सबसे सटीक ऑपरेशन उसे माना जाता है, जब ऐसी चीज़ को हथियार बनाया जाए, जिसकी कल्पना भी मुश्किल हो. इस संदर्भ में इज़रायली एजेंसी मोसाद के क़िस्से आम हैं. शुरुआत एक क़िस्से से करते हैं.
इजरायल की तीन खुफिया एजेंसियां, दुनिया भर में दुश्मनों को मार गिराने की महारत इनमें कैसे आई?
इजरायल की एजेंसियों में सबसे ऊपर है मोसाद. इसका फ़ोकस इज़रायल से बाहर ख़ुफ़िया जानकारियां जुटाने और कोवर्ट ऑपरेशंस पर रहता है. दूसरे नंबर पर शिन बेत का नाम है. इसका ज़ोर इज़रायल के अंदर सुरक्षा और आतंकवाद-रोधी अभियानों पर है. तीसरी एजेंसी है, अमन. इसका काम फ़ौज और सरकार को रोज़मर्रा के ख़तरों से आगाह करना है.
1976 में आतंकवादी एक इज़रायली प्लेन को हाईजैक करके युगांडा ले गए. इज़रायल ने मिलिट्री ऑपरेशन करके बंधकों को छुड़ा लिया था. और फिर तलाश शुरु हुई इस घटना के मास्टरमाइंड की जिसका नाम था- वादी हदद. वो इराक़ की राजधानी बग़दाद में मज़े की ज़िंदगी जी रहा था. फिर एक सुबह वो सोकर उठा. उसने अपने दांत ब्रश किए और थोड़ी देर बाद उसे थकान महसूस हुई. फिर पेट में दर्द शुरू हुआ. शुरु में उसने इस दर्द को नज़रअंदाज़ किया पर परेशानी बढ़ती गई. उसका वजन तेज़ी से घटने लगा. शरीर पीला पड़ने लगा. सर के बाल झड़ने लगे. ऐसा क्यों हो रहा था, खूब मगजमारी करके भी डॉक्टर्स पता न कर सके. मार्च 1978 तक उसकी हालत बिगड़ गई. इलाज के लिए उसे ईस्ट जर्मनी भेजा गया, लेकिन बुखार, ऐंठन और इंटरनल ब्लीडिंग के चलते वो कोमा में चला गया. आखिरकार वहीं उसकी मौत हो गई.
ये बड़ा ही रहस्यमयी केस माना गया. लेकिन असल कहानी कुछ समय बाद पता चली. दरअसल वादी हदद ने उस सुबह जो टूथपेस्ट किया था, उसमें एक किस्म का धीमा ज़हर था. उसका टूथपेस्ट किसने बदलवाया? इज़रायली एजेंसी मोसाद ने.
5 जनवरी 1996. हमास के लिए बम बनाने वाले याह्या अय्याश ने अपने पिता से बात करने के लिए फोन मिलाया, उधर से फोन उठा, आवाज़ कंफर्म हुई और फोन में धमाका हो गया. इस तरह 150 से ज़्यादा मौतों के ज़िम्मेदार हमास के 'इंजीनियर' को भी ठिकाने लगाया गया. ये ऑपरेशन था इज़रायल की दूसरी खुफिया एजेंसी शिन बेत का. और अब इज़रायल ने 28 साल बाद, फिर से इस सेलफोन धमाके की यादे ताजा हो गईं. लेबनान में हिज़बुल्लाह के तीन हज़ार से ज़्यादा पेजर्स में एक साथ धमाका हुआ. अगले दिन सैकड़ों वॉकी-टॉकीज़ फटे. दोनों घटनाओं में लगभग 40 लोग मारे गए. चार हज़ार से ज़्यादा घायल हुए. इन धमाकों का आरोप भी इज़रायल पर लगा. नाम आया, इज़रायल की एक और ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद का.
