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इजरायली पीएम बेंजामिन नेतन्याहू की कुर्सी जाने वाली है?

इजरायल में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मचे घमासान की पूरी कहानी.

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इज़रायली पीएम बेंजामिन नेतन्याहू. (तस्वीर: एपी)
दुनिया में किसी मुल्क़ की पहचान कैसे बनती है? कई सारे मानक हैं. मसलन, उसका इतिहास, उसकी संस्कृति, उसका भौगोलिक परिवेश आदि. इन सबसे इतर एक और चीज़ है, जो किसी देश की चाल और उसका चरित्र तय करती है. क्या? उस देश को चलाने वाली सरकार और उस सरकार का मुखिया.
ये फ़ॉर्म्यूला इजरायल पर भी लागू होता है. इजरायल माने बेंजामिन नेतन्याहू. हममें से बहुतों का मन-मस्तिष्क उस फ़्रेम को आत्मसात कर चुका है. नेतन्याहू एक दशक से भी अधिक समय से इजरायल में साहिबे-मसनद हैं. बहुत प्रबल संभावना है कि एक-दो दिन बाद वहां नहीं होंगे. ऐसा क्यों? दरअसल, इजरायल में विपक्षी गठबंधन ने बहुमत साबित करने के लिए ज़रूरी समर्थन जुटा लिया है. इजरायल की जनता को ये दिन नसीब हुआ है, दो सालों के भीतर हुए चार चुनावों के बाद.
इस नए गठबंधन का पूरा तिया-पांचा क्या है? इजरायल में सरकार बनाने के लिए कौन-कौन से तिकड़म भिड़ाने होते हैं? कुर्सी से उतरने के बाद बेंजामिन नेतन्याहू का क्या होगा? सब विस्तार से बताएंगे.
बात शुरू करने से पहले बैकग्राउंड समझना ज़रूरी है
1940 का दशक. दूसरे विश्व युद्ध का काल. जब हिटलर के सताए यहूदी पूरे यूरोप में भटक रहे थे. उन्हें अपने लिए एक नया ठौर चाहिए था. इसी तलाश में वे फ़िलिस्तीन पहुंचे. फ़िलिस्तीन पर ब्रिटेन का नियंत्रण था. वहां अरब और यहूदी बहुत पहले से साथ रहते आए थे. उनके बीच छिटपुट लड़ाईयां भी होती रहतीं थी.
दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद यहूदियों ने फ़िलिस्तीन के भीतर अलग देश की मांग तेज़ कर दी. फ़िलिस्तीन ने इसका विरोध किया. उनका कहना था कि हमारे देश में दूसरा देश नहीं बन सकता. उनकी मांग थी कि कहीं और बनाया जाए यहूदी देश. मगर यहूदी इसके लिए राज़ी नहीं थे. उनका कहना था कि वो कहीं और क्यों जाएंगे. ये ज़मीन तो उनके पुरखों की है. उन्हें सदियों तक उस ज़मीन से बेदखल रखा गया. अब उन्हें अपनी ज़मीन वापस चाहिए.
इस झगड़े के बीच ब्रिटेन चुपचाप निकल गया. जाने से पहले उसने फ़िलिस्तीन को आज़ाद कर दिया था. अब यहूदियों और अरब का झगड़ा यूनाइटेड नेशंस के पास पहुंचा. 1947 में यूएन ने फ़िलिस्तीन के विभाजन को मंज़ूरी दे दी. यानी यहूदियों को अपने लिए नई ज़मीन मिल गई. इसका नाम रखा गया, इजरायल.
आख़िरकार, मई 1948 में इजरायल आज़ाद मुल्क़ बन गया. पहले प्रधानमंत्री बने डेविड बेन गुरियन. वे किसी चुनाव में नहीं जीते थे. गुरियन ज़्युइश एजेंसी के मुखिया थे. ये एजेंसी 1929 में बनी थी. इसका काम था, पलायन कर रहे यहूदियों को साथ मिलाना और उन्हें अपने लोगों के बीच बसाना. ये एजेंसी सीधे तौर पर यहूदियों की प्रतिनिधि थी. इसलिए, इजरायल के गठन के बाद गुरियन को प्रधानमंत्री बनाया गया.
कुछ समय बाद ही अरब देशों ने इजरायल पर हमला कर दिया. गुरियन के नेतृत्व में इजरायल विजयी हुआ. बाहरी मोर्चे पर फ़तह के बाद बारी थी, अंदर का मोर्चा मज़बूत बनाने की. युद्ध की वजह से दो बार चुनाव रद्द करना पड़ा था. इसके चलते तारीख़ तीन महीने आगे खिसकानी पड़ी. इजरायल में पहला आम चुनाव 25 जनवरी 1949 को हुआ.
David Ben Gurion
इजरायल के संस्थापक डेविड बेन गुरियन. (तस्वीर: एएफपी)


