवे..बहू अपने पीहर ले चलने का अनुरोध करती है. जब मोबाइल नहीं हुआ करते थे, चिट्ठी लिखनी नहीं आती थी, तब लड़की अपने परिवार साल-दो साल-तीन साल बाद जा पाती थी. और विवाह और ससुराल की तमाम जटिलताओं का कोई उपाय न होता था. ऐसे में जब भी पीहर मां-पिता के यहां जाना सौ सुखों से बढ़कर होता था. 'छोटी सी उमर क्यों परणाई रे बाबोसा' को सुनकर मारवाड़ में बूढ़ी महिलाओं की आंखों से भी आंसू फूट पड़ते हैं. बाई सा रा बीरा.. उसी भाव का गीत है. इसमें पीहर लौटने की बात है तो anticipation और खुशी के बीच के इमोशन में चलता है.
https://www.youtube.com/watch?v=ADFHGaZLxLo
इसे मांड शैली की गायकी कहा जाता है. बाई जी ज्ञात जानकारी में सबसे वरिष्ठ मांड गायिका हैं. इस शैली को परिभाषा में समेट पाना आमतौर पर संभव नहीं लेकिन सरल रूप में यूं समझ सकते हैं. मांड एक प्रदेश है. बीकानेर, सिंध, हैदराबाद, जैसलमेर, जोधपुर का एक हिस्सा मांड प्रदेश कहलाता है. इसमें जो सामूहिक संस्कृति और विरासत वाले गीत गाए जाते हैं वे मांड हैं. दूसरा, मांड एक क्लासिकल राग तो है ही लेकिन लोक शैली इसकी अलग है. इसमें भी जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर सब जगह की मांड का अंदाज अलग अलग है. शैली अलग हैं लेकिन विरासत सांझी है. इस गायन में एक बात या कहानी भी कही जाती है. इसमें वीर, विरह कई रस आते हैं. हर गायक का अंदाज-ए-बयां अलग होता है. जितने गायक उतने ही अलग तरह की मांड.
बेहद प्रतिभाशाली और लोकप्रिय युवा गायक मामे खां को यहां देखें-सुनें और आसानी से जान पाएंगे..
https://www.youtube.com/watch?v=AgRrVH3png8
मारवाड़ के जितने अलग इलाके, उतने ही अलग तरीके से ये गाने (मांड) गाए जाते हैं. सब अपनी-अपनी एंटरटेनमेंट वैल्यू खुद में समेटे हैं. Rawness, uniqueness, grace, delight सबमें कॉमन हैं. अल्ला जिला बाई जी भी बेहद विशिष्ट थीं. वे मांड की पर्याय बनीं. वे सबसे वरिष्ठ थीं. अनुकरणीय थीं. उनकी गायकी में एक सुकून है, एक ठहराव है, कोई हड़बड़ाहट नहीं, एक मैच्योर आत्मविश्वास है. मैं जितने भी तरह के मांड सुन लूं, एक से एक अच्छे आर्टिस्ट के, न जाने क्यों मन कहता है चलो एक बार और बाई जी को सुनें. उनकी आवाज़ जैसे भाव, सादगी और ग्रेस ज़हन पर अमिट हो जाती है. उनके बाद जन्मीं बेग़म अख्तर और बाई जी दोनों में एक समानता ये भी है कि उनकी आवाज़ में एक calling का भाव है, जैसे किसी को पुकार रही हों. बाई जी का गाया हर गीत राजस्थान के दृश्यों को जिंदा कर देता है, संस्कृति की खुशबू फैल जाती है. उनके बारे में एक और खास बात जो मुझे महसूस हुई वो ये कि emotions और rawness को depict करने के लिए सुर और गायकी को वे sacrifice नहीं करतीं. इसे आप 'केसरिया बालम आवो नी' में भी महसूस कर सकते हैं.
