महत्वपूर्ण चीज़ों पर बात करने की वजह बहुत सरल भी हो सकती है. कई बार शिष्टता की संसदीय परंपरा के उस तरफ भी. इंस्टाग्राम वासी इन दिनों इस महिला को देख रहे हैं. महिला जिज्ञासु प्रवृत्ति की है. स्नेह से लदी अपनी अभिरुचियों को अंतर्वस्त्रों का रंग पूछते हुए ज़ाहिर करती है. इस तरह कि पड़ोस के मिश्राजी और नन्नू मियां भी लजा जाते हैं. हमने सोचा कि इसी जिज्ञासा को जरा विस्तार दें. इसे रंग से आगे ले चलें. इसे शर्मिंदगी से दूर, इतिहास के एक अध्याय की तरह देखें. इंसानी इवॉल्यूशन की कहानी में कैमरा जब दूर जाकर टिकेगा तो उसमें अंडरवियर की जर्नी कैसी दिखेगी? चड्ढी, कच्छा, अधोवस्त्र, जांघिया, अंडीज, अलग-अलग रूप हैं, अलग-अलग नाम हैं. पर वो कि जिसका रंग कोई बताता नहीं, उसका इतिहास क्या है, अर्थशास्त्र क्या है, समाजशास्त्र क्या है? इस कहानी में कई धारियां हैं, एलास्टिसिटी है, फ्लेक्सिबिलिटी है, नाड़े तो हैं ही, नारे भी हैं. और लूप होल्स, वो तो हर कहानी में होते ही हैं. तो सब छोड़कर, जानते हैं अंडरवियर की कहानी, जो शुरू हुई थी आज से 7 हज़ार साल पहले.
'अंडरवियर का कलर' बहुत पूछ लिया, अब इसका अर्थशास्त्र भी जान लीजिए
Underwear Economy: भारत में गरीबी का मेटाफर अंडरवियर में छेद होना भी है. ये अंडरवियर इंडेक्स अर्थव्यवस्था को मापने का कोई आधिकारिक मापदंड नहीं है. पर अंडरवियर का कनेक्शन कई आंदोलनों से भी है.
समाजशास्त्री एक कॉन्सेप्ट का ज़िक्र करते हैं. ‘थ्योरी ऑफ कन्फर्मिटी एंड डेवियांस.’ जिसका कुल जमा मतलब ये है कि जब कोई चीज आसानी से उपलब्ध हो जाए तो उसकी इंपॉर्टेंस कम हो जाती है. उसकी असल कीमत का पता तब चलती है जब उसकी उपलब्धता कम हो जाए. तब वो लग्ज़री हो जाती है. अंडरवियर ऐसी ही चीज है. लेकिन हजारों साल पहले जंगलों और गुफाओं में रहने वाले हमारे पूर्वजों के पास लक्जरी का स्कोप नहीं था. वो चलते थे एक बेसिक सिद्धांत पर. जो कुछ हो, वो यूटिलिटी आधारित हो. यानी सिर्फ जरूरत की चीजों पर जोर देते थे.
हमारे पूर्वजों ने जब पहली बार रियलाइज किया कि जेनिटल्स को कवर करना चाहिए तो करीब 7400 साल उन्होंने लंगोटी का इस्तेमाल शुरू किया. लंगोटी यानी एक कपड़े का टुकड़ा जो कमर और टांगों के बीच बांधा जाता था. पहनने में आसान, पत्ते लपटने से बेहतर और गर्मी में आरामदायक. फिर धीरे धीरे इसमें भी कुछ एक्सपेरिमेंट किए गए. कुछ ऐसे लंगोट बने जो मिनी स्कर्ट जैसे थे तो कुछ सिर्फ जेनिटल्स को कवर करने वाले ट्राएंगल कपड़े जैसे. एक तरह से जी-स्ट्रिंग का पूर्वज.
