साल 1979. कर्नाटक के तुमकुरु जिले में कुरुबा समुदाय ने एक बड़ी जनसभा बुलाई थी. मकसद था तब के मुख्यमंत्री को सम्मानित करना. इस जनसभा के बाद मुख्यमंत्री अपनी कार के बगल में खड़े थे. 'प्लेयर्स' के पैकेट से आखिरी सिगरेट निकालकर सुलगाई थी. और खाली पैकेट लेकर हाथ में मरोड़ रहे थे. तभी एक युवक सुरक्षा घेरा पार करते हुए सीएम तक पहुंच गया. बोला- सर, मैं कांग्रेस का कार्यकर्ता हूं. लंबे समय से राशन की दुकान के लिए आवेदन दे रहा हूं. बहुत गरीब हूं, मदद कीजिये. सीएम ने उसे घूरते हुए कुछ देर तक देखा. फिर उसी सिगरेट के खाली पैकेट पर उसे दुकान मुहैया कराने का आदेश लिख दिया. बगल में डिप्टी कमिश्नर भी मौजूद थे. उनसे कहा कि युवक के नाम दुकान का आदेश निकालें. युवक को दुकान मिल गई. युवक ने उस सिगरेट पर लिखे आदेश को फ्रेम करवाकर रख लिया. सिगरेट के पैकेट पर आदेश लिखकर दुकान दिलाने वाले मुख्यमंत्री का नाम था देवराज अर्स.
कहानी कर्नाटक के उस नेता की जिसके लिए इंदिरा ने बांग्लादेश से फोन कर कहा- 'उसको मुख्यमंत्री बनाओ'
देवराज अर्स, जो कभी इंदिरा गांधी के सबसे करीबी थे लेकिन बाद में ऐसे बागी हुए कि कांग्रेस ने पार्टी से निकाल दिया.

देवराज अर्स को 80 के दशक में एक के एक बाद सामाजिक-आर्थिक सुधारों से सबसे 'डेयरिंग सीएम' कहा जाने लगा. जिनके बारे में कर्नाटक में इस 'सिगरेट के पैकेट पर आदेश देने' जैसी सैकड़ों कहानियां मिल जाएंगी. जो एक वक्त कर्नाटक में इंदिरा गांधी का सबसे खास नेता था. जब 1969 में कांग्रेस के ओल्ड गार्ड या सिंडिकेट ने इंदिरा गांधी को पार्टी से निष्कासित कर दिया, तब भी उनके साथ डटकर ये नेता इंदिरा के साथ खड़ा रहा. 1977 में जब इंदिरा चुनाव हार गईं तो उन्हें लोकसभा भेजने के लिए देवराज अर्स ने कर्नाटक के चिकमगलूर से उपचुनाव लड़वा दिया. इतने करीब होने के बाद भी बाद के सालों में रिश्ता तल्खी में बदल गया, देवराज इंदिरा से बगावत कर बैठे.
पॉलिटिकल किस्सों की खास सीरीज मुख्यमंत्री में देवराज अर्स की पूरी कहानी जानिए. मैसूर स्टेट के आठवें, आखिरी और नवनामांकित कर्नाटक के पहले मुख्यमंत्री देवराज अर्स के किस्से.
साल 1972. कर्नाटक का विधानसभा चुनाव. 223 सीटें थीं. इनमें करीब 150 सीटों पर अमूमन लिंगायत, वोक्कालिगा और ब्राह्मण प्रत्याशी चुनकर आते थे. और बाकी 73 सीटों पर पिछड़े, SC/ST और मुस्लिम समुदाय के प्रत्याशी जीतकर आते थे. कांग्रेस ने टिकट बंटवारे की जिम्मेदारी देवराज अर्स को दी थी. क्यों? क्योंकि देवराज तेजतर्रार तो थे ही, साथ ही कांग्रेस सिंडीकेट वाले दोफाड़ में इंदिरा के साथ खड़े थे. टिकट बंटवारे ने समीकरण बदल दिया. पिछड़े, SC/ST तबकों और मुस्लिम समुदाय के 133 उम्मीदवारों को टिकट दिया. वहीं 90 सीट पर लिंगायत, वोक्कालिगा और ब्राह्मण उम्मीदवारों को टिकट मिला. पार्टी के अंदर टिकट बंटवारे को लेकर नाराजगी जताई गई. देवराज और इंदिरा पीछे नहीं हटे. कांग्रेस को 163 सीटों पर जीत मिली. इनमें 92 विधायक दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़े वर्गों के थे. देवराज ने तब नेताओं से कहा था,
“हम किसी समुदाय के खिलाफ नहीं हैं. लेकिन लोकतंत्र तभी सही मायने में सफल होगा जब शोषित वर्ग को ताकत मिलेगी.”
