
जब औरतों ने मुगलों को खदेड़ दिया
कहानी की शुरुआत होती है 1610 के आस-पास. उस समय दिल्ली में जहांगीर गद्दीनसीन हुआ करते थे. बिहार के औरंगाबाद के पास एक किला है, रोहतासगढ़. यहां हुआ करता था उरांव आदिवासियों का कब्ज़ा. मुगलों की नजर इस किले पर पड़ गई. उन्होंने इस किले पर कब्ज़ा करने की ठान ली. पहले चढ़ाई की लेकिन खदेड़ दिए गए. मुगलों के लिए ये किला अब नाक का सवाल बन गया था. तो मुगलों ने आखिर हमेशा काम आने वाले हथियार को आजमाया. किले में दूध देने जाने वाली ग्वालिनों को अपना गुप्तचर बना लिया. ग्वालिनों ने एक बहुत काम की बात बताई. उरांव लोग सरहुल त्योहार मनाते हैं. इसमें वो रात भर नचाते-गाते हैं अपनी पारंपरिक शराब पीते हैं. सरहुल की अगली सुबह अगर हमला किया जाए, तो जरूर सफलता मिल सकती है. नाच-गान से थके और शराब के नशे में चूर मर्द उनकी सेना का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं होंगे.
तो आखिरकार मुगलों को वो तोड़ मिल गया, जिसकी उन्हें तलाश थी. उन्होंने ठीक समय पर धावा बोल दिया. हिसाब से सकते में तो उंराव सेना को आना चाहिए था, लेकिन हुआ इसके उल्टा. मुगलों को उम्मीद थी कि नाम मात्र के प्रतिरोध को कुचलते हुए वो किला हथिया लेंगे. लेकिन तीर-कमान लिए उरांव सैनिक उनके सामने चुस्त-दुरुस्त खड़े थे. लड़ाई शुरू हुई. उरांव जबराट लड़ रहे थे. थक-हार के मुग़ल लौट गए. उन्होंने अपने गुप्तचरों को टाइट करना शुरू किया. तब जाकर राज खुला कि उनकी सूचना सौ फीसदी सही थी. उरांव औरतें पुरुषों के कपड़े पहन कर उनसे लड़ाई लड़ रही थीं.
सिनगी दई नाम की एक आदिवासी औरत इस लड़ाई का नेतृत्व कर रही थी. कहते हैं कि मुगलों और उरांवों में 12 साल लगातार जंग चली. अंत में उरांवों को इस किले को छोड़ कर जाना पड़ा. मुगलों के खिलाफ इस प्रतिरोध और इसमें औरतों की बहादुराना भागीदारी को भुलाया नहीं गया. वहीं से ये परंपरा शुरू हुई. हर 12 साल में एक बार आदिवासी लड़कियां जत्थों में हथियार लेकर निकल जाती हैं. पुरुषों के कपड़े पहन कर. 11 दिन पूरब दिशा में बढ़ते हुए सामने पड़ने वाले हर खाने लायक जानवर का शिकार करते हुए. बारहवें दिन वो फिर वहीं लौट आती हैं, जहां से यात्रा की शुरुआत हुई थी. इस यात्रा में शिकार किए गए जानवरों को पकाया जाता है. रात भर उत्सव होता है.
हालांकि आदिवासी मामलों के जानकार अश्विनी कुमार पंकज इस कहानी से सहमत नहीं है. वो कहते हैं,
"पहली चीज यह है कि आदिवासी जीवन पद्धति तथाकथित सभ्य समाज से अलग है. हम बाहरी घुसपैठ को पसंद नहीं करते. दिकु एक शब्द है, जो किसी समुदाय के लिए नहीं, बल्कि हर बाहरी आक्रमणकारी के लिए है. 1940 से ही झारखंड में रैडिकल राष्ट्रवादी खेमा सक्रिय था. इस खेमे का एकमात्र लक्ष्य था, आदिवासियों को हिन्दू साबित करना. इसके चलते आत्मसुरक्षा के लिए खड़े हुए प्रतिरोधों को समुदाय विशेष के खिलाफ लड़ी गई जंग का रंग देना शुरू किया गया."

फोटो साभार: हिंदुस्तान टाइम्स
इस कहानी में कई और भी पेच हैं जो कि इसे सवालों के दायरे में ले आते हैं. पंकज कहते हैं.
