दूसरी बात ब्रीफ को लेकर, तो वो बड़ा सिंपल सा था. कि फिल्म देखते-देखते चेहरे पर भीनी भीनी मुस्कान रहनी चाहिए. वो तब आती है जब आपको लगता है कि ये मैंने कहीं देख रखा है. बीच में कहीं-कहीं ठहाके लगते हैं. इनमें ऐसे इंट्रेस्टिंग से मुहावरे आ जाते हैं हमारी डे-टू-डे जिंदगी से तो मजा आ जाता है. बस वो रोज़मर्रा की जिदंगी, मुहल्ले वाला प्यार, मिडिल क्लास नेबरहुड, बचपन का प्यार वाला.. वो सारा फील हमको शब्दों में पिरोना था. इसी थॉट से चले थे और यहां पहुंचे. तीन हफ्ते में फिल्म के डायलॉग लिख लिए.
फिल्म में राजकुमार राव और श्रुति हसन.
"अब तक (मेट्रोसेक्सुअल रोमांटिक) फिल्मों के अंत में हीरोइन को राहुल ही ले जाता रहा है, अब से हर कहानी में लड़की को ले जाएगा गट्टू." क्या बात सिर्फ इतनी सी है कि सपनों की दुनिया से इस कहानी को बस असल दुनिया में ले आया जाए. असल दुनिया के खट्टेपन के अलावा इसमें रास्ता तो वही रहना है. राहुल जैसे ले जाता है, गट्टू भी वैसे ही ले जाएगा न! या फर्क है दोनों में? हम लोग ना, मिडिल क्लास मुहल्लों में रहते हैं और हम फिल्में देखते हैं. और हम फिल्मों को देखकर बहुत हसरत पालते हैं, उनकी इज्जत करते हैं. तो हमारे मन में ख़याल आता है कि राहुल जो 'कुछ कुछ होता है' में था या 'दिल तो पागल है' में था, रोमैंटिक सा आदमी. वो हमेशा हर लड़की को रिझा लेगा और लड़की उसी के पास जाएगी. पर हमारा गट्टू तो वैसा नहीं है. वो कौन है? हमारा गट्टू वही मिडिल क्लास आदमी है जो मैं या आप हैं. राहुल रेप्रजेंट कर रहा है उस फिल्मी हीरो को और गट्टू देख रहा है. मैं और आप देख रहे हैं कि यार ये फिल्मी हीरो क्यों ले जाता है हर बार.
मैं एक आम आदमी अगर दिल से, ईमानदारी से एक लड़की से प्यार करता हूं तो मैं क्यों नहीं जाकर मुहल्ले के उन लोगों से बोल सकता कि वो मेरी बहन नहीं, मेरा प्यार है. हमारी फिल्म गट्टू को हीरो बनाती है, ये राहुल के लिए नहीं है. राहुल के लिए तो भतेरी फिल्में हैं. ये हर उस गट्टू के लिए है जिसने मुहल्ले में ऑनेस्टली किसी लड़की से प्यार किया और इस चक्कर में रह गया कि यार घरवाले बचपन से भाई-बहन बोलते रहे, मैं न बोल पाया औऱ बोला भी होगा तो समझा नहीं पाया. ये कहानी उस गट्टू हिम्मत देती है.. कि भाई आज से तुझे अपने मन की इच्छा को दबाकर नहीं रखना है. जा, हिम्मत दिखा और इसी गट्टू की तरह जाकर बोल कि 'बहन होगी तेरी'.
https://www.youtube.com/watch?v=7MLW3UvYAJs&feature=youtu.be
'विकी डोनर' लिखते टाइम राइटर जूही चतुर्वेदी दिल्ली के एक मुहल्ले में जाकर रही थीं ताकि वैसे किरदारों की भाषा और कहानी में योगदान हो जाए. आपके मुताबिक लिखने के लिए ऐसी कौन सी चीजें करनी चाहिए? देखिए, दो चीजें होती हैं. अगर किसी भी फिल्म की हम बात करें या जो किताब मैंने लिखी है मैं उसकी बात करूं - पहली चीज़ होती है कि हम empathize (सहानुभूति) करें. या फिर जिन लोगों की बात हम कहना चाह रहे हैं उनकी बात को हम समझें. दूसरी चीज़ होती है - imagination (कल्पना). Relatability और imagination इन दोनों का कॉम्बिनेशन बड़ा जरूरी है. अगर मैं उस मुहल्ले में या उस जगह पर रहा हूं तो मुझे अहसास है लेकिन आप हर प्रोजेक्ट के विषय वाली जगह नहीं रहे होते हो.
