वासेपुर का बबुआ, मुंह में ब्लेड रखकर घूमने वाला, कमरे में नंगा खड़े होकर हाथ में पिस्टल लिए खड़ा रहने वाला धड़क में देवी लाल बन जाता है. अनुराग कश्यप की रॉ फ़िल्म-मेकिंग से करण जौहर के महंगे सेट्स का सफ़र तय करने में 6 साल लगे. लेकिन देर आए दुरुस्त आए.
आदित्य कुमार. बिहार से आया पर्पेंडिकुलर धड़क की बात करने पर कहता है, "मैं पैदा हुआ करण जौहर की फ़िल्में देख-देख कर. कुछ कुछ होता है एंड ऑल. मेरा हमेशा से अरमान था कि कभी धर्मा की फ़िल्मों का हिस्सा बनूं. इसका हिस्सा बनने की हर किसी को इच्छा होती है. जब मुझे करण जौहर की फ़िल्म में शामिल होने का मौका मिला तो लगा जैसे कितना बड़ा सपना पूरा हो गया. एक चाहत थी जो पूरी होती दिख रही थी." इसपर एक सवाल पूछा जाना बनता था. अभी तक बबुआ ने देसी टाइप की फ़िल्में की थीं. वासेपुर से आने के बाद उसने कैरी ऑन कुत्तों की, फिर एक और महाफ्लॉप फ़िल्म का हिस्सा बना जिसे बनाने वाला रवि जाधव मराठी फ़िल्मों का शानदार डायरेक्टर है. रवि जाधव ने साल 2009 में नटरंग के लिए नेशनल अवॉर्ड जीता था. लेकिन फिर इतने महंगे बैनर वाली फ़िल्म में आने पर कैसे अंतर दिखे. क्या-क्या बदला? इसपर आदित्य ने कहा, “बॉस, बहुत अंतर होता है. साला होटल में गद्दा भी ऐसा होता है कि जोर से उसपर गिरो तो बाउंस होकर छत से टकरा जाओ. अनुराग सर की फ़िल्मों से यहां आने पर वही अंतर हुआ जैसे प्लास्टिक वाली कुर्सी पर बैठने के बाद सोफ़ा ऑफ़र किया जाए. ऐसी फ़िल्मों में काम करने पर ऑप्शन ज़्यादा मिलते हैं. सेट पर महंगा खाना मिलता है. लोग पूछते हैं कि सर आप ये खायेंगे या वो. एक गरीब आदमी (मेरे जैसा) ऐसी जगह पर पहुंचता है बड़ा अजीब लगता है.”
हर आदमी की एक शुरुआत होती है. हर कोई शुरू से शुरू करता है. जब वो कहीं पहुंचता है तो उसके बारे में बात होती है. (जब तक उसक नाम तैमूर अली खान न हो. वरना ‘क्यूट पिक्स’ तो पैदा होने से ही आनी शुरू हो जाती हैं.) बात हुई आदित्य की शुरुआत के बारे में. एकदम शुरुआत. जहां कोंपल फूटी थी.
“हम बिहार में पैदा हुए. ऐसी जगह जहां बिजली अभी 7 साल पहले ही आई है. 92 की पैदाइश है हमारी. ट्रांसपोर्टेशन के नाम पर सिर्फ ट्रैक्टर ही होते थे. क्यूंकि आस-पास खेती होती थी. वरना वो भी नहीं होते. लेकिन सड़कें नहीं थीं. बारिश के दिनों में हालत ऐसी हो जाती थी कि 10-15 आदमी ट्रैक्टर खींचने में लगते थे. गांव से जब हम बाहर निकले और दिल्ली आए तो जाकर मालूम पड़ा कि ससुरा बाटा और ऐक्शन के सिवा भी जूते बनाने वाली कम्पनियां हैं. महिंद्रा और मारुति के सिवा भी गाड़ी की कम्पनियां हैं. पापा गाड़ियों की वर्कशॉप में थे. उनके ऊपर बहुत जल्दी जिम्मेदारियां आ गई थीं. 21 साल के थे वो तब मैं पैदा हो गया. आज दोनों साथ घूमते हैं तो लगता है दो भाई चल रहे हैं.”
