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100 सालों से आग में जलते भारत के एक शहर की कहानी

एक मरते हुए शहर में लोग कैसे जिंदा रहते हैं?

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झारखंड का झरिया शहर जल रहा है. ये किसी कवि की कल्पना या अखबार की हेडलाइन नहीं एक ‘ज्वलंत’ सच्चाई है. सरकार कहती है कि पूरे शहर के नीचे जलती हुई आग है. वो भी पिछले 100 सालों से. लोग कोयले की भट्ठी बनी ज़मीन पर बिना किसी भविष्य की उम्मीद में रह रहे हैं. इस शहर की त्रासदी पर हमारे पाठक 'अभिनव राय ' 
ने एक विस्तृत रिपोर्ट भेजी है. अवॉर्ड विनिंग फोटोग्राफर 'रॉनी सेन
 '
ने झरिया पर एक फोटो सीरीज़ की है, वेबसाइट सबकल्चर के ज़रिए हम आप तक ये तस्वीरें लेकर आए हैं.

 

धरती के सीने पर उकेरी अनगिनत दरारों से उफनती गर्म ज़हरीली गैसें, ज़मीन इतनी गर्म कि आपके जूते के तले गल जायें, हवा सांस लेने के लिये नाकाफी. नज़ारा कुछ यूं कि जैसे दोज़ख उतर आया हो धरती पर. धधकते अंगारों पर चलने की कला सदियों से दुनिया को आश्चर्यचकित और रोमांचित करती रही है. दुनिया के अनेक हिस्सों में यह कला आज भी जीवित है और लोगों की मान्यता है कि इसे वे लोग ही कर सकते हैं, जिन्हें अलौकिक शक्तियां प्राप्त हैं. दुनिया भर में सैकड़ों कोयला खदानों में लगी बेकाबू भूमिगत आग, जो सैकड़ों सालों से पृथ्वी के गर्भ में सुलगती रहती है. बस्तियां क्या बचेंगी, पेड़-पौधे तक तबाह हो गये हैं.


ये शहर 100 सालों से अंदर ही अंदर सुलग रहा है.
ये शहर 100 सालों से अंदर ही अंदर सुलग रहा है.

यह डैन ब्राउन के किसी उपन्यास की प्रस्तावना या किसी हॉलिवुड फिल्म का कॉन्सेप्ट नहीं है, बल्कि हिन्दुस्तान के सबसे ज़्यादा कोयला उत्पादन करने वाली जगह की ज़मीनी हकीकत है. हम बात कर रहे हैं झारखंड की कोयला राजधानी धनबाद से सटे झरिया कोयलांचल की, जहां के लोग पिछले कई वर्षों से कोयले के धधकते अंगारों पर न सिर्फ चल रहे हैं, बल्कि जी भी रहे हैं. झरिया और उसके आस-पास के कोयले की खदानों में 1916 से भूमिगत आग लगी हुई है. पहले यहां अंडरग्राउंड माइनिंग होती थी. आग लगने की वजहें तो बहुत सी हो सकती हैं, पर आग न बुझ पाने य़ा न बुझाए जाने की वजहें बड़ी साफ हैं.

राजाओं के लिए जान देते नौकरों की कहानियां तो बहुत सुनी होंगी आपने, लेकिन किसी एक शहर के विकास के लिए दूसरे शहर की कुर्बानी देने का शायद यह एकमात्र उदाहरण है. अंग्रेजों द्वारा सन् 1890 में धनबाद के पास पहली बार कोयले की खोज होने के बाद से ही शहरीकरण शुरू हो गया. धनबाद बनता गया और झरिया पिसता गया. निवासी मानते है कि धनबाद की जो रौनक आज है, वो झरिया की देन है. झरिया न होता तो धनबाद कभी आबाद नहीं होता. कितनी अजीब बात है ना कि झरिया में धनबाद के जैसे तरह-तरह के उत्सव-आयोजन नहीं होते. यह शहर ‘अगलगी’ के शताब्दी वर्ष में पहुंचकर बिना किसी आयोजन के घुटन और खामोशी के साथ मातमी महोत्सव मना रहा है. झरिया में दुनिया का बेहतरीन कोयला है. पिछले सौ सालों में तीन करोड़ 17 लाख टन जलकर राख हो जाने के बावजूद एक अरब 86 करोड़ टन बचा हुआ है.

