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इस केस में हार के बाद इंदिरा ने इमरजेंसी लगा दी!

जब पहली बार देश के प्रधानमंत्री को अदालत में पेश होना पड़ा!

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12 जून 1975 के दिन इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक फैसला सुनाया गया जिसमें रायबरेली में हुए चुनाव में इंदिरा गांधी को धांधली की दोषी पाते हुए उनका चुनाव रद्द कर दिया गया (तस्वीर- wikimedia commons)

देश का प्रधानमंत्री अदालत में पेश होता है. और जज साहब आदेश देते हैं, PM की सिक्योरिटी का आना मना है. लिहाज़ा कोर्ट परिसर में मौजूद सारे वकील एक सुरक्षा घेरा बनाकर PM को कोर्ट रूम तक लाते हैं. बाहर जिस शख़्स की एक नज़र पर लाखों लोग खड़े हो जाते, अदालत के अंदर उनमें से एक भी अपनी सीट से नहीं उठा. कारण - जज साहब का एक और आदेश- ये मेरा कोर्ट है और यहां सिर्फ़ जज के लिए सीट छोड़ी जाती है. एक आख़िरी आदेश और था. पीएम को कुर्सी मिलेगी, जो वकील की कुर्सियों से कुछ ऊंची होगी लेकिन इतनी नहीं कि जज से ऊंची हो जाए. (Indira Gandhi v. Raj Narain case 1975)

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आज आपको सुनाएंगे कहानी उस केस की, जिसमें प्रधानमंत्री को अपने ही ख़िलाफ़ केस में गवाही के लिए आना पड़ा. हम बात कर रहे हैं 12 जून 1975 को इलाहबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए उस फ़ैसले की जिसने इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) की संसद सदस्यता रद्द कर दी थी. मने सिचुएशन वो हो गई कि इंदिरा PM थी, लेकिन संसद में वोट नहीं डाल सकती थीं. ये सब क्यों हुआ. क्या था ये केस. और कैसे हुआ फ़ैसला. ये सब जानेंगे लेकिन शुरुआत 12 जून से ही करते हैं. (Indira Gandhi emergency 1975)

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वो इंदिरा के लिए बुरी ख़बरों का दिन था   

गुरुवार का वो दिन इंदिरा के लिए मनहूसियत लेकर आया था. सुबह उठते ही इंदिरा को खबर मिली कि दुर्गा प्रसाद धर हार्ट अटैक से चल बसे हैं. धर गांधी नेहरू परिवार के करीबी थे. और नाज़ुक मामलों पर इंदिरा उनकी सलाह को बड़ा मान देती थीं. इंदिरा इस खबर से जूझ ही रही थीं कि 10 बजे एक और खबर आ गई. इलाहबाद हाई कोर्ट ने चार साल से चल रहे एक केस में फ़ैसला सुनाया था. जिसने मायने ये निकलते थे कि इंदिरा की सांसदी रद्द हो गई. इसके कुछ मिनटों बाद एक और खबर आई. इस बार गुजरात से. जहां विधानसभा चुनावों के परिणाम आ चुके थे. पता चला कि कांग्रेस की सीटों की गिनती 140 सीटों से 75 पे पहुंच गई है. इंदिरा के लिए बड़ी दिक़्क़त ये थी कि उनके धुर विरोधी बन चुके मोरारजी की पार्टी ने 86 सीट जीतीं, जिसका मतलब अब वो गठबंधन में सरकार बना सकते थे. (Prime minister Indira Gandhi's election invalidated)

Raj Narain
जायंट किलर के नाम से मशहूर राज नारायण के राजनीतिक गुरु थे समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया (तस्वीर: Wikimedia Commons)

ये सभी खबरें चिंताजनक थीं लेकिन तत्काल रूप से इंदिरा को सबसे ज़्यादा चिंता इलाहबाद कोर्ट के फ़ैसले की थी. सांसदी रद्द होने का मतलब था, उनके विरोधी उन्हें PM पद से हटाने के लिए पीछे पड़ जाएंगे. इस फ़ैसले की खबर इंदिरा को उनके निजी सचिव PN धर और सूचना सलाहकार शारदा प्रसाद ने दी थी. ओपन मैगज़ीन में लिखे एक आर्टिकल में शारदा प्रसाद के बेटे रवि प्रसाद लिखते हैं,

“खबर सुनकर भी इंदिरा के चेहरे के भाव में कोई अंतर नहीं आया. उन्होंने सिद्धार्थ शंकर रे, (इंदिरा की किचन कैबिनेट के मेम्बर और बंगाल के मुख्यमंत्री) से पूछा, तुम्हें ये बात पहले से पता थी. हैं ना!”