बाई जी की जर्नी गुणीजनखाना से शुरू हुई थी. ये वो तालीमखाना था जो महाराज गंगा सिंह जी ने बीकानेर में उस दौर में शुरू करवाया. ये बीकानेर के तेलीवाड़ा में स्थित था. यहां संगीत की तालीम दी जाती थी. हुसैन बख़्श लंगड़ा नाम के उस्ताद थे. वे लंगड़ा कर चलते थे. तो लंगड़ा और लंगड़िया के उपनाम से मशहूर हो गए. उन्हें वहां रखा गया था. कि आप यहां पर गाना वगैरह सिखाएं. अल्ला जिला बाई जी का मकान भी तेलीवाड़ा में ही था, दाऊजी मंदिर के पास. उनकी उम्र तब 10-12 साल रही होगी. गली में बच्चे खेलते थे. खेलते-खेलते वे भी मारवाड़ी लोकगीत गुनगुनाती रहती थीं. उन्हें हुसैन बख़्श ने सुन लिया और गुणीजनखाने अपने साथ ले गए और उन्हें गाना सिखाने लगे.
कुछ ये भी अंदाजा लगा लिया जाता है कि बाई जी के उस्ताद पाकिस्तान वाले हुसैन बख़्श थे, जबकि ये बीकानेर वाले थे. पब्लिक स्पेस में ये जानकारी भी है कि उन्होंने बीकानेर के अच्छन महाराज से संगीत की बारीकियां सीखीं. दरअसल अच्छन महाराज उनके समकालीन थे. वे बहुत उम्दा गायक थे. जब बाई जी जोधपुर, उदयपुर और अन्य जगहों पर कॉन्सर्ट में जाया करती थीं तो अच्छन महाराज से मुलाकात हो जाती थी. संगीत पर बातें हो जाती थीं, अनौपचारिक गायन हो जाता था. अच्छन महाराज क्लासिकल ही गाते थे, वहीं बाई जी ग़जल, ठुमरी, ख़याल और मुख्य रूप से मांड गाती थीं. उनके समकालीन गायक अलाउद्दीन जी भी थे, बाई जी से जरा जूनियर कह सकते हैं. साथ में भी गाया करते थे. वे बीकानेर से ही थे. तो अल्ला जिला बाई ने तालीम सिर्फ हुसैन बख़्श साहब से ली.
तो गुणीजनखाने में अल्लाह जिलाई को डांस में भी रूचि हो गई. बच्ची थीं, नृत्य भी करने लगीं. लेकिन उस्ताद ने कहा कि नहीं, आपको सिर्फ गाना ही है. डांस छुड़वाकर उन्हें सिर्फ गायकी ही करवाई गई. करीब 12 की उम्र में वे गाने लगीं. महाराजा गंगा सिंह जी के कोर्ट में वे इसी उम्र से प्रस्तुति देने लगीं. विश्व युद्ध-1 के दौरान ब्रिटेन की वॉर कैबिनेट (1917-18) के वे सदस्य थे. एकमात्र सदस्य जो गोरा नहीं था. वे सुधारवादी शासक थे. शारदा एक्ट पास करवाया ताकि बाल विवाह रोके जा सकें. तब के एकमात्र शासक जिन्होंने बीकानेर में हाई कोर्ट बनावाया और उसे पूरे अधिकार दिए. वे प्रथम विश्व युद्ध में मेजर-जनरल थे. उनकी ऊंटों की प्रसिद्ध सेना थी गंगा-रिसाला. जिसमें मुस्लिम सैनिक भी थे. जब गंगा सिंह जी युद्ध के लिए जाने वाले थे तो इससे पहले के दिनों में अल्ला जिला बाई जी से ही मांड सुनते थे. शिकार के गाने भी उन्होंने खूब गाए. जांगल राज (बीकानेर) के गाने भी गाए. प्रशस्ति के गीत गाए. वे इतना खूबसूरत गाती थीं कि एक से एक दुर्लभ और जी निचोड़ लेने मांड का दौर लगातार चलता रहता था. रात गुजर जाती थी लेकिन महफिल समापन की ओर नहीं आ पाती थी. बीकानेर रियासत के हर हंसी-खुशी, त्योहार के मौकों पर अल्ला जिला बाई अनिवार्य रूप से परफॉर्म करती थीं.
