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इंडियन नेवी के रिटायर्ड अफ़सर अभिलाष टॉमी की कहानी, जिनके आगे जानलेवा समंदर छोटे पड़ गए

2018 के बरस में अभिलाष टॉमी के साथ क्या हुआ था?

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पहली रेस में किसी तरह जान बची, फिर से दुनिया का चक्कर लगाने क्यों निकले अभिलाष टॉमी?

People don’t die due to injuries or pain or other things. They die because they lose the will to survive.
यानी, मुश्किल परिस्थितियों में लोग ज़ख्म या दर्द से नहीं मरते. उनका अंत तब आता है, जब वे जीने की इच्छा छोड़ देते हैं.

भारतीय नौसेना के रिटायर्ड कमांडर अभिलाष टॉमी को एकेडमी में मिली ये सीख याद थी. उसी की बदौलत वो निर्जन समंदर में टूटी कमर और लगातार हो रही उलटियों के बावजूद ज़िंदा रहे. उनकी इच्छाशक्ति काम आई. उन्हें बचा लिया गया. फिर ऑपरेशन हुआ. उनके शरीर में टाइटेनियम की हड्डियां लगीं. आम स्थिति में ऐसे हादसे से बच कर निकला इंसान क्या करता होगा? ज़्यादा से ज़्यादा घर पर रहने की कोशिश करता होगा. रिकवरी में टाइम लेता होगा. कम से कम समंदर से तो बचना ही चाहेगा. मगर ये सब अभिलाष टॉमी पर लागू नहीं होता. हादसे के दो महीने बाद वो ऑफ़िस में थे. उन्होंने समंदर में अपने अगले मिशन की तैयारी शुरू कर दी थी. बोट कैसा होगा? क्या कपड़े ले जाऊंगा? इस बार क्या सावधानी बरतनी होगी? आदि आदि.

डेजा वू. चार बरस बाद अभिलाष फिर से उसी समंदर की थाह नाप रहे हैं. जो एक समय उनकी जान की दुश्मन बन गई थी. इस दफ़ा वो फ़िनिश लाइन के बेहद करीब पहुंच चुके हैं. ये फ़िनिश लाइन है, दुनिया की सबसे ख़तरनाक और सबसे रोमांचक बोट रेस की. नाम, गोल्डन ग्लोब रेस. इसमें आपको समंदर के रास्ते पूरी दुनिया का चक्कर लगाना होता है. अकेले. बिना कहीं रुके. बिना किसी मॉडर्न टेक्नोलॉजी के. टेक्नोलॉजी वही मिलती है, जो पहले रेस यानी 1968 के समय उपलब्ध थी. इस सफ़र में सामना होता है, अकेलेपन, समुद्री तूफानों, ख़तरनाक जानवरों, अनिश्चित मौसम और नाउम्मीदी से. ये रेस इंसानी जीजीविषा और सब्र का इम्तिहान लेती है. अभिलाष टॉमी इस रेस के अंतिम दौर में पहुंचने वाले पहले भारतीय बन गए हैं. 230 दिनों के बाद वो टॉप थ्री दावेदारों में हैं. उम्मीद जताई जा रही है कि 28 या 29 अप्रैल तक रेस पूरी हो जाएगी. और, तब गोल्डन ग्लोब रेस को एक नया विजेता मिल जाएगा.

तो, जान लेते हैं,
- गोल्डन ग्लोब रेस की पूरी कहानी क्या है?
- इसे दुनिया की सबसे ख़तरनाक रेस क्यों माना जाता है?
- और, 2018 के बरस में अभिलाष टॉमी के साथ क्या हुआ था?