रे ने कोई जवाब नहीं दिया. रवि प्रसाद के अनुसार रे और क़ानून मंत्री HR गोखले कई महीने पहले ही इंदिरा के ख़िलाफ़ केस लड़ रहे शांति भूषण(Shanti Bhushan) को हटाने का प्रस्ताव दे चुके थे. जिसका मतलब उन्हें इस फ़ैसले का पहले से अंदाज़ा था. गोखले और सिद्धार्थ शंकर रे ने प्रस्ताव दिया था कि शांतिभूषण को सुप्रीम कोर्ट के जज का ऑफ़र देकर केस से दूर कर दिया जाए. लेकिन ऐन मौक़े पर इंदिरा के सचिव PN हक़सर ने इस प्रस्ताव पर वीटो लगा दिया.

इंदिरा के खिलाफ़ केस क्या था? 

इधर 1975 के मार्च महीने में जब ये कोशिशें चल रही थीं. शांति भूषण केस की तैयारी में लगे थे. केस जीतने के लिए उन्हें कोर्ट में गवाह को तोड़ना था और ये गवाह और कोई नहीं स्वयं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं. शांति भूषण की कहानी में एंट्री कैसे हुई उसके लिए चलते हैं साल 1971 में. उस साल हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने राय बरेली से पर्चा भरा और एक लाख से भी अधिक वोटों से विजयी हुई. इंदिरा के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने वाले शख़्स का नाम था- राज नारायण, राम मनोहर लोहिया के चेले. चुनाव का फ़ैसला आते ही राज नारायण चुनाव अदालत पहुंच गए. उन्होंने इंदिरा पर चुनाव में धांधली का आरोप लगाया. मामला हाई कोर्ट पहुंचा और राज नारायण की तरफ से पैरवी करने पहुंचे शांति भूषण.

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1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने 1 लाख से भी ज़्यादा वोटों से राज नारायण को हराया था (तस्वीर: indiragandhi.in)

दूसरी तरफ इंदिरा गांधी की तरफ से SC खरे नाम के एक वरिष्ठ वकील ने मोर्चा संभाला. इस बीच इंदिरा प्रधानमंत्री बन गई थी. सत्ता चलती रही और साथ साथ केस भी. चार साल तक अधिकतर लोगों को याद भी ना था कि ऐसा कोई केस चल रहा है. फिर जनवरी 1975 में केस में एक बड़ा मोड़ आया. जब PN हक्सर की गवाही हुई. हक्सर का इस केस में बड़ा इम्पोर्टेंट रोल था. क्या रोल? ये समझने के लिए आपको दोनों तरफ़ के तर्क देखने होंगे.

विपक्ष का तर्क था कि 7 जनवरी और 19 जनवरी, 1971 के रोज़ यशपाल कपूर ने राय बरेली में इंदिरा का प्रचार किया. और इस काम में स्थानीय प्रशासन का सहयोग लिया. विपक्ष का कहना था यशपाल कपूर एक सरकारी अफ़सर थे.  ये बात आदर्श आचार संहिता के ख़िलाफ़ थी. और इसलिए इंदिरा का चुनाव निरस्त होना चाहिए. दूसरी तरफ़ इंदिरा के वकील ने तर्क दिया कि 13 जनवरी के रोज़ यशपाल कपूर इंदिरा के सचिव PN हक्सर से मिले और उन्हें अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया था. इसलिए इस तारीख़ के बाद उन्हें सरकारी कर्मचारी नहीं माना जा सकता.

इस बात के जवाब में विपक्ष ने दलील दी कि लिखित रूप से 25 जनवरी को यशपाल का इस्तीफ़ा स्वीकार हुआ. इसलिए तब तक वो सरकारी कर्मचारी ही माने जाएंगे. इन सब तर्कों के बीच हक्सर और यशपाल कपूर दोनों की गवाही हुई और फिर अंततः इंदिरा को भी अदालत में आना पड़ा. इस मामले में आम तौर पर कहा जाता है कि इंदिरा को अदालत में पेश होने का आदेश हुआ था. शांति भूषण के बेटे और वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने इस केस पर एक किताब लिखी है, "द केस दैट शुक इंडिया". किताब में वो बताते हैं कि इंदिरा अपनी मर्ज़ी से कोर्ट आई थी. किताब के अनुसार यशपाल कपूर की गवाही से इंदिरा का केस कमजोर हो रहा था. इसलिए इंदिरा के वकीलों की टीम ने खुद इंदिरा की गवाही की पेशकश की.