झरिया की खदानों में जल रहा कोयला बहुत ही कीमती है. स्टील के निर्माण में प्रयोग होने वाले उच्च स्तर के कोयले का देश में यही इकलौता स्रोत है. इस गुणवत्ता वाले कोयले को विदेश से मंगाने में भारत 4 बिलियन डॉलर खर्च करता है.


एक समय पर झरिया हरा-भरा जंगल था. 18वीं शताब्दी में शुरू हुए कोयले के खेल नें इस शहर को जलती हुई भट्टी बना दिया.
एक समय पर झरिया हरा-भरा जंगल था. 18वीं शताब्दी में शुरू हुए कोयले के खेल ने इस शहर को जलती हुई भट्ठी बना दिया.

आग बुझाने के प्रयास
झरिया में लगी आग को बुझाने का पहला गंभीर प्रयास सन् 2008 में किया गया, आग लगने के लगभग 90 साल बाद. यह सरकारों की प्राथमिकताओं की ओर इशारा करता है. जर्मन कंसलटेंसी फ़र्म डीएमटी ने आग के स्रोत का पता लगाकर उसे बुझाने की तकनीक से कोशिश की.
इस तकनीक में आग के केन्द्र का पता लगाकर ज़मीन में बोरिंग कर आग को बुझाया जाता है और फिर खान के अंदर की खाली जगह को भर दिया जाता है ताकि कोयला ऑक्सीजन के सम्पर्क में न आ पाए. आग तो बुझ जाती है लेकिन इस विधि से आग बुझाने में खर्च भी होता है. शायद यही कारण है कि ये खबर भी उड़ते-उड़ते ही झरिया की आग में ही धुआं हो गई. भारतीय इस्पात उद्योग को 84 बिलियन कोकिंग कोल का आयात करना पड़ता है. अकेले झरिया इस पूरी मांग को पूरा करने में समर्थ है. यहां गैसों पर पंपिंग करके और सतह को बंद कर आग को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया था. इस प्रयास में बीसीसीएल कंपनी को सीमित सफलता ही मिली.
2008 के बाद कंपनी ने गहरी और चौड़ी खुदाई करने के बजाय जलते हुए कोयले को हटाने का प्रयास किया था. यह प्रयास अधिक प्रभावी था, लेकिन जमीन की सतह को क्षतिग्रस्त करने की वजह से इस तरीके की खूब आलोचना हुई.
गर्म कोयले को ठंडा करने के लिए जमीन के ऊपर पानी डालने और खदानों के आस-पास पत्थर लगाने का तरीका भी अपनाया गया. यह भी असफल रहा.
हालांकि, 2014 में अपनाए गए तरीके से सबसे ज्यादा सफलता मिली. 6 साल पहले जलने वाली कुल जगह 9 स्क्वायर किलोमीटर थी, जिसे 2014 में 2.2 स्क्वेयर किलोमीटर तक कम किया गया.
एक पेड़ के नीचे जलती आग.
एक पेड़ के नीचे जलती आग.

झरिया का जीवन
झरिया की खदानों में 1916 में आग लगी थी, अब साल 2016 है. इस अगलगी के सौ बरस पूरे हो गए हैं. यहां के लोग नेताओं, अफसरानों के मुंह से आग बुझाए जाने के वादे सुन-सुन कर पक चुके हैं. सारी सम्भावनाओं या यूं कहें उम्मीदों को उस समय विराम लग गया जब कोयला सचिव ने घोषणा कर दी कि अब य़ह आग नहीं बुझ सकती. हालांकि इसे नियंत्रित किया जा सकता है और इस दिशा में पहल भी की जा रही है. इसके लिए झरिया के लोगों को अग्नि प्रभावित स्थानों से हटा कर सुरक्षित स्थान पर बसाना होगा. नए सर्वे के मुताबिक एक लाख लोगों को विस्थापित किया जायेगा. इसके लिए जेआरडीए व जिला प्रशासन से बात भी हुई है. क्या सच में ऐसा है? लगता तो नहीं है.
देश की सबसे बड़ी भूमिगत आग का सबसे भयावह दृश्य है जलते हुए कोयले को उठाकर ट्रकों पर डालना. आग से यहां कोई मतलब नहीं. हर हाल में बस कोयला चाहिए. यह दृश्य रोंगटे खड़े कर देने वाला होता है. खदानों में लगी आग को यहां सिर्फ अभिशाप नहीं समझा जाता. यह कइयों के लिए वरदान भी साबित हुई है.
खान प्रबंधक जलते हुए कोयले से इस्तेमाल लायक कोयला बचाने की कोशिश करते रहते हैं.
खान प्रबंधक जलते हुए कोयले से इस्तेमाल लायक कोयला बचाने की कोशिश करते रहते हैं.

