महसामपुर. पंजाब में एक जगह है. जालंधर से करीब 40 किलोमीटर दूर. इसी जगह बड़े पॉपुलर पंजाबी सिंगर अमर सिंह चमकीला की हत्या कर दी गई थी. एक स्टेज परफॉर्मेंस से ठीक पहले, गोलियां मारकर. तारीख थी 8 मार्च, 1988. कहा जाता है कि खालिस्तानियों ने उनके 'गंदे' गानों की ये सजा दी. हालांकि ये पुष्ट नहीं हुआ कि उन्हें मारा किसने था. अब 'महसामपुर' नाम की एक फिल्म उन पर बनाई गई है. ट्रेलर आया है और बहुत हटके है. एक गुत्थी जैसा. विजुअल्स और कहानी कन्फ्यूज करती है लेकिन जिज्ञासा बढ़ा देती है.
चमकीला: जो जिम मॉरिसन जिमी हैंड्रिक्स की लीग का सिंगर था, 28 की उम्र में मार दिया गया
आज ही के दिन हुई थी इस पंजाबी सिंगर की हत्या.


कबीर सिंह.
इसे देखकर ये समझ नहीं आता कि डॉक्यूमेंट्री है, डॉक्यूड्रामा है या फीचर फिल्म है. मैं चंडीगढ़ से हूं. चमकीला को कई सालों से सुनता आ रहा था. जिन परिस्थितियों में उन्हें मारा गया, वो रहस्य भरी थीं. महज़ दस साल के सिंगिंग करियर में चमकीला ने ऐसी छाप छोड़ी कि उनकी तुलना कुलदीप मानक, सुरिंदर शिंदा और गुरदास मान जैसे लैजेंड्स से होती है. 'महसामपुर' इसी कल्ट लाइफ को ढूंढने की कोशिश करती है. इस फिल्म को बनाया है डायरेक्टर कबीर सिंह चौधरी ने. वो चंडीगढ़ के रहने वाले हैं और अब मुंबई में हैं. 'देव डी', 'आएशा', 'वेक अप सिड' जैसी हिंदी फिल्मों में असिस्ट कर चुके हैं.
मेरी उत्सुकता ये जानने में भी थी कि ये फिल्म किन मोड़ों से होकर गुज़री होगी? कैसे बनी होगी? कितने वक्त में? और बिना फंड और मदद के कैसे बनी होगी? तो 'द लल्लनटॉप' के लिए कबीर सिंह से ही बात की. 'महसामपुर' के फॉर्मेट, उसकी कहानी, मेकिंग, चुनौतियों और चमकीला के जीवन को लेकर अपने आकर्षण पर उन्होंने उत्तर दिए. जो फिल्म बनाने का सपना देखते हैं, उन्हें इसे जरूर पढ़ना चाहिए.
ट्रेलर देखने के बाद कन्फ्यूजन है कि ये फिल्म है या डॉक्यूमेंट्री?
फिल्म बनाने से पहले ये सवाल हमने भी खुद से कई बार किया. तब लग रहा था कि ये डॉक्यूड्रामा और फिल्म के बीच में कहीं फंसी हुई है. लेकिन अब बताऊं तो ये एक फीचर फिल्म है. कहानी ये है कि एक आदमी है जिसने चमकीला पर कुछ लिखा है, फिल्म बनाना चाहता है. उसके लिए रिसर्च करने और एक प्रोमो तैयार करने के लिए वो मुंबई से महसामपुर जाता है. लौटकर उसे प्रोड्यूसर्स को वो काम दिखाना है. ये फिल्म चमकीला पर हुई रिसर्च के बारे में है.
https://youtu.be/3P9nN5UUqy0फिल्म में एक आदमी है जो अपनी पैंट उतारकर डायलॉग बोल रहा है. वो चमकीला के गानों में ढोलक बजाता था. सोनिया जी हैं, जो चमकीला के साथ गाती थीं. इन्हें ट्रेलर में देखकर तो लग रहा है कि ये डाक्यूमेंट्री है?