कोर्ट में कोई खड़ा न हुआ 

यहां से क़िस्सा पहुंचता है 18 मार्च 1975 की तारीख़ पर. इंदिरा की गवाही का पहला दिन. प्रशांत भूषण अपनी किताब में लिखते हैं,

“इंदिरा जब अदालत में दाखिल हुईं, कोई खड़ा नहीं हुआ, सिवाय उनके वकील के. क्योंकि केस की सुनवाई कर रहे जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इस मामले में सख़्त आदेश दे रखे थे कि प्रधानमंत्री के आने से कार्यवाही पर कोई असर ना पड़े”

प्रशांत भूषण आगे लिखते हैं,

“इंदिरा एकदम शांत चित्त दिखाई दे रही थी. उनके चेहरे पर ऐसे कोई भाव नहीं थे जिससे मालूम पड़ता हो कि वो इस केस से चिंतित हैं”

अब जानते हैं केस के दौरान क्या हुआ. पहले दिन इंदिरा ने हर सवाल का जमकर सामना किया. सबको लगा शांति भूषण इंदिरा से नरमी बरत रहे हैं. दिल्ली से विपक्षी नेता उस दिन इलाहाबाद पहुंचे थे. इंदिरा की किरकिरी होते हुए देखने के लिए. लेकिन पहले दिन सबके हाथ निराशा लगी. स्वतंत्र पार्टी के नेता पीलू मोदी तो इतने नाराज़ हो गए कि भूषण से बोले,

“तुम उसे परेशान क्यों नहीं करते? उसे थोड़ा भड़काओ”

शांति भूषण ने जवाब दिया,

"ये बस चारा था. कल वो खुद जाल में फंस जाएंगी".

शांति भूषण के सवाल पर हड़बड़ा गई इंदिरा 

अगले दिन अदालत की कार्रवाई फिर शुरू हुई. शांति भूषण ने इंदिरा से उनकी उम्मीदवारी को लेकर सवाल पूछा. जिसका जवाब देने में इंदिरा हड़बड़ा गई. हुआ यूं कि अब तक इंदिरा के पक्ष की तरफ़ से दलील दी जा रही थी कि उनकी उम्मीदवारी 1 फ़रवरी 1971 को तय हुई थी. शांति भूषण ने इसके ख़िलाफ़ ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी का लिखित दस्तावेज दिखा दिया जिसके अनुसार दावेदारी का फ़ैसला 29 जनवरी को हुआ था.

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शांति भूषण 1977 से 1979 के बीच भारत के कानून मंत्री रहे थे (तस्वीर: twitter@indianhistorypics)

इस विरोधाभास पर जब पूछा गया, इंदिरा ने जवाब दिया कि क़ानूनी भाषा के चलते उन्हें दस्तावेज में लिखी बात समझ नहीं आई. अगले रोज़ अख़बार में छपा, "प्रधानमंत्री क़ानूनी भाषा नहीं समझ सकती". इंदिरा की गवाही एक दिन और चली उसके बाद मामला आगे बढ़ गया. अगले दो महीने तक जिरह चलती रही लेकिन इस बीच इंदिरा के क़रीबियों को आशंका होने लगी कि फ़ैसला उनके विरुद्ध भी जा सकता है. लिहाज़ा केस की सुनवाई कर रहे जस्टिस सिन्हा पर दबाव बढ़ने लगा.

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय घोष 'द लीफलेट' में लिखे एक आर्टिकल में लिखते हैं, 
सुनवाई पूरी होते ही CID के कुछ अफ़सर इस केस की सुनवाई कर रहे जस्टिस सिन्हा के सचिव मन्ना लाल के घर पहुंच गए. और केस के बारे में पूछने लगे. जब लगातार ऐसा हुआ, मन्ना लाल ने अपनी पत्नी को मायके भेज दिया और खुद जस्टिस सिन्हा के घर जाकर रहने लगे. जस्टिस सिन्हा के घर अब तक नेताओं के चक्कर लगना शुरू हो गया थे. तंग आकर सिन्हा घर को ताला लगाकर कमरे में बंद हो ग़ए. जो कोई आता उसे जवाब मिलता, जज साहिब इंदौर गए हैं. हालांकि मामला यहीं ख़त्म न हुआ.

