
लेकिन उसकी एक बात हमेशा याद रही, इसलिए नहीं कि उसने जो कहा था बहुत गजब की बात थी, बल्कि इसलिए क्यूंकि उसने जो कहा था, डंके की चोट पे कहा था. एक एपिसोड में उससे केन घोष ने पूछा था कि कामयाब होने के लिए टैलेंट, लक या मेहनत, इनमें से ज़्यादा ज़रूरी क्या है? उसने जो जवाब दिया - "तीनों का जो संगम होगा, तो वो निश्चित है प्रयाग इलाहाबाद का बनेगा. और सक्सेस तभी मिलती है. किसी एक चीज़ से आप ये सोचो कि जग जीत लोगे, तो ये संभव नहीं है. हर चीज़ जब आपके पास होगी, चाहे वो थोड़ी-थोड़ी क्यूं न हो, निश्चित तौर पर डंके की चोट पर आप सफ़ल हो जाओगे." मुझे उस ऐक्टर का नाम नहीं याद रहा. वो दिन, उसकी कही वो बात याद रही.
सालों बाद, इतने सालों बाद कि मैं नौकरी करते-करते 2 साल गुज़ार चुका हूं, ऐक्टर विनीत सिंह से फ़ोन पर बात हुई. वो विनीत सिंह जो पुलिसवाले की छाती पर पिस्तौल लगाकर उससे पूछता है, "बूझे?" वो अब विनीत सिंह नहीं बल्कि श्रवण सिंह उर्फ़ मुक्काबाज़ बन चुका है. ये वही विनीत सिंह है जिसने मुझे सालों पहले टीवी पर वो सबक सिखाया था. विनीत सिंह ही सुपरस्टार्स का विजेता था. और ये सारी बातें खुलीं फ़िल्म 'मुक्काबाज़' के सिलसिले में विनीत सिंह के इस इंटरव्यू के दौरान:
आपके इस पूरे बदलाव के बारे में बहुत बात हो रही है. आप फ़ुल बॉक्सर बन गए. इसकी यात्रा क्या रही?
जैसे ही मुझे बोला गया कि मुझे बॉक्सर बनना ही बनना है, मैंने कहा कि मैं ये करूंगा. मैंने अनुराग सर को बोल दिया. अनुराग सर ने तुरंत विजेंद्र सिंह से बात की. विजेंद्र सिंह ने बात की अपने कोच से. मैं अगले दिन पटियाला के लिए निकल लिया. मैंने इस बीच अपने मतलब का सामान बांधा और बाकी सब सामान बेच दिया. मेरे पास पैसे नहीं थे. सामान बेच का कुछ पैसा आया. पटियाला पहुंचा तो दिन के डेढ़-दो बज रहे थे. मुझे कुछ भी मालूम नहीं था कि कैसे क्या करना है. लेकिन रहने के लिए 3 घंटे में घर मिल गया. बस मैंने सामान रखा और ट्रेनिंग की शुरुआत कर दी. मुझे बस तुरंत निकलना था. मुझे बॉक्सर बनना था.बॉक्सिंग सिर्फ बॉडी बनाने का काम नहीं होता है. बॉक्सिंग यानी Neuro muscular refelx का काम होता है. इंडिया में बॉक्सिंग 10-12 साल की उम्र से शुरू होती है. मैं ऐसी उम्र में पहुंचा था जहां लोग रिटायर होने की सोच रहे होते हैं.
जहां मैंने ट्रेनिंग करने की सोची वहां सारे बड़े-बड़े बॉक्सर ट्रेनिंग कर रहे थे. हरप्रीत सिंह इंडियन बॉक्सिंग टीम के कोच रहे हैं, उनसे मेरी बात हुई. उन्होंने देश को 35-30 इंटरनेशनल बॉक्सर दिए हैं. उनसे मैंने कहा कि किसी से ये मत बोलिएगा कि मैं ऐक्टर हूं. मैं उन सभी बॉक्सर्स के बीच रहना चाहता था. उनके जैसा बन जाना चाहता था. तभी श्रवण कुमार मिलेगा. अगर मैंने कहा कि मैं एक ऐक्टर हूं तो उनकी ओरिजिनालिटी गायब हो जाएगी. मैं ये नहीं चाहता था. मुझे बहुत सरे श्रवण कुमार दिख रहे थे. शुरू में दिक्कत ये होती थी कि वो हंसते थे कि ये आदमी चाहता क्या है. मुझसे कहते थे कि 'दिमाग की झिल्ली-झुल्ली हिल जाएगी. कुछ न कर पाओगे.' ऐसे लोग दिखते थे जिनकी गर्दन में लचक थी. क्यूंकि मुक्का कभी पड़ गया था. ऐसा एक बंदा फ़िल्म में भी है. लेकिन मुझे ये था कि मुझे बस करना है. वो पागल समझते थे तो समझा करें. फिर धीरे-धीरे वो मुझे एक्सेप्ट करने लगे.