इजरायली एजेंसियों के कारनामे अक्सर चर्चा में रहते हैं. माइकल बेन ज़ोहार और निसिम मिशाल ने अपनी किताब ‘मोसाद’ में लिखा,
"अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए, स्टेट को कुछ ना कुछ ऐसा करना पड़ता है, जो लोकतांत्रिक नहीं होता. ये सच है कि इसकी हदें अक्सर पता नहीं चलतीं. इसलिए, आपको सबसे बेहतरीन लोगों को चुनना होता है. सबसे गंदे काम सबसे ईमानदार लोगों से कराए जाने चाहिए."
नीचे दिख रहे नक्शे पर इज़रायल है. वेस्ट एशिया के पश्चिमी छोर पर बसा है. भूमध्य सागर से लगा. बाकी तीन दिशाओं में अरब देश हैं. उत्तर में लेबनान और सीरिया. पूर्व में जॉर्डन और दक्षिण में मिस्र यानी इजिप्ट. इज़रायल के ईस्ट और साउथ में ज़मीन के दो छोटे-छोटे टुकड़े हैं. ईस्ट में वेस्ट बैंक और साउथ वेस्ट में गाज़ा पट्टी. इन दोनों को मिलाकर फ़िलिस्तीन बनता है.
ये आज का नक़्शा है. मगर 76 बरस पहले ऐसा नहीं था. 14 मई, 1948 से पहले इज़रायल नाम का कोई देश नहीं था. पूरी ज़मीन फ़िलिस्तीन कहलाती थी. वहां पर ब्रिटेन का मैनडेट था. ये मैनडेट उनको पहले विश्वयुद्ध के बाद मिला था. उसी कालखंड में यहूदी अपने लिए अलग देश मांग रहे थे. वे फ़िलिस्तीन को अपने पुरखों की ज़मीन मानते थे. इसी इरादे से वे वहां पहुंच भी रहे थे. 1930 के दशक में एडोल्फ़ हिटलर ने यहूदियों का नरसंहार शुरू किया. यहूदी लोग यूरोप छोड़कर भागने लगे. उनमें से ज़्यादातर फ़िलिस्तीन पहुंचे. इससे लोकल अरब आबादी खुश नहीं थी, लिहाजा उनके बीच दंगे होने लगे. ब्रिटेन इसको संभालने में फेल था. आख़िरकार, 1947 में मामला यूएन में पहुंचा. नवंबर 1947 में फ़िलिस्तीन के बंटवारे का प्रस्ताव पास हो गया. लगभग आधी-आधी ज़मीन इज़रायल और फ़िलिस्तीन बनाने के लिए मिली. मई 1948 में डेविड बेन-गुरियन ने इज़रायल की स्थापना कर दी. मगर फ़िलिस्तीन अभी तक देश नहीं बन पाया है. इस बीच 1948, 1967 और 1973 में इज़रायल और अरब देशों के बीच तीन बड़ी जंग हो चुकी हैं.
1973 के बाद अधिकतर अरब देशों ने इज़रायल के साथ संबंध शुरू करने की पहल की. मगर फ़िलिस्तीनी और दूसरे चरमपंथी गुटों की कड़वाहट बनी रही. इज़रायली दावा करते हैं कि अगर उन्होंने हथियार डाल दिए तो उनके मुल्क का अस्तित्व खत्म हो जाएगा. इज़रायल की पूर्व प्रधानमंत्री गोल्डा माएर का एक बयान अक्सर दोहराया जाता है,
“अगर अरब देश अपने हथियार डाल देते हैं तो मिडिल ईस्ट में हिंसा बंद हो जाएगी. अगर यहूदियों ने हथियार डाले तो इज़रायल खत्म हो जाएगा.”
अपने अस्तित्व को ध्यान में रखकर इजरायल ने डिफेंस और सिक्योरिटी पर काफी काम किया है. लेकिन एक चीज है, जो इजरायल को सभी अरब देशों से अलग बनाती है वो है इजरायल की आधुनिक इंटेलिजेंस एजेंसियां. ये असाधारण मिशंस को अंज़ाम देने के लिए जानी जाती हैं. जिनके बारे में कहा जाता है, Nothing is impossible for them.