प्रेशर में नहीं झुके जस्टिस सिन्हा 

शांति भूषण के अनुसार जस्टिस सिन्हा पर उनकी अपनी जज बिरादरी की तरफ़ से भी प्रेशर आया. अपनी किताब “Courting Destiny: A memoir” में शांति भूषण एक क़िस्से का ज़िक्र करते हैं. किताब के अनुसार फ़ैसले से कुछ रोज़ पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस DS माथुर ने जस्टिस सिन्हा से मुलाक़ात की. माथुर ने इशारों में सिन्हा को बताया कि उनका नाम हिमांचल प्रदेश के चीफ़ जस्टिस पद के लिए सोचा जा रहा है. और इंदिरा गांधी के केस का फ़ैसला आते ही ये काम भी हो जाएगा. किताब के अनुसार सिन्हा ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया. जस्टिस सिन्हा पर प्रेशर डालने एक और बार कोशिश हुई.

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जगमोहन लाल सिन्हा बाएं) का निधन 20 मार्च, 2008 को हुआ था (तस्वीर: Wikimedia Commons)

7 जून तक जस्टिस सिन्हा अपना फ़ैसला सुरक्षित कर चुके थे. लेकिन उसी रोज़ उन्हें फ़ोन पर एक संदेश मिला. जिसके अनुसार होम मिनिस्ट्री चाहती थी कि जजमेंट जुलाई तक टाल दिया जाए. सिन्हा इस बात के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे. बल्कि उन्होंने ग़ुस्से में कोर्ट के रजिस्ट्रार को आदेश दिया कि वो दोनों पक्षों को बता दे, फ़ैसला कुछ ही दिनों में होगा. फ़ैसले की तारीख़ - 12 जून, 1975. इस रोज़ क्या हुआ हम शुरुआत में आपको बता चुके हैं.

सुबह 10 बजे जस्टिस सिन्हा ने 258 पेज का फ़ैसला सुनाया. जिसके तहत इंदिरा की सांसदी रद्द हो गई थी. हालांकि चूंकि सिन्हा जानते थे इस मामले में इंदिरा सुप्रीम कोर्ट जाएंगी, इसलिए उन्होंने फ़ैसले के क्रियानवयन पर कुछ दिन का स्टे लगा दिया. इस फ़ैसले का असर क्या हुआ? हर तरफ़ से अलग अलग प्रतिक्रियाएं आईं. विपक्ष राष्ट्रपति के पास प्रधानमंत्री को हटाने की मांग लेकर पहुंच गया. वहीं टाइम्स जैसे विदेशी अख़बारों ने लिखा

"ये ऐसा है मानों ट्रैफ़िक नियम तोड़ने पर प्रधानमंत्री को बर्खास्त कर दिया जाए".

आगे जैसा कि हम जानते हैं, फ़ैसले के ठीक 13 दिन बाद देश में इमरजेंसी लागू कर दी गई. इमरजेंसी से हासिल ताक़त के बल पर हाई कोर्ट के फ़ैसलों को पलट दिया गया. इमरजेंसी के लागू किए जाने के पीछे और भी कारण थे, मसलन जय प्रकाश नारायण का आंदोलन, और जॉर्ज फ़र्नांडिस के नेतृत्व में रेलवे की हड़ताल जैसे मुद्दों ने सरकार पर प्रेशर बनाया. लेकिन जानकारों के अनुसार सबसे त्वरित कारण इंदिरा की सांसदी जाने का फ़ैसला था, जिसने इंदिरा की सत्ता को ख़तरे में डाल दिया था.

इस केस को लड़ने वाले वकील शांति भूषण बाद में जनता पार्टी की सरकार में क़ानून मंत्री बने. राज नारायण ने इमरजेंसी के बाद हुए चुनावों में एक बार फिर इंदिरा को चुनौती दी. और पहली बार हुआ कि एक सिटिंग प्रधानमंत्री अपना ही चुनाव हार गया. जहां तक जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा की बात है, साल 1982 में वो रिटायर हो गए थे.
 

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