कैसा लगता था उस वक़्त चोट खाकर. बॉक्सिंग रिंग में कितनी छीछालेदर हुई?
जब मुक्का लगता है न, 10 सेकंड के लिए ब्लैक आउट हो जाता है दिमाग. मुझे याद नहीं रहता था कि कब मुझे मुक्का लगा, मैं कब गिरा और कब मुझे उठा के बाहर किया गया. ऐसे लोग होते थे जिनका मैच चल रहा होता था और उन्हें मुक्का पड़ता था तो उन्हें बाहर ले आना पड़ा. वो बाहर चुप चाप बैठे रहे और फिर पूछा "मैच कब शुरू हो रहा है मेरा?" ये मैं अपने सामने होते देख रहा था. ऐसा मेरे साथ भी हुआ.लेकिन एक बात हमेशा दिमाग में ये थी कि 14 साल जो मुक्के मैंने झेले हैं वो इसके सामने कुछ नहीं थे. मैं गणितज्ञ और डॉक्टरों के घर से आता हूं. मैं खुद एक डॉक्टर हूं. मेरे घरवालों से मेरे बारे में, मेरे कारण जो सवाल पूछे जाते हैं, मैं समझता रहता हूं कि वहां क्या चल रहा होगा. वो मुक्के ज़्यादा खतरनाक थे. ये तो बस देह पर चोट कर रहे थे.
रिंग में जब मैं उतरता था तो सोचता था कि ऐसे मारूंगा, वैसे मारूंगा. लेकिन जब तक सोचता था, 4-6 मुक्के खा चुका होता था. मगर उन मुक्कों से ज़्यादा भारी वो अंदरूनी मुक्के थे, जो मैं सालों से खाता आ रहा था.
पापा मैथेमैटिशियन थे. हमेशा 2+2 यानी 4 सिखाया. न 3 न 5. वो कहते थे - हारियों न हिम्मत बिसरियो न हरिनाम. हांलाकि ये उन्होंने फ़िल्म में काम करने के लिए नहीं कहा था लेकिन मैं उसी में इस्तेमाल कर रहा हूं. मैंने मेहनत करनी नहीं छोड़ी तो नहीं छोड़ी.

इतना कॉन्फिडेंस कैसे आया कि सारा सामान बेचा, और निकल पड़े. अगर बॉक्सर नहीं बन पाते तो?