मान लीजिए कि आप एक स्पाय फिल्म कर रहे हो लेकिन आप स्पाय तो नहीं रहे हो. तो आप कैसे करोगे? आप वो चीज़ इमैजिन करोगे और अपने रिसर्च को उसके साथ जोड़ोगे. आप ये देखोगे कि आप उसे बेहतरीन तरीके से कैसे लिख सकते हो. वहां पर लेखक की कल्पना जो रिलेटेबिलिटी को जोड़ती है वो बड़ा जरूरी हो जाता है. जैसे मेरी किताब है 'अ ट्री विद अ थाउजेंट एपल्स' तो उसमें भी आप देखिए कि कश्मीर के तीन बच्चों की कहानी है, और कश्मीरी तो मैं हूं नहीं! न कश्मीरी पंडित हूं, न कश्मीरी मुस्लिम हूं. लेकिन जिसने पढ़ी है उसे लगा है कि कश्मीर की जो भाषा है और माहौल है वो कैसे है? मैंने जो देखा, उससे एम्पेथाइज़ किया, उसे अपनी कल्पना से जोड़ा तो फिर वो चीज निकली है. उस चीज में ऑनेस्टी है तो वो चीज हमेशा अच्छी होती है.
संचित गुप्ता.
आपकी अब तक की जर्नी के बारे में बताएं. मिडिल क्लास आम आदमी हूं. माता-पिता डॉक्टर हैं. हिमाचल प्रदेश से हूं तो बहुत सादा बचपन देखा. जैसे '3 इडियट्स' में दिखाया या दूसरी फिल्मों में दिखाते हैं, वैसे हम इंजीनियर बन गए. एनआईटी हमीरपुर से इंजीनियरिंग कर ली. फिर मुंबई आकर एनएमआईएस से एमबीए कर लिया. फिर कॉरपोरेट में जॉब करने लगा. सेल्स और मार्केटिंग में सात साल मैंने जॉब की. जरूरी बात ये है कि हमेशा-हमेशा से राइटिंग का बहुत शौक रहा. जॉब के साथ-साथ मैं किताबें लिखता रहा. मेरी ये जर्नी एक लेखक के तौर पर शुरू हुई है. तीन किताबें लिखी हैं. पहली 'अ ट्री विद..' रिलीज हुई है जो कश्मीर में तीन बच्चों की फिक्शनल कहानी है. इसी दौरान और भी किताबें लिखीं जो आगे रिलीज होंगी. एक साल पहले तय किया कि फिल्मों की तरफ रुझान बनाते हैं. एंटर किया. कुछ फिल्में हैं जो चल रही हैं. 'बहन होगी तेरी' पहली फिल्म है जो रिलीज हो रही है. कुछ और पाइपलाइन में हैं.फिल्म डायलॉग लिखने का प्रोसेस क्या होता है? कितना समय लगता है एक प्रोजेक्ट लिखने में? क्या चैलेंज होते हैं? माथा ठनकता है? माथा ठनकता है बिलकुल. मैं आपको बताऊं जो सबसे बड़ी युक्ति है.. चैलेंज ही देखो युक्ति बनती है वो होती है कि उस कैरेक्टर का जो फील है, जो इमोशन है उसको पकड़ो. वो पकड़ लिया न तो बाकी सब चीजें अपने आप निकल आएंगी. अब वो डायलॉग जरूरी नहीं है कि कॉमिक हो. उसमें दर्द भी हो सकता है, ड्रामा भी हो सकता है, एक झिझक हो सकती है, subtext हो सकता है. Subtext बहुत बड़ी चीज है कि आपने जो बोला नहीं, उससे ज्यादा आप बोल गए. Subtext को हम कम मूल्य देते हैं, वो बहुत महत्वपूर्ण है. फिल्म में आप देखोगे कि आपने कुछ बोला और उससे ज्यादा आपकी चुप्पी बोल गई. आपके कहने का लहजा बोल गया. जरूरी चीज़ है कि आप कैरेक्टर को समझो. जब उसे समझोगे तो उसके शब्दों तक पहुंच पाओगे. पहली चीज ये हो गई.
