बनारस में दूसरा दिन था. दोपहर का खाना शाम तक ढलक आया था. मेज पर एक रोज पहले डीआईजी दफ्तर के पास से खरीदी बीयर के तीन कैन रखे थे. स्ट्रॉन्ग थे, सो अब तक खुले नहीं थे. पर वापस ले जाना भी ठीक नहीं. सो खुल ही गए. दो खतम हुए तो तीसरे में फिफ्टी फिफ्टी की साझेदारी हुई. चढ़ते नशे के डंडे पर एक लता भी लिपटी थी. पान की ही रही होगी. क्योंकि काशीनाथ सिंह से मिलने जाना था. बिना पान जर्दे के मैं उनकी तस्वीर नहीं बना पाता. काशीनाथ के नाम के साथ. आचार्य, गुरु, जी जोड़ना उनके नाम को पत्थर बांध गंगा में डुबोने जैसा होता है. जबकि वह तो शमशेर की कविता के 'छप छप छप' की तरह हैं. मेरा दिल कर रहा है, छप छप छप. आज उनसे मिलने जाना है, जिनसे दूर कहीं बचपन के बिस्तर पर बजरिए किताब मिला था. आठवीं में था. पढ़ता था, ये दावे के साथ नहीं कह सकता क्योंकि ये लत अब तक पूरी नहीं लगी है. किताब में कहानी थी. उसका नाम था 'अपना रास्ता लो बाबा'. मेरे बाबा बहुत पहले गुजर गए थे. मां बताती है कि मैं तब ढाई साल का था. मैं बताता हूं कि मुझे बाबा याद हैं. घर के ठीक बाहर खडंजे वाली सड़क थी. बाबा अपना ऊपर से मुड़ा बेंत मेरी तरफ बढ़ा देते. सीधा डंडा अपनी हथेली में जकड़ लेते. मैं बेंत पकड़ चलता. बाबा एक दिन आए. उनका आना कलई से पुते घर में आवाज का आना होता था. मां के मुंह पर घूंघट भी आ जाता था. मां बाबा को दादा कहती थी. बाबा का खादी का झोला खुला. उसमें से एक पीले रंग की बोतल निकली. बड़ा हुआ तो जाना. इसे कॉड लीवर ऑयल कहते हैं. तब तक भीतर का भामन बचा था. सो सोचा, छीछी लोग मछली के शरीर से निकला तेल कैसे पी लेते हैं. जब खांसी के बाद मेरे दूध में वो पीला तेल मिलने लगा, तो गिलास की सतह पर मछली तैरती नजर आती थी. बाबा के झोले से कुछ और भी निकला था. लाल मरून रंग का बिस्कुट का पैकेट. बाबा मीठे थे मेरे लिए, जब तक भी थे.
मैं चाहता हूं कि पंडित छन्नूलाल मिश्र की आवाज में ठुमरी सुनते हुए आगे की बात पढ़ें तो सुभीता रहेगा. https://www.youtube.com/watch?v=Fl9AJjeR8TI
मैंने काशीनाथ को पढ़ा और बाबा को याद किया. आज मैं काशीनाथ से मिलने जा रहा था और बाबा को याद कर रहा था. बाबा जोर से चिल्लाते, रागिनी पानी दै जाओ. मां बताती है कि खरिहान से चिल्लाते और घर तक आवाज आती. क्या काशीनाथ भी चिल्लाते होंगे. नहीं, चिल्लाएंगे तो जीभ के नीचे गुलगुली करता कत्था छलक जाएगा.
