“इस कमबख़्त मुल्क में चमार कभी प्राइम-मिनिस्टर नहीं हो सकता है."
(जगजीवन राम, 1979)
"ये देश को पहला दलित प्रधानमंत्री देने का मौका है."
(अरविंद केजरीवाल, 2023)
दलित नेता पीएम बनने ही वाले थे, तीनों बार 'अपनों' ने खेल कर दिया
बाबू जगजीवन राम तीन बार प्रधानमंत्री पद के करीब पहुंचे. एक बार तो जनसंघ भी उनके समर्थन में था. लेकिन...
इन दो बयानों के बीच 44 साल बीते. इस बीच कांशीराम आए. उनकी शागिर्द मायावती देश के सबसे बड़े सूबे की मुख्यमंत्री बनीं. देश को दलित राष्ट्रपति मिले, दलित लोकसभा अध्यक्ष मिले, दलित CJI (भारत के मुख्य न्यायाधीश) मिले. लेकिन दलित प्रधानमंत्री नहीं मिला. अब देश एक और आम चुनाव की दहलीज़ पर है. भारतीय जनता पार्टी जीतती है तो प्रधानमंत्री कौन होगा, ये नरेंद्र मोदी के अनेक बयान स्पष्ट कर ही चुके हैं. विपक्ष में बैठे इंडिया गठबंधन में मल्लिकार्जुन खरगे को लेकर कुछ बात हुई है, लेकिन अभी कुछ तय नहीं. जो भी होगा, समय के गर्भ में है. लेकिन इस सवाल का वज़न तो अपनी जगह है ही कि अब तक कोई दलित नेता प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सका. जवाब निबंधात्मक है.
कम से कम 3 बार ऐसा हुआ कि एक दलित नेता प्रधानमंत्री बनने को हुआ. लेकिन उनके अपने साथियों ने ऐसा खेल किया, कि ऐसा हो न सका. तीनों बार एक ही नेता मायूस हुआ - बाबू जगजीवन राम.
1975, 1977 और 1979 - तीन बार जगजीवन राम का नाम पीएम पद के लिए चला. लेकिन उनके हाथ आए भितरघात से जन्मी क्षोभ और हताशा. आजिज़ आकर उन्होंने साल 1979 में इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में कहा था,
“इस कमबख़्त मुल्क में चमार कभी प्राइम-मिनिस्टर नहीं हो सकता है."
जगजीवन राम स्वतंत्रता सेनानी थे. संविधान सभा का हिस्सा भी रहे. कांग्रेस के चोटी के नेताओं में शुमार थे. 1971 में जब देश बांग्लादेश मुक्ति संग्राम को जीता, वो देश के रक्षामंत्री थे. आगे चलकर उप-प्रधानमंत्री बने. प्रधानमंत्री क्यों नहीं बने, इस सवाल के कुछ जवाब उनकी जीवन यात्रा में मिलते हैं.
5 अप्रैल 1908 को चंदवा गांव के एक दलित परिवार में जन्मे थे बाबू जगजीवन राम. उस दौर में ये गांव बिहार के आरा जिले में पड़ता था. उन्होंने आरा के सरकारी स्कूल से अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी की और बी.एससी. करने चले गए कलकत्ता. साल 1931 में डिग्री मिली. ये डिग्री जगजीवन की ही नहीं, पूरे बिहार की उपलब्धि थी. क्योंकि उनसे पहले बिहार में किसी दलित ने उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, कॉलेज की पढ़ाई नहीं की थी.
1931 में ही जगजीवन राम कांग्रेस में शामिल हो गये. साल 1934 में बिहार में भूकम्प आया था. इसी के राहत-बचाव कार्यक्रम के दौरान महात्मा गांधी से उनकी पहली मुलाकात हुई. यहां से वो धीरे-धीरे बड़े होते गए. पार्टी के भीतर भी, बाहर भी.
साल 1936 में अंतरिम चुनाव हुए. जगजीवन राम जीते भी. बिहार में तब मोहम्मद युनूस की कठपुतली सरकार बनी थी. कठपुतली इसलिए, कि चुनाव भारतीयों ने लड़ा था, लेकिन सत्ता की चाबी अंग्रेज़ों के पास थी. जगजीवन राम के पास सरकार में शामिल होने का ऑफिर आया. लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया. कांग्रेस की लाइन उन्होंने कभी छोड़ी नहीं.
जब आज़ादी मिल गई, तो जगजीवन राम संविधान सभा के सदस्य रहे. विधिवत चुनाव के बाद नेहरू सरकार के जितने कैबिनेट बने, जगजीवन राम को उनमें जगह मिलती रही.