नतीजा क्या आया? ये जानने से पहले संसद की संरचना समझ लेते हैं.
इजरायल की संसद का नाम है, क्नेसेट. हिंदी में इसका मतलब होता है, सभा. संसद की पहली बैठक के दो दिन बाद इस नाम पर सहमति बनी थी. क्नेसेट में सदस्यों की कुल संख्या 120 निर्धारित की गई. इसके पीछे भी एक कहानी है. पांचवी शताब्दी ईसापूर्व में जेरूसलम में ‘महान लोगों की सभा’ बुलाई गई थी. इसमें यहूदी कानूनों और ईश्वरीय आराधना जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर विचार-विमर्श हुआ था. इस सभा में कुल 120 सदस्य थे. इसलिए, जब आधुनिक इजरायल के नेतृत्व की बात आई तो 120 मेंबर्स को उसका अगुआ बनाया गया.
इजरायल में संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था है. यानी जनता अपनी पसंद का सत्ताधीश चुनने के लिए स्वतंत्र है. जैसा कि भारत में होता है. लेकिन वहां वाले सिस्टम में एक बड़ा अंतर है. जनता सीधे किसी उम्मीदवार को नहीं, बल्कि पार्टी को वोट देती है. ऐसा क्यों है? इजरायल एक छोटा-सा देश है. यहां की आबादी लगभग 90 लाख है. इससे कहीं ज़्यादा लोग तो भारत के एक शहर में बसे मिल जाएंगे.
इसलिए, इजरायल ने संसदीय क्षेत्र निर्धारित करने की जटिलता को लागू नहीं किया. सभी सांसद पूरे देश के प्रति जिम्मेदार होंगे, किसी खास इलाके के प्रति नहीं.
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दुनिया के मानचित्र में इज़रायल (स्क्रीनशॉट: गूगल मैप्स)


कैसे होता है चुनाव?
इजरायल में बहुत सारी पॉलिटिकल पार्टियां हैं. वे इलेक्शन कमीशन के पास अपने उम्मीदवारों की लिस्ट देती है. इस लिस्ट का इस्तेमाल चुनाव के बाद होता है. बैलेट पेपर पर पार्टियों के सिंबल होते हैं. कहीं पर किसी कैंडिडेट का कहीं ज़िक्र नहीं होता. जैसा कि हमने बताया, वोटर्स पार्टी को वोट देते हैं किसी कैंडिडेट को नहीं. चुनाव के बाद होती है वोटों की गिनती. जिस पार्टी को जितने प्रतिशत वोट मिलते हैं, उस अनुपात में उनके सदस्य संसद के लिए चुने जाते हैं. क्नेसेट में जगह पाने के लिए एक पार्टी को मिनिमम 3.25 प्रतिशत वोटों की दरकार होती है. ये कटऑफ़ मार्क है. इससे कम वोट पाने वाली पार्टियां ख़ुद-ब-ख़ुद संसद पहुंचने की रेस से बाहर हो जाती हैं.
सीटों का बंटवारा कैसे होता है?
इसके लिए एक जटिल-सा फ़ार्म्यूला है. ध्यान से समझने की कोशिश करिएगा.
सबसे पहले मान्य वोटों की संख्या निकाली जाती है. इसके बाद उसमें से उन पार्टियों के वोट घटा दिए जाते हैं, जो अगले राउंड में एंट्री नहीं कर पाए. यानी जो 3.25 प्रतिशत वोटों से कटऑफ़ से चूक गए. इस संख्या को 120 से भाग देने पर जो संख्या आती है, उसे कहते हैं ‘जनरल इंडिकेटर’. अब क्वालीफ़ाइड पार्टियों के कुल मान्य वोटों को इस ‘जनरल इंडिकेटर’ से भाग दिया जाता है. जो नंबर आया. वो होती है संसद में उनकी सीटों की संख्या.
इजरायल में सरकार बनाने के लिए एक पार्टी या गठबंधन को 61 सीटों की दरकार होती है. (तस्वीर: एएफपी)
इजरायल में सरकार बनाने के लिए एक पार्टी या गठबंधन को 61 सीटों की दरकार होती है. (तस्वीर: एएफपी)