उस डायलॉग को और रोचक बनाने के लिए आप कैसे अपने कल्चरल रेफरेंस या अपनी लाइफ के रेफरेंस को उठा लेते हैं. जैसे पहली बात राइटर की ऑनेस्टी. उसमें फिल्म में हमारा डायलॉग है कि कोई लड़की बता दो जिसको पहली बार में अपनी बहन बोल दोगे. वो ऑनेस्टी है जो हम सब समझते हैं. दूसरी चीज हो गई है - कल्चरल रेफरेंस. जैसे राहुल वाला डायलॉग है. हम सब इस चीज को जानते हैं. हम उस बात को सीधा कहने के बजाय एक रूपक (metaphor) के जरिए कह दें, एक मुहावरे के जरिए, एक तुलना के जरिए.. तो मेटाफर बात को बहुत ज्यादा वजन दे देता है. तो आपने कई बड़े डायलॉग देखे होंगे जिनमें मेटाफर हैं, जो आपको हंसाते भी हैं, रुलाते भी हैं. ये आपकी बात में दम डाल देता है. औऱ जितना अच्छा मेटाफर होगा, उतना ही अच्छा वो डायलॉग बनेगा.
इस फिल्म का लीड कैरेक्टर गट्टू पारंपरिक फिल्मी हीरोज़ की जगह लेता हुआ.
जब गतिरोध (deadlock) वगैरह आते हैं तब क्या करते हैं? मेहनत. चाहे आप फिल्म की बात करें या किताब की, बहुत लोगों ने मुझसे पूछा कि ये राइटर्स ब्लॉक क्या होता है. मैं उनको बोलता हूं ये आलस के लिए एक फैंसी शब्द है. आप जब लेज़ी होंगे तो आपको वो ब्लॉक आएगा. मैंने रात के 4-4 बजे तक लिखाई की है. मैं रोज बैठा हूं 8 बजे और उठा हूं 4 बजे. आपको नहीं भी समझ में आता है न, आप जाकर लिख दो. एक बड़ी जरूरी चीज मैं कहना चाहता हूं, हम लोग mediocrity यानी औसतपन को बहुत कोसते हैं. लेकिन एक अच्छा राइटर जो होगा उसे समझ होगी कि वो मीडियोक्रिटी को कोसेगा नहीं, उसको अपनाने की कोशिश करेगा. क्यों ? क्योंकि अगर आप मीडियोक्रिटी से भी करते जाओगे तो उन औसत चीजों के बीच से महानता (greatness) निकलती जाएगी. आप पांच आम डायलॉग लिखोगे न, तो एक अच्छी लाइन लिख दोगे. पांच नॉर्मल सीन लिखोगे तो एक अच्छा सीन लिख पाओगे, जो बहुत अच्छा होगा. पर आप वो पांच नॉर्मल सीन लिखने से डरोगे तो आप एक अच्छा सीन कभी नहीं लिख पाओगे.
जैसे मैं आपको क्रिकेट का उदाहरण दूं. मेटाफर यूज़ कर रहा हूं कि जैसे एक बॉलर है, वो हर बॉल विकेट लेने वाली नहीं डालता, हर बॉल वो 100 मील प्रतिघंटा गति की नहीं डालता, पर अगर वो पांच बॉल डालेगा जिसमें एक ठीक होगी, एक औसत होगी, शायद किसी में चौका पड़ जाएगा लेकिन कोई एक डालेगा जो विकेट ले लेगी. और जब तक वो एक मीडियोकर बॉल को डालने से डरेगा तब तक वो विकेट टेकिंग बॉल नहीं डाल पाएगा. ये बहुत जरूरी है. आप करते रहिए. आप सीन जोड़ते जाइए, आप कहानी बनाते रहिए, डायलॉग लिखते रहिए. आप किताब लिख रहे हैं तो पन्ने बनाते रहिए. आप जितना ज्यादा काम करेंगे, आपकी उसी मीडियोक्रिटी के बीच में से ग्रेटनेस निकलेगी.
बेहतरीन स्क्रीनप्ले के लिहाज से आपकी टॉप फेवरेट मूवीज़ कौन सी हैं? बॉलीवुड में दो फिल्मों के स्क्रीनप्ले मेरे हिसाब से बहुत अच्छे रहे हैं जिन्होंने मुझ पर असर डाला है - एक है विजय आनंद की 'गाइड' का, दूसरा है राकेश ओमप्रकाश मेहरा की 'रंग दे बसंती' का. हर अच्छी फिल्म में ऐसे मूमेंट होते हैं जिसमें बिना कुछ कहे आप बहुत कुछ कह जाते हो. और इन दोनों फिल्मों ऐसा है. आप 'गाइड' में देव आनंद की जर्नी देखते हो जो पीछे से ट्रैवल होती है गांव तक जाती है. वो एक गाइड से शुरू करता है, एक्ट्रेस को सपोर्ट करता है.. और उसका कैरेक्टर कहां से कहां पहुंच जाता है. इसमें कैरेक्टर ट्रांसफॉर्मेंशन बहुत मजबूत है. अब आप सेम चीज को 'रंग दे बसंती' में डाल दो. जो बात मैंने बोली उसे डीजे (आमिर ख़ान) के कैरेक्टर पर लगाकर देखो. कैरेक्टर ट्रांसफॉर्मेशन.