समंदर की दुनिया हमेशा से रोमांचक रही है. पॉपुलर कल्चर की बात करें तो, हम सिंदबाद की कथाओं से लेकर पाइरेट्स ऑफ़ द केरेबियन और फिर अत्याधुनिक जहाजों के दौर में पहुंच गए. लेकिन कभी कोई समंदर को जीतने का दावा नहीं कर सका. समंदर का अपना मिजाज़ होता है. उसके साथ सिर्फ़ सहज होकर चला जा सकता है. उसे चुनौती देना इंसान के वश की बात नहीं है. जिस समय विज्ञान हवाई जहाज तक नहीं पहुंचा था, उस समय एक महाद्वीप से दूसरे तक जाने के लिए समंदर का ही सहारा लेना होता था. 15वीं सदी को इतिहास में ‘ऐज ऑफ़ डिस्कवरी’ का नाम मिला. वजह, उस समय यूरोप के ताक़तवर देश बड़े-बड़े जहाज बना रहे थे. जिन पर सवार होकर यूरोप के देशों ने नई ज़मीनें तलाशीं. इसी रास्ते से सभ्यताएं फैलीं, संस्कृतियां विकसित हुईं, व्यापार हुए और इसी के ज़रिए औपनिवेशिक देशों ने कमज़ोर देशों को लूटकर अपना खज़ाना भरा.

ये तो हुई देशों की बात. 19वीं सदी में कुछ जांबाज जहाजी अकेले दुनिया का चक्कर लगाने निकले. पहला उदाहरण जोशुआ स्लोखम का मिलता है. उन्होंने 1898 में अकेले समंदर के रास्ते दुनिया का चक्कर पूरा किया था. हालांकि, वो इस सफ़र के दौरान कई जगहों पर रुके भी थे. अब अगली चुनौती थी, बिना रुके चक्कर पूरा करने की. इसकी कोशिश कइयों ने की, मगर किसी को सफ़लता नहीं मिली. ब्रिटेन के फ़्रांसिस चेस्टर रिकॉर्ड बनाने के करीब पहुंचते-पहुंचते रह गए. मई 1967 में उन्होंने चक्कर पूरा तो कर लिया, लेकिन वो रास्ते में एक जगह रुके भी थे. ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में. चक्कर पूरा करने के टाइम चेस्टर 65 बरस के थे. भले ही वो नॉन-स्टॉप वाला रिकॉर्ड नहीं बना पाए, मगर उनका भरपूर सम्मान हुआ. ब्रिटेन में उनका नायकों जैसा स्वागत हुआ. तत्कालीन महारानी क़्वीन एलिज़ाबेथ द्वितीय ने उन्हें नाइटहुड की उपाधि दी. चेस्टर रातोंरात सेलिब्रिटी बन चुके थे.

1967 में ब्रिटेन के तट पर पहुंचे चेस्टर का ज़बरदस्त स्वागत हुआ था.

ये सब देखकर बाकी लोगों में भी उत्साह जगा. उन्होंने चेस्टर का रिकॉर्ड तोड़ने का मन बना लिया था. रिकॉर्ड तभी टूट सकता था, जब कोई व्यक्ति अकेले बिना कहीं पर रुके चक्कर पूरा करे. दर्ज इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण उपलब्ध नहीं था. इसलिए इस बहस पर सबका ध्यान गया. ब्रिटिश अख़बार संडे टाइम्स को लगा कि इस मौके को भुनाया जा सकता है. चेस्टर के कैंपेन को उन्होंने ही स्पॉन्सर किया था. अब वे नॉन-स्टॉप दुनिया का चक्कर लगाने वाले की तलाश में थे. लेकिन अख़बार के सामने दुविधा थी. वे किसी ऐसे व्यक्ति पर पैसा नहीं लगाना चाहते थे, जो अंत में हार जाए. उसी समय पर उन्हें संभावित विजेता का भी पता नहीं था. इसी दुविधा के बीच संडे टाइम्स ने कंपटीशन कराने का फ़ैसला किया. फ़्रांसिस चेस्टर ने अपना रिकॉर्ड तोड़ने की खुली चुनौती दी. अंत में 09 लोग इस चैलेंज के लिए तैयार हो गए.

!968 Golden Globe Race 1968
इस रेस के नियम क्या थे?