नहीं बिलकुल भी नहीं. मैं बहुत खुश होकर गया था. बिना किसी शक को पाले. 'अग्ली' का शूट ख़तम होने के बाद थोड़ा बहुत एडिट पर बैठा. लेकिन वो सब कुछ मेरे लिए 2013 के आस-पास ख़तम था. उसके बाद सब ख़तम था. फिर मैंने कुछ काम नहीं किया. बस इधर-उधर चलता रहा. ज़्यादातर बस ऐसी ही फ़िल्में थीं जहां एक जैसा काम मिल रहा था. फ़िल्म अलग थीं लेकिन सब एक जैसा था. यही मैं नहीं चाहता था. मज़ा ही नहीं आ रहा था. लेकिन उन्हें न करता तो खाली बैठता. ये सब होते-होते काफ़ी समय हो गया. और जिस समय ये हो रहा था, मुझे यहां आए 13 साल हो रहे थे. खुद से पूछता था कि मैं डॉक्टर था और मैंने सब कुछ इसलिए नहीं छोड़ा. मुझे बेचैनी होती थी. मुझे सिर्फ़ सर्वाइवल के लिए ही नहीं जीना था. ऐक्टिंग मेरा पैशन था. रियल लाइफ़ में ये मुझे पसंद था.मैंने सोचना शुरू किया कि जो मैं अपने अपने लिए सोच रहा हूं, वैसा सभी नहीं सोच रहे थे. मैं खुद को उनपर थोप नहीं सकता. सेकंड थॉट ये आ रहा था कि मैं कोशिश तो रोज़ करता हूं, फ़िल्में भी मिली हैं, लोगों ने तारीफ भी की. लेकिन अलग तरह का काम क्यूं नहीं आ रहा है. फ़िल्में तो बहुत अच्छी बन रही हैं लेकिन उनमें मेरे लिए जगह नहीं है. ऑडिशन भी मैं रोज़ दे रहा हूं. कुछ और तरह से कोशिश करते हैं. फिर जब ये स्क्रिप्ट तैयार हुई तो मुझे पता था कि इसका कैरेक्टर बॉक्सर ही है. और वो मुझे ही करना था. इसके लिए स्टैमिना और शरीर वैसा होना बहुत ज़रूरी है. आसान तो नहीं है. लेकिन मुझे तो करना ही था. ऑप्शन ही नहीं था कुछ और. बॉक्सर तो बनना ही था.
और फिर इस फ़िल्म का होना कैसे हुआ?
'अग्ली' जब हुई थी तो सभी के सामने अनुराग ने कहा था कि मैं तुम्हारे साथ अब और कुछ नहीं करूंगा. भागो. तो मैं इस कहानी को लेकर सोच भी नहीं पा रहा था कि अनुराग सर के पास जाऊंगा. अगर मैं जाऊंगा तो लगेगा कि ये तो गले पड़ गया. वो भी एक सिचुएशन थी. इस फ़िल्म की कहानी मेरी सिस्टर और मेरे दोस्त ने ड्राफ्ट की. पिचिंग शुरू की. मैंने सोच रखा था कि फ़िल्म का हीरो तो मैं ही होऊंगा. इसलिए साथ में ही ट्रेनिंग शुरू कर ली. स्टेमिना के बिना बॉक्सिंग रिंग में नहीं खड़े हो सकते. 4-6 जगह गया.लोगों को स्क्रिप्ट पसंद आती थी तो लीड नहीं मिलता था. कोई और रोल करने को कहते थे लोग. मगर ये मेरी शर्त थी. मुझे ही लीड करना था. मुझे ये भी कहते थे कि तुम राइटर का क्रेडिट ले लो. खूब पैसे ऑफर किये. लेकिन मैं राइटर बनने नहीं निकला था. वो ऑप्शन ही नहीं था. मैं नाम नहीं बताऊंगा ये सभी लोग कौन थे. उस समय तक मुझे 14-15 साल हो चुके थे. बहुत जगह गए हम.
और मैं ये भी समझ सकता था कि ऐसा क्यूं हो रहा था. मैं कभी भी उसे बुरे नज़रिए से नहीं देख रहा था. आखिर मुझे इतना देखा ही नहीं है किसी ने तो मेरे भरोसे कोई कैसे फ़िल्म बना देगा. लेकिन मैं बाहर निकल रहा था तो खुद से कहता था कि सही डायरेक्शन में जा रहा था. यूं ही नहीं कोई पैसे देने को राज़ी था. इसका मतलब साफ़ था कि स्क्रिप्ट तगड़ी है. बस यही सोचे जा रहा था कि कहीं न कहीं दरवाज़ा खुलेगा.
3 साल बीत गए. अनुराग सर के पास जाने की सोची. सर ने ये कहा था कि मेरे साथ और काम नहीं करेंगे. लेकिन ये थोड़ी कहा था कि सलाह भी नहीं देंगे. सोचा कि एक बार सर से फीडबैक ले लेता हूं. इतना तो कर ही देता हूं. वो ग्रेट राइटर हैं. उनकी सलाह मेरे लिए अच्छी ही रहेगी. और बेहतर हो जाएगा. उनके फीडबैक के बाद इसे फैंटम में दूंगा फिर. ये नीयत थी.

कश्यप के साथ विनीत सिंह. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर, अग्ली और बॉम्बे टॉकीज़.
क्या बोला फिर अनुराग कश्यप ने?