कौन-कौन सी एजेंसियां है?सबसे ऊपर है मोसाद. इसका फ़ोकस इज़रायल से बाहर ख़ुफ़िया जानकारियां जुटाने और कोवर्ट ऑपरेशंस पर रहता है. वैसे ही, जैसे अमेरिका में सीआईए और भारत में रॉ है. दूसरे नंबर पर शिन बेत का नाम है. इसका ज़ोर इज़रायल के अंदर सुरक्षा और आतंकवाद-रोधी अभियानों पर है. इसे आप अमेरिका की FBI और भारत के IB की तरह समझ सकते हैं. तीसरी एजेंसी है, अमन. ये इज़रायली मिलिट्री का इंटेलिजेंस विंग है. इसका काम फ़ौज और सरकार को रोज़मर्रा के ख़तरों से आगाह करना है.
मोसाद का इतिहासऔपचारिक तौर पर मोसाद की स्थापना दिसंबर 1949 में हुई. पहला अरब-इज़रायल युद्ध खत्म होने के बाद. इस जंग में इज़रायल ने अरब देशों को हरा दिया था. फ़िलिस्तीन की ज़मीन का बड़ा हिस्सा भी क़ब्ज़़ा लिया था. इससे मिडिल-ईस्ट के कई मुस्लिम-बहुल देश नाराज़ थे. उन्होंने अपने यहां यहूदियों पर अत्याचार शुरू कर दिए. फिर मोसाद को उन्हें सुरक्षित इज़रायल लाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. 1950 के दशक में मोसाद ने कई हैरतअंगेज़ ऑपरेशन चलाए. जिनमें हज़ारों यहूदियों को सेफ़ली इज़रायल पहुंचाया गया.
ऑपरेशन आइख़मैनइजराइल ख़ुद पर होने वाले हमले से तो सतर्क था ही. लेकिन उसकी नज़र यहूदियों के हत्यारों पर भी बनी हुई थी. ऐसा ही एक नाम था, एडोल्फ़ आइख़मैन का. होलोकॉस्ट के दौरान उसका काम था- यहूदियों की पहचान करना, उन्हें इकट्ठा करना और फिर ट्रेन में भरकर डेथ कैंप्स की तरफ भेजना जहां गैस चेम्बर उनका इंतज़ार कर रहे होते थे. अप्रैल 1945 में जर्मन तानाशाह एडोल्फ़ हिटलर ने ख़ुद को गोली मार ली. इसके साथ ही यूरोप में दूसरा विश्वयुद्ध खत्म हो चुका था. हालांकि, अभी एक काम बाकी था. युद्ध अपराध के दोषियों को सज़ा दिलाना. इसके लिए जर्मनी के न्यूरेम्बर्ग में मुकदमा चला. लेकिन इन ट्रायल्स में आइख़मैन कहीं नहीं था. उसको अरेस्ट किया गया था. लेकिन वो चकमा देकर जेल से भाग निकला. भागने के बाद काफी समय तक उसका कुछ अता-पता नहीं था.
फिर 1957 में मोसाद को अर्जेंटीना से एक टिप मिली. ख़बर थी कि आइखमैन जैसा एक शख़्स वहां रह रहा है. ख़बर पक्की थी. मोसाद ने अपने एजेंट्स को अर्जेंटीना भेजा. आइख़मैन, राजधानी ब्यूनस आयर्स के पास रह रहा था. रिकार्डो क्लीमेंट के नाम से. मोसाद ने देखा कि 60 लाख यहूदियों का हत्यारा चैन की ज़िंदगी जी रहा था. फिर मई 1960 में एक मौक़ा आया. अर्जेंटीना, स्पेन के ख़िलाफ़ क्रांति की 150वीं सालगिरह मना रहा था. पूरी दुनिया से टूरिस्ट अर्जेंटीना पहुंच रहे थे. मोसाद के कुछ और एजेंट टूरिस्ट बनकर पहुंचे. ऑपरेशन का दिन रखा गया 11 मई. आइख़मैन रोज शाम को बस से अपने घर आता था. जहां बस रुकती थी, वहां से कुछ सौ मीटर अंदर उसका घर था. तय हुआ कि इसी रास्ते पर आइखमैन को बेहोश करके किडनैप किया जाएगा.