बात यहां तक पहुंची ही थी कि पहली सभ्यताओं की स्थापना होने लगी. लीनन कपड़ों का एक प्रकार होता है, टाइपो हो जाए तो तानाशाहों का. तो इजिप्ट की बदरिया सभ्यता ने लीनन के धागों का सिस्टम समझ लिया. उन्होंने बनाए लीनन के लंगोट, वेरी कंफरटेबल. महिलाओं के लिए बनाए गए लेदर के लंगोट. महिलाएं इसे पीरियड्स के दौरान पहनती थीं. ये सिलसिला 2-ढाई हजार साल तक चला. फिर यूरोप में रोमन साम्राज्य आया. यहां से कच्छे की कहानी में मोड़. रोम साम्राज्य के समय व्यापार बढ़ा. लोगों ने कमाए पैसे और अमीर-गरीब के बीच की खाई बढ़ गई. इसका असर अंडरगारमेंट्स की चॉइस में भी दिखा. अल्लाह झूठ ना बुलवाए, अमीर लोगों ने रेशम के लंगोट पहनने शुरू कर दिए. गरीब लीनन और ऊन पर ही टिका रहा. ऊन के लंगोट भी होते थे. यूरोप की ठंड में काम आते थे. महिलाओं ने सैबिकुला पहनने शुरू किए. ये क्या चीज़ थी भई? ये दो तरीके के होते थे. एक शॉर्ट्स जैसे और दूसरे कुछ-कुछ आधुनिक बिकिनी जैसे जिसे डोरियों की मदद से कमर पर बांधा जाता है. रोमन दौर में खेलकूद करने वाले स्त्री-पुरुष इसे पहना करते थे.
फिर मध्यकाल आया. पुरुष के बीच ब्राइस नाम का कपड़ा प्रचलित हुआ. ये एक तरीके का ढीला पजामा था, जिसे अंडरगारमेंट की तरह पहना जाता था. इसकी लंबाई घुटनों तक होती थी. पुरुष अपनी शर्ट इसी में खोंसते थे. इन पाजामों में सामने एक फ्लैप होता था, जिसे codpiece कहते थे. इसे खोला जा सकता था जिससे मूत्र विसर्जन में दिक्कत न हो. लेकिन 1590 तक इसका चलन कम हो गया.
इसके बाद चलन आया, लेगिंग्स का. आज वाली नहीं, असल में यूरोप के अमीर पुरुष शौष (chausses) नाम का एक कपड़ा पहनने लगे. Braies का एडवांस वर्जन. लेकिन ये टाइट फिटिंग वाला होता था. फिटिंग में बढ़िया और लुक भी माचो.
फिर औद्योगिक क्रांति हो गई साब. मास प्रोडक्शन ने बहुत सारी चीजें बदल दीं, इनक्लूडिंग अंतर्वस्त्र. पहले लोग खुद अपने अंडरवियर बनाते थे, लेकिन अब इन्हें दुकानों से खरीदा जा सकता था. पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए union suits नाम का अंडरवियर आम हो गया. यूनियन सूट को आप एक जम्प सूट की तरह समझिये. जिसमें एक कपड़ा कंधे से लेकर टांगो तक पहना जाता था. 20वीं सदी की शुरुआत तक union suits का प्रचलन जारी रहा. लेकिन 1935 में Coopers Inc. ने पहले Y-front briefs बेचे, जो एकदम से पॉपुलर हो गए. कालांतर में यही ब्रांड "jockey" कहलाया. 1950 के दशक में अंडरवियर डिजाइन में एक बड़ा चेंज आया. पहली बार अंडरवियर पर अलग-अलग डिज़ाइन प्रिंट होने लगी. जैसे फूल पत्ती आदि.
सोसाइटी के नॉर्म्स को थोड़ा चैलेंज करने वाले अंडरवियर आने लगे. पब्लिक में दिखने की थोड़ी बहुत स्वीकार्यता आने लगी. छिपाने वाली चीज की छवि टूटी. ये ट्रेंड मिनीस्कर्ट्स और दूसरे रिवीलिंग आउटरवियर के साथ चल रहा था. Pantyhose, जो कि पैंटीज और होज का कॉम्बिनेशन था, वो भी बहुत फेमस हुआ, लेकिन धीरे-धीरे डिक्लाइन कर गया. 1970 और 1980 के दशक में आकर्षक अंडरवियर का ट्रेंड और बढ़ा. G-strings जैसे अंडरवियर भी ज़्यादा पॉपुलर हो गए, जो पहले सिर्फ एक्सोटिक डांसर्स ही पहना करती थीं. अंडरवियर का प्रचार करते वक्त मॉडल्स की सेमी-नेकेड फोटोज दिखाई जाने लगीं, चाहे वो मर्द हों या महिलाएं. इस तरह कैल्विन क्लेन और Victoria's Secret जैसे बड़े ब्रांड्स फेमस हुए. Victoria's Secret ने तो अपने lingerie catalogs से बहुत पॉपुलैरिटी हासिल की. 1990 के दशक में एक नए ट्रेंड की शुरुआत हुई; boxer briefs. ये अब भी बहुत पॉपुलर हैं और ये ओरिजिनली मर्दों के लिए डिजाइन किए गए थे, लेकिन अब महिलाओं के लिए भी बॉक्सर ब्रीफ्स अवेलेबल हैं. ये तो हुई बात अंडरवियर के अवतरण की, अब समझते हैं कि कैसे इसकी मदद से अर्थव्यवस्था का हाल पता चलता है.