यहां किसी घर में शायद ही ताला लगता है. क्या ही कर लेंगे ताला लगाकर? कौन सी जागीर लूट लेगा कोई? इनकी असली जागीर पर तो सरकार ने हक जमा रखा है. यहां के लोगों की पीड़ा इस पंक्ति में ही छिपी है.

‘इहां अउर का धंधा है. दिन-दुपहरिया हो चाहे अधरतिया, तेज जाड़ा हो चाहे गरमी, चाहे झमाझम बरसात, साल भर, चौबीसों घंटा इहां एक ही धंधा होता है कोयले का. कोयला ही यहां के लिए सब है. ओढ़ना-बिछौना, जीवन-मरण सब.’

यहां के लोगों के लिए घर कोई हैप्पी होम नहीं होता. बल्कि सिर्फ आरामखाना है. आग के लगातार बढ़ते रहने से घरों की दीवारों और छतों में भयावह दरारें पड़ गयी हैं. ये लोग ये भी जानते हैं कि ये कभी भी गिर सकती है. आम आदमी के लिए तो सांस लेना भी दूभर है.

झरिया में लगातार निकल रहे धुएं से दमे के शिकार लोगों की संख्या भी बढ़ी है. इलाके में और उसके आस-पास रहने वाले लोगों को सांस की कई तरह की बीमारियां हैं.

ये बूढ़े, कमजोर शरीर न जाने कितनी ही नयी, अनजान बीमारियों को पनपने के लिए अपने शरीर को ही किराए पर दिए हुए हैं. ये लोग कहीं चले क्यों नहीं जाते छोड़कर?


ज़मीन के अंदर होने वाले ब्लास्ट से टूटी एक मंदिर की दीवार.
ज़मीन के अंदर होने वाले ब्लास्ट से टूटी एक मंदिर की दीवार.

पुनर्वास योजना
देश की सबसे बड़ी पुनर्वास योजना 'झरिया विस्थापित पुनर्वास योजना’ (JRDA)है. 1055 परिवारों को हटाकर वर्ष 2010 में बेलगढ़िया टाउनशिप में बसाया गया था. 70,000 से भी ज्यादा परिवारों को बसाया जाना है. धनबाद और झरिया दोनों से कोई 12-15 किलोमीटर दूर है. सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या केवल पक्का मकान दे देना ही काफी है?
नहीं, बिल्कुल नहीं. जो लोग पुनर्वासित नहीं हुए हैं, उन्हें दिन भर में 2 घंटे कोयले के अवैध खनन करने की छूट रहती है. साइकिल वाले आते हैं, एक साइकिल पर ही 5 से 6 क्विंटल तक कोयला लाद कर ले जाते हैं. (ये केवल वही कर भी सकते हैं.) 400 से 500 रुपए का जुगाड़ हो जाता है. अब जिनका पुनर्वास हो गया है, वो मजबूर हैं. 160 से 170 रुपए की दिहाड़ी करनी पड़ती है, उसकी भी कोई गारंटी नहीं है. रोजगार के अभाव के कारण पैदा हुई अनिश्चितता व मानसिक अवसाद के कारण बेलगढ़िया टाउनशिप 40 अस्वाभाविक मौतों का गवाह बन चुका है. वो भी केवल पांच साल में.
खान मज़दूरों को सुबह तड़के काम पर लगना पड़ता है.
खान मज़दूरों को सुबह तड़के काम पर लगना पड़ता है.