जनादेश साथ में था. लेकिन सीएम को लेकर अब भी स्थिति साफ नहीं थी. विधानसभा में विधायक दल का नेता चुनने की बैठक बुलाई गई. करीब तीन घंटे मंथन के बाद भी विधायक किसी नतीजे पर नहीं पहुंचे. फिर तय हुआ कि इंदिरा गांधी पर ये फैसला छोड़ा जाए. लेकिन एक समस्या थी. तब इंदिरा गांधी बांग्लादेश के दौरे पर थीं. किसी जुगत से शाम 5 बजे फोन पर उनसे संपर्क हो पाया. इंदिरा ने सपाट जवाब दिया – “देवराज अर्स.” बरसों से लिंगायत और वोक्कालिग्गा की लड़ाई में उलझे कर्नाटक में पहली बार पिछड़े वर्ग का नेता मुख्यमंत्री चुना गया. कर्नाटक की राजनीति में बड़ा शिफ्ट आया था. लेकिन देवराज सीएम और इंदिरा गांधी के खास बनते, उसके पीछे एक लंबी कहानी है.

अगस्त 1915 में जन्मे देवराज ने ग्रैजुएशन तक साइंस की पढ़ाई की. फिर जब दूसरा विश्वयुद्ध लड़ा जा रहा था, आर्मी में अफसर की नौकरी लग गई. मां ने सेना में काम करने से मना कर दिया. सरकारी नौकरी का मूड बनाकर मैसूर के राजा से मिलने गए. 20 दिन तक नहीं मिल पाए. मन खिन्न हो गया. सरकारी नौकरी भी नहीं की.
अपने गृहजनपद हुंसुर लौट आए. लोकल कांग्रेस नेता और वकील श्रीनिवास अयंगर के संपर्क में आए. अर्स के राजनीतिक रुझान को देख अयंगर को लगा कि कहीं ये वामपंथ की ओर ना चला जाए. इसलिए कांग्रेस में जोड़ने का सोचा. अयंगर ने अर्स को ओल्ड मैसूर के चर्चित कांग्रेस नेता साहुकार चेन्नैया से मिलवाया. पहली ही मीटिंग में अर्स कांग्रेस में जुड़ने के लिए राजी हो गए. पार्टी से जुड़ते ही मीटिंग और सभाओं में हिस्सा लेने लगे.
1946 में मैसूर प्रांत की प्रतिनिधि सभा का चुनाव होना था. कांग्रेस ने सभी विधानसभाओं पर उतरने का फैसला किया. हुंसुर के लिए देवराज अर्स का नाम ऊपर आया. लेकिन अर्स को राजनीति में लाने वाले अयंगर ने ही इसका विरोध कर दिया. अयंगर का कहना था कि जो पैसे खर्च कर सके, उसे चुनाव में उतारना चाहिए. जब साहुकार चेन्नैया को इसका पता चला तो वे हुंसुर आ गए. मामला सुलझाया और कहा कि पार्टी को अर्स जैसे अच्छे लोगों की जरूरत है. चेन्नैया ने अर्स को आश्वासन दिया कि वे चुनावी खर्च की चिंता ना करें. इस तरह अर्स की प्रतिनिधि सभा में एंट्री हो गई.
1952. देवराज अर्स हुंसुर से ही पहली बार विधायक बने. लोकप्रिय थे. 1956 में अलग मैसूर राज्य बनने के बाद निजलिंगप्पा मुख्यमंत्री बने. राज्य विधानसभा में भूमि सुधार बिल पेश किया गया था. कुछ दिनों की चर्चा के बाद बिल को सेलेक्ट कमिटी के पास भेजा गया. अर्स चाहते थे कि जमीन जोतदारों (बटाईदारों) को मिले. क्योंकि वे उनकी समस्याओं से परिचित थे. कमिटी में सदस्य बनने की इच्छा जताई. इच्छा अधूरी रह गई.