दरअसल इस फिल्म में जितने भी कैरेक्टर हैं, सब रियल हैं. यानी जितने लोग इस फिल्म में आपको दिखेंगे, सभी ने अपनी असल ज़िंदगी में भी वही काम किया है. लेकिन हमने उन सब से एक्टिंग करवाई है. सिर्फ बार में जो गाना गा रहा है, वो हमने एक्टर लिया है. बाकि सभी लोग वही कर रहे हैं, जो उन्होंने खुद फेस किया है. आपने सोनिया जी का ज़िक्र किया, वो असल में भी सिंगर थीं और फिल्म में भी. ढोलकी वाला फिल्म में भी वही कर रहा है. एक लड़की जो प्रोमो में एक्ट कर रही है उसके साथ कास्टिंग काउच का सीन शूट किया गया है, उसने रियल लाइफ में भी इसे फेस किया है. जो शख्स मुंबई से प्रोमो शूट करने आया है, वो असल में डायरेक्टर है. फिल्म में ज्यादातर लोग ऐसे हैं जो लोकल हैं, जिनका एक्टिंग से कुछ लेना-देना नहीं है.

ढोलक बजाने वाले उस्ताद
फिर तो अधिकतर ज़िंदगी में पहली बार कैमरा फेस कर रहे होंगे. आपको नहीं लगता प्रोफेशनल एक्टर्स या थिएटर करने वाले इन सब रोल को अच्छी तरह से निभा पाते? सीन के हिसाब से इमोशन बिल्ड-अप करने में आसानी होती?
मैं जब इन लोगों से मिला तो मुझे लगा कि फिल्म में इनका रोल कोई और कर ही नहीं सकता. इनकी खुद की पर्सनैलिटी और कैरेक्टर बहुत स्ट्रॉन्ग था. एक एक्टर को आपको वो माहौल देना पड़ता, जो ये लोग कई बरसों से जीते आ रहे थे. ऐसे में इन लोगों की एक्टिंग जितनी नेचुरल है, मुझे नहीं लगता कि वो कोई और एक्टर कर पाता. आप देखिए, उस ढोलक वाले की शक्ल, बिलकुल ढोलक जैसी ही है (हंसते हुए). कोई और कैसे इंसाफ कर सकता था उस किरदार के साथ?
अब वो दौर है जब पंजाबी सिंगर्स में गुरदास मान और कुलदीप मानक से ज़्यादा लोग हनी सिंह और दिलजीत दोसांझ को जानते हैं. ऐसे में आपको चमकीला पर फिल्म बनाने की कैसे सूझी?
मैं चंडीगढ़ से हूं. यादविंदरा पब्लिक स्कूल में पढ़ता था, तब से मैं चमकीला को सुनता हूं. मुझे बड़ा फैसिनेटिंग कैरेक्टर लगता था. परफॉर्मेंस से ठीक पहले उसे गोली मार दी गई थी. मुझे बड़ा एक्साइटिंग लगा कि कैसे 28 की उम्र में उसे मार दिया गया! तो वो मेरे लिए भी उसी लीग में आ गया जिसमें जिम मॉरिसन, कर्ट कोबेन, जिमी हैंड्रिक्स, जैनिस जोपलिन जैसे सिंगर थे. एक तरह से चमकीला भी मेरे लिए उसी क्लब में फिट हो गए. लगा कि यार, हमारे पंजाब में भी एक ऐसा शख्स है जिसके गाने ज़बरदस्त हैं और वो जवानी में मर गया. इसके साथ-साथ मुझे खालिस्तानी मूवमेंट ने भी काफी लुभाया. मैं उसके बारे में पढ़ना चाहता था, जानना चाहता था. इसलिए मैं अपनी फिल्म के राइटर अक्षय के साथ पंजाब गया. वहां लोगों से मिले. काफी कुछ जाना और हमने स्क्रिप्ट पर काम शुरू कर दिया. अपना बजट देखने लगे. फाइनेंस/बजट के लिए एक शख्स ने सम्पर्क किया और उन्होंने कहा कि हम शॉर्ट फिल्म बनाएं तो वो सपोर्ट कर देंगे. लेकिन हम चमकीला और खालिस्तान की रिसर्च में इतना घुसे हुए थे कि हमने डिसाइड किया कि हम इस पर फिल्म बनाएंगे.