पहली बस में आइखमैन नहीं था. अगली बस आधे घंटे बाद आई. एक नाटे कद का अधेड़ उतरा. और, उसी रास्ते की तरफ़ बढ़ा, जहां मोसाद के एजेंट्स की गाड़ियां खड़ी थीं. वो आइख़मैन ही था. एजेंट्स ने उसे पकड़ा, गाड़ी में डाला और फौरन वहां से निकल गए.
आइख़मैन को मोसाद के सेफ़ हाउस में रखा गया. मोसाद को अगले नौ दिनों तक इस ऑपरेशन को छिपा कर रखना पड़ा. इस दौरान कई ऐसे मौके आए, जब पूरा ऑपरेशन फ़ेल होने की कगार पर पहुंच गया था. लेकिन एजेंट्स ने अपनी सूझ-बूझ से मामला संभाल लिया. 20 मई को सब लोग फ़्लाइट में सवार हुए. आइख़मैन का हुलिया बदल दिया गया था. उसको दवा देकर बेहोश कर दिया गया था. एयरपोर्ट सिक्योरिटी को बताया गया कि ये एक इजरायली एयरलाइन वर्कर है और उसके सिर पर गहरी चोट लगी है. इस तरह एडोल्फ़ आइख़मैन को इजरायल ले जाया गया.
तीन दिनों के बाद इज़रायल के तत्कालीन प्रधानमंत्री बेन गुरियन ने एलान किया, एडोल्फ़ आइख़मैन हमारे कब्जे में है. पूरी दुनिया में हंगामा मच गया. अर्जेंटीना ने आइखमैन को लौटाने के लिए कहा. इजरायल ने साफ मना कर दिया. अदालत में केस चला और एडोल्फ़ आइख़मैन को मौत की सज़ा सुनाई गई. इस ऑपरेशन के बारे में विस्तार से जानना हो तो एक फ़िल्म है ‘ऑपरेशन फ़िनाले’. आप वो देख सकते हैं. इसमें आइख़मैन का किरदार बेन किंग्सले ने निभाया है.
इस ऑपरेशन ने मोसाद को पूरी दुनिया की नज़र में ला दिया. इसके बाद तो सिलसिला चल निकला. एक और क़िस्सा सुनिए. कहानी सीरिया की है. 1960 के दशक में मोसाद ने अपने एक एजेंट एली कोहेन को सीरिया भेजा था. सीरियाई बिजनेसमैन बनाकर. उस वक़्त दोनों देशों के बीच दांत काटी दुश्मनी चलती थी. सीरिया हर रोज़ इज़रायल पर हमले करता रहता था. कोहेन ने सीरिया की मिलिट्री और सरकार में सेंध लगाई. कद्दावर लोगों को अपना मुरीद बनाया. एक समय तो उसे सीरिया का डिप्टी डिफ़ेंस मिनिस्टर बनाने की तैयारी हो गई थी. लेकिन ऐन मौके पर उसकी पोल खुल गई. मई 1965 में कोहेन को सरेआम फांसी पर चढ़ा दिया गया. कोहेन ने कई ऐसे राज़ अपनी सरकार से साझा किए थे, जिसकी बदौलत सीरिया के हमलों का नाकाम किया गया. 1967 में इज़रायल ने छह दिनों के अंदर सीरिया के गोलन हाइट्स को क़ब्ज़ा लिया था. उसमें भी कोहेन की इंटेलिजेंस काम आई थी. इस कहानी पर भी एक सीरीज़ है, द स्पाई नाम से. साशा बैरन कोहेन का शानदार अभिनय उसमें दिखेगा.