इधर, कांग्रेस के भीतर गुटबाजी शुरू हो चुकी थी. केंद्र में के कामराज और कामराज के कमांडर निजलिंगप्पा थे. अर्स ने इससे दूरी बनाकर रखी थी. 1962 का चुनाव आ गया था. अर्स के खिलाफ चुनाव लड़ने वाला कोई नहीं था इसके बावजूद उन्हें टिकट देने में आनाकानी की गई. तब हुंसुर विधानसभा के लोगों ने अर्स को सलाह दी कि वे दिल्ली जाएं. लेकिन अर्स ने मना कर दिया. बोले,
“मेरे पास पैसे नहीं हैं. अगर उन्हें टिकट देना है तो दें. मैं किसी के सामने भीख नहीं मागूंगा.”
फिर हुंसुर के ही एक नेता ने दिल्ली के लिए दो टिकट बुक किये. देवराज दिल्ली पहुंचे. कांग्रेस वर्किंग कमिटी में. निजलिंगप्पा ने अर्स का विरोध किया. कहा कि देवराज अर्स जीत नहीं पाएंगे. निजलिंगप्पा कर्नाटक के सीएम रह चुके थे. उनकी बातों को अहमियत मिलती थी. लेकिन यहां लाल बहादुर शास्त्री और पंडित नेहरू देवराज के पक्ष में थे. बहस हुई. बहस के आखिर देवराज के पास दो टिकट थे – दिल्ली से बैंगलोर तक का ट्रेन टिकट और विधायकी लड़ने का टिकट. 1962 के चुनाव में वे निर्विरोध चुने गए. मैसूर में इस तरह की ये पहली जीत थी.
उधर, देवराज के चुनाव की गलत भविष्यवाणी करने वाले निजलिंगप्पा खुद अपना चुनाव हार गए. लेकिन उनके समर्थक उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे. देवराज अर्स को यह नहीं जंचा. उन्होंने पार्टी प्लेटफॉर्म पर आपत्ति जता दी कि जिसे लोगों का समर्थन हासिल नहीं है वो मुख्यमंत्री कैसे बन सकता है. पार्टी में कुछ देवराज से सहमत थे. लेकिन निजलिंगप्पा के खिलाफ खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं थी. देवराज अर्स यहीं नहीं रुके. वे खुद निजलिंगप्पा से मिलकर आपत्ति दर्ज कराने पहुंच गए. उनसे कहा,
“इस समय आपको मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहिए. ये नैतिक रूप से सही नहीं है. जिस पर आप भरोसा करते हैं, उनका नाम सीएम के लिए सुझाइए. आप दोबारा चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बनिये.”
निजलिंगप्पा मान तो गए. लेकिन उनके दिमाग में अलग प्लानिंग चल रही थी. अगले दिन पार्टी मीटिंग ने विधायकों ने निजलिंगप्पा के समर्थन में हाथ उठाया. लेकिन उन्होंने खुद मुख्यमंत्री बनने से इनकार कर दिया. निजलिंगप्पा ने कहा कि जब तक वे दोबारा चुनकर नहीं आते हैं, तब तक शिवलिंगप्पा रुद्रप्पा कांती सीएम होंगे. ये सभी जानते थे कि कांती सिर्फ नाम के मुख्यमंत्री होंगे. कमान निजलिंगप्पा के हाथ में रहेगी.
लेकिन निजलिंगप्पा कुर्सी पर न बैठें, इस पूरे विवाद ने देवराज अर्स को सबकी नजरों में ला दिया. अर्स, कांती सरकार में मंत्री भी बनाए गए. इधर, तीन महीने बाद निजलिंगप्पा उपचुनाव जीतकर आए और सीएम बन गए. निजलिंगप्पा कैबिनेट में देवराज को ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर बनाया गया.
1967 के विधानसभा चुनाव आने वाले थे. स्थानीय कांग्रेस नेता फिर से देवराज अर्स को टिकट देने के पक्ष में नहीं थे. राजनीति में लिंगायतों का प्रभाव था. राज्य बनने के बाद ज्यादातर मुख्यमंत्री इसी समुदाय से बने थे. शुरुआत से लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय का दबदबा रहा. प्रेशर के बीच में खबरें चल गईं कि शायद देवराज अर्स को टिकट न मिले. लेकिन चुनाव के पहले अर्स हुंसुर गए और चुपचाप पर्चा भर दिया. वो भी कांग्रेस के टिकट पर. कहानी चली - देवराज अर्स को इंदिरा गांधी ने टिकट दिलवाया है. उन पर इंदिरा गांधी की नजर पड़ चुकी थी. देवराज अर्स फिर आसानी से चुनाव जीत गए. निजलिंगप्पा ने उन्हें श्रम मंत्रालय की जिम्मेदारी दी.