मुझे स्क्रिप्ट देने के कुछ ही दिन बाद फ़ोन आया. मेरे जीवन का सबसे ज़रूरी कॉल आया. अनुराग सर बोले, "विनीत, सुनो-सुनो. मैंने पढ़ा. मैं डायरेक्ट कर रहा हूं. मैं तुमको लेकर इसे बना रहा हूं." मैं बस एक कदम बढ़ाना चाहता था. मैं इसी के इंतजार में था. ये सुनके मुझे लगा कि मैं पता नहीं क्या सुन रहा हूं. वो बोले कि 'तुम सब छोड़ो. सब कुछ. और मेरी 2 कंडीशन हैं. तुम्हें बॉक्सिंग करनी होगी. प्रॉपर बॉक्सिंग. और मैं स्क्रिप्ट में अपने हिसाब से चेंज करूंगा.'वहां कोच के साथ, बाकी लोगों के साथ कैसा अनुभव रहा?
खून आए दिन निकलता था. बेचैनी इस बात की होती थी कि पहला मुक्का दिखता था लेकिन फिर आंख बंद हो जाती थी. ये मुझे सही करना था. खुली आंख से मुक्का खाना था. उस लड़ाई को जीतना था. मैं सोचता था कि ये साला दिखाई क्यूं नहीं दे रहा है. फिर दिखता था मुक्का आता हुआ. फिर भी अपन वहीं खड़े रहते थे. मुक्के पड़ते थे. बार-बार आंखें लाल हो जाती थीं. लेकिन बॉडी उन मुक्कों पर रीऐक्ट नहीं कर पा रही थी.एक दिन अजूबा हुआ. कोच ने मुक्का मारा और मैं हिला. मैंने वो मुक्का मिस करवा दिया. कोच ने हल्के से स्माइल दी. वो स्माइल मुझे बहुत अच्छे से याद है. रिदम आनी शुरू हो गयी थी. फिर सब असली खेल शुरू हुआ.
हार्ड ट्रेनिंग. लोग 5-6 घंटे ट्रेनिंग करते हैं. मैं 3-4 घंटे के कई स्लॉट्स में करता था. शुरू में लोगों को लगता था कि यार ये बहुत ज़्यादा है लेकिन बाद में मेरे साथ लोग हो लिए. लोग जॉइन करने लगे. इन लोगों ने मुझे बनाया बॉक्सर. हाथ पकड़ के सिखाया. दस साल के बच्चे ने भी. वेट कब शिफ्ट करना है सब कुछ. रिदम वगैरह. बॉडी सपोर्ट कर रही थी. शुरू के विडियो हैं जिसमें मैं ब्लड में बैठा रहता था, वो डिलीट कर दिए. मेरे पास सभी चीज़ों के विडियो रहते थे. मैं जब शाम को घर पहुंचता था तो दिन में क्या हुआ, इसके विडियो मुंबई भेजता था. उस वक़्त दिन भर मुक्के खा-खा कर मैं होश में नहीं रहता था. डर लगता था कि कहीं वो विडियो मैंने भेज दिए तो वो लोग मुझे बुला लेंगे.

इतना सब कुछ हो रहा था, कहीं भी, किसी भी मौके पर ऐसा नहीं लगा कि अब बस बहुत हुआ?
मैं ऐक्टिंग करना चाहता हूं इसीलिए इतना सब कुछ कर पाया. एक समय था जब अपने पास घर नहीं था ठीक से. छत नहीं थी. रोटियां गिन गिन के खा रहा था. लेकिन कर रहा था. कई बार ऐसा हुआ कि मैं एक शूट पर हूं और सुबह 4-5 बजे पैकअप हुआ. अब मैं रिक्शा और टैक्सी अफ़ोर्ड नहीं कर सकता था. इसलिए बाकी का टाइम मैं वहीं सेट पर निकालता था. सभी लोग चले जाते थे लेकिन मैं वहीं रहता था. सुबह होती थी, पहली बस जब आती थी तो मैं घर आता था.कभी पता चला कि मुझे दोस्त बुला रहे हैं. हॉस्पिटल का उदघाटन करवाने के लिए. वो अच्छा कर रहे थे. मुझे क्लियर था कि मैं यहां क्यूं आया हूं. सेकंड थॉट नहीं आया लेकिन कभी. मुझे नहीं मालूम था कि क्या होगा. बस मैं अपना सब कुछ देने वाला था, ये पक्का था. सामान पैक किया. सब बेच दिया. और जब सब कुछ बिक रहा था, मैं खुश था. मुझे मालूम था कि मैं कुछ सही करके रहूंगा. मैंने कई बार ऐसा किया था कि 15 दिन खुद को लॉक कर लोगों के हिसाब से स्क्रिप्ट लिखने की कोशिश की थी. लेकिन अभी अनुराग सर ने ज़िम्मेदारी ले ली. उन्होंने बस कहा कि जस्ट गो एंड डू इट. मैं भाग गया.