"पहली चीज तो आदिवासी इतिहास में आपको कोई किला नहीं मिलेगा. अपनी शुरुआत से यह कहानी गढ़े गए प्लाट पर खड़ी है. दूसरा अगर यह विजय का उत्सव होता, तो हर साल मनाया जाना चाहिए था. मुग़ल तो पांच सौ साल पुराने हैं जबकि आदिवासी परंपराओं का इतिहास हजारों साल का है. हालांकि हमारे सामने फिलहाल इस उत्सव के संबंध में कोई दूसरी कहानी या तथ्य नहीं हैं. लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि जो मौजूद हो, उसे मान लिया जाए."यह घटना मुगलों के समय की बताई जाती है लेकिन इतिहास में इस कहानी के पक्ष में कोई गवाही मौजूद नहीं है. जंगलों से शुरू हुआ यह त्योहार आखिर शहरों की चौहद्दी तक कैसे पहुंच गया. अश्विनी कुमार पंकज बताते हैं,
"वन कानूनों के चलते आदिवासियों के लिए उन जंगलों में शिकार करना संभव नहीं रह गया, जिसमें उनके पुरखे शिकार करते थे. जिस परिवेश में यह त्योहार शुरू हुआ था, वो तो अब खत्म हो गया. तो आदिवासी अपने उत्सव लेकर कहां जाएंगे?"

फोटो साभार: झारखंड स्टेट न्यूज
इस बीच पर्यावरण से सरोकार रखने वाले कई लोगों का कहना है कि इस किस्म के त्योहारों से वन्य जीवन को नुकसान पहुंच रहा है. 12 साल में मनाया जाने वाला यह उत्सव अब झारखंड के किसी ना किसी एरिया में हर साल मनाया जाने लगा है. आदिवासी मसलों पर शोध कर रहीं पूर्णिमा उरांव इसका जवाब कुछ यूं देती हैं -
"पहली चीज तो जंगलों के साथ हमारा जो रिश्ता है वो हजारों साल से रहा है. पर्यावरण के लिए चिंता करने वाले लोग जब नहीं थे तब भी यह जंगल थे और आज भी वैसे ही हैं. मैं समझती हूं कि आदिवासियों को पर्यावरण संरक्षण की सीख कहीं बाहर से लेने की जरूरत नहीं है. जनी शिकार की शुरुआत उस दौर में हुई होगी जब इंसानों की इतनी सघनता इन जंगलों में नहीं थी. ऐसे में एक दशक के अंतराल में इस किस्म के उत्सव मानव और जंगल के बीच के संतुलन को कायम करने के लिए शुरू हुए होंगे. आज तो यह बहुत प्रतीकात्मक रूप में बचा हुआ है. औरतें इसमें किन चीजों का शिकार कर रही हैं? बकरा, मुर्गा और सुअर जैसे पालतू जानवरों का. एक-दो वन्य जानवरों को मारने की घटना के आधार पर आप पूरे पर्व को ही कठघरे में कैसे खड़ा कर देंगे?"
पिछले कुछ वक्त से इसे हर साल मनाया जा रहा है. 12 साल के बजाए हर साल इस त्योहार को मनाए जाने के बारे में वो कहती हैं,
"यह बहुत स्वाभाविक है. जब दूसरी प्रभावी संस्कृतियों का दबाव इतना अधिक हो तो आदिवासी समुदाय अपनी परंपरा बचाने के कुछ ना कुछ तो करेगा ही. 12 साल के बजाए जनी शिकार को हर साल मनाए जाने के पीछे यही तर्क काम कर रहा है. आपका नजरिया यहां बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है. भारत में फेमेनिज्म 60 के दशक में विमर्श का हिस्सा बना. आदिवासी समाज में औरतें ऐतिहासिक रूप से स्वतंत्र और मुखर रही हैं. ये त्योहार उन बहादुर औरतों की याद में मनाया जाता है. औरतें घर छोड़ कर एक शिकारी की तरह स्वछंद घूमती हैं, गाती हैं, शिकार करती हैं. इससे औरतों में कितना आत्मविश्वास पैदा होता है, इसका अंदाजा है आपको? दरअसल मुख्यधारा के समाज को आदिवासियों से कई जरूरी सबक लेने की जरूरत है."
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