रॉयल कोर्ट से उन्हें स्कॉलरशिप मिलती थी. गंगा सिंह जी और उनके बेटे सार्दूल सिंह जी के शासन के बाद स्कॉलरशिप रुक गई. इसके बाद एक आईएएस अधिकारी थे भीम सिंह जी. वे राजस्थान में सचिव थे. उन्होंने अल्ला जिला बाई को रेडियो पर इंट्रोड्यूस करवाया. वे ऑल इंडिया रेडियो की ए-लिस्ट आर्टिस्ट में शुमार हुईं. सब जगह परफॉर्म करने लगीं. ऑल इंडिया रेडियो के जरिए सुनने के बाद मद्रास, कलकत्ता, बॉम्बे में बसे मारवाड़ी समाज के लोग उन्हें आयोजनों में आमंत्रित करने लगे. देश के ज्यादातर प्रदेशों में उनके कार्यक्रम हुए. बिहार, यूपी में भी. जब वे ठीक से चलने-दौड़ने लगीं तब से लेकर जीवन के अंतिम समय तक गाती रहीं. ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर्स अचरज करते थे कि इतनी बुजुर्ग उम्र में भी वे कैसे गा रही थीं.
ये 1987 की बात है जब लंदन में बीबीसी के कार्यक्रम में उन्हें आमंत्रित किया गया. क्वीन एलिजाबेथ हॉल में उनका प्रोग्राम था. जोधपुर के कोमल कोठारी चार-पांच लोगों को भारत से लेकर गए थे. उनमें से बाई जी एक थीं. उनकी आवाज इतनी बुलंद थी, फ्रीक्वेंसी ऐसी थी कि टेक्निकल स्टाफ ने कहा आपको माइक की जरूरत नहीं है. आप गाएंगी तो यूं ही गूंजेंगी. वो वर्ल्ड कॉन्ग्रेस ऑफ म्यूजिक था. उसमें जापान, चीन .. पूरी दुनिया के ऐसे मुल्क जहां राजा-महाराजा थे, उनके दरबार के गायक वहां आमंत्रित थे. एलिजाबेथ हॉल में उनका गायन बेहद सफल रहा. वे गा रही थीं तो साथ में सभी भाषाओं में अनुवाद करके भी बताया गया. पर्चे भी बांटे गए. वहां सेंट्रल लंडन की जिस होटेल, ह्यूस्टन में वे ठहरी हुईं थी वहां कई पत्रकार पहुंचे थे. उनमें से कुछ ऐसे थे जो रोने लगे. यात्रा में बाई जी के साथ उनकी बेटी के बेटे डॉक्टर अजीज अहमद सुलेमानी गए थे. डॉ. सुलेमानी ने पूछा कि आप लोग क्यों रो रहे हैं तो वे बोले, उनकी आवाज में ऐसा दर्द, लोच और राग है कि हमारे दिल को छूता है. चाहे हम उसे अक्षरश: न भी समझ पा रहे हों. उन्होंने बाइसा रा बीरा.. और कलाली.. गीत गाए थे. श्रोताओं की प्रतिक्रिया भावुकता भरी थी. कमल कोठारी उन्हें अन्य देशों में भी ले जाना चाहते थे लेकिन वे नहीं गईं. वे विदेश जाने की ज्यादा इच्छुक नहीं थीं.
मीना कुमारी अभिनीत पाकीज़ा (1972) के म्यूजिक डायरेक्टर ग़ुलाम मोहम्मद बीकानेर के थे. पास में गजनेर नाम का गांव जहां प्रसिद्ध गजनेर पैलेस भी बना है, उसके करीब ही नाल नाम का छोटा सा गांव है. ग़ुलाम मोहम्मद वहां के रहने वाले थे. जब वे अल्ला जिला बाई से मिलने आते तो वे घर के ऊपर बने झरोखे से ही कहतीं, कुण है (कौन है).. तो वे कहते थे, मैं हूं गुलामियो (मैं हूं ग़ुलाम). वे बाई जी के फैन थे. उन्होंने बहुत कोशिश की कि पाकीज़ा का गाना ठाड़े रहियो.. उनसे गवाएं. जो बाद में लता जी ने गाया था. लेकिन बाई जी ने मना कर दिया कि वे फिल्मों में नहीं गाएंगी. उनका तब ऐसा समझना था कि फिल्मों में गाना अच्छी बात नहीं. हालांकि जब वे बॉम्बे जाती तो लता मंगेशकर और अन्य फिल्मी लोगों से उनकी मुलाकात होती थी.