- एक बार नाव शुरू होने के बाद कहीं रुकना नहीं था. बीच में कहीं पर कोई मदद नहीं मिलने वाली थी.
- कंपटीशन में बने रहने के लिए तीन ग्रेट केप्स से होकर गुज़रना था. साउथ अमेरिका महाद्वीप के सुदूर दक्षिण पर केप हॉर्न, अफ़्रीकी महाद्वीप के दक्षिणी किनारे पर केप ऑफ़ गुड होप और ऑस्ट्रेलिया के किनारे पर केप ऑफ़ लुविन.
- रेस शुरू करने के लिए 1968 के बरस में 01 जून से 31 अक्टूबर तक की तारीख़ तय की गई थी.  कोई प्रतिभागी इस बीच में कभी भी रेस शुरू कर सकता था. एक बार समंदर में उतरने के बाद वे वापस नहीं लौट सकते थे.
- फ़िनिश लाइन थी, ब्रिटेन का कोई भी बंदरगाह.
- संडे टाइम्स ने दो प्राइज़ रखे. सबसे पहले फ़िनिश लाइन तक पहुंचने वाले के लिए स्पेशल प्राइज़ रखा गया था. सबसे कम समय में रेस पूरी करने वाले के लिए 05 हज़ार ब्रिटिश पाउंड का इनाम था. आज के समय में लगभग 60 हज़ार पाउंड. भारतीय रुपये में ये लगभग 60 लाख रुपये के बराबर था. पैसे से ज़्यादा बड़ा इनाम था, इतिहास में दर्ज हो जाने का.

फ़्रांसिस चेस्टर ने सभी प्रतिभागियों का इंटरव्यू लिया था. इसमें उनको सभी परेशानियों के बारे में बताया गया था. अंत में 09 लोग बचे. इस तरह 01 जून 1968 को पहला प्रतिभागी समंदर में अपनी नाव लेकर उतर गया. रेस शुरू हो चुकी थी. लेकिन जल्दी ही उन्हें समंदर की बेतरतीबी का अहसास होने वाला था. नवंबर 1968 तक 09 में से 07 प्रतिभागी वापस लौट चुके थे. उनमें से एक नाइजेल टेटली की नाव डूब गई थी. उन्हें रेस्क्यू करना पड़ा था. अंत में बचे दोनों प्रतिभागी ब्रिटेन के ही थे. रॉबिन नॉक्स-जॉन्सटन और डोनाल्ड क्रोहर्स्ट.
इनमें सबसे दिलचस्प क़िस्सा डोनाल्ड का था. वो 1932 में भारत के गाज़ियाबाद में पैदा हुए थे. भारत की आज़ादी के बाद उनका परिवार इंग्लैंड चला गया. वहां डोनाल्ड कुछ समय आर्मी में रहे. फिर अपना बिजनेस शुरू किया. मगर उसमें उन्हें काफ़ी नुकसान हुआ. संडे टाइम्स ग्लोबल रेस की ख़बर सुनकर उन्हें उम्मीद जगी. उन्हें लगा कि इनाम के पैसे से नुकसान कम किया जा सकता है. हालांकि, उन्हें समंदर का पर्याप्त अनुभव नहीं था. उनके पास अच्छी नाव भी नहीं थी और ना ही इक़्विपमेंट्स ही थी. फिर भी वो रेस में उतरे. पहले दिन से ही उन्हें अहसास हो चुका था कि वो कभी रेस पूरी नहीं कर पाएंगे. लेकिन घर पर अपमान और क़र्ज़ उनका इंतज़ार कर रहा था. उन्होंने तीसरा रास्ता चुना. डोनाल्ड क्रोहर्स्ट ने दो डायरी रखीं थी. एक में वो असली लोकेशन दर्ज करते थे. दूसरे में वो फ़र्ज़ी वाली लोकेशन लिखा करते थे. और, रेडियो पर इसी फ़ेक लोकेशन की जानकारी बताया करते थे. ये जानकारी ब्रिटिश अख़बारों में छपती और डोनाल्ड की ख़ूब वाहवाही होती. उनका इरादा था कि जब बाकियों के लौटने का टाइम आएगा, तब वो भी वापसी का रास्ता पकड़ लेंगे. मगर ऐसा कभी नहीं हो सका. उन्हें मदद के लिए कुछ द्वीपों पर उतरना पड़ा था. इस तरह वो टूर्नामेंट से बाहर हो चुके थे. फिर भी उन्होंने अपनी ग़लत लोकेशन बताना जारी रखा. लेकिन अंत में अकेलेपन और नाउम्मीदी ने उनका मन तोड़ दिया. अपनी डायरी के अंतिम पन्ने पर उन्होंने लिखा, ‘मैं इस खेल को और लंबा नहीं खींचना चाहता. सब ख़त्म हो चुका है. ये ईश्वर की मर्ज़ी है.’ कहा जाता है कि उन्होंने समंदर में कूदकर आत्महत्या कर ली. उनकी लाश कभी नहीं मिली. नाव, डायरी और लॉगबुक्स उनकी अंतिम निशानी के तौर पर बचे रह गए.