लोगों का कहना है, "वहां सिर छुपाने के लिए झोपड़ी थी. खुले में शौच करने और कोल डस्ट व जहरीली गैस से प्रदूषित हवा में सांस लेने की मजबूरी थी. बावजूद इसके दो वक्त की रोटी का जुगाड़ था, जिंदगी थी. आज साफ-सुथरी कॉलोनी है. तीन तल्लेवाली इमारत में दो कमरे का फ्लैट है. साफ हवा में सांस ले रहे हैं. लेकिन खाने के लाले पड़े हैं.
यहां कोई अस्पताल नहीं. अगर स्कूल-अस्पताल खुल भी गए तो क्या, हम यहां रहकर करेंगे क्या, यह एक बड़ा सवाल है. झरिया जाइए या धनबाद, आने-जाने में 40 रुपये का खर्च है. रोजमर्रा की मजदूरी का काम भी उन्हीं शहरों में मिलना है."
यहां से रोज लोग मजदूरी की तलाश में वहां जाते हैं. जिन्हें काम मिल गया, वो तो ठीक, जिन्हें नहीं मिला, उन पर क्या गुजरती होगी, सोच लीजिए. एक तो घर में एक पैसा नहीं होता, ऊपर से मजदूरी के लिए अपना पैसा लगाकर जाना और फिर वहां से भी खाली हाथ लौट आना, कितना पीड़ादायक होता होगा.
5 ट्रक लोड करने के बाद एक मज़दूर को 140 रुपए मिलते हैं.
5 ट्रक लोड करने के बाद एक मज़दूर को 140 रुपए मिलते हैं.

ये कहानी भारत के खनिज सम्पदा से धनी राज्य झारखंड की है.
परिवार चाहे बड़ा हो या छोटा, सबको 2-2 छोटे-छोटे कमरों का फ्लैट मिला है. कुछ ने टॉयलेट को ही एक छोटा रूम बना दिया है ताकि परिवार का कोई एक सदस्य उसमें सो सके. टॉयलेट के लिए तो फिर भी वैकल्पिक इंतजाम हो सकते हैं. बड़ा सवाल यही है कि जब इतने ही लोगों को अच्छे से न बसाया जा सका, तो दुनिया की सबसे बड़ी पुनर्वास योजना सफल कैसे होगी.
इस पर गंभीरता से पहली बार बात 1997 में शुरू हो सकी थी. वह भी स्वेच्छा से नहीं बल्कि तत्कालीन सांसद हराधन राय की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल दायर करने के बाद. उसी पीआईएल की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने झरिया की आग को ‘राष्ट्रीय त्रासदी’ घोषित किया और आदेश दिया गया कि लोगों को बसाने के लिए योजना बने और कोर्ट को प्रगति रिपोर्ट भी दी जाए. उस आदेश के बाद ही योजना बन सकी. नतीजा, आनन-फानन में कोरम पूरा करने के लिए बेलगढ़िया बनाया और बसाया जा सका.
यहां के टाउनशिप निर्माण में भी अथाह भ्रष्टाचार है. अभी बने हुए चार पांच-साल ही हुए और प्लास्टर उखड़ने लगा है. अस्पताल, रोजगार के वादे कागजों में ही हैं. अधिकारी इनसे अमूमन बात ही नहीं करते. करते भी हैं तो लगता है जैसे इनको इनका हक देकर अहसान किया हो. क्या हो जाता है इनको भी इतना पढ़-लिख कर. कुछ तो कहते हैं, "ये कामचोर है सब, कितना भी दे दो इनका पेट नहीं भरेगा." (ऐसा लगता है जैसे एहसान कर रहे हों.) लोग ठगा हुआ महसूस करते हैं.
खान के अंदर पड़ा इंडस्ट्रियल डायनेमाइट.
खान के अंदर खुला पड़ा इंडस्ट्रियल डायनामाइट.

दुनिया में ऐसे और भी हैं अफसाने
ऐसी ही एक और जगह है. अमरीका के पेन्सिलवेनिया राज्य में सेन्ट्रालिया
नाम की. 1962 से यहां भूमिगत आग लगी है. आग को बुझाने के सारे प्रयास व्यर्थ गये, चाहे वो सुरंग में पानी भरना हो या नाइट्रोजन का छिड़काव.
यहां भी हाल झरिया जैसा ही है. इस भूमिगत आग के मुहाने पर बैठे मुट्ठी भर लोग आज भी ये शहर छोड़ने को तैयार नहीं हैं. इनमें यहां के मेयर भी शामिल हैं. ये लोग कोई झक्की नहीं हैं. इन्होंने अपने पूरे समाज को तिल-तिल खत्म होते देखा है. सरकार महज स्वास्थ्य विभाग के नोटिस दिखा कर निवासियों को वहां से हटाने में जुटी है.
लोगों का शक इस वजह से भी है कि अगर सारे निवासी जगह छोड़ गये तो विस्थापन का पूरा पैसा बच जायेगा. अफ्रीका में भी ऐसे बहुत से किस्से हैं. हर जगह सरकारों का एक ही रवैया रहा है.
कोयला चुराता एक कोयला चोर.
कोयले की चोरी