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ये आदमी पहले कॉलेज में लफंडर था जिसको लगता था कि डीजे की तो कॉलेज से बाहर कोई पहचान नहीं है और उसे ये जज़्बा आता है कि मेरे को देश के लिए कुछ करना है, पर पता नहीं क्या करना है. वो हिम्मत आना, इसे जैसे interweave किया है, गूंथा है स्टोरी में बिना ज्ञान दिए. वो फिल्म बहुत अच्छी हो जाती है. इन दोनों फिल्मों में मैसेज बहुत स्ट्रॉन्ग है, लेकिन वो प्रीच नहीं करती हैं. अंग्रेजी फिल्मों में 'द गॉडफादर' और 'शॉशेंक रिडेंप्शन'. इनमें भी जो किरदारों के curve हैं जो हमको बहुत खूबसूरती से मिला है. 'अमेरिकन हिस्ट्री एक्स' (1998) भी मेरी बहुत पसंदीदा फिल्मों में से है.
फिल्म गाइड के दृश्य में देव आनंद.
समकालीन फिल्मों में कौन सी बहुत अच्छी लगीं? 'क्वीन' बहुत अच्छी लगी. बहुत ही बेहतरीन स्क्रीनप्ले था. उस लड़की की कहानी उसके जज़्बात को बरकरार रखकर कही गई, जो ऑनेस्टी उसमें बरकरार रखकर कही गई, उसको कभी भी हीरोइन नहीं बनाया. उसे किरदार में ही रखा. वो चीज बहुत अच्छी थी. कंटेंपररी की बात करें तो 'विकी डोनर' बहुत बेहतरीन थी. क्योंकि उसमें भी जो किरदार हैं और ऑनेस्टी है उसे जूही जी ने एकदम बरकरार रखा था. और हम थोड़ा पीछे जाएं तो निश्चित तौर पर 'लगे रहो मुन्नाभाई' है, 'लगान' है, या आमिर खान की 'गुलाम' है जिसके किरदार में कर्व था, कायापलट था, जो समझता नहीं है, भाई को गाली देता है वो कैसे खड़ा हो गया मुहल्ले के गुंडे से भिड़ने के लिए और उसके लिए हिम्मत कैसे जुटा पाता है.
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कोई भी कहानी हो, हेमिंगवे जी का मैं बड़ा फैन हूं, उन्होंने एक बड़ी अच्छी चीज़ बोली है कि “No subject is terrible if the story is true, if the prose is clean and honest, and if it affirms courage and grace under pressure.” ये जो साहस और ग्रेस की बात है कि हर सब्जेक्ट और हर स्टोरी अच्छी होती है, चाहे आप एक दिन की कहानी बताएं, आप चाहे 100 साल की कहानी बताएं, आप एक इंसान की बताएं, पूरी दुनिया की बताएं, हर स्टोरी अच्छी होती है अगर उसमें वो साहस और ग्रेस हो. इन सारी कहानियों में ये दो चीजें कॉमन होंगी. आप 'पिंक' देखिए, उसमें करेज है. 'क्वीन' में करेज है. 'लगान', 'लगे रहो मुन्नाभाई'.. इनमें जो भी किरदार है उसे करेज और ग्रेस दिखानी है और वो कहानी को एक अलग लेवल पर ले जाती है.
संचित गुप्ता.
कश्मीर पर आपने किताब लिखी जहां अभी हालात गंभीर हैं. 'बहन होगी तेरी' लिखी जिससे ये इश्यू जुड़ा है कि एक समाज प्रेम के मामले में हमें कितनी आज़ादी देता है. इन मसलों में लोगों के साथ जो ज्यादतियां होती हैं उन्हें देखते हैं तो क्या सोचते हैं? मैं ये सोचता हूं कि ये जो यूनिवर्स है हमारे तरीके से काम करता नहीं है. हम ये कर सकते हैं कि हमारे दिल दिमाग में जो चीज आए उसे लेकर कहीं कोई आवाज बना सके तो फिर उतना योगदान देना चाहिए. एक जो राइटर होता है, खासकर फिक्शन वाला वो एक संवेदनशील टॉपिक को ऐसे रोचक तरीके से प्रस्तुत करे कि बात भी पहुंच जाए और झमेला भी नहीं हो. बात ऐसे पहुंचे कि दोनों को समझ में आए. अब अगर आप 'बहन होगी तेरी' की बात करें तो उसमें प्रेमी को जैसे दिखाया तो ऐसे कि लोगों की जुबान पर आ सके और वो समझें गट्टू के प्रेम को. हमने जब कश्मीर 'अ ट्री विद अ थाउजेंड एपल्स' में दिखाया तो हमने कश्मीरी पंडितों की बात की, हमने कश्मीरी मुसलमानों की बात की, आर्मी ऑफिसर्स की बात की.