गुलज़ार की 1991 में प्रदर्शित फिल्म लेकिन में लता जी ने केसरिया बालम पधारो म्हारे देस मांड गाई थी. जब उन्हें ये गाना पेश हुआ तो उन्होंने बॉम्बे से अल्लाह जिलाई बाई को फोन किया कि मुझे केसरिया बालम ऑफर हुआ है और ये गाना तो आप ही गा सकती हैं, आप इजाजत दें तो मैं गाऊं. तो बाई जी ने कहा, नहीं जी, आप जरूर गाएं. ये लता जी की भी विनम्रता ही थी, एक गायिका का दूसरी गायिका के प्रति दिली-सम्मान. अन्य जानी-मानी क्लासिकल सिंगर रीटा गांगुली भी बीकानेर आती थीं. वे भी बाई जी से मिलती थीं. उन्होंने इस गाने पर खूबसूरत बात बोली थी, केसरिया बालम आवो नी पधारो म्हारे देस.. इसे लता बाई ने गाया, शुभा मुद्गल ने भी .. लेकिन उनका बालम केसरिया नहीं हो पाया. केसरिया करने का अंदाज सिर्फ अल्लाह जिलाई बाई के पास है. उनका कहा सही भी है, वो रंग और भाव मांड में कोई और गायक कभी हासिल नहीं कर पाता. खुद लता जी और शुभा जी भी इसे मानते होंगे.
वे जाई मां भी कहलाती थीं. परिवार, पड़ोस और शहर के अन्य लोग उन्हें इस संबोधन से बुलाते थे. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इतनी सादगी, मीठेपन, शर्म-ओ-हया, नजाकत, सुरीलेपन से गाने वाली अल्लाह जिलाई बाई असल में बड़ी दबंग किस्म की महिला थीं. उनके नाती डॉ. सुलेमानी बताते हैं कि जब वे बड़े हो गए, डॉक्टर बन गए तब भी उनकी नानी मां मर्दों की तरह बात करती थीं और डांटती थीं. पूरे कमांडिंग अंदाज में. सुलेमानी याद करते हैं, मैं कहता था नानी मां तुम हरेक को डांट देती हो छोटी-छोटी बातों पर कोई सामने हो गया तो? तो वो कहती थीं, मजाल है किसी की जो सामने आ जाए मेरे. (हंसते हैं) बड़े बड़े लोग जब उनके सामने से निकलते थे तो संभलकर. कि कहीं हमसे कोई बद्ममीजी न हो जाए.
उनका व्यक्तित्व बेहद जोरदार था. ऐसा कि किसी को अनुमान भी न होगा. वे बेहद दबंग महिला थीं. गालियां बहुत देती थीं. मर्दों की तरह. ज़र्दा खाने की शौकीन थीं. पान खाने की बहुत शौकीन थीं. खुशबूओं की बड़ी शौकीन थीं. हैमलिन स्नो परफ्यूम लगाती थीं. कान पर सेंट मलती थीं.
1962-63 में वे हज पर गईं. डॉ. सुलेमानी बताते हैं कि उन्होंने तब परिवार और सभी के लिए बड़ी दुआएं कीं. 3 नवंबर, 1992 को उनका देहांत हुआ. उनकी आदत थी कि वो अपने घर के झरोखे में बैठा करती थीं. देहांत के बाद उनके मकबरे पर भी एक झरोखा बनाया गया.
उनके जाने के बाद से हर साल 3 नवंबर को अखिल भारतीय मांड समारोह आयोजित किया जाता है. बीकानेर के सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज के डिपार्टमेंट ऑफ मेडिसिन के हेड रहे डॉ. सुलेमानी यहां अल्लाह जिलाई बाई मांड स्कूल ऑफ म्यूजिक चलाते हैं. फ्री में मांड गायन का प्रशिक्षण दिलवाते हैं. प्रशिक्षण देते हैं मुरारी शर्मा. 1992 में पहली बार राजा हसन ने उनके यहां ही परफॉर्म किया. तब राजा सिर्फ 7-8 साल के थे. डॉ. सुलेमानी कहते हैं, सालाना मांड उत्सव मनाने के साथ हमारी कोशिश होती है कि नानी मां और मांड गायकी की विरासत को कायम रखा जा सके. आज देखते हैं कि टीवी पर भी गायक इसे गाते हैं. मांड का नाम लिया जाता है. स्कूलों में गैर-पेशेवर बच्चे भी इन गीतों को प्रस्तुत करते हैं. यहां (बीकानेर) ब्राह्मणों की बच्चियां हैं जो खूब गाती हैं. बहुत अच्छा गाती हैं. तबीयत खुश हो जाती है.