हमेशा सबसे मुश्किल काम मिलता थाजगजीवन राम जिस मंत्रालय में गए, उसका सबसे नाजुक दौर उन्हीं के हिस्से बंधा था. 1967 में वो कृषि मंत्री बने, तो उसी साल अकाल पड़ गया. सिर्फ दो साल पहले पाकिस्तान से जंग के दौरान अमेरिका ने गेहूं देने पर शर्त लाद दी थी. ऐसी किसी स्थिति से बचने के लिए हरित क्रांति का विचार आया. और अमल का काम मिला जगजीवन राम को.
जगजीवन राम का अगला असाइनमेंट और मुश्किल था. 1970 में वो रक्षा मंत्री बने और उन्हीं दिनों पूर्वी पाकिस्तान में संकट खड़ा हो गया. 1971 में नए देश का जन्म हुआ - बांग्लादेश. लेकिन इसका अधिकतर श्रेय इंदिरा गांधी और सेनाध्यक्ष जनरल सैम मानेकशॉ के बीच बंट गया.
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1975 में इमरजेंसी के प्रस्तावक, जो पीएम बनना चाहते थे12 जून 1975. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने चुनावों में धांधली की वजह से इंदिरा की संसद सदस्यता रद्द कर दी. माने अब इंदिरा प्राइम मिनिस्टर के पद पर नहीं रह सकती थी. जगजीवन राम पुराने कांग्रेसी थे. तो उम्मीद थी कि इंदिरा उन्हें सत्ता की चाबी सौंप देंगी, तुर्रा ये कि उनकी वफ़ादारी इस बात का सबूत होगी कि वे खड़ाऊं रखकर 7 रेसकोर्स रोड से शासन कर रहे हैं (7 रेसकोर्स पीएम आवास का पता था, जिसे अब लोक कल्याण मार्ग कहा जाता है). लेकिन इंदिरा इसके लिए राजी नहीं हुईं. बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे और बेटे संजय की बात सुनकर 25 जून 1975 को देश में उन्होंने इमरजेंसी लगा दी. आपातकाल के प्रस्तावक थे, जगजीवन राम. लेकिन इसके बाद जगजीवन का जी कांग्रेस में लगा नहीं.
बाबू बीट्स बॉबीसाल 1977. इंदिरा ने जनवरी में इमरजेंसी वापिस ले ली. चुनाव होने वाले थे. जगजीवन राम, राम विलास पासवान के जमाने से पहले के मौसम विज्ञानी थे. समझ गए कि बयार किस तरफ है. 5 फरवरी 1977 को बाबूजी ने पांच और कैबिनेट मंत्रियों के साथ कांग्रेस से अलग होकर एक नई पार्टी बनाई - कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी (CFD).
1977 के चुनाव से ठीक पहले जगजीवन राम का कांग्रेस से अलग होना, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए ज़बरदस्त झटका था. विपक्षी पार्टियों की रामलीला मैदान में होने वाली विशाल जनसभा में जब उन्होंने जाना तय किया, तो उसे फ्लॉप करने के लिए पब्लिक ब्रॉडकास्टर दूरदर्शन ने उस रोज़ टेलिविज़न पर ‘बॉबी’ फ़िल्म दिखाई ताकि लोग घर से न निकलें. पर लोग निकले और ऐतिहासिक सभा हुई. अगले दिन की हेडलाइन थी,
“बाबू बीट्स बॉबी.”
साल 1977 में आजादी के बाद पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. इंदिरा रायबरेली से और संजय अमेठी से चुनाव हार गए. कांग्रेस के खाते में आईं 542 में से 154 सीटें. वहीं भारतीय लोक दल को मिलीं, 295 सीटें. अब सवाल खड़ा हुआ कि पीएम कौन बनेगा? ज़ाहिर है, जगजीवन राम भी कुर्सी पर बैठना चाहते थे. उनकी पार्टी का विलय जनता पार्टी में हो चुका था. और दो सालों के अंतराल में वो दूसरी बार पीएम बनने के बारे में सोच रहे थे.
वाजपेयी ने गोद में सिर रखकर माफ़ी मांगी1977 में जगजीवन राम से इतर प्रधानमंत्री पद के दो दावेदार और थे- मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह. जगजीवन ने आपत्ति ली कि जिस पार्टी के सबसे ज़्यादा सांसद उत्तर भारत से आए हैं, उनकी अगुवाई कोई गुजराती कैसे कर सकता है? फिर जनसंघ भी चाहता था कि जगजीवन राम पीएम बनें. लेकिन फिर वो पीछे हट गया. मोरारजी को गुजराती बताने वाली तरकीब ने भी काम नहीं किया. छठी लोकसभा के नेता मोरारजी देसाई ही चुने गए.