चमकीला और अमरजोत के शव.
स्कूलिंग आपकी चंडीगढ़ से हुई. ग्रेजुएशन के लिए आप मुंबई चले गए और एंथ्रोपोलॉजी की पढ़ाई की. फिल्म-मेकिंग कहां से आ गई?
मुझे लिखने का शौक था. मतलब थोड़ी-बहुत पोएट्री किया करता था. लिखता और फेसबुक पर अपडेट करता. मेरे दोस्त के पास कैमरा था. हमने तभी थोड़ा-थोड़ा शूट करना शुरू कर दिया. बड़ा सैटिस्फाइंग सा लगा, जब अपने थॉट्स को विज़ुअल्स में ढलता देखा. कुछ इसी तरह ध्यान सिनेमेटिक इम्प्रेशन की तरफ बढ़ा. आप जब शॉर्ट फिल्म बनाते हैं तो ज़्यादा खर्चा नहीं होता, रिसोर्सेज़ नहीं लगते. तो हमने बस स्केच बुक की तरह शुरू कर दिया. क्योंकि मैं किसी फिल्म स्कूल तो गया नहीं. तो इस तरह स्केच कर-करके काम रिफाइन होता चला गया.
अपनी पहली शॉर्ट फिल्म के बारे में बताइए.
'अमृता' नाम था फिल्म का. तब मैं मुंबई में ही पढ़ रहा था, तो छुट्टियों में अपने घर चंडीगढ़ गया था. वो फिल्म मैंने अपनी नानी के साथ बनाई. उनकी तबीयत तब काफी खराब थी. जिंदगी के कुछ आखिरी दिन थे. तब वो ऐसी बातें करते थे जैसे एक पैर दुनिया में और एक दुनिया से दूर. अपनी कंडीशन और सिचुएशन के बारे में वो काफी चीज़ें शेयर करते और मैं साथ-साथ रिकॉर्ड करता रहता. तो उस टाइम से लेकर उनकी डेथ तक मैंने शूट किया और इस पर एक फिल्म बना दी.
शॉर्ट फिल्म से फिल्म इंडस्ट्री तक कैसे पहुंचे?
अमृता के बाद मैंने 'डॉली' बनाई. इसको एक फेस्टिवल में भेजा, जहां अवॉर्ड मिला और साथ ही अनुराग कश्यप की 'देव डी' (2009) में इंटर्नशिप भी ऑफर हो गई. बस इस तरह फीचर मूवीज़ की प्रोडक्शन देखने को मिल गई. इस दौरान सोच लिया था कि अब फिल्ममेकिंग ही करनी है. इसके बाद 'आइशा' (2010) और 'वेक अप सिड' (2009) में आर्ट डायरेक्शन किया.
'आइशा' और 'वेक अप सिड' के बाद 'महसामपुर'! फंडिग, इक्विपमेंट, रिसोर्सेज़ और टीम की किल्लत हुई होगी. कैसे मैनेज किया?
दिक्कतें तो बहुत सारी थीं. हमें पता भी नहीं था कि कैसे मैनेज करेंगे. पता था तो सिर्फ इतना कि मुंबई में कुछ दोस्त हैं जिनसे जब पैसे मांग लो, दे देते हैं. तो बस जब शूट करने का प्लान किया तो उनको कॉल किया. उन्होंने मदद की. मैंने चंडीगढ़ से एक प्रोडक्शन टीम हायर की और शूट शुरू कर दिया. दिक्कतें और भी बहुत थीं. जैसे कि सोनिया जी, जिनसे हम सिंगर का रोल करवा रहे थे, उनके परिवार वाले बिलकुल सपोर्टिव नहीं थे. कई बारी लोगों का रिस्पॉन्स बड़ा अनसपोर्टिव था. उनके सामने कैमरा निकालना हथियार निकालने के बराबर होता था.