वे कहते हैं, हर जमाने में गायक बदलते रहते हैं. आज बहुत से काबिल सिंगर हैं जिन्हें सुनने का दिल करता है. हाल ही में मैंने बाजीराव मस्तानी देखी. इसमें संजय भंसाली ने म्यूजिक दिया है. क्लासिकल और लोक शैली वाले गाने खूब अच्छी तरह गवाए हैं. हर जमाने में चीज बदलती रहती है. लेकिन अल्लाह जिलाई की आवाज नहीं लौट सकती. पर बहुत अच्छा गाने वाले हैं. पाकिस्तानी की रेशमा बहुत अच्छा गाती थीं. एक अन्य गायिका भी थी. अब बंदिशे भी लग गईं हैं, नहीं तो मांड सीमाओं के पार जाता है. गुलाम अली हैं, रेशमा हैं ये सब राजस्थान के ही हैं. ये सब लोग इसी प्रदेश के रहने वाले हैं.
अल्लाह जिलाई बाई के दो नाती, तीन नातिन हुए. उनके बच्चे और बहुएं भी हैं. डॉ. सुलेमानी बताते हैं कि उनके घर की नई पीढ़ी में कोई संगीत तो नहीं सीखता पर पड़दादी पर गर्व महसूस करते हैं. उनके सालाना मांड दिवस आयोजन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं.
इस गायन के सामने आज दो विरोधाभासी चुनौतियां हैं. एक इसमें सक्रिय व्यक्ति के लिए घर चलाना मुश्किल होता है. दूसरा, कमर्शिलाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में रियलिटी शोज, कोक स्टूडियो, मूवीज जैसे नए-नए परफॉर्मिंग प्लेटफॉर्स पर कई फोक सिंगर्स को जगह और रोजगार मिल रहा है. देश विदेश में वे नाम कमा रहे हैं. लेकिन यहां सृजित होने वाले गीतों में वैसा जादू नहीं. Morchang studio और Rajasthan roots जैसे ग्रुप हैं जो राजस्थानी लोक संगीत में गिटार, सैक्सोफोन जैसे वेस्टर्न इंस्ट्रूमेंट्स का प्रयोग डाल रहे हैं. इस तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में और इस commercialization के दौर में मांड या ऐसे लोक संगीत की रूह खो जाने का डर भी बना रहता है. आज के लोक गायकों और संगीतज्ञों का दायित्व है कि चाहे जिस मंच पर भी मौजूद हों कोशिश ये रहे कि इस संगीत की मिठास और भीनी-भीनी खुशबू बरकरार रहे और इसका रिप्रेजेंटेशन भी सही तरीके से हो. मांड कोकिला अल्लाह जिलाई बाई जैसे महान कलाकारों की जो संगीत विरासत हमें और आगामी पीढ़ियों को मिली है, उसे न केवल संभाल कर रखना है, बल्कि आगे भी बढ़ाना है.
मांड के 4 ऐसे अन्य परफॉर्मेंस भी शेयर करना चाहूंगा जो आपको सुनने चाहिए. आनंद आएगा.
1. मांगी बाई जी - पणिहारी
https://soundcloud.com/ragxs/panihari-maand-i-mangi-bai
2. दप्पू जी मिरासी - मूमल
https://www.youtube.com/watch?v=jVjqPMFn2Vw
3. अली - मूमल
https://www.youtube.com/watch?v=5hO63hl6Ezg
4. बाड़मेर बॉयज - मूमल
https://www.youtube.com/watch?v=hwpNsra_Ha0
(This article has been updated)