ऐसा नहीं है कि काशीनाथ से पहली बार मिलने जा रहा था. आठवीं के बाद भी एक बार मिला था. उरई में रहता था तब. बीएससी के दिन थे. नगर में रहने वाले एक वजनी आदमी के घर गया. रामशंकर द्विवेदी नाम था उनका. उनकी किताबों की अलमारी पर नजर रेंग रही थी. हाथ बढ़ाया और जो आया, उसका नाम था काशी का अस्सी. पन्ना खोला तो नारा लिखा था. बच्चा बच्चा राम का...डैश न कोनौ काम का. ओ बेट्टे, ये सही कहानी होगी. इसमें तो गाली भी हैं गुदाज सी. मन मस्तराम सा फील करने लगा. किताब मांग कर ले आया. तस्सू सर के बीएससी मैथ्स के स्पेशल फंक्शन वाले पेपर के ट्यूशन रजिस्टर में धर पढ़ने लगा. पढ़ ली. पर पूरी पढ़ आया हूं क्या अब तक भी. उसके एक चैप्टर पर चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने 'मोहल्ला अस्सी' नाम से फिल्म भी बना दी. लेकिन किताब का आकर्षण बहुत बड़ा है. बीयर खत्म हुई तो मसालेदार मगर हल्के खाने का क्रियाकर्म करने लगा. फिर हरी इलाइची भी गुटक ली. कुछ चला फिरा ताकि गंध पेट से निकल बाहर की कुछ भैंगी सी हो रही रौशनी में मुक्त हो जाए. कार आई. हम बैठे. मैंने पुटरिया खोली. नानी के मामा के पैंट के कपड़े से बनी झुरिया थी ये. कंचे निकलने लगे. मैंने गुंजन को दिखाया. देखो ये मेरी याद का पहला काशीनाथ है, जिससे मैं ऐन आमने सामने भी मिला था इक बार. जेएनयू की दोपहर थी वो. प्रोफेसर वीरभारत तलवार ने काशीनाथ का सेशन रखा था. कमेटी हॉल में. वो बोले और मुझे लगा, किस्से पर विमर्श की लिसलिसी चाशनी गिर रही है. बौद्धिक मक्खियां भिनक रही हैं. काशी तुम कहानी ही कहा करो. वही तो वो पुल है, जिस पर हम बच्चे दौड़ तुम तक आते हैं. बाबा बम भोले कहते हुए. आखिर में मैंने जिस्मानी सा सच्चा सवाल पूछा. नामवर का भाई होना कितना मुश्किल है. काशी ने जवाब दिया. मगर पहले एक सवाल पूछा. तुम्हारा नाम क्या है. है के बाद मुस्कान का विराम चिह्न भी था. मैंने कहा, जी सौरभ.
फिर उन्होंने सौरभ के साथ संबोधन शुरू किया. जो जवाब दिया, वो याद नहीं. चश्मे के पीछे से मुझे ताकती मुस्कान याद है. यादें बड़ी बनिया होती हैं. बस मतलब की बात को ही दस्ती कागज पर लिखती हैं.
फोन की घंटी बजी. ऐसी मरी रिंगटोन कि जैसे पोस्टमॉर्टम हाउस के लिए एंबुलेंस जा रही हो. इस घर का नाम बोलते ही पुष्पेंद्र सेंगर याद आता है. नहीं, वो मेरा दोस्त तो नहीं. बस साथ पढ़ता था डीवीसी में. उसके पापा पेट्रोल पंप में काम करते थे. लुटेरों ने गोली मार दी थी. और वो मर भी गए थे. पापाओं को मरना नहीं चाहिए. मेरे पापा भी नहीं मरे. उनको ब्रेन हैमरेज हो गया था. वो नहीं मरे, इसलिए मैं भी जिंदा हूं आस्था में. मगर पुष्पेंद्र के साथ ऐसा नहीं हुआ. रात थी. फिर भी डांट से बेपरवाह हम बाहर थे. मेरी सुजुकी की टंकी का लाल रंग चमक रहा था. मैं सीट पर ही दचका था. मुंह में भैरो गुटखा भरा था. ताकि पोस्टमॉर्टम हाउस की गंध न भर जाए. वहां से पोस्टमॉर्टम हाउस का पिछवाड़ा दिख रहा था. एक बोरा सा रखा था. तभी एक आदमी आया. जैसे मैल, पसीने और बदबू से बना हो. मनोहर कहानियां में पढ़ा था. डॉक्टर तो बस दूर से दस्तखत करते हैं. पोस्टमॉर्टम तो वहां का जमादार करता है. करने लगा. सामने एक लाश थी, रात में और सांवली दिखती. सर खुलने लगा. सर घूम गया देख के. मुंह में मेंहदी की गंध भर गई. मौत की यही बू है मेरे पास. कब से. उस रात से जब कानपुर वाली बुआ के घर बीच वाले कमरे में सो रहा था. फोन की घंटी बजी. उधर से संतोष भइया की आवाज थी. सिब्बू बबलू भइया वाली भाभी जल गई हैं. झांसी ले जा रहे हैं. भाभी मर गई.