उधर दूसरी तरफ, रॉबिन नॉक्स-जॉन्सटन अप्रैल 1969 में धरती का चक्कर पूरा कर चुके थे. अकेले. बिना रुके. और, सभी शर्तों को पूरा करते हुए. उन्होंने इसके लिए 312 दिनों का समय लिया था. जब उनकी नाव ब्रिटेन के किनारे पर पहुंची, तब फ़्रांसिस चेस्टर उन्हें रिसीव करने पहुंचे थे. ब्रिटिश अख़बार गार्डियन ने अपनी रिपोर्ट में चेस्टर के शब्द लिखे. चेस्टर बोल रहे थे, ‘आप उस शख़्स से नज़रे नहीं हटा सकते. आप उसको जितना भी देखेंगे, आपके मन में सम्मान बढ़ता जाएगा. वो कमाल का इंसान है.’

सभी प्रतिभागियों में रॉबिन अकेले थे, जो फ़िनिश लाइन तक पहुंचे थे. उनके सम्मान में रॉयल नेवी ने धुनें बजाईं, शहर के मेयर ने महारानी और प्रधानमंत्री का संदेश पढ़ा. बाद में उन्हें नाइटहुट की उपाधि भी दी गई. सबसे दिलचस्प तथ्य ये था कि, जिस नाव ‘सुहैली’ पर बैठकर रॉबिन ने धरती का चक्कर लगाया था, वो भारत में बनी थी. रॉबिन दशकों तक गोल्डन ग्लोब रेस के इकलौते विजेता बने रहे. क्योंकि फ़र्स्ट एडिशन के बाद इस पर विराम लगा दिया गया था. गोल्डन ग्लोब रेस की तर्ज पर और भी कंपटीशन्स शुरू हुए. मगर उनके नियम उतने सख्त नहीं थे.

1968 में हुई गोल्डन ग्लोब रेस को रॉबिन नॉक्स-जॉन्सटन ने जीता था. वो फ़िनिश लाइन तक पहुंचने वाले इकलौते सेलर थे. (फ़ोटो: francescocappelletti.com)

फिर आया साल 2018 का. 50 बरस बाद इसे फिर से शुरू किया गया. चूंकि रेस का पुनर्जन्म हो रहा था, इसलिए इसके नियम पहले जैसे ही बरकरार रखे गए. मसलन, 1968 के बाद आई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल नहीं करना है. रास्ते में कहीं पर रुकना नहीं है. बाहर से कोई मदद नहीं लेनी है. बोट और इक़्विपमेंट्स वैसे ही रखने हैं, जैसा 1968 में रॉबिन के पास था. गोल्डन ग्लोब रेस की वेबसाइट पर नियमों की लिस्ट है. आपको मेन पॉइंट्स बता देते हैं. ताकि इसकी गंभीरता समझ में आ जाए. 
 