1968 में निजलिंगप्पा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए. मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा. वीरेंद्र पाटिल नए सीएम बने. देवराज अर्स को कैबिनेट से बाहर कर दिया गया. इधर, दिल्ली में भी कांग्रेस के भीतर खींचतान शुरू था. कांग्रेस के ओल्ड गार्ड (सिंडिकेट) इंदिरा गांधी की बढ़ती ताकत से ज्यादा खुश नहीं थे. 1967 आम चुनाव के बाद मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बनना चाहते थे. लेकिन उन्हें वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी गई. इंदिरा गांधी सिंडिकेट से मिल रही चुनौतियों से निपटने की तैयारी कर रही थीं. मौका आया 1969 में. 3 मई को राष्ट्रपति डॉ जाकिर हुसैन का निधन हो गया था. अगले राष्ट्रपति चुने जाने को लेकर इंदिरा और सिंडिकेट के बीच मतभेद खुलकर सामने आ गए.
जुलाई में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक बंगलौर में हुई थी. इसी बैठक में सिंडिकेट के नेताओं ने राष्ट्रपति के लिए नीलम संजीव रेड्डी को उम्मीदवार घोषित किया. लेकिन इंदिरा गांधी ने तत्कालीन उपराष्ट्रपति वीवी गिरी को राष्ट्रपति बनाने की इच्छा जताई. कांग्रेस वर्किंग कमेटी में सिंडिकेट का दबदबा था. इंदिरा के प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया. पार्टी को लगा कि इंदिरा मान जाएंगी. लेकिन अब इंदिरा गांधी ने इसे वैचारिक लड़ाई में बदल दिया था. उसी दौरान इंदिरा ने 14 निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण का ऐलान कर दिया. एक और घोषणा हुई- पुराने रजवाडों को मिलने वाली विशेष सुविधाओं को वापस लेने की. दिल्ली लौटते ही इंदिरा ने मोरारजी देसाई को वित्त मंत्री पद से हटा दिया. कुछ दिन बाद ही अपनी घोषणाओं को अमली जामा पहनाने के लिए अध्यादेश जारी करवा दिया.
इधर वीवी गिरी निर्दलीय चुनाव में उतर गए थे. ये इंदिरा की चाल थी. इंदिरा ने गिरी को सपोर्ट करने के लिए अंदर ही अंदर अपने समर्थकों तक संदेश फैला दिया था. राष्ट्रपति चुनाव से ठीक पहले इंदिरा सार्वजनिक रूप से आईं और विधायकों-सांसदों से 'अंतरात्मा के आधार पर' वीवी गिरी के पक्ष में वोट करने को कह दिया. कर्नाटक में देवराज अर्स भी इस काम में लग गए. 9 विधायकों को अपनी तरफ करने में कामयाब रहे. उन विधायकों ने एक पब्लिक स्टेटमेंट भी जारी कर दिया कि वे अपनी अंतरात्मा के अनुसार वोट करेंगे. वीवी गिरी राष्ट्रपति बन गए. इसके बाद कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा और इंदिरा गांधी के बीच खुले तौर पर लड़ाई शुरू हो गई थी. पार्टी ने इंदिरा पर अनुशासनहीनता का आरोप लगाया. और आखिरकार 12 नवंबर को वो पार्टी से निष्कासित कर दी गईं.
इस तरह आजादी के बाद कांग्रेस का पहला विभाजन हुआ. इंदिरा गांधी को पार्टी के 705 में से 446 सांसदों का समर्थन हासिल था. अब दो धड़े असली कांग्रेस होने का दावा कर रहे थे. इंदिरा गांधी के कांग्रेस के लिए कांग्रेस (आर) शब्द का इस्तेमाल होने लगा. वहीं सिंडिकेट गुट को कांग्रेस (ओ) कहा जाने लगा. इंदिरा गांधी सरकार में बनी रहीं. लोकसभा में बहुमत साबित करने के लिए 45 सांसदों की जरूरत थी. कम्युनिस्ट पार्टियां इंदिरा गांधी के बैंकों के राष्ट्रीयकरण और दूसरे फैसलों से खुश थीं. इसलिए खुलकर समर्थन कर दिया.