सांसद कैसे चुने जाते हैं?
जब पार्टियों के सीटों का नंबर डिसाइड हो जाता है, तब चुनाव आयोग लिस्ट निकालता है. वही लिस्ट, जो पार्टियों ने चुनाव आयोग को सौंपा था. पार्टी के नंबर के हिसाब से ऊपर के नामों को सीट अलॉट की जाती है.
इजरायल में उपचुनाव की व्यवस्था नहीं है. अगर किसी सांसद की मौत होती है या किसी अन्य कारणों से उनकी सीट खाली होती है तो लिस्ट में शामिल अगले व्यक्ति को वो सीट मिल जाती है. यानी एक बार किसी पार्टी को सीट अलॉट हुई तो अगले चार साल तक वो बरकरार रहती है. आमतौर पर क्नेसेट का कार्यकाल चार बरस का होता है.
इजरायल में सरकार बनाने के लिए क्नेसेट में बहुमत साबित करना होता है. इसके लिए एक पार्टी या गठबंधन को 61 सीटों की दरकार होती है. आज तक इजरायल में कोई भी पार्टी अकेले दम पर सरकार नहीं बना पाई है.
इजरायल के पहले प्रधानमंत्री डेविड बेन गुरियन भी ऐसा नहीं कर पाए. पहले चुनाव में उनकी पार्टी को कुल 46 सीटें मिलीं थी. ये बहुमत से 15 कम था. उन्हें कई और छोटी-मोटी पार्टियों के साथ गठबंधन सरकार बनानी पड़ी.
गुरियन के बाद जिस इजरायली प्रधानमंत्री का लोहा पूरी दुनिया ने माना, वो थीं गोल्डा मेयर. पेशे से टीचर मेयर मार्च 1969 में इस कुर्सी पर आईं थी. उनके शासन के दौरान ही म्युनिख के ओलंपिक विलेज में इजरायली एथलीट्स को बेरहमी से मारा गया था. मेयर ने इस हमले का बदला लेने के लिए खुफिया एजेंसी मोसाद को लगाया था. इस ऑपरेशन ने मोसाद और गोल्डा मेयर की छवि को मज़बूत बना दिया था. इजरायल ने ये भी बताया कि अगर कोई उनकी तरफ आंख उठाकर देखेगा तो उनका क्या हश्र होगा.
1990 के दशक में इजरायल और फ़िलीस्तीन के बीच शांति समझौता हुआ. इसके लिए उस वक़्त इजरायल के प्रधानमंत्री यित्शाक राबिन को नोबेल प्राइज़ भी मिला. शिमोन पेरेज़ और फ़िलिस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात के साथ. इसी समझौते से नाराज़ एक यहूदी कट्टरपंथी ने राबिन की हत्या कर दी.
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यासिर अराफ़ात फ़िलिस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन के लीडर थे. (तस्वीर: एएफपी)