मोसाद -मॉडस ऑपरेंडीमोसाद की सबसे बड़ी यूएसपी है - टारगेटेड एसेसिनेशंस. यानी, दुश्मन को खोज कर ठिकाने लगाना, चाहे वे दुनिया में कहीं भी हो. एक उदाहरण 1972 के म्युनिख ओलंपिक्स का है. म्युनिख उस वक़्त वेस्ट जर्मनी का हिस्सा था. खेलों के दौरान ही फ़िलिस्तीनी गुट Black Septemeber ने इज़रायली टीम के खिलाड़ियों और स्टाफ को बंधक बना लिया. मांग रखी कि बदले में दो सौ फिलस्तीनी कैदियों को रिहा किया जाए नहीं तो बंधकों को मार दिया जाएगा. इज़रायल ने मना कर दिया. इसके बाद बंधकों को वेस्ट जर्मनी से बाहर ले जाने की कोशिश हुई. पुलिस ने उन्हें रोकने के लिए ऑपरेशन चलाया. झल्लाए किडनैपर्स ने सारे बंधकों की हत्या कर दी. इसमें पांच आतंकी भी मारे गए. तीन को ज़िंदा अरेस्ट कर लिया गया. कुछ दिन बाद उनके साथियों ने एक प्लेन हाईजैक करके उन्हें छुड़ा लिया.
इस घटना पर इज़रायल में बदले की मांग उठी. तब गोल्डा माएर इज़रायल की प्रधानमंत्री हुआ करतीं थी. उन्होंने एक ख़ुफ़िया कमिटी बनाई, कमिटी-एक्स. इस कमिटी ने म्युनिख हमलों के ज़िम्मेदार लोगों की एक लिस्ट बनाई. ये लोग यूरोप और मध्य-पूर्व के देशों में फैले हुए थे. उनको पहले तो ढूंढ़ना था. फिर विदेशी ज़मीन पर उनको मारना था. वो भी इस तरह कि इजरायल से लिंक ना जुड़े. मोसाद ने इस ऑपरेशन को नाम दिया, रैथ ऑफ गॉड यानी, ईश्वर का प्रकोप.
ऑपरेशन की शुरुआत 16 अक्टूबर, 1972 को हुई. रोम के एक होटल में गोलियों की आवाज आई और लिस्ट से पहला नाम काट दिया गया. एक महीने बाद फ़्रांस से ऐसी ही खबर आई. ब्लैक सेप्टेम्बर का एक लीडर महमूद हमशारी जानता था कि वो मोसाद के निशाने पर है. वो अपने अपार्टमेंट में छिपकर बैठा था. एक रोज़ उसे एक पत्रकार का कॉल आया. पत्रकार ने उसे मिलने बुलाया. महमूद जैसे ही बाहर निकला. मोसाद की टीम उसके घर में घुसी और उसके टेलीफोन में बम लगा दिया. घर लौटते ही महमूद के पास एक कॉल आया. जैसे ही उसने फोन उठाया. रिमोट कंट्रोल से फोन में ब्लास्ट कर दिया गया. महमूद की अस्पताल में मौत हो गई. मोसाद का ऑपरेशन अगले 20 बरसों तक चलता रहा. ये महज एक उदाहरण भर है. मोसाद के ऑपरेशन का तरीक़ा बदलता रहता है. ज़हर, सुई, विग से लेकर कार धमाके से हत्या करने तक में उनका नाम आ चुका है.
मोसाद के काम का एक और चिर-परिचित तरीक़ा है. कोवर्ट ऑपरेशन. यानी, ऐसा सीक्रेट ऑपरेशन जिसमें इंटेलिजेंस एजेंट्स और सैनिक, दोनों साथ मिलकर अटैक करें. इसमें एजेंट्स ख़ुफ़िया जानकारी जुटाते हैं. फिर उसके आधार पर ट्रेन्ड सैनिक ऑपरेशन को अंज़ाम देते हैं. एक उदाहरण से समझते हैं. ये उदाहरण है ऑपरेशन एंतेबे का.
ऑपरेशन एंतेबेतारीख़, 27 जून 1976. इज़रायल के तेल अवीव से एयर फ्रांस के एक प्लेन ने पेरिस के लिए उड़ान भरी. बीच में इसका एक स्टॉप था, एथेंस. वहां चार आतंकियों ने प्लेन हाईजैक कर लिया. उसमें कुल 248 लोग सवार थे. हाईजैकर्स उनको पहले लीबिया और फिर युगांडा ले गए. युगांडा में उन दिनों तानाशाह ईदी अमीन का शासन चल रहा था. उसने आतंकियों को एंतेबे एयरपोर्ट पर शरण दी. उनकी मदद के लिए अपने सैनिक भी दिए.