इधर, कर्नाटक (मैसूर) में निजलिंगप्पा ने 'अंतरात्मा के हिसाब से' वोट करने वाले विधायकों को पार्टी से सस्पेंड कर दिया था. नुकसान देवराज अर्स का भी हुआ. लेकिन इंदिरा के खिलाफ जाने से उन्होंने मना कर दिया. निजलिंगप्पा का गुस्सा झेला. लेकिन लाभ ये हुआ कि राज्य में देवराज अर्स इंदिरा वाली कांग्रेस के सबसे बड़े नेता बन गए. एक नए देवराज अर्स का जन्म हुआ. इंदिरा गांधी ने देवराज की तारीफ की. देवराज कर्नाटक में निजलिंगप्पा के सबसे बड़े विरोधी बन चुके थे.
मूंगफली बेचने वाले को दिया टिकटअगले साल 1970 में देवराज इंदिरा कांग्रेस के कर्नाटक (मैसूर) अध्यक्ष बन गए. लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय से आने वाले नेताओं ने इसका विरोध किया था. लेकिन देवराज अब इंदिरा के करीबी थे. उसी साल कर्नाटक में तीन सीटों पर उपचुनाव हुए. हुंगुंड, होसपेट और शिवाजीनगर. देवराज अर्स के पास अपनी शक्ति दिखाने का मौका था. उन्होंने एक सीट पर ऐसे व्यक्ति को टिकट दिया, सब हैरान रह गए. शिवाजीनगर सीट. जिसे टिकट मिला, वो मूंगफली बेचने वाला हामिद शाह था. देवराज का मजाक उड़ाया गया. लेकिन हामिद शाह 10 हजार वोटों से जीत गए.
1971. इंदिरा गांधी ने समयपूर्व लोकसभा चुनाव कराने की घोषणा कर दी थी. जिस नेता को चार साल पहले विधानसभा चुनाव में टिकट नहीं मिल रहा था, उसी देवराज अर्स को चुनाव में टिकट बांटने की जिम्मेदारी दी गई. चुनाव में सिंडिकेट गुट को बड़ा झटका लगा. सबको चौंकाते हुए, इंदिरा कांग्रेस राज्य की सभी 27 सीटें जीत गई.

दिल्ली में सरकार बनते ही कर्नाटक (मैसूर) में भगदड़ मच गई. करीब 60 विधायक इंदिरा कांग्रेस के समर्थन में आ गए. साहुकर चेन्नैया की प्रजा पार्टी का इंदिरा कांग्रेस में विलय हो गया. मार्च में बजट सत्र चल रहा था. मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को खबर मिली कि 60 विधायकों ने बगावत कर दी है. उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. विधानसभा को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया. इधर, इंदिरा कांग्रेस में सरकार बनाने की कवायद शुरू हो गई. कई नेता मुख्यमंत्री की दावेदारी करने लगे. देवराज अर्स बंगलौर में ही थे. पत्रकारों ने जब उनसे सरकार बनाने के बारे में पूछा तो उन्होंने कोई हिंट नहीं दिया. सिर्फ इतना कहा कि वे शाम को दिल्ली जा रहे हैं. पत्रकारों के लिए इतना काफी था. खबरें छप गईं कि इंदिरा कांग्रेस की सरकार बन सकती है. लेकिन एक दिन बाद जब देवराज वापस बंगलौर आए तो उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई. कहा- “कोई हॉर्स ट्रेडिंग नहीं होगी. हम सरकार नहीं बनाएंगे.”
देवराज अर्स अपना भविष्य भी देख रहे थे. साथ ही वे कर्नाटक में लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय के प्रभुत्व को तोड़ना चाहते थे. राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया.
फिर 1972 के चुनाव में जो हुआ, वो सबने देखा. कर्नाटक में जातियों की राजनीति में बड़ा शिफ्ट आ रहा था.
अंक दो : देवराज जिसका सोशल समीकरण सबने देखाजीतकर आए तो कैबिनेट में पिछड़े और दलित समुदाय के कई विधायकों को मंत्री बनाया. उनमें आज के कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भी शामिल हैं. दलित समुदाय से आने वाले खड़गे पहली बार गुरमितकल सीट से विधायक चुनकर आए थे. 1976 में उन्हें प्राथमिक शिक्षा विभाग का जिम्मा सौंपा गया था.