आपका काम करने का स्टाइल क्या है?
मेरा कोई स्टाइल नहीं है. और ये बात मैं बनावटी तौर पर नहीं कह रहा हूं. मैं एक बच्चे के जैसा हूं. मुझे जैसा सिखाओ, मैं वैसा सीख जाऊंगा. अगली फ़िल्म में मैं फिर से वही बच्चा बन जाऊंगा. बच्चे ही कुछ नया सीख पाते हैं. मैं वही बने रहना चाहता हूं. जो सीखता हूं, अगली फ़िल्म से पहले भूल जाता हूं. संभावनाएं अनंत हैं. और संभव सब-कुछ तभी होगा जब आप ये सोचकर उतरें कि आप को कुछ नहीं आता है. जिस दिन कुछ आने का दंभ आ गया, सब चौपट हो जाएगा.इस फ़िल्म में जातीय समीकरण, खेल में पॉलिटिक्स वो भी इतने छोटे लेवल पर, ये सब कहां से आया?
मैंने एक कहानी लिखी थी जिसे अनुराग सर ने देखा. उन्होंने कहा कि मैं इसमें कुछ बदलाव करूंगा. मैं इस दुनिया का सबसे बड़ा बेवकूफ़ कहलाऊंगा अगर कह देता कि इसे ऐसा ही रहने दो, कुछ मत बदलो. राइटर और डायरेक्टर के तौर पर उनके बारे में तो आपको मालूम ही है. मैं उनसे सवाल नहीं करता हूं. उनके सामने मैं बच्चे जैसा हो जाता हूं. वो जो कह दें, मैं वो कर देता हूं. मेरे उनके बीच उस बाप-बेटे जैसा रिश्ता है जो बाप अपने छोटे से बेटे को हवा में उछाल रहा होता है. जब वो उछालता है तो बच्चा हवा में होता है लेकिन जब वो नीचे आता है तो हंस रहा होता है और उसकी हंसी में दोबारा उछाले जाने की रिक्वेस्ट छिपी होती है.अनुराग कश्यप के साथ अब आगे कुछ...?
मैं कुछ भी प्लान नहीं करता. मैं पंच- वर्षीय योजना के तहत नहीं चल सकता. बस सब कुछ अनलर्न (unlearn) करते चलना है. कोई चीज़ आए तो उसे अच्छे से कर सकूं. कहीं से मिले, अच्छा काम मिले. ये ज़रूरी नहीं है न कि बस अनुराग कश्यप ही मुझे अच्छा काम दे सकता है. जब कहीं से कुछ नहीं मिलता था तो मैं भोजपुरी फ़िल्में कर रहा था. (वो नाम बताते हैं लेकिन फिर कहते हैं कि नाम मत लिखियेगा वरना सब ससुरे उसकी क्लिप ढूंढ-ढूंढ शेयर करेंगे.) सर्वाइव करता था. दूरदर्शन के सीरियल में काम किया. खुद डॉक्टर था लेकिन सीरियल में वार्डबॉय का काम किया. 500 रुपये मिले. बस ये सोचता था कि एक सीन से ही तो फ़िल्म मिलती है. इसी धुन में बस किये जा रहा था. तो अब आगे अच्छे की चाह है.आने वाले प्रोजेक्ट्स?
अक्षय कुमार के साथ मैं 'गोल्ड' फ़िल्म में आ रहा हूं. रीमा कागती डायरेक्टर हैं. बढ़िया फ़िल्म है. मेरा रोल भी मुझे बहुत पसंद है. ज़्यादा कुछ अभी नहीं कहूंगा.***************************