एंतेबे एयरपोर्ट लेक विक्टोरिया के किनारे पर था. हाईजैकर्स ने 53 क़ैदियों की रिहाई की मांग की. ये कैदी इज़रायल और दूसरे देशों में आतंकवाद और दूसरे संगीन मामलों में बंद थे. इज़रायल इसके लिए तैयार नहीं था. उसने बंधकों को छुड़ाने के लिए मिलिट्री ऑपरेशन चलाने का फ़ैसला किया. मगर चुनौती बड़ी थी. एयरपोर्ट की स्थिति क्या है? सेना कितनी है? हथियार कितने हैं? इस जानकारी के बिना कुछ नहीं किया जा सकता था. यहां पर एंट्री हुई मोसाद की. युगांडा के पड़ोसी देश केन्या में दो टूरिस्ट पहुंचे. उन्होंने लेक विक्टोरिया की सैर के लिए एक प्लेन हायर किया. उन्होंने प्लेन से एंतेबे एयरपोर्ट की तस्वीरें खींचीं. असल में वे दोनों मोसाद के एजेंट्स थे.
मोसाद के एजेंट्स के इनपुट्स के आधार पर रेस्क्यू ऑपरेशन चलाने की तैयारी की गई. और कुछ घंटों के ऑपरेशन के बाद पूरा एयरपोर्ट कब्ज़े में ले लिया गया. सारे बंधक छुड़ा लिए गए. हालांकि, इस ऑपरेशन में एक इज़रायली सैनिक की जान चली गई. उनका नाम था, योनाथन नेतन्याहू. जो नेशनल हीरो बने और फिर उनके छोटे भाई बेंजामिन नेतन्याहू राजनीति में आए और अरसे से वहां के प्रधानमंत्री हैं.
मोसाद की रिक्रूटमेंट और सोर्सेजअब सवाल ये आता है कि इतने ख़तरनाक ऑपरेशंस करने वाले लोग चुने कैसे जाते हैं? और, उनकी ट्रेनिंग कैसे होती है?
इस बारे में पब्लिक डोमेन में बहुत कम जानकारी है. विक्टर ओस्त्रोव्स्की की एक किताब है, By Way of Deception. इसमें मोसाद के रिक्रूटमेंट प्रोसेस की थोड़ी झलक मिलती है. मोसाद बिना भनक लगे संभावित एजेंट्स का एसेसमेंट शुरू करती है. जैसे, पर्सनैलिटी, मेंटल स्टैबिलिटी, मुश्किल समय में डिसिजन लेने की क्षमता आदि पर नज़र रखी जाती है. किताब के मुताबिक़, मोसाद तीन चीज़ों पर ग़ौर करती है,
- जो सफाई से झूठ को सच बनाकर बोल सकें.
- जो किसी को भी अपने हिसाब से मैनिपुलेट कर सकें.
- जो कितनी भी मुश्किल परिस्थिति में टस से मस ना हों.
अगर कोई व्यक्ति शुरुआती एसेसमेंट में पास हो जाता है, फिर उसे ऑफ़र दिया जाता है. ऑफ़र स्वीकारने के बाद उसको ट्रेनिंग के लिए मिद्रशा भेजा जाता है. मिद्रशा एक ट्रेनिंग कैंप है. यहां कि ट्रेनिंग को एक मेंटल और फ़िजिकल वॉरज़ोन कहा जाता है. इसमें कमांडोज़ वाले काम सिखाए जाते हैं. जैसे, हथियार चलाना, दुश्मन से लड़ना, स्नाइपर शूटिंग, घंटों तक एक ही पोजिशन में तैनात रहना वगैरह.