मुख्यमंत्री बनते ही देवराज दो महत्वपूर्ण काम पर लग गए. पहला- अन्य पिछड़ा वर्ग को शिक्षा और रोजगार में आरक्षण दिलाना. इसके लिए पांच महीने के भीतर एक पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन कर दिया. एलजी हवनूर इसकी अध्यक्षता कर रहे थे. इसलिए इसे हवनूर आयोग भी कहा जाता है. आयोग को पिछड़े वर्ग (SC/ST से अलग) की सामाजिक-आर्थिक स्थिति की विस्तृत जानकारी इकट्ठा करने को कहा गया. नवंबर 1975 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी. आयोग की सिफारिशों को 1977 में लागू किया गया. देवराज सरकार ने अलग-अलग कैटगरी के तहत पिछड़ों को आरक्षण देना शुरू किया. इस पूरी कवायद ने राज्य को हिलाकर रख दिया था. मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचा. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हवनूर कमीशन की रिपोर्ट की तारीफ की और कहा कि रिपोर्ट में पिछड़े वर्ग की विस्तृत और साइंटिफिक स्टडी है. इससे पहले बिहार में इस तरह की कोशिश हुई थी, लेकिन आयोग बनने के बावजूद आरक्षण लागू नहीं हो पाया था. बाद में केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए मंडल कमीशन ने भी हवनूर आयोग की रिपोर्ट की मदद ली.
देवराज अर्स का दूसरा बड़ा काम था- भूमि सुधार के जरिये बटाईदारों को जमीन मुहैया कराना. 16 साल पहले जिस काम में लगने की कोशिश की थी, वो अब पूरा होने वाला था. निजलिंगप्पा सरकार ने भी भूमि सुधार कानून बनाया था. लेकिन वह कागजों पर ही रह गया था. 1973 में देवराज ने एक योजना का ऐलान किया. इसके तहत बेघर कृषक मजदूरों को 5 सेंट जमीन (करीब 2178 वर्ग फीट) दी जानी थी. 1974 में ये योजना शुरू हुई. दो साल के भीतर कर्नाटक में करीब 10 लाख बेघर परिवारों को इस तरह की जमीन उपलब्ध कराई गई. इसी तरह बंटाईदारों और कृषक मजदूरों को भी भूमि सुधार के जरिये जमीनें दी गई. इसके लिए सरकार ने एक लैंड ट्राइब्यूनल का गठन कर दिया था. इन ट्राइब्यूनल की अध्यक्षता उपायुक्त करते थे. स्थानीय विधायक और दो महत्वपूर्ण व्यक्ति इसके सदस्य होते थे. इनमें एक का दलित होना अनिवार्य था. इन ट्राइब्यूनल्स के जरिये 85 हजार बंटाईदार जमीन मालिक बन गए. 21 लाख एकड़ जमीन बांटी गई. इनमें करीब 15 हजार भूमिहीन दलित थे. इसके लिए सरकार को 20 करोड़ से ज्यादा रुपये जमीन मालिकों को मुआवजे के तौर पर देना पड़ा.
कई लोग कहते हैं कि भूमि सुधार पूरे राज्य में सही से लागू नहीं हुआ. दक्षिण कर्नाटक में ज्यादा सफल रहा लेकिन उत्तरी कर्नाटक में ज्यादा असर नहीं दिखा. लेकिन देवराज के इस भूमि सुधार की देश भर में खूब चर्चा हुई. प्रभावशाली वर्ग के लोग इससे नाराज रहते थे.
मैसूर बन गया कर्नाटक1973 में ही देवराज सरकार ने एक और बड़ा कदम उठाया था. मैसूर का नाम बदलकर कर्नाटक कर दिया गया. 1956 में अलग राज्य का गठन कन्नड भाषी क्षेत्रों को मिलाकर किया गया था. इसके बाद से ही एक बड़े तबके में नाम बदलने की मांग थी. शुरुआत में देवराज इसके पक्ष में नहीं थे. लेकिन बहुमत की भावनाओं को देखते हुए मन बदलना पड़ा. देवराज अर्स इसी राजनीति के लिए चर्चित हुए. भूमिहीनों को जमीन दिलवाना, बंधुआ मजदूरी को खत्म करना, मैला ढोने की प्रथा को बंद करवाना, पिछड़ों के लिए आरक्षण. ये काम देवराज अर्स की प्राथमिकताओं में थे.
लेकिन देवराज को एक बार और इंदिरा के प्रति अपनी वफादारी साबित करनी थीं. इमरजेंसी के बाद इंदिरा ने अचानक जनवरी 1977 में लोकसभा चुनाव की घोषणा कर दी थी. उत्तर भारत में इंदिरा कांग्रेस का सफाया हो गया. खुद इंदिरा गांधी रायबरेली से हार गईं. बेटा संजय गांधी भी अमेठी सीट से हार गया. लेकिन दक्षिण के राज्यों में इंदिरा कांग्रेस का उत्तर भारत जैसा हाल नहीं हुआ. कहते हैं कि इमरजेंसी का असर साउथ में कम रहा. कर्नाटक में 28 में से 26 सीटें पार्टी जीत गई. लेकिन देवराज अर्स इस जीत को अपनी सफलता के तौर पर भी देखने लगे थे.
केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी. विपक्ष में बैठे देवेगौड़ा लंबे समय से इसकी ताक में थे. देवराज सरकार में कथित घोटालों और भ्रष्टाचार का मामला उछालने लगे. केंद्र सरकार ने मामलों की जांच के लिए एक जांच आयोग बिठा दिया. जस्टिस ग्रोवर आयोग ने देवराज अर्स पर नेपोटिज्म का आरोप लगाया. कहा गया कि उन्होंने अपने दामाद को जमीन मुहैया करवाई है. हालांकि जनता पार्टी सरकार ने देवराज सरकार के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. इसके बदले 31 दिसंबर 1977 की आधी रात राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया गया. नए साल में अर्स पूर्व सीएम हो गए. उत्तर भारत के भी कई राज्यों में सरकारें बर्खास्त हुईं. कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया. फिर देवराज अर्स के खिलाफ इस आरोप की कभी जांच नहीं हुई.

जनवरी 1978 में कांग्रेस फिर से दो टुकड़ों में बंटी. इंदिरा गांधी का गुट कांग्रेस (आई) हो गया. अगले महीने ही कर्नाटक में विधानसभा चुनाव हुआ. कांग्रेस (आई) को बहुमत के साथ जीत मिली. देवराज अर्स दोबारा मुख्यमंत्री बने. उधर, हार के बाद इंधिरा गांधी किसी तरह संसद पहुंचने की कोशिश कर रही थीं. यहां देवराज अर्स आगे आए और कर्नाटक से जीत का भरोसा दिलाया. पहले इंदिरा ने मना कर दिया. बाद में मान गईं. चिकमगलुरू से सांसद डीबी चंद्रेगौड़ा ने अपनी सीट से इस्तीफा दे दिया. उपचुनाव शुरू हुआ. जनता पार्टी ने इंदिरा के खिलाफ पूर्व मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को उतार दिया. जॉर्ज फर्नांडीस को पाटिल के चुनाव अभियान की जिम्मेदारी दी गई.
इधर, इंदिरा के लिए देवराज अर्स और उनके समर्थक कैंपेन में लगे थे. कांग्रेस समर्थकों ने इंदिरा के लिए एक नारा दिया- 'एक शेरनी, सौ लंगूर; चिकमगलूर, चिकमगलूर'. इंदिरा गांधी 77 हजार से ज्यादा वोटों से जीत गईं. इस तरह देवराज अर्स ने इंदिरा गांधी का कर्ज उतार दिया. इस उपचुनाव के बाद उनकी लोकप्रियता और स्वीकार्यता बढ़ गई.
लेकिन ये आखिरी अध्याय था. इसके बाद देवराज का अवसान शुरु होना था. इंदिरा से तल्खी होनी थी.
देवराज अर्स का कद बढ़ गया. कई लोग कहने लगे कि देवराज के कारण ही इंदिरा जीत पाईं. ये बात इंदिरा के कानों तक भी पहुंचने लगी. देवराज अर्स को इंदिरा की राजनीति पसंद थी. लेकिन संजय गांधी की नहीं. दिसंबर 1975 में, बीदर में संजय गांधी को सम्मानित करने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ. कई कांग्रेस नेता पहुंचे. देवराज अर्स भी बेमन से कार्यक्रम में पहुंच गए, लेकिन उन्हें लेने नहीं गए. इसी तरह चिकमगलुरु के उपचुनाव में देवराज ने संजय को ज्यादा तरजीह नहीं दी थी. लेकिन इंदिरा गांधी के लिए संजय ही सबकुछ थे. और देवराज के लिए संजय कुछ भी नहीं.
निर्णायक अवसान शुरु हुआ साल 1979 से. जनवरी में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का सत्र था. देवराज ने इस सत्र में खुलकर संजय गांधी की राजनीति का विरोध कर दिया. देवराज ने कहा था,
“पार्टी को इस टैग से बचना चाहिए कि यह एक खानदान की सेवा में लगे बंधुआ मजदूरों का समूह है.”
ये सबने सुना.