इस शांति समझौते का बढ़-चढ़कर विरोध एक नेता ने भी किया था. जो उस वक़्त तक बहुत डिप्लोमैटिक भूमिकाएं निभा चुके थे. साथ ही, इजरायल की लोकल पॉलिटिक्स में अपनी जगह बनाने की तैयारी कर रहे थे. शांति समझौते ने उनको बड़ा मौका दिया. ये नाम था बेंजामिन नेतन्याहू.
नेतन्याहू 1949 में तेल अवीव में पैदा हुए थे. उनकी परवरिश अमेरिका में हुई. बाद में वो इजरायल की डिफ़ेंस फ़ोर्स में शामिल हो गए. उन्होंने कई सालों तक आर्मी की स्पेशल टीम में भी अपनी सेवाएं दी. 1973 में नेतन्याहू ने सेना को अलविदा कह दिया. वो वापस पढ़ाई के लिए अमेरिका लौट गए. लेकिन उनका बड़ा भाई योनाथन सेना में डटा रहा. तीन साल बाद युगांडा में बंधकों को छुड़ाने के दौरान योनाथन शहीद हुए. इस घटना ने नेतन्याहू फ़ैमिली को चर्चा में ला दिया.
इस घटना के बाद बेंजामिन नेतन्याहू का मन इजरायल की राजनीति की तरफ मुड़ा. वो पहली बार 1988 के साल में संसद पहुंचते हैं. यासिर अराफ़ात के साथ समझौते का विरोध कर लाइमलाइट में आते हैं. बाद में उन्हें लिकुड पार्टी का चेयरमैन बनाया जाता है. और, 1996 में नेतन्याहू पहली बार इजरायल के प्रधानमंत्री बनने में कामयाब होते हैं. हालांकि, नेतन्याहू अपना पहला कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. 17 महीने पहले ही उन्होंने चुनाव का ऐलान किया. और, उस चुनाव में वो हार गए.
Benjamin Netanyahu
इजरायल के पीएम बेंजामिन नेतन्याहू (फोटो: एपी)


दोबारा पीएम पद हासिल करने में नेतन्याहू को दस सालों का वक़्त लगा
2009 में गाज़ा पट्टी को लेकर इजरायली सेना और फ़िलिस्तीनी संगठनों के बीच लड़ाई बढ़ रही थी. इजरायल में किसी ताक़तवर चेहरे की दरकार महसूस की जा रही थी. लिकुड पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी खाली था. ऐसे में नेतन्याहू को खाली ज़मीन मिली. वो 2009 में दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बन गए.
समय के साथ-साथ उनकी पॉपुलैरिटी बढ़ती गई. इजरायल में उन्हें अजेय माना जाने लगा. इसकी कई वजहें थीं. नेतन्याहू आर्मी बैकग्राउंड से हैं. उनके भाई इजरायल के लिए शहीद हुए हैं. इसके चलते इजरायल में हर दूसरा-तीसरा परिवार उनसे जुड़ाव महसूस करता है. उन्हें इकोनॉमिक्स की अच्छी समझ है. उनके समय में इजरायल की अर्थव्यवस्था में अच्छा-खासा सुधार हुआ है. नेतन्याहू के कार्यकाल के दौरान इजरायल में होने वाले आतंकी हमलों में भी कमी आई. इस वजह से भी लोग उनसे खुश रहे.
2016 तक सब ठीक चला. फिर उनके ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के मामले में जांच शुरू हुई. उनके ऊपर आरोप हैं कि उन्होंने उद्योगपतियों से गिफ़्ट्स लिए और उसके बदले उन्हें ग़लत फायदा पहुंचाया. ये पद के दुरुपयोग का मामला था. इसको लेकर इजरायल में उनके ख़िलाफ़ नाराज़गी बढ़ी.
साल 2019 में दो बार आम चुनाव कराए गए. पहली बार अप्रैल में और दूसरी बार सितंबर में. दोनों ही बार कोई भी गठबंधन सरकार बनाने में असफ़ल रहा. बेंजामिन नेतन्याहू के राजनीतिक जीवन में ऐसा पहली बार हो रहा था.
अगला चुनाव हुआ मार्च 2020 में. इसमें भी हालत वही रही. कोई भी गठबंधन बहुमत के करीब नहीं पहुंच रहा था. ऐसे में नेतन्याहू ने हाथ मिलाया विपक्षी नेता बेनी गेंज़ के साथ. समझौता हुआ कि दोनों मिलकर सरकार चलाएंगे. रोटेशन के आधार पर पीएम की कुर्सी की अदला-बदली होगी. एक ही कार्यकाल में दोनों नेता प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठेंगे.
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इज़रायली नेता बेनी गेंट्ज़. (तस्वीर: एपी)