क्यों कोई सुनता नहीं इनकी पहला कारण तो विस्थापन का पूरा पैसा बचाना है. आग लगी रहेगी तो विस्थापन आसान होगा. दबी जुबान में तो अधिकारी भी इस बात को मानते हैं. दूसरा कारण है सुनामी, भूकंप या भोपाल गैस त्रासदी जैसी आपदाएं दुनिया और मीडिया की नज़र में चौबीसों घंटे रहने की वजह से राहत और सहानुभूति की वर्षा में भीगी रहती हैं. मगर झरिया या सेंट्रालिया में आपदा ज़मीन के नीचे है और धीरे-धीरे फैलती रही है. मीडिया की निगाह से अछूते झरिया के निवासी भी राज्य सरकार और केंद्र सरकार की रस्साकशी देखने को मजबूर रहे हैं. सियासी फिजाएं बदली हैं. राज्य को गठन के 15 सालों में 10 मुख्यमंत्री मिले हैं. यहां अबकी पहली बार बहुमत की सरकार आयी है. आग तो नहीं बुझेगी इनसे भी, कम से कम पुनर्वास में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की जरूर उम्मीद की जा सकती है.
अप्रैल 2016 में कोयला सचिव विकास स्वरूप आए थे और बोले, "आग से विदेशी खदानें भी अछूती नहीं हैं. आग को कम करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम चल रहा है. झरिया की भूमिगत आग बेकाबू हो गयी है."
खान के अंदर ही दम घुट कर मर गया एक कुत्ता.
खान के अंदर ही दम घुटने से इस कुत्ते की मौत हो गई.

कोयला सचिव ने धनबाद के शहरी क्षेत्र के विकास में योगदान नहीं देने पर बीसीसीएल के प्रति नाराजगी जताते हुए धनबाद में बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, पार्क, सड़क सहित कई संसाधनों के विकास में योगदान देने को कहा है.
हाहाहाहा, क्या सचमुच? ध्यान से पढ़िए इसको, नाराजगी जतायी? बस? बस नाराजगी? कम से कम उठक-बैठक तो करवा लेते. ये वो कम्पनी है, जो पिछले 30-40 साल से यहां का कोयला निकाल रही है और उस पर इस क्षेत्र के विकास की जिम्मेवारी थी.
सरकारी उदासीनता से अधिक सुस्त नौकरशाही जिम्मेवार है.
अवैध कोयला खनन करने वालों को सरकारी एम्बैसेडर दूर से दिख जाती है और वो सतर्क हो जाते हैं.
अवैध कोयला खनन करने वालों को सरकारी एम्बैसेडर दूर से दिख जाती है और वो सतर्क हो जाते हैं.

 
समाधान क्या है.... मामला चाहे भारत जैसे विकासशील देश का हो या अमरीका जैसे विकसित देश का, सरकारी अकर्मण्यता में योजनायें फाइलों में ही दफन रह जाती हैं. ऐसी आग को पूर्णतः बुझाना नामुमकिन है क्योंकि जैसे-जैसे ज़मीन पर दरारें उभरती हैं, आक्सीज़न ज़मीन तक पहुंचने में कामयाब होने लगती है. पानी जैसे माध्यम भी नाकाफी सिद्ध हुये हैं. ऐसे में इलाके में रह रहे परिवारों का न्यायपूर्ण पुनर्वास ही एकमात्र समझदारी का हल है, जो सेंट्रालिया में किया भी गया, पर झरिया जैसे क्षेत्रों में बरकरार भ्रष्टाचार और लालफीताशाही के चलते यह कदम लागू करना भी इस भूमिगत आग को बुझाने जितना ही कठिन है.
खान के अंदर काम करने वाला एक मज़दूर.
खान के अंदर काम करने वाला एक मज़दूर.