अंडरवियर ने बताया इकोनॉमिक्स का हाल
कोई है सादे रंग की, किसी पर पत्ती बनी है
चॉइस अलग अलग है, पहनने की हड़बड़ी है
लंगोट बांध ली तो अखाड़े में खलबली है
जो ट्रंक है तो यारा, साइज़ की किसे पड़ी है
क्या ख़ूब फिट है फ्रेंची, विज्ञापनों की चड्ढी
चुस्त है या कि ढीली, ये नर्मो-नाज़ुक चड्ढी
साहित्य वालों ने तो चड्ढी के साथ कई प्रयोग किए हैं. आपको याद होगा कि गुलज़ार ने एक फूल को चड्ढी पहना दी थी और दुनिया लट्टू हो गई थी. लेकिन अर्थशास्त्रियों की नजर अलग है. अर्थशास्त्र में विद्वान वस्तुओं और सेवाओं को दो बड़े गुटों में बांटते हैं. एक है लग्जरी कमोडिटीज, माने शौक वाली चीेजें जैसे हीरा या टूरिज्म आदि. दूसरी होती है एसेंशियल कमोडिटीज यानी वो वस्तुएं और सेवाएं जो इंसान के जीवन के लिए जरूरी हैं, जैसे दाल चावल, इंटरनेट आदि. भई आपकी आमदनी कम है तो आप शौक पर काबू रखोगे, आमदनी बढ़ेगी तो खर्चे बढ़ेंगे. लेकिन एसेंशियल कमोडिटीज पर आमदनी का बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. दाल चावल तो सबको खरीदना है. अंतर्वस्त्र भी सबको पहनना है.
अर्थशास्त्र में एक अनकनवेंशनल थ्योरी है, अनौपचारिक भाषा में इसे मेन अंडरवियर इंडेक्स कहते हैं. अंडरवियर के दाम से अर्थव्यवस्था की हेल्थ का अंदाजा मिलता है. अमेरिका के अर्थशास्त्री और अमेरिकी सेंट्रल बैंक के पूर्व चेयरमैन एलन ग्रीनस्पैन ने दिलचस्प बात कही. उन्होंने कहा कि पुरुषों का अंडरवियर भी पर्सनल हाइजीन के लिहाज से एसेंशियल कमोडिटी है, जिसकी डिमांड ज्यादातर समय न बढ़ती है, न घटती है. लेकिन कभी-कभी अर्थव्यवस्था ऐसे मोड़ पर आ जाती है कि अंडरवियर जैसी आम जरूरत की चीज़ों की डिमांड भी गिरने लगती है. यानी साफ है कि ये ऐसा दौर होगा जब कमाई में भारी गिरावट आ गई है.
डिमांड का सीधा रिश्ता है क़ीमत से. डिमांड बढ़ेगी तो दाम बढ़ेंगे. फरवरी 2023 में फार्च्यून में छपी, एक रिपोर्ट के मुतबिक 2022 में अमेरिका में पुरुषों के अंडरवियर का दाम गिरने लगा था. और ये वही दौर है जब अमेरिका में कोविड की मार की वजह से अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी, बेरोजगारी बढ़ गई थी. वैसे भी भारत में गरीबी का मेटाफर चड्ढी में छेद होना भी है. ये अंडरवियर इंडेक्स अर्थव्यवस्था को मापने का कोई आधिकारिक मापदंड नहीं है. इसमें भी कई खामियां भी हैं. जैसा कि हमने आपको शुरू में बताया कि अंडरवियर का कनेक्शन कई आंदोलनों से भी है. अब एक-एक करके उन्हें भी समझते हैं.