संजय गांधी ने भी खुलकर कह दिया था, “मैं देवराज अर्स का करियर खत्म कर दूंगा”
इस पूरे घटनाक्रम को लेकर देवराज अर्स ने प्रजावाणी को एक इंटरव्यू दिया. कहा था,
"लोग कहने लगे कि मेरे कारण ही इंदिरा गंधी चिकमगलुरू से जीत पाईं. ये उन्हें सही नहीं लगता था. मैंने संजय गांधी की राजनीति में एंट्री का भी विरोध किया था. दिल्ली कांग्रेस सत्र में मेरे भाषण से वो नाराज हो गई थीं. वो संजय गांधी को अगला प्रधानमंत्री बनाना चाहती थीं. जब मैंने संजय की आलोचना की तो उन्होंने एक दिन तक मुझसे बात नहीं की. मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की. लेकिन वो कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थीं."
इसी इंटरव्यू में देवराज ने कहा था कि गुंडु राव संजय गांधी के करीबी थे. इसलिए उन्हें मंत्री बनाना पड़ा. संजय गांधी के एक दोस्त ने गुंडू राव को कैबिनेट बर्थ देने का दबाव बनाया. इस तरह का हस्तक्षेप उन्हें पसंद नहीं था. बाद में यूथ अफेयर्स डिपार्टमेंट में गुंडु राव पर कई आरोप लगे. देवराज ने उन्हें विभाग से हटा दिया. फिर दिल्ली से संजय गांधी का कॉल आ गया. लेकिन देवराज नहीं माने. फिर इस मुद्दे पर इंदिरा ने भी कह दिया कि उन्होंने गुंडु राव के साथ ठीक नहीं किया. गुंडु राव को कैबिनेट मंत्री बनाना पड़ा. इस तरह इंदिरा गांधी से अदावत बढ़ती चली गई.

कुछ ही महीनों में सब खुलकर सामने आ गया. 20 जून 1979. इंदिरा गांधी ने अचानक देवराज अर्स को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिया. पार्टी अनुशासन भंग करने का नोटिस दिया गया. देवराज भी पूरी तरह बगावत के मूड में थे. इंदिरा को नोटिस के जवाब में लिखा,
“आप गलत का पक्ष लेकर तानाशाही कर रही हैं, मैं नहीं. आप अच्छे और सामर्थ्य लोगों से डरती हैं. आप अयोग्य लोगों, अपने बेटे (संजय) और चाटुकारों के साथ देश पर शासन नहीं कर सकती हैं.”
इस जवाब के बाद, 24 जून को इंदिरा गांधी ने देवराज अर्स को पार्टी से निष्कासित कर दिया. पूरे 6 साल के लिए. इस कार्रवाई के बाद कई विधायक छिटक गए. इसके बावजूद वो सीएम पद पर बने रहे. देवराज ने अपना अलग गुट बना लिया था- कांग्रेस (अर्स). तब जनता पार्टी के विधायकों ने भी देवराज को सपोर्ट कर दिया. जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी दोबारा केंद्र की सत्ता में आ गईं. कांग्रेस (अर्स) के सभी उम्मीदवारों की हार हो गई. इंदिरा गांधी की पार्टी ने 28 में 27 सीटें जीत ली. अब तक जो विधायक साथ में थे, वो भी रातोंरात इंदिरा कैंप में चले गए. आखिरकार देवराज अर्स ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.
मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद भी देवराज लोगों से जुड़ने की कोशिश करते रहे. वैकल्पिक राजनीति शुरू करने का प्लान बनाया. जून 1980 में धारवाड़ में किसानों ने बड़ा आंदोलन किया था. देवराज किसानों के आंदोलन में शामिल हो गए. इसी दौरान एक दुखद घटना घटी. देवराज बीदर में एक रैली को संबोधित कर रहे थे. पता चला कि उनकी बेटी नागरत्ना की कुएं में गिरकर मौत हो गई है. इस घटना से वे कई महीनों तक उबर नहीं पाए. सार्वजनिक जीवन से दूरी बना ली. लेकिन फिर 1981 के अंत में खुद को खड़ा किया. तब राज्य में दलितों और किसानों का आंदोलन चरम पर था. साल 1982 की शुरुआत में कर्नाटक क्रांति रंग (KKR) नाम की पार्टी बनाई. लोगों को लगा कि देवराज अर्स फिर से वापसी करेंगे. लेकिन 6 जून 1982 को उनका निधन हो गया. दिलचस्प है कि 1989 के विधानसभा चुनाव से पहले उनकी इस पार्टी का कांग्रेस में ही विलय हो गया.
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