लेकिन सरकार बनते ही नेतन्याहू के सुर बदल गए. उन्होंने अपनी सहयोगी पार्टी को दरकिनार करना शुरू कर दिया. रही-सही कसर कोरोना महामारी ने पूरी कर दी. महामारी के दौरान जनता खुलकर नेतन्याहू के विरोध में आ गई. बेनी गेंज़ ने भी नेतन्याहू से किनारा करना शुरू कर दिया. उन्होंने समर्थन खींच लिया. ऐसे में सरकार का बचना मुश्किल था. फिर नए चुनाव का ऐलान हुआ. दो साल के भीतर चौथा चुनाव.
ये हुआ 23 मार्च 2021 को. इस बार भी किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. राष्ट्रपति रेवेन राविन ने सांसदों से बात करने के बाद पहला मौका दिया नेतन्याहू को. उन्हें 28 दिनों का समय मिला. सरकार बनाने के लिए. नेतन्याहू समर्थन नहीं जुटा पाए. अगली बारी थी दूसरे नंबर की पार्टी की. भूतपूर्व टीवी ऐंकर और वर्तमान में मुख्य विपक्षी नेता याया लापिड को 2 जून तक बहुमत जुटाने का मौका मिला.
इस बीच इजरायल और हमास के बीच युद्ध शुरू हो गया. लड़ाई 11 दिनों तक चली. नेतन्याहू पर ये भी आरोप लगे कि लापिड को सरकार बनाने से रोकने के लिए ये लड़ाई शुरू करवाई गई. नेतन्याहू को ये लगा कि इससे दक्षिणपंथी नेता लापिड का समर्थन नहीं करेंगे. लापिड नरम वामपंथी विचारधारा के माने जाते हैं. उदार. फ़िलिस्तीन के साथ शांति और बातचीत की मेज़ पर झगड़ा सुलझाने में विश्वास रखते हैं. अंतरराष्ट्रीय कानूनों को मानने की बात करते हैं.
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इज़रायल के राष्ट्रपति रुवेन रिवलिन. (तस्वीर: एपी)


लेकिन सरकार बनाने में उनकी यही विचारधारा आड़े आ रही थी. नेतन्याहू भी आश्वस्त थे कि इजरायल में अगला चुनाव तय है. यानी उन्हें फिर से सरकार में बने रहने का मौका मिलेगा.
हालांकि, ऐसा हुआ नहीं. डेडलाइन खत्म होने से तीन दिन पहले एक धमाका हुआ. कट्टर दक्षिणपंथी नेता नफ़्ताली बेनेट ने ऐलान किया कि वो याया लापिड को समर्थन देंगे. दक्षिणपंथी कहने का मतलब ये कि बेनेट, नेतन्याहू धड़े के नेता माने जाते हैं. वो उनकी सरकार में रक्षामंत्री रह चुके हैं. बेनेट वेस्ट बैंक में इजरायली कॉलोनियां बनाने के पक्षधर हैं. अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इसे अवैध करार दिया है. इजरायल और हमास की लड़ाई के दौरान बेनेट पर फ़ेक वीडियो फैलाने के आरोप भी लगे थे.
बेनेट, याया लापिड के बिल्कुल उलट हैं. लेकिन उनके साथ आने से बेंजामिन नेतन्याहू की कुर्सी अचानक से खतरे में पड़ गई है. क्योंकि अब लापिड गठबंधन ने 61 सीटों का जादुई आंकड़ा छू लिया है.
कैसे?
लापिड की पार्टी येश आतिद- 17 सीट. लापिड के सहयोगी - 34 सीट. बेनेट की यामीना पार्टी - 6 सीट. और, यूनाइटेड अरब लिस्ट - 4 सीट. यानी कुल 61 सीट.
इस गठबंधन में दक्षिणपंथी, सेंटरिस्ट और वामपंथी, तीनों का मेल है. जानकारों का कहना है इस गठबंधन में तकरार तय है. इसीलिए, ये बेमेल मेल कब तक टिका रहेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता.
हालांकि, अभी इस धड़े का सबसे बड़ा मकसद है, नेतन्याहू को सत्ता से हटाना. तभी उनके ऊपर अदालती कार्रवाई आगे बढ़ाई जा सकेगी. अगर नेतन्याहू को किसी मामले में सज़ा हुई तो उनका पॉलिटिकल कैरियर लुढक जाएगा. नेतन्याहू-विरोधी धड़ा उसी मौके का इंतज़ार कर रहा है.