मुंह में मेंहदी की गंध भर गई. मौत की यही बू है मेरे पास. कब से. मैंने बहुत बाद में गुंजन की हथेली देख कहा. मुझे मेंहदी का रंग पसंद है, गंध नहीं.
पहली बार किसी को जलाने जा रहा था मैं. भाभी से मेंहदी की तेज तीखी गंध उठ रही थी. दीपू भइया ने बताया, अस्पताल में मेंहदी लगाते थे. ताकि जले की जलन कम हो. जमुना जी के किनारे खड़े थे. लाल चुनर वाली साड़ी हटाते जाते और कंडा, लकड़ी रखते जाते. सब जल गया, सब जल जाता है, सब जल में जाता है. इसीलिए मैं भी गया. जल में, नाक बंद कर. कान बंद नहीं कर पाया. पर डर लगा था. छेद तो उसमें भी हैं .पानी घुस गया तो. पानी से बाहर आया तो पानी पीने का मन किया. नल की धार के नीचे अंजुलि टिकाई. पहले घूंट के बाद ही उलटी आ गई. पानी में मेंहदी की गंध भरी थी. मैंने बहुत बाद में गुंजन की हथेली देख कहा. मुझे मेंहदी का रंग पसंद है, गंध नहीं. काशीनाथ की घंटी अभी भी बज रही थी. फोन उठाया. कहां तक पहुंचे. रथयात्रा चौक पहुंचने वाले हैं सर. ठीक है वहां से दायें ले लेना. मड़ुवाडीह की तरफ. आगे हार्टलाइन अस्पताल आएगा. उसके पहले ही गली है. ठीक है सर, हम पहुंच ही रहे हैं बस. पहुंचे. काशीनाथ को फोन किया. घर का नंबर बता दीजिए सर. उधर से खीझ के वर्क और डांट के चूने में लिपटी आवाज आई. मुड़ो यार, हम बाहर ही खड़े हैं. कुर्ता पाजामा ही पहना होगा काशीनाथ ने. कुछ लाइट से लटपटाते अंधेरे में देख सोचा. हो सकता है धोती पहन रखी हो. नामवर भी तो धोती ही पहनते हैं न. नामवर काशी के बड़े भाई हैं. नामवर फूल हैं और काशी पेड़ा. फूल देवता के पास रह जाता और पेड़ा पेट में आ जाता है. गुंजन बोली, वो रहे. कार रुकी तो उन्होंने इशारा किया. इस कनाईं मोड़ लो. ऐसा तो गलत होगा. काशी आगे पैदल चलें और हम कार में बैठे देखें. हम भी उतर लिए. देखा बाद में ठीक से. पहले बढ़कर पैर छू लिए. वो बोले. तुम्हारा इंतजार मैं ऐसे कर रहा था, जैसे कोई अपनी प्रेमिका का करता है. मेरी पुरानी इकलौती प्रेमिका इस सौत को देख मुस्कुरा दी.
भीतर पहुंचा तो गौर से देखा. ये काशी ही थे. हैं. ऊपर तो खादी का कुर्ता. फिर गंदुमी रंग की लोई का किनारा. और नीचे. लोअर कहलाने वाला काला पैजामा. काशी काशी से हैं. एक छोर शास्त्र पर सधा. दूसरा नए पानी से आचमन लेता.