पिंक चड्डी कैंपेन
ये कैंपेन था मॉरल पुलिसिंग के खिलाफ. मॉरल पुलिसिंग यानी जब कुछ लोग समाज को संस्कृति के नाम पर सुधारने निकल पड़ते हैं. ऐसे ही एक संस्कृति के ठेकेदार टाइप का संगठन जनवरी 2009 में कर्नाटक के मैंगलोर जिले में महिलाओं की मॉरल पुलिसिंग करने लगा. ग्रुप के लीडर ने कहा कि 14 फरवरी यानी वेलेंटाइंस डे पर कोई कपल पब्लिक प्लेस पर दिखा तो मंदिर ले जाकर उनकी शादी करवा देंगे. ग्रुप के बेरोजगार कार्यकर्ताओं को कहा गया वेलेंटाइंस डे पर अपने साथ पंडित, सिंदूर और मंगलसूत्र लेकर चलो.
इस हरकत के खिलाफ फरवरी 2009 में महिलाओं की ओर से पिंक चड्डी कैंपेन शुरू किया गया. ये एक नॉन-वायलेंट प्रोटेस्ट था, जिसे "कंसोर्टियम ऑफ पब-गोइंग, लूज़ एंड फॉरवर्ड वीमेन" नाम के ग्रुप ने ऑर्गनाइज किया. इसे निशा सुसन नाम की एक जर्नलिस्ट ने लीड किया. कैंपेन का आइडिया ये था कि ये शादी करवा रहे संगठन के ऑफिस में पिंक अंडरवियर भेजे जाएं और इस तरह एक उनको एक मेसेज दिया जाए कि आजादी से मजाक नहीं करने का.
लॉन्जरी ब्रांड का एंपावरमेंट कैंपेनद गार्डियन में मार्च 2020 में एक आर्टिकल छपा. इसमें बताया गया कि कैसे ब्रिटेन की एक लॉन्जरी कंपनी ने अपने विज्ञापन से वुमन एंपावरमेंट को दर्शाने की कोशिश की. ब्रांड ने कुछ चर्चित फीमेल एथलीट्स को स्पोर्ट्स खेलते हुए अंडरवियर में दिखाया गया. मकसद था एथलेटिसिज्म और फेमिनिनिटी को मिक्स करना और ये दिखाना कि ताकत और खूबसूरती साथ-साथ हो सकते हैं. इस ऐड की एक खास बात ये भी थी कि एथलीट्स ने खुद अपने कपड़े सेलेक्ट किए. इसके खिलाफ आवाज भी उठाई गई.
कई आलोचकों का कहना है कि ये एक तरीका है जिसके जरिए “वुमन एम्पावरमेंट" जैसे संवेदनशील मुद्दे को एक मार्केटिंग टूल बना दिया गया. बॉडी पॉजिटिविटी जैसे चीज़ें जब बहस में आईं तो कई अंडरवियर ब्रांड्स फेयर कॉम्प्लेक्शन के अलावा ऐसी मॉडल्स भी लेकर आए जिन्हें अब से पहले सुंदरता के स्थापित मानकों पर नहीं रखा जाता था. हालांकि कई एक्सपर्ट ये बात कहते रहे कि ये सारे प्रयास अंततः सामाजिक बदलाव का मुनाफा कमाने के लिए इस्तेमाल ही थे.
अंडरवियर के जरिए इक्वलिटीअप्रैल 2024 में एक विचित्र खबर सामने आई. NCM India Council For Men Affairs नाम का एक ग्रुप है. ये पुरुषों के अधिकारों की आवाज उठाता है. इसने एक कैंपेन शुरू किया जिसमें पुरुषों ने अपने अंडरवियर जलाकर नेताओं को भेजे. ये ग्रुप इस बात पर प्रोटेस्ट कर रहा था कि घरेलू हिंसा, रेप, तलाक और एलिमनी जैसे कानून सिर्फ महिलाओं के अधिकारों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं. इस वजह से पुरुषों के साथ कई बार अन्याय होता है.
इस ग्रुप की मांग थी कि इन कानूनों को जेंडर-न्यूट्रल बनाया जाए. जिससे किसी के साथ भी गलत न हो. अतुल सुभाष केस के बाद इस विषय पर फिर से बहस हो रही है. फैसला देश की संसद और अदालत को करना है. बहरहाल शर्ट, सूट और महंगे कपड़ों के बीच अंडरवियर की इंपॉर्टेंस को न भूलें. उसके चुनाव में समय और ऊर्जा खर्च करें. और हां, पहनें जरूर ताकि कोई ये ना कह सके कि साफ पता लग रहा है.
वीडियो: आसान भाषा में: अंडरवियर का रंग नहीं बल्कि इसकी पॉलिटिक्स और अर्थशास्त्र ज्यादा दिलचस्प है