उस रोज़ जगजीवन राम के घर पर कहर बरपा था. उनके समर्थक ग़ुस्से में जनता पार्टी के झंडे कुचल रहे थे. जगजीवन इतने ग़ुस्से में थे कि वो हर कमरे में फर्नीचर को लात मारते हुए चिल्ला रहे थे,
‘' धोखा, धोखा!’'
जनसंघ के कुछ नेता जगजीवन राम को शांत कराने पहुंचे. शांति भूषण भी उनके साथ थे. जब जगजीवन राम को माजरा समझ में आया तो वो उन पर ज़ोर से चिल्लाए. वाजपेयी रोते हुए और जगजीवन राम की गोद में सिर रख कर उनसे माफ़ी मांगने लगे, लेकिन जगजीवन राम इससे शांत नहीं हुए. शांति भूषण ने बाद में अपनी किताब “कोर्टिंग डेस्टिनी” में लिखा,
“वो सोच रहे थे और ये शायद सही भी था कि उनके समर्थकों ने ऐन मौके पर उनका साथ छोड़ दिया था. दरअसल चुनाव परिणाम के बाद बहुत कशमकश थी कि किसको नेता बनाएं. जनसंघ ने जगजीवन राम को समर्थन देने का फ़ैसला किया था. वो मानते थे कि अगर जगजीवन राम को नेता बनाया गया तो पार्टी को पांच सालों तक चलाया जा सकता है. पर जगजीवन राम का एक कमज़ोर पक्ष ये था कि उन्होंने संसद में आपातकाल के प्रस्ताव के पक्ष में भाषण दिया था.''
उस दौर की ग़ैरकांग्रेसी राजनीति की गहरी समझ वाले राम बहादुर राय का एक बयान बीबीसी की रिपोर्ट में छपा है. वो कहते हैं,
''उधर दूसरे लोग चरण सिंह को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. जब लोगों ने देखा कि बात बन नहीं रही है तो जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी से अनुरोध किया गया कि आप जो नाम घोषित कर देंगे, उसे हम सब स्वीकार कर लेंगे.''
राय के मुताबिक़,
मनाते-मनाते जेपी को रोना आ गया था''पर्दे के पीछे भी गतिविधियां तेज़ हुईं और जनसंघ ने भी जेपी की सलाह पर जगजीवन राम का समर्थन न करके मोरारजी देसाई के समर्थन का फ़ैसला कर लिया. इसके पीछे इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका की भी भूमिका रही."
देसाई के पीएम बनने पर जगजीवन राम इतना नाराज़ हुए कि उन्होंने देसाई के कैबिनेट में शामिल होने से इनकार कर दिया. शपथ-ग्रहण समारोह में भी शामिल नहीं हुए. इसके बाद जेपी को एक बार फिर दखल देना पड़ा. वो जगजीवन से मिले. उनसे कैबिनेट में शामिल होने का बेहद भावुक आग्रह किया. ये बातचीत ऐसे भावों के साथ हुई कि एक बार को जयप्रकाश लगभग रुआंसे हो गए. उनका जगजीवन के सामने हाथ जोड़ना ही बचा था. पर इसके पहले ही जगजीवन का दिल पसीज गया. इसके बाद जगजीवन कैबिनेट में शामिल हुए. उन्हें रक्षा मंत्रालय दिया गया और चौ. चरण सिंह के साथ उप-प्रधानमंत्री का पद भी.
जगजीवन राम ने 1977 के चुनाव की हवा पलट दी थी, जिसने इंदिरा को सत्ता से बेदखल कर दिया था. इंदिरा ने इस बगावत को कभी माफ नहीं किया. जगजीवन राम की राजनीतिक पूंजी समेटने में सबसे बड़ा योगदान इंदिरा की छोटी बहू मेनका गांधी का था. सूर्या पत्रिका में कुछ ऐसी तस्वीरें छापी गईं जिनमें जगजीवन के बेटे सुरेश राम और एक महिला निर्वस्त्र नज़र आ रहे थे. ये स्कैंडल जगजीवन राम के राजनैतिक करियर को लगभग ले डूबा.