कमांडो ट्रेनिंग के बाद फ़ील्ड ट्रेनिंग होती है. उसमें नकली आइडेंटिटी के साथ रहना सिखाया जाता है. पूरी तरह ठोक-बजा कर देखने के बाद ही उनको दूसरे देश में मिशंस पर भेजा जाता है. एजेंट्स तो बन गए. मगर मोसाद सिर्फ एजेंट्स के दम पर काम नहीं करती. उनके पास ह्यूमन इंटेलिजेंस नेटवर्क और टेक्नोलॉजी भी है.
सायमिन - ह्यूमन इंटेलिजेंस नेटवर्कसायमिन - जिसे लोग मोसाद की आंखें भी कहते हैं. इज़रायल से बाहर कई यहूदी मोसाद के लिए आंख और कान का काम करते हैं. अपने रोज़मर्रा की ज़िंदगी के साथ-साथ. उनको पैसे नहीं मिलते, बल्कि वे इज़रायल के नाम पर अपनी सेवाएं देते हैं. जैसे, 1960 में एडोल्फ़ आइख़मैन की पहचान करने वाला हर्मन भी एक सायमिन था. सायमिन नेटवर्क कितना प्रभावी है. इसकी एक बानगी देखने को मिली साल 2005 में. ची मक नाम का एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर था. वो कैलिफ़ोर्निया में पैरागन नाम की कंपनी में काम करता था. मोसाद को टिप मिली कि वो कुछ सीक्रेट दस्तावेज इधर-उधर करने वाला है. मोसाद ने सायमिन को ची मक पर नज़र रखने के लिए कहा, नज़र रखी गई. फिर एक दिन पुख्ता जानकारी मोसाद के ज़रिए FBI तक पहुंची.
फिर एकदम फ़िल्मी सीन बना. ची मक अपने साथियों के साथ कैलिफ़ोर्निया से निकलने के लिए तैयार बैठा था. तभी FBI उसे गिरफ्तार करने पहुंच गई. वहां उन्हें अमेरिका की मिलिटरी और डिफ़ेंस से जुड़े कई खुफिया दस्तावेज मिले. जिसे वो चीन को स्मगल करने जा रहा था. लेकिन सायमिन की वजह से वो पकड़ा गया. सायमिन ख़बर पहुंचाने के साथ-साथ मोसाद को सेफ़ हाउस, लॉजिस्टिक्स और बाकी सुविधाएं भी देते हैं. तो ये हुई मोसाद की बात. अब इज़रायल की दूसरी एजेंसी शिन बेत की बात करते हैं.
शिन बेतजैसा हमने शुरू में बताया कि शिन बेत इज़रायल की इंटरनल सिक्योरिटी और काउंटर-टेररिज्म यूनिट है. जैसे भारत में इंटेलिजेंस ब्यूरो है. Dror Moreh की एक किताब है- ‘द गेट कीपर्स: इनसाइड इज़रायल इंटरनल सिक्योरिटी एजेंसी’. इसके मुताबिक मोसाद के कम्पेरिज़न में शिन बेत के एजेंट्स की ट्रेनिंग बहुत अलग है. ऐसा इसलिए क्योंकि इनका काम देश के अंदर इन्फॉर्मेशन को इकट्ठा करना और आतंकवाद के खिलाफ एक्शन लेना है. इजरायल एक बेहद काम्प्लेक्स जगह है. यहां देश के भीतर ही कई धड़े हैं. फिलिस्तीन और सीरिया से आंतकवाद का खतरा तो है ही. इन दोनों बातों का ध्यान रखते हुए शिन बेत के एजेंट्स को इंटेरोगेशन, आतंकवाद को रोकने, और इजरायल जैसे कॉम्प्लेक्स सोशल और पॉलिटिकल लैंडस्केप में ऑपरेट करने की ट्रेनिंग दी जाती है. ह्यूमन इंटेलिजेंस के अलावा शिन बेत तकनीक पर बहुत फोकस करती है. रियल टाइम मॉनिटरिंग, डेटा एनालिटिक्स जैसी चीज़ों का इस्तेमाल करके इजरायल के दुश्मनों को ठिकाने लगाती है.