वो बैठे और फिर उठ गए. हम बैठे और निगाह उठी. काशी भीतर चले गए थे. गुरुमां को खबर करने. उनका नाम कुसुम है. बाद में काशी के संस्मरण पढ़ जाना. ये भी कि वह टीचर थीं. फिलहाल तो वह काकी थीं. बूढ़ी नहीं कहूंगा क्योंकि उनकी साड़ी और चेहरा और मुस्कान सब धुंधले कतई नहीं थे. काशी बोले. ये सौरभ है, ये गुंजन है. और भी कुछ कुछ कहा. बहुत बोलने वाला सौरभ बुखार सा तप रहा था. भंते इसे उत्तेजना कहते हैं. सामने काशी बैठे थे. अपने घर में. आंखों से नेह बरसाते. फिर मैं बोला. 18 साल पुराना रिश्ता है आपसे. उन्हें हॉस्टल का किस्सा सुनाने लगा. गुंजन भी ध्यान से सुन रही थी. ये पन्ना उसके सामने भी नहीं बांचा था कभी. फिर गांव का किस्सा सुनाया. गांव चमारी. चमारी में हम. इलाहाबाद से हारकर लौटे. तंबाकू की तलब लगाकर. मगर यहां सब कैसे होता. न ज्यादा पैसा न दुकान तक पहुंच. सो बबलू को पकड़ा. बबलू बागड़बिल्ला था. हमारी गाय भैंस की दोहनी करता था. वो देसी गुटखा ले आता. अठन्नी में आता था. साथ में पान का पत्ता भी आता. उस पर चूना लगा रहता. मैं ये सब छज्जे वाले कमरे में रखे ड्रम में छिपा देता. बोरे के नीचे. फिर वहीं से निकाल निकाल खाता. खाता और हंस पढ़ता. इलाहाबाद में लक्ष्मी टॉकीज के नीचे से खरीदीं थीं. खूब सारी. उसमें उदय प्रकाश की कहानी पीली छतरी वाली लड़की थी. एक पुराने अंक में काशी भी थे. अपनी किसी याद के साथ. काशी ये सब सुनते जाते और जब मैं रुकता तो उठते. भीतर से कुछ ले आते. पहले पेठा आया. पानी भी था. हमने खाया. केवड़े की खुशबू आ रही थी. फिर मीठे मुंह उठाया तो नजर काशी के माथे पर टिक गई. कित्ता ठीक किया भगवान ने. माथे पर बड़ा सा दिठौना लगाकर भेजा. नीचे माई कित्ती कित्ती बार नजर उतारती. काशी नजरबट्टू लेकर पैदा हुए थे. उनके माथे से कुछ ऊपर सिर के एक किनारे बड़ा सा काला निशान है. निशान है और फिर कुछ बाल हैं. ये बाल मैंने कल भी देखे थे. गंगा के दूसरे छोर पर. सफेद फुनगी वाली झाड़ की शकल में. मैं बताने लगा. सवाल था कल कहां कहां गए. जवाब सुना और फिर काशी ने कहा. कल वीटी जाना. कला केंद्र जाना. बनारस पहली बार आए हो न. जी. गुंजन बोल पड़ी. हम आते रहेंगे.

मैं बताने लगा. शादी की सालगिरह खोलने काशी क्यों आए. अब तक चाय भी आ चुकी थी. सिलसिले की टेंपो उनके लिखे की तरफ बढ़ गई. तब उनका उपन्यास 'उपसंहार' नया नया आया था. खूब बिक रहा था. खूब चर्चा भी थी. मैंनै भी देखा था कुछ लोगों को फेसबुक पर, उनके और किताब के साथ बत्तीसी दिखाते. जैसे मुझे मुंह बिरा रहे हों. बड़े आए. मैं भी लाऊंगा और पढ़ूंगा. मगर तस्वीर. उसका क्या. तो गुंजन को बोला. रस्ते में भी बोला था वैसे. मेरी उनके साथ एक फोटू खींच देना. पर नहीं. शायद मैं भूल रहा हूं. मुझसे पहले काशीनाथ जी ने ही बोल दिया था. अपने बेटे से. या शायद बहू से. जरा एक फोटो तो खींच दो हमारी. बेटा सिद्धार्थ. पाली पढ़ाता है. बीएच्चू में. बहू वंदना. एनजीओ के लिए काम करती हैं. वो गुंजन से बात करने लगीं. ऐसा लगा, जैसे दोनों पहले से कुछ जानती सी हैं एक दूसरे को. औरतें ऐसी ही होती हैं. पीपे के पुल सी. उन्हें बनाने के लिए ज्यादा ईंट पत्थर नहीं जोड़ना होता. सिद्धार्थ की एक तस्वीर थी ऊपर. एपीजे अब्दुल कलाम के साथ. उसके बारे में बताने लगे. फिर एक और तस्वीर पर ध्यान गया. खूब बड़ी सी थी. सिद्धार्थ के कद सी. काला सा खूब बड़ा बगरद. नीचे भैंसे पानी पी रही थीं. शायद गाय रही हों और काले होने के कारण भैंस लग रही हों. काशी ने बताया. एक युवा मित्र ने खींची. चीन से आया था. दे गया. अच्छी लगी. मढ़वा ली. मढ़ी चीजें बाहर के कमरे में खूब जमती हैं. मैं अगली बार काशी के घर के भीतर के कमरे में भी जाऊंगा.