नियमों के मुताबिक,

- रेस में एंट्री सिर्फ़ इन्विटेशन से होगी. यानी, कोई भी सिर्फ अपनी मर्ज़ी से रेस का हिस्सा नहीं बन सकता. 
- प्रतिभागी की उम्र 18 बरस से ऊपर होनी चाहिए.
- प्रतिभागी का सेलिंग का पुराना अनुभव होना ज़रूरी है.
- अगर प्रतिभागी एक बार भी कहीं पर रुका या उसने जीपीएस को बंद करने की कोशिश की तो वो गोल्डन ग्लोब रेस से बाहर हो जाएगा. उसे तब चेस्टर केटेगरी में रखा जाता है. दो बार स्टॉप लेने पर उसे रेस से पूरी तरह बाहर मान लिया जाता है.
- जीपीएस टेक्नोलॉजी और दूसरे ट्रैकिंग डिवाइसेज को पूरी तरह सील कर दिया जाता है. उसके साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती. बाहरी दुनिया से संपर्क के लिए सेटेलाइट फ़ोन मिलता है. उसमें भी मेसेज की सीमा तय होती है.
- किसी भी प्रतिभागी को दूसरे की लोकेशन की जानकारी नहीं होती. समझिए कि एक अंधी दौड़ चल रही है, जिसमें आपको जीतने के लिए दौड़ना है. बिना ये जाने कि कोई आपके आगे या पीछे भी है.

इसके अलावा, बोट की साइज़ से लेकर मस्तूल की ऊंचाई और खाने-पीने के सामान तक के लिए भी नियम निर्धारित होते हैं. आपको लगभग 08 महीनों तक अकेले नाव में रहना होता है. अपने घर-परिवार से दूर. खुद ही खाने-पीने का इंतज़ाम करना होता है. इसके अलावा, जब समंदर में ट्रैफ़िक बढ़ता है, उस समय लंबे समय तक जगकर पहरा भी देना पड़ता है. इस रेस को कभी ‘माउंट एवरेस्ट ऑफ़ द सी’ कहा जाता था. लेकिन समय के साथ समंदर की चुनौतियां बढ़ी हैं. इसी वजह से गोल्डन ग्लोब रेस को ज़्यादा मुश्किल माना जाता है.

इन चुनौतियों के बीच 2018 वाली रेस में 13 देशों के 18 प्रतिभागियों को बुलावा भेजा गया था. इसमें भारतीय नौसेना में कमांडर रहे अभिलाष टॉमी भी थे. वो रेस में शामिल इकलौते भारतीय थे. उनकी नाव रॉबिन की सुहैली की तर्ज पर बनी थी. शुरुआती दौर में अभिलाष की रफ़्तार भी ठीक-ठाक थी. 82 दिनों के बाद वो टॉप-थ्री में पहुंच चुके थे. अगर सब ठीक चलता तो वो रॉबिन का रिकॉर्ड तोड़ सकते थे. वो अकेले, बिना रुके नाव में धरती का चक्कर लगाने वाले दुनिया के दूसरे और भारत के पहले इंसान बन सकते थे. लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि पूरा सपना धराशायी हो गया. वो 21 सितंबर 2018 की तारीख़. अभिलाष दक्षिणी हिंद महासागर में कहीं पर थे. तभी एक तूफान आया और वो पाल के ऊपर लटके हुए थे. अपनी कलाई घड़ी के सहारे. दिसंबर 2019 में हिंदुस्तान टाइम्स लीडरशिप समिट में अभिलाष ने पूरा वाकया सुनाया था. 

बकौल अभिलाष,

‘तूफान के पहले झटके के बाद पूरा जहाज तहस-नहस हो चुका था. डीजल टैंक फूट चुका था. गैस लीक हो रही थी. मैंने किसी तरह सब साफ़ किया. सोचा कि अब इसको कंट्रोल कर लूंगा. मैं बाहर गया और पाल को पकड़कर खड़ा हो गया. इतने में तूफान का दूसरा हमला हुआ. मैं सरक कर पाल के अंतिम छोर तक पहुंच चुका था. जब नाव सीधी हुई, तब मैं 09 मीटर ऊपर हवा में टंगा था. कुछ देर बाद मैं नीचे गिरा. अल्युमिनियम की सतह पर. आधे घंटे बाद जब मैंने उठने की कोशिश की, तब तक मेरे पैरों ने मेरा साथ छोड़ दिया था. मैंने ठीक होने की पूरी कोशिश की. मगर इसका कोई फायदा नहीं हुआ. तब मुझे लगा कि मेरे साथ कुछ ग़लत हुआ है.’

जिस समय अभिलाष के साथ हादसा हुआ था, समंदर में 150 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ़्तार से हवाएं चल रहीं थीं. और, समंदर की लहरें 40-50 फीट ऊपर तक उछल रहीं थीं. जब अभिलाष की अंतिम कोशिश भी बेकार गई, तब उन्होंने उपलब्ध डिवाइस पर मेसेज भेजा. 

ROLLED. DISMASTED. SEVERE BACK INJURY. CANNOT GET UP.

2018 में अभिलाष को 72 घंटों के बाद रेस्क्यू किया गया था.


ये इशारा था कि उन्हें मदद की ज़रूरत है. इसके बाद इंटरनैशनल रेस्क्यू मिशन शुरू हुआ. भारत, ऑस्ट्रेलिया और फ़्रांस ने अपने नौसैनिक जहाज भेजे. दो दिनों और दो रातों के बाद अभिलाष को ढूंढ लिया गया. फिर उन्हें विशाखापत्तनम लाया गया. कहा जा रहा था कि उन्हें बचाया नहीं जा सकेगा. मगर अभिलाष ज़िद्दी निकले. उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. ऑपरेश में उनके शरीर में टाइटेनियम के नट-बोल्ट कसने पड़े. मगर दो महीने बाद ही अपने काम पर थे. अभिलाष नौसेना में पायलट थे. उन्होंने प्लेन्स भी उड़ाए. फिर उन्हें लगा कि जो मिशन अधूरा छूट गया है, उसे पूरा करना है. इसके लिए उन्होंने नौसेना की नौकरी छोड़ दी. और, अपना पूरा कैरियर सेलिंग को समर्पित कर दिया.


सितंबर 2022 में गोल्डन ग्लोब रेस का तीसरा एडिशन शुरू हुआ. इस बार भी उन्हें बुलावा आया. और, अभिलाष ने तनिक भी देर किए बिना हामी भर दी. 04 सितंबर 2022 को उन्होंने बायनाट नाम की नाव पर फ़्रांस से अपना सफ़र शुरू किया. उन्हें यूएई की एक फ़र्म ने स्पॉन्सर किया है. हालांकि, इससे पहले ही अभिलाष की नाव दूसरे सफ़र के दौरान टक्कर खा चुकी थी. उन्हें PTSD भी हुआ. पिछले ट्रॉमा की वजह से वो कई दिनों तक खा भी नहीं पा रहे थे. इन सबसे उबरकर उन्होंने रेस में हिस्सा लिया. 2022 की गोल्डन ग्लोब रेस की शुरुआत में 16 प्रतिभागी थे. अब सिर्फ तीन बचे हैं. इनमें से एक साउथ अफ़्रीका की महिला कर्स्टन हैं और दूसरे अभिलाष हैं. तीसरे प्रतिभागी हैं, तापियो लेथिनेन. वो भी रेस में बने हुए हैं. लेकिन उन्हें रास्ते में एक बार मदद की ज़रूरत पड़ी थी. इसी वजह से वो गोल्डन ग्लोब ट्रॉफ़ी की दौड़ से बाहर हो चुके हैं. अभी वो चेस्टर ट्रॉफ़ी की दावेदारी पेश कर रहे हैं.

फिलहाल, रेस में लगभग 700 किलोमीटर का सफ़र बाकी है. जानकारों का कहना है कि भले ही रेस कोई भी जीते, इंसानी ज़िद की जीत हमेशा याद की जाती रहेगी.

अंत में अभिलाष टॉमी का कहा सुनते जाइए.

‘समंदर के चेहरे पर कई नक़ाब होते हैं. लेकिन अपनी गहराई में ये बिल्कुल शांत और ठहरा होता है. ये कभी बदलता नहीं है. मुझे लगता है कि लोगों का आंतरिक चरित्र भी कुछ-कुछ वैसा ही होता है. वो कभी बदलता नहीं है. जब कभी मैं मुश्किल में होता हूं, तब मैं अपने उसी हिस्से को टटोलता हूं और मुझे सारे जवाब मिल जाते हैं.’

दी लल्लनटॉप की तरफ़ से अभिलाष टॉमी को बहुत सारी शुभकामनाएं.
 

वीडियो: दुनियादारी: भारतीय नेवी के रिटायर्ड अफ़सर अभिलाष टॉमी, जिनके आगे जानलेवा समंदर छोटे पड़ गए