हमने सभी की साथ में बात की जो कभी पहले किसी किताब में नहीं की गई. बात सबकी अलग अलग की जाती है लेकिन सफरिंग तीनों की है और तीनों अपनी-अपनी जगह पर कहीं सही हैं, कहीं न कहीं गलत भी हैं. और हम यही चीज जब बताते हैं तो इंसान को दूसरे का नजरिया देखने को मिलता है. बहुत रिव्यूज़ में मुझे बताया गया कि बिना पूर्वाग्रह वाला नरेटिव है जिसमें आपको पता चलता है कि हां यार ये गलत है - एक किरदार है अगर जनरल चौधरी का जो गलत है तो एक किरदार है आर्मी ऑफिसर कमल का जो सही भी है. और आपको पता लगता है कि एक ही तरीके के लोग सही और गलत दोनों होते हैं. और ये रीडर को अपने आप सोचने पर मजबूर करता है बिना प्रीच किए.
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आपकी पहली फिल्म प्रेम के बारे में है, पारंपरिक सोच से इतर है. लेकिन मौजूदा वक्त में एक-दूसरे से प्रेम करने वालों को जिस बर्बरता से सरेराह पीटा जा रहा है, वैलेंटाइंस डे पर शिवसेना जैसे समूह बच्चों की जैसे पिटाई करते हैं या परिवार के लोग ऑनर किलिंग करते हैं - इन्हें देखने के बाद आप क्या सोचते हैं? उसका सही रिस्पॉन्स क्या हो सकता है? मुझे बहुत कोफ्त आती है. सोचता हूं कि किसी तरीके से मैं ये बात लोगों तक ले जाऊं कहानी के जरिए और लोगों को झकझोरूं. मेरी एक शॉर्ट स्टोरी है - 'मोहन मैंगोमैन'. मैं जयपुर, राजस्थान में काम करता था तो मुझे ऐसा पता चला कि एक गांव में वहां औरतों को बेचा जाता है. उस पर मैंने ये कहानी लिखी. इसमें एक आदमी है जिसके एक बच्ची थी जो मर गई किसी एक्सीडेंट में. और उसका एक ग्रामीण भाई है जिसके पास पैसे नहीं है, वहां अकाल पड़ गया है और वहां उसकी एक लड़की को कोई देखने आता है. और ये जो इंसान है वो अपनी जिंदगी भर की कमाई को बेचकर उस लड़की को खरीदता है और उसको अपनी बेटी बना लेता है. जब हम ये चीज देखते हैं कि एक आदमी ने अपनी जिंदगी भर की कमाई लगाकर अपने भाई की बेटी को खरीदा.. तो खरीदा शब्द सुनकर ही हम चौंकते हैं. लेकिन वो फिर उसे अपनी बेटी का दर्जा देता है तो अच्छा लगता है.
https://youtu.be/A_dYjvKdzR0
ऐसी कोई भी चीज विचलित करती है तो मेरी कोशिश ये रहती है कि मैं अगर उस कैरेक्टर की भावना को लोगों तक लेकर जाऊं तो शायद लोग उसको समझेंगे और अगली बार शायद इंसान ऐसा नहीं करेगा. अगर मैं कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों की बात करता हूं तो कहता हूं कि शायद अगर आप उनकी बात को समझोगे तो अगली बार उनके बारे में बात थोड़ी संवेदनशीलता से करेंगे और उनके दर्द को समझेंगे. अगर आपने प्रेम किया है तो आप किसी दूसरे के प्रेम को समझेंगे. अगर किसी कहानी में आप देखेंगे कि कोई किसी से सच्चा प्रेम करता है तो उसकी जद्दोजहद समझेंगे जो नहीं होना चाहिए था. और आप भी अगली बार शायद वो नहीं करेंगे जो पहले किया.
फिक्शन बहुत पावर रखता है विचार को प्रभावित करने की और दया का भाव प्रचारित करने की. मेरे ख़याल से सबसे ताकतवर तरीका है. इसीलिए मैं कहानी कहने में रुचि रखता हूं.
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