'कैरी ऑन कुत्तों' के पोस्टर पर आदित्य
ऐसी ‘छोटी’ जगहों पर रहते हुए भतेरी मुश्किलें होती हैं. तब भी जब बातें बड़ी की जाती हैं और तब भी जब फ़ैसले बड़े ले डाले जाएं. ऐसे में आदित्य ने घर पर कैसे बताया होगा कि उसे करना क्या है? “मैं पापा से बहुत डरता था. नेचुरल फोर्सेज़ की वजह से मेरे नम्बर अच्छे आते थे. मैं पढ़ता नहीं था. लेकिन घरवालों को नंबर देख कर लगता था कि मैं IIT वगैरह फोड़ दूंगा. मुझे दसवीं क्लास के नंबर देख कर औकात पता चल गई थी. मुझे ये भी लगने लगा कि अपनी लाइफ के लिए मैं ही ज़िम्मेदार हूं और कोई भी नहीं. आस-पास के माहौल को देखकर ऐसा लगता था कि यहां साल - दो साल और रहा तो मर जाऊंगा. मैंने अपने आस-पास लोगों को लड़ते-मरते देखा. साबुन की बट्टी तक के लिए लड़ाइयां हो जाती थीं. ये वो जगह थी जहां आप जितने बड़े क्रिमिनल को जानते थे, उतने बड़े आदमी बन जाते थे. हमारे यहां साख मापने के पैमाने अलग हैं. ऐसी जगह पर मुझे मालूम था कि मेरी पोल कहीं न कहीं और कभी न कभी खुलेगी ही. ऐसा होने से पहले ही मैंने पापा को बता दिया कि मैं IAS वगैरह बनने के लायक नहीं हूं. और न ही मैं IIT में जा पाउंगा. मैंने उन्हें बताया कि मैं कैसे उन्हें बेवकूफ़ बना रहा था जो कि मुझे नहीं करना चाहिए था. मैंने ये भी बताया कि मुझे ऐक्टर बनना था. फालतू की चीज़ें नहीं करनी हैं. ज़िन्दगी तभी अच्छी रहेगी. मुझे उन सभी छोटी चीज़ों से निकलना था जिसमें हम उलझे हुए थे. मुझे ऐक्टिंग आज़ादी देगी और मैं लोगों की ज़िंदगी पर छाप छोड़ सकता था. मुझे ऐसा करना था.”
फिर पापा ने क्या कहा? “पापा ने थोड़ा सोचा और फिर कहा कि जो करने का मन है वही करो. लेकिन हर चीज़ का एक प्रोसेस होता है. वो नहीं चाहते थे कि मैं ऐसे ही, बिना किसी तैयारी तालाब में कूद जाऊं. वो चाहते थे कि मैं पूरा प्रोसेस फॉलो करूं. और फिर ऐक्टिंग करूं. मैं जब कैमरा फ़ेस करूं तो तैयार होऊं. और यहां से मेरी ऐक्टिंग क्लासेज़ शुरू हो गईं. मैंने एक तरफ़ ओपन स्कूलिंग शुरू कर दी. बिहार से ही. दिल्ली में ऐक्टिंग क्लासेज़ जॉइन कर लीं. इधर-उधर थियेटर करने लगा.”
ये आदित्य की पहली सीढ़ी थी. घर पर ये बताना कि IIT इनके बस की बात नहीं थी और IAS के सपने देखना बेकार ही था. सबसे बड़ी हिम्मत का काम यही था जो कि पूरा हो चुका था. आदित्य ने बिहार से दिल्ली का सफ़र तय कर लिया था और ये जान लिया था कि बाटा के सिवा भी जूता बनाने की कंपनियां होती हैं. लेकिन दिल्ली में अभी भी मुश्किलें मुंह बाए खड़ी थीं. “मैंने सर बैरी जॉन की ऐक्टिंग क्लासेज़ शुरू की थीं. अब वहां नया नाटक शुरू हुआ. मैं एकमात्र ऐसा था जो गांव वगैरह से आता था. वहां ऐसे लोग आते थे जो हर रोज़ नई गाड़ियों से उतर रहे थे. मैं तो ज़िन्दगी में पहली बार जींस पहनने से ही खुश हो रहा था. वो सभी अंग्रेज़ी में बात करते. मुझे वहां जो भी सिखाया जाता, सब अंग्रेज़ी में था. कुछ पल्ले नहीं पड़ था था. बस देखता रहता था. तो मैंने जो भी सीखा, आंखों से सीखा, कानों से कुछ भी नहीं. यहीं मेरी स्किल डेवेलप होनी शुरू हुईं. मैं किसी तरह से सीखे जा रहा था.”