तस्वीर खिंचनी शुरू हुई. सामने दो दो कैमरे चमक रहे थे. वंदना जी और गुंजन का कैमरा. काशी ने मेरे कंधे पर हाथ रहा. उनकी कलाई पर टिका शॉल मेरे कान के नीचे छू गया. भक्क से लौ जग गई. मन किया. जोर से चपेट लूं. फिर डर लगा. रुंआसा हो गया तो. नीचे देख मुस्कुराता रहा.
ऊपर से भैंस मुस्कुरा रही थी कल्लू पर. कल्लू मेरा नाम नहीं है. मां और भइया चिढ़ाने के लिए कहते हैं कभी कभी. चिढ़ाते वकील ताऊ भी थे. मगर वो डॉक्टर काले कहते थे कल्लू नहीं. फ्रेम और बड़ा हो गया. गुंजन भी आ गई थी काशी के उस तरफ. मेरे दो प्रेमी एक ही तरफ थे. मैं दूसरी तरफ से उन दो को निरख रहा था. मैं मिसरी हुआ जा रहा था. गीला हो घुलता. मगर बीच के धागे को सूखा रखे. हम वापस कुर्सी पर आकर बैठ गए. काशी बोले, ये बताओ, तुमने मेरा लिखा क्या नहीं पढ़ा है. मैंने कहा, पुराना सब कुछ 'उपसंहार' को छोड़. फिर कहा, मुझे एक शिकायत भी है. आदमी काशीनाथ बूढ़ा हो रहा है. होना ही था. होता है. होना ही होगा. हम सबको. पर मेरा लेखक काशीनाथ. अपना मोर्चा और काशी का अस्सी से चला. और हमें जिस देहरी पर ला छोड़ा, उसे 'रेहन पर रग्घू' कहा. उनकी पत्नी कुसुम बोल पड़ीं. और अब तो उपसंहार भी लिख दिया. मैंने कहा, मेरा काशी कहां हैं. काशी ने कुछ नहीं कहा. वो वहीं था. ये बार बार इस स्याही में मैं बहुत आ रहा है...संवाद में बात करते हैं अब दिल्ली कब आएंगे. आएं तो जरूर बताएं. मैं दिल्ली आने से बचता हूं. साल में एक दो बार ही आता हूं. दिल्ली से डरता हूं. पर सेमिनार वगैरह के लिए बाहर तो जाते होंगे. बाहर कम ही जाता हूं. बनारस में हुआ तो चला जाता हूं. इन सबमें पड़ूंगा तो लिख नहीं पाऊंगा. हम्म्म्म. कभी भइया से पूछा नहीं. लिखते क्यों नहीं. कैसे रह लेते हैं बिना लिखे. कोई फायदा नहीं. अब वो नहीं लिख पाएंगे.
काशी के नामवर के बारे में दिए इस जवाब में बहुत कुछ था. खिसियाहट, गुस्सा, खीझ, बेबसी और एक तटस्थ सी हंसी भी. जो है, सो है वाला दर्शन. शायद बुद्धनमा कुछ. आशाओं से किसी के स्वरूप को मैला मत करो जैसा.
चला चली का वक्त हो रहा था. वह किताबें टटोलने लगे. 'उपसंहार' नहीं थी. तय हुआ कि दिल्ली से ही ले ली जाए. हमारी तरफ की बुक रैक में पुरानी किताबें थीं. शायद काफी वक्त से निकली भी नहीं थीं. रैक नहीं, घर की भी बात करूं तो गांव सा पसरा था उसमें. बाहर के बरामदे में पानी की टोंटी. मोटर साइकिल. कुछ गमले और बनारस की धूल. भीतर भी कुछ शानदार पेंटिंग्स के साथ पुरानी कलौंजी का फर्श भी एक साथ फ्रेम बना रहा था नजर का. उनकी तरफ की रैक में नई किताबें थीं. काशी की, नामवर की और भी कुछ नए लेखकों की. उन्होंने तीन चार किताबें निकालीं. फिर उनके पहले पन्ने पर लिखने लगे. गुंजन और मैं उन्हें देखते रहे. वह तस्वीर भी खींचने लगी चुप्पे चाप से. कमरे में ध्यान पसरा हुआ था. तीन आत्मीय अबोले अपने अपने कोनों से उठ रहे थे. लकीर में लहलहाते.