शिन बेत - मॉडस ऑपरेंडीशिन बेत का मॉडस ऑपरेंडी मोसाद से काफी सिमिलर है. जैसे मोसाद इजरायल के बाहर टार्गेटेड किलिंग्स और कोवर्ट ऑपरेशंस करती है, वही काम शिन बेत इजरायल और फिलिस्तीन में करती है. टार्गेटेड किलिंग की बात करें तो शुरुआत में हमने जो याह्या अय्याश का किस्सा सुनाया वो इसका एक उम्दा उदाहरण है. और भी उदाहरण हैं, जैसे कि हमास मेंबर सलाह मुस्तफा शहाद की हत्या. असल में साल 2000 से लेकर 2005 तक फिलिस्तीन में विद्रोह की स्थिति थी, इसे दूसरा इन्तिफादा कहते हैं. इस दौरान लगातार इजरायल और फिलिस्तीन एक दूसरे पर हमले कर रहे थे. तब शिन बेत ने एक बड़ी मछली पकड़ी, सलाह शहाद. शहाद एक सीनियर हमास लीडर था. शिन बेत ने शहाद के मूवमेंट को ट्रैक किया और फिर उसके सेफ हाउस पर एयरस्ट्राइक करके उसे निपटा दिया गया. हालांकि, बाद में इस मुद्दे पर काफी कंट्रोवर्सी भी हुई क्योंकि एयरस्ट्राइक में कई आम नागरिकों की मौत हो गई. सेकंड इन्तिफादा के दौरान शिन बेत ने इजरायल पर होने वाले कई सुसाइड बॉम्बिंग्स और टेरर अटैक्स को रोका था. अब तीसरी एजेंसी अमन की बात करते हैं.
अमन: मिलिट्री इंटेलिजेंसMossad और Shin Bet के विपरीत, अमन मिलिट्री के तहत काम करती है और IDF के लिए इंटेलिजेंस जुटाने का काम करती है. एक किताब है, Israel’s Silent Warriors. इसके मुताबिक 1967 के Six-Day War के दौरान अमन की भूमिका बहुत ही अहम थी, जहां अमन ने Arab कम्युनिकेशंस को इंटरसेप्ट करके उनके मूवमेंट और ऑपरेशन्स की जानकारी इकठ्ठा की. इजरायल को युद्ध में इस जानकारी का काफी फायदा हुआ.
मोसाद और शिन बेत की अपेक्षा अमन का फोकस इंटेलिजेंस में तकनीक के इस्तेमाल पर ज्यादा है. इसकी एक स्पेशल यूनिट है. यूनिट 8200. जो साइबर वॉरफेयर, सर्विलांस और इलेक्ट्रॉनिक्स डिवाइसेस की ट्रैकिंग में एक्सपर्ट है. इस यूनिट ने तकनीक के दम पर ही ईरान के एक न्यूक्लियर प्रोग्राम में सेंध लगा दी थी. यूनिट 8200 ने अमेरिकी इंटेलिजेंस एजेंसियों के साथ मिलकर एक वायरस बनाया, stuxnet. इस वायरस के जरिये इजरायल ने ईरान के न्यूक्लियर प्रोग्राम में इस्तेमाल होने वाले सेंट्रिफ्यूजेस (Centrifuges) को टारगेट किया. न्यूक्लियर बॉम्ब में नॉर्मल यूरेनियम जिससे बिजली बनाई जाती है, वो काम नहीं आता है. इसलिए सेंट्रिफ्यूजेस से यूरेनियम को एनरिच किया जाता है. लेकिन इस वायरस ने ईरान के सेंट्रिफ्यूजेस का गैंडास्वामी कर दिया और ईरान के अरमान धरे के धरे रह गए.
बहरहाल, इजरायल की इन खुफिया एजेंसियों के मिशंस पर कई बार सवाल खड़े हुए हैं. ख़ास कर इनके मिशन एग्ज़ीक्यूट करने के तरीक़े और उससे होने वाले कोलेटरल डैमेज को लेकर. लेकिन एक पक्ष ये भी है कि इन एजेंसियों का पहला फोकस देश से जुड़े खतरे को समय रहते खत्म करना है.
वीडियो: आसान भाषा में: कहानी Mossad और Shin Bet की जिसने इजरायल को यहां तक पहुंचाया