बैरी जॉन के बारे में मालूम कैसे चला? “यार, ये बड़ी मज़ेदार और मेरे लिए चौंकाने वाली बात थी. मेरे पापा ने ही बताया. जब मैंने उन्हें ऐक्टिंग के कीड़े के बारे में बताया था तो उन्होंने मुझसे कहा कि हफ़्ते भर का टाइम दो. 7 दिन बाद वो कहीं से बैरी जॉन के बारे में जानकारी निकाल कर लाए. शायद किसी दोस्त ने बताया होगा या फिर कुछ और तरीका अपनाया होगा.”
दिल्ली में आदित्य ने ऐक्टिंग की क्लासेज़ लीं. दुनियादारी देखी. मौका मिलता तो थियेटर करते. फिज़िक्स केमिस्ट्री से डरने वाला, एचसी वर्मा से खौफ़ खाने वाला आदित्य कुमार बम्बई कैसे पहुंचा? “मुझसे बैरी सर नाराज़ हो गए. (आदित्य ने वजह नहीं बताई.) मुझे उसके बाद लगा कि दिल्ली में रहना अब बेईमानी होगी. मैं वहां और रह ही नहीं सकता था. तुरंत निकल आया. सीधे बॉम्बे आया. किसी ने भी साथ नहीं दिया. ऐसे में जब भी कोई नया आता है तो अक्सर ऐसा होता है. लोग ये सोचते हैं कि कहीं वो मेरे घर में ही न रहने लगे. शायद इसी वजह से किसी ने भी मेरा फ़ोन नहीं उठाया. एक कज़िन है – अविनाश तिवारी. उसने मेरा साथ दिया. आज ही उसका ट्रेलर लॉन्च हुआ है लैला मजनू का. (ये बातचीत फ़ोन पर जिस रात हुई, कुछ ही घंटे पहले साजिद अली की फ़िल्म 'लैला मजनू' का ट्रेलर रिलीज़ हुआ था. अविनाश तिवारी फ़िल्म में लीड रोल में हैं.) वो मेरा दूर का रिश्तेदार है. उसने मुझे बड़े भाई तो छोड़ो एकदम बाप की तरह ट्रीट किया. यहां तक कि वो मुझे पॉकेट मनी देता था. यहां से अलग ही तरह का संस्कार मिला. आज ही सुबह मैं उससे मिला. मैं ख़ुश हूं उसके लिए. जब तक वो था मेरे लिए, मुझे चिंता नहीं थी. लेकिन बॉम्बे में सर्वाइव करना बहुत मुश्किल होता है. काफ़ी वक़्त तक कोई काम नहीं मिला. डिप्रेशन ने घेर लिया.”
फिर आखिर शुरुआत हुई कहां से? कितना स्ट्रगल करना पड़ा? “मैं जब आया था तो थियेटर के बारे में, उसकी बातें ही जानता था. फ़िल्मों में क्या होता है, कैसे होता है, ये सब नहीं मालूम था. तो मैंने सोचा कि पहले ये भी सीख लेना चाहिए. फिर मैं एक सीरियल के हीरो का स्पॉट बॉय बन गया. इससे दो फ़ायदे हुए, मेरे पास कहने को कोई काम था और दूसरा ये कि मैं हर रोज़ सेट पर मौजूद रहता था. उन ऐक्टर का नाम था गौरव दीक्षित. यहीं से मुझे अचानक ही एक मौका मिला जिससे मैं अनुराग कश्यप से मिला.” अनुराग कश्यप. सिर्फ़ एक नाम नहीं बल्कि अपने आप में एक पूरा प्रोसेस. कभी दिल्ली की सड़कों पर बीच से मांग निकालकर चलता था क्यूंकि उसे लगता था कि ऐसे लड़की पट जाएगी. सौ सौ पन्ने भर देने वाला एनर्जी से भरा हुआ आदमी जो आगे चलकर आदित्य के शब्दों में उसका गॉडफ़ादर बन गया.