किताबें मिलीं और साथ में कासीदेव का प्रसाद भी. जब उन्हें पता चला कि अब भी कभी कभी मैं पान खा लेता हूं. तो उन्होंने अपना बीड़ा खोल दिया. खोला और पूछा, गुंजन से. तुम कुछ कहती नहीं हो इसे ये सब करने पर. गुंजन मुस्कुरा दी. जवाब बोलकर ही नहीं दिए जाते. मैंने मन में ये सबक दोहराया. पान खुला और मित्र पाणिनि याद आए. उन्होंने बताया था कि जैसा किमाम बनारस में मिलता है, वैसा कहीं नहीं. काशी से पूछा. पान भी लेना है दिल्ली ले जाने के लिए. कहां जाऊं. बोले, मेरा तो यहीं से बन जाता है. पर तुम बीएच्चू जाना. ध्यान आया. पाणिनि ने कहा था. महेश-मुकेश जैसी कोई दुकान. काशी बोले, केशव की दुकान है, रविदास गेट पर. काशी का पान खाया. इस बार बिना फूल चढ़ाए पेड़ा मिल गया था.
पान दाईं दाढ़ के नीचे दबा तो केले की खुशबू आई. कहा, किमाम अच्छा है, ताजे केले के तने से बना. काशी बोले, भाई मैं इतने वक्त से खा रहा हूं. पर ये नहीं पता कि किमाम केले के तने से बनाया जाता है. मैं लजा गया. गोया गुरु के सामने गुर्रा दिया हूं धोखे से.
मुझे भी कहां पता था. पाणिनि ने बताया था. हां. पर आज जाकर मैं भी पूछूंगा. जाना था हमें भी. जाने से पहले खुद से बोला. सौरभ, देखो इसे. ये काशी है, जिसकी किताब कासी का अस्सी का तुमने अखंड पाठ करवाया था. जिसे पढ़ने को हर मिलने समझने वाले से कहते हो तुम. ये लिख रहा है. और तुम से तो लिखने का ढोंग भी नहीं हो पा रहा. देहरी पार करते करते कौल खाई. लिखूंगा. यहीं से लिखूंगा. इसी पर लिखूंगा. कार के भीतर काशी थे. आगे गुंजन. पीछे वो और मैं. बताने लगे. मीठा जरूर ले जाना. सोचा, ले तो जा रहा हूं. कुछ बोला नहीं. एक बार बोलने को मुंह खोला था. बूंद चू गई थी कत्थे की. टीशर्ट के नीचे वाले हिस्से पर गिरी. सफेद थी टीशर्ट. और कत्था सूरज की सीनरी सा टंक गया उस पर.लगा, बाबा साथ बैठ गए हैं. अब कमी नहीं अखरेगी. लंका की तरफ जा रहे थे. काशी को यहीं रुकना था. रुके, उतरे और फिर एक बार मन किया. सभ्यता का संकोच तिलंडे पर. लिपट ही जाऊं. नहीं लिपट पाया. दिल दिल्ली हो जाए तो यही नुकसान होते हैं. बस पैर ही छुए और निगाहों से उनको छुआ. कई कई बार. वो बोले. मुझसे नहीं. मेरे हिस्से तो कंधे पर उनका हाथ आया था. गुंजन से. गुंजन, बहुत दिनों बाद मैं किसी से मिलकर इतना खुश हुआ. बहुत मस्त है ये. मैं बताने लगा. मेरे मित्र प्रियंवद ने कहा था. आप खुद बनारस हैं. आज उस पर दस्तखत हो गए. ट्रैफिक रुकने का डर था. सो बैठ गया फिर. खिड़की के उस पार काशी थे. हाथ हिलाते. मुस्कुराते. डायरी में लिखा मैंने. जो हंसना खिलखिलाना न सिखाए वो दर्शन नहीं टट्टी है. बाकी तो सब मिट्टी है. मजा तब है, जब उसमें खूब पानी मिले. काशी सा. अपना रास्ता लो बाबा. कहा और कार चल पड़ी. https://www.youtube.com/watch?v=An0e4v5Rb3w