नो मीन्स नोजब साल 1979 में चौधरी चरण सिंह की सरकार से इंदिरा गांधी ने समर्थन वापिस खींच लिया. तो जगजीवन राम को फिर उम्मीद बंधी. तीन दावेदारों में से दो - मोरारजी और चौधरी चरण सिंह - प्रधानमंत्री बन चुके थे. जगजीवन राम के हिसाब से अब उनकी बारी थी. लेकिन उनके हिस्से आ गया अमजद इस्लाम असलम का एक शेर,
वो तिरे नसीब की बारिशें किसी और छत पे बरस गईं
दिल-ए-बे-ख़बर मिरी बात सुन उसे भूल जा उसे भूल जा
चरण सिंह और नीलम संजीव रेड्डी. दोनों की राजनीति जगजीवन राम के आंसुओं वाली इस तस्वीर की वजह हैं. चरण सिंह ऐसे कि उन्होंने जगजीवन राम के समर्थन में पर्याप्त सांसदों की संख्या होने की जानकारी के बावजूद लोकसभा भंग करने की सिफ़ारिश तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी से कर दी. और नीलम संजीव रेड्डी ने चरण सिंह के इस्तीफे के बाद उन्हें सरकार बनाने का न्यौता नहीं भेजा.
दरअसल जनता सरकार काफी सारे घटकों से मिलकर बनी थी. तो समय के साथ कलह पनपना स्वाभाविक-सा था. जनता पार्टी में जो सांसद जनसंघ से शामिल हुए थे, उनमें से कई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भी सदस्य थे. इसपर जनता पार्टी के कुछ घटकों को आपत्ति थी. कुछ ही महीनों में जनता सरकार एक असहज गठबंधन बनकर रह गई, जिसका कोई भविष्य नहीं था. अंततः चरण सिंह ने संसद भंग कर दी. और जगजीवन राम के हाथ से आखिरी मौका भी जाता रहा.
जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर और जगजीवन राम राष्ट्रपति रेड्डी से मिलने पहुंचे थे. उन्हें अंदाजा नहीं था कि सरकार गिर जाएगी. जैसे ही जगजीवन राम राष्ट्रपति भवन से बाहर निकले, उन्हें खबर मिली कि चरण सिंह ने इस्तीफा दे दिया है. बाबूजी काफी दुखी हुए. उनकी आखिरी उम्मीद अब राष्ट्रपति से थी, कि वो सरकार बनाने का न्योता दें, लेकिन ये भी न हुआ. जगजीवन राम ने कहा कि रेड्डी बदला ले रहे हैं, क्योंकि दस साल पहले उन्होंने रेड्डी के राष्ट्रपति बनने पर विरोध किया था.
चरण सिंह के स्टैंड पर बिहार विधानसभा के पूर्व उपाध्यक्ष और 1967 से 2000 तक 7 बार विधायक रहे गजेन्द्र प्रसाद हिमांशु का एक बयान नौकरशाही डॉट कॉम पर छपा मिलता है. हिमांशु बताते हैं,
पीएम नहीं बने, लेकिन बिटिया स्पीकर बनी“एकबारगी यह ज़रूर लग सकता है कि चरण सिंह ने जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनने नहीं दिया, पर यहां चौधरी जी सही थे. वो सिद्धांतों वाले आदमी थे. उसूल से समझौता नहीं करते थे. जगजीवन राम नेहरू और इंदिरा दोनों के समय में प्रभावशाली आदमी थे, पर बेवकूफ़ी कर बैठे. इंदिरा जी ने उन्हें ही इमरजेंसी का प्रस्तावक बना दिया. तो जो आदमी आपातकाल का प्रस्तावक हो, वो आपातकाल के विरोध में भारी जनसमर्थन से बनी सरकार का मुखिया हो जाए, तो यह मैंडेट का अपमान होता. इसलिए, यहां मैं चरण सिंह को ग़लत नहीं मानता.”
जगजीवन राम पीएम तो नहीं बन सके. सुरेश राम का करियर स्कैंडल के चलते प्रभावित हुआ. लेकिन बाबूजी के बेटी मीरा कुमार साल 2009 से 2014 तक लोकसभा अध्यक्ष रहीं. उन्होंने साल 2017 में राष्ट्रपति का चुनाव भी लड़ा, पर रामनाथ कोविंद से हार गईं.
पिछले दो चुनावों से सासाराम का गढ़ भी बीजेपी ने ढहा दिया है. समर्थक हैं, जो किसी जयंती या पुण्यतिथि पर फेसबुक स्टेट्स में लिखना नहीं भूलते कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने बाबूजी के बारे में लिखा था,
"तुल न सके धरती धन धाम
धन्य तुम्हारा पावन नाम
लेकर तुम सा लक्ष्य ललाम
सफल काम जगजीवन राम."
वीडियो: किताबवाला: जब इंदिरा गांधी से आर्मी बोली, 12 HRS में काम तमाम कर देंगे