“गौरव दीक्षित के को-ऐक्टर को मैंने कहते हुए सुना कि अनुराग को एक लड़के की ज़रूरत है. मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं चला जाऊं. तो उन्होंने कहा, ‘अबे चू** स्पॉट बॉय की नहीं बल्कि ऐक्टर की ज़रूरत है.’ तो मैंने उन्हें बताया कि स्पॉट बॉय तो मैं ऐसे ही बना था क्यूंकि मेरे पास कोई काम नहीं था. मैं असल में ऐक्टिंग ही करना चाहता था. मैंने अपनी पूरी कहानी बताई. फिर मैं जाकर गौतम किशनचंदानी से मिला. वो ब्लैक फ्राइडे के कास्टिंग डायरेक्टर थे. वो बॉम्बे में पहला आदमी था (अविनाश तिवारी के बाद) जो मुझसे प्यार से मिला. मेरा ऑडिशन हुआ और मैं चला आया. वापस आ रहा था तो रास्ते में ही लग गया था कि मेरा कुछ नहीं होगा. मैं यही सोच कर बैठ गया और कुछ दिनों के बाद वापस घर (बिहार) आ गया. वहां पहुंचा था और पापा को बस बताने ही वाला था कि मैं लात खाकर वापस आ गया हूं कि फ़ोन आया. मुझे बताया गया ‘परसों बाद शूट है. आ जाओ.’ मैं वापस बम्बई में खड़ा था. यहां मैं पहली बार अनुराग कश्यप से मिला.”
जिसने भी आदित्य की टाइमलाइन को थोड़ा भी गौर से देखा हो, समझ जाएगा कि आदित्य और अनुराग की मुलाक़ात ग्रहों और नक्षत्रों की एकदम सटीक पोज़ीशन के दौरान हुई होगी. अनुराग से मिलने और आगे गाढ़े होते गए संबंधों के दम पर ही आदित्य की आगे की तालीम संभव हुई. “मैंने देखा कि ये आदमी तो डायरेक्टर लग ही नहीं रहा है. टीशर्ट पहनी हुई है. लम्बे-गंदे-बेतरतीब से बाल भी नहीं हैं. जींस पहनता है. कपड़े भी साफ़ सुथरे. मेरे हिसाब से डायरेक्टर्स ऐसे नहीं हो सकते थे. तभी वो आदमी मेरे पास आया और हाथ बढ़ाकर बोला, ‘हाय! मैं अनुराग.’ मैं तो वहीं पिघल गया था. फ़िल्म बन रही थी मुंबई कटिंग. रिलीज़ हुई ही नहीं. लेकिन मेरी अनुराग सर से दोस्ती हो गई. मेरी आगे की पढ़ाई यहां से शुरू हुई. अनुराग सर मेरे टीचर थे. मेरी फ़िल्मों की समझ उन्हीं की छत्रछाया में डेवलप होनी शुरू हुई. वो बताते थे और मैं फ़िल्में देखता था. तब मेरी समझ में आया कि साला ऐक्टर तो अल पचीनो हैं, डि नीरो हैं. अब यहां से मेरा नज़रिया बदला. मैं दुनिया को नए तरीके से देखने लगा. अलग तरीके से चीज़ों को जान-समझ रहा था. ऑल क्रेडिट टु अनुराग सर.” अंग्रेज़ी ऐक्टर्स से मुलाक़ात के बारे में बताने के बाद पर्पेंडिकुलर ने बात को भी अंग्रेज़ी से ही ख़तम किया.