एक फीचर फिल्म के बारे में जब सोचते हैं तो रेड और ड्रेगन कैमरे ध्यान में आते हैं. बड़ी बड़ी जिमी जिब्स, फ्लड लाइट्स, रिफ्लेक्टर्स और भी बहुत कुछ. 'महसामपुर' के लिए ये सब कैसे मैनेज किया?
हमने ये फिल्म सोनी और कैनन कैमरा से ही शूट की है. और जो लड़का मुंबई से आया है वो तो सिम्पली हैंडी कैम से ही शूट कर रहा है. असल में फिल्म इक्विपमेंट्स से नहीं, आइडिया से बनती है. ये सब सामान तो बस उसको स्क्रीन तक बेहतर तरीके से ले जाने में मदद करते हैं.
आपको कोई फाइनेंसर नहीं मिला. बतौर फिल्ममेकर ये आपके लिए अच्छा रहा या बुरा?
अगर तुरंत कहूं तो बुरा. क्योंकि अगर फाइनेंसर होता तो हमारे काम आसान हो जाते. रोज़ शूटिंग से लौटने के बाद रात को ये न सोचना पड़ता कि कल के लिए पैसों का जुगाड़ कैसे करना है. ट्रैवलिंग आसान हो जाती. और भी बहुत कुछ. सारा ध्यान फिल्म बनाने में ही यूज़ होता, न कि पैसों की किल्लत से जूझने में. लेकिन आज जब फिल्म बनकर पूरी हो चुकी है और हमें कई प्रोड्यूसर्स अप्रोच कर चुके हैं तो लगता है कि अच्छा है पहले फाइनेंसर नहीं मिले. मिल जाते तो उनकी हर चीज़ में दखलअंदाज़ी रहती. चीज़ें उनके हिसाब से मोल्ड करनी पड़ती. अब हमारे पास फाइनेंसर की लिस्ट है. हम उनके साथ जाएंगे जिनके साथ हमारी टर्म एंड कंडीशन सेटल होती है.
एक सवाल जो नए फिल्ममेकर्स को परेशान करता है वो ये कि फिल्म बना तो ली लेकिन उसको बड़े लेवल तक कैसे लेकर जाएं? या फीचर फिल्म में कैसे तब्दील करें?
अब तो बहुत सारे तरीके हैं - यू-ट्यूब, फेसबुक, वीमियो. फिल्म फेस्टिवल्स में अपनी फिल्में भेजें. इनमें हिस्सा लें. ये बेस्ट तरीका है. हमने भी यही किया था, जिसके बाद फिल्म चर्चा में आई.
आपने फिल्म तो बना ली. फाइनेंसर भी मिल जाएंगे. लेकिन सिनेमा हॉल तक कैसे लेकर जाएंगे?
फिलहाल तो मैंने इस फिल्म को थिएटर्स तक ले जाने के बारे में सोचा ही नहीं है. नेटफ्लिक्स अच्छा ऑप्शन है. तो अभी तो वही टार्गेट है.
लेकिन चमकीला पर फिल्म है, गांव वाले पंजाबी इस फिल्म तक कैसे पहुंचेंगे?
उनके लिए मैंने सोचा है कि कुछ अरेंजमेंट करके सिर्फ पंजाब के सिनेमाघरों में रिलीज़ कर दी जाएगी.
बडिंग फिल्म मेकर्स को कोई मैसेज?
रुकिए मत. कीप गोइंग.
कबीर की फिल्मों की झलकियां: