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ट्रंप के आने से दुनिया तो बदलेगी, लेकिन क्या इस दुनिया का पावर सेंटर बन पाएगा भारत?

अमेरिका का राष्ट्रपति दुनिया का वर्ल्ड ऑर्डर तय करता है. दुनिया किस दिशा में बढ़ेगी, उस पर असर रखता है. मगर बीते कुछ सालों से अमेरिका के एकाधिकार ताक़त के मैदान में और प्लेयर्स घुस आए हैं.

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मोदी और ट्रम्प के भाषणों से संकेत मिलता है कि दोनों के व्यक्तिगत संबंध अच्छे हैं. (फ़ोटो - AFP)

अमेरिका की जनता ने रिपब्लिकन उम्मीदवार और पूर्व-राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप (Donald Trump) को जनादेश दे दिया है. ट्रम्प अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति बनेंगे — अमेरिका का राष्ट्रपति दुनिया का वर्ल्ड ऑर्डर तय करता है. दुनिया किस दिशा में बढ़ेगी, उस पर असर रखता है. कौन सी जंग, कितनी, कब तक चलेगी, इसमें भी दुनिया के सबसे ताक़तवर देश के सबसे ताक़तवर व्यक्ति का मत होता है. मगर बीते कुछ सालों से अमेरिका के एकाधिकार ताक़त के मैदान में और प्लेयर्स घुस आए हैं. ताक़त के पैमानों पर ख़ुद को स्थापित कर रहे हैं. एकाधिकार क्या, कोई अधिकार खोने को भी राज़ी नहीं होता. मगर जियो-पॉलिटिक्स में एक कहावत है:

शांति वास्तव में भय और आतंक का संतुलन है, और केवल इस संतुलन की वजह से ही तीसरा विश्व युद्ध टलता जा रहा है.

आगे बढ़ने से पहले बेसिक फ़ंडा -
  • वर्ल्ड ऑर्डर - विश्व व्यवस्था. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को ऊपर-नीचे करने वालों का क्रम और नियमों का एक अलिखित सिस्टम. दो देश कैसे बातचीत करते हैं, वैश्विक मसलों पर निर्णय में किसकी चलती है और राष्ट्रों के बीच शक्ति का संतुलन कैसा है. इसकी व्यवस्था.
  • एकपक्षवाद या यूनी-पोलैरिटी: ऐसी स्थिति, जब दुनिया में ताक़त का केंद्र एक हो.
  • द्वीपक्षवाद या बाय-पोलैरिटी: समझ ही गए होंगे. ताक़त के केंद्र, दो. जैसी स्थिति शीत युद्ध के समय थी. अमरीका बनाम रूस. दो धड़े, दो विचार. पूंजीवाद का ध्वजवाहक था अमेरिका और साम्यवादी ख़ेमे का नेतृत्व सोवियत संघ करता था. यही दोनों मेन पात्र. बाक़ी देशों को पाले चुनने थे. हालांकि, कई देशों ने दोनों को नहीं चुना; अगल धड़ा बनाया. मसलन, भारत. इसीलिए शीत युद्ध के समय को 'लूज़ली बायपोलर' कहते हैं. माने लगभग-लगभग.
  • बहुपक्षवाद या मल्टी-पोलैरिटी: ताक़त के कई केंद्र. जैसा कोल्ड वॉर से पहले था. विश्वयुद्ध के समय पर, और उससे पहले भी. सब ही तुर्रम-ख़ां. इस सिस्टम में वैविध्य है. विचारों का, अमल का. पर फिर इसमें जटिलता भी है, सबको साधने की.

ये तो सीधी-सीधी परिभाषा हुई. अच्छा, ऐसा नहीं है कि कोई देश अपने से घोषित कर दे कि ‘मैं भी ताक़त’ और उस आधार पर तय हो जाए. अंतरराष्ट्रीय संबंधों और जियो-पॉलिटिक्स बूझने वाले विश्व की व्यवस्था (वर्ल्ड ऑर्डर) को देशों के संसाधनों और विदेश नीति के आधार पर इसको समझते-समझाते हैं, कोडीफ़ाई करते हैं.

इसे तीन आधार पर बांट गया है – ग्लोबल सेक्योरिटी ऑर्डर, ग्लोबल जियो-इकोनॉमिक ऑर्डर और ग्लोबल डिजिटल ऑर्डर. 

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जैसे पॉपुलर नैरेटिव कहता है कि अभी विश्व की स्थिति मल्टी-पोलर है. ताक़त के कई केंद्र हैं. अमेरिका और चीन का दावा तो मज़बूत है ही. रूस, यूरोप, ब्राज़ील और भारत भी क़तार में हैं. इनके अलावा संसाधानों के गुणा-जोड़ के चलते मध्य-पूर्व या वेस्ट एशिया का भी क्लेम है.

बदलते वर्ल्ड ऑर्डर की टाइमलाइन

पिछले कई दशकों में दुनिया भर में कई ऐसी बड़ी घटनाएं हुई हैं, जिन्होंने हमारी दुनिया को एक नया आयाम दिया.

- पहला वर्ल्ड वॉर (1914-1918): इस विनाशकारी युद्ध के चलते ऑटोमन और ऑस्ट्रो-हंगेरियन जैसे साम्राज्यों का पतन हुआ और यूरोप में सत्ता का बदलाव हुआ.

- 1929 में ग्रेट डिप्रेशन आया. आधुनिक इतिहास का सबसे बुरा आर्थिक संकट. मुख्यत: US प्रभावित हुआ था, लेकिन पश्चिम की पूरी दुनिया ही इसके चपेट में थी. डिप्रेशन ने बाज़ारों के कामकाज और सरकारों की भूमिका के बारे में हमारी समझ को बदला.

- दूसरा वर्ल्ड वॉर (1939-1945): नाज़ी जर्मनी और इंपीरियल जापान की हार के साथ अमेरिका और सोवियत संघ सुपरपावर्स बनकर उभरे.

- उपनिवेशवाद का अंत (1940-1960): दूसरे विश्व युद्ध के बाद कई एशियाई, अफ़्रीकी और मध्य-पूर्वी उपनिवेशों ने यूरोपीय शक्तियों की बेड़ियां तोड़ीं और आज़ाद हुए. संप्रभु राज्य बने और गुटनिरपेक्ष आंदोलन का उदय हुआ.

- शीत युद्ध (1947-1991): पूंजीवादी अमेरिका और साम्यवादी सोवियत संघ के बीच वैचारिक, राजनीतिक और सैन्य अदावत. दोनों ताक़तें अपना असर और दख़ल बढ़ाना चाहती थीं. सो कई सैन्य गठबंधन बने - नाटो और वारसॉ संधि. सीथ ही सीधे तो नहीं, पर प्रॉक्सी संघर्ष शुरू हुए.

- सोवियत संघ का पतन (1989-1991): बर्लिन की दीवार गिरी और दुनिया फिर से बदली; और भारत भी. एक तरफ़, सोवियत संघ के पतन के साथ अमेरिका एकमात्र महाशक्ति बन गया. अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक चार्ल्स क्राउथैमर के शब्दों में, एकध्रुवीय विश्व. 'दूसरी दुनिया' ग़ायब हो गई और भारत में बाज़ार खुले, तो एक 'नई दुनिया' वजूद में आई.

- 9/11 आतंकवादी हमले की प्रतिक्रिया में अमेरिका ने वॉर ऑन टेरर (2001) शुरू किया. आतंकवाद के ख़िलाफ़ एक वैश्विक अभियान. दुनिया भर की सुरक्षा और आतंकवाद विरोधी नीतियों में शिफ़्ट आया. अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ में हस्तक्षेप किया. बाद में मध्य-पूर्व की अस्थिरता में योगदान दिया. साथ ही पूरी दुनिया में एक इस्लाम-विरोधी नैरेटिव को हवा मिली.

- 2008 का आर्थिक संकट (ग्रेट रिसेशन) ने भी वर्ल्ड ऑर्डर को बदला. भारत और चीन ने बाक़ी एशियाई देशों और यहां तक कि सब-सहारा अफ्रीका के साथ मिलकर दुनिया की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को कंधा दिया. समय के साथ ग्लोबल GDP में विकासशील देशों की हिस्सेदारी बढ़ी. चुनांचे सत्ता भी बिखरी.

- 2000 के दशक के बाद चीन एक वैश्विक ताक़त के तौर पर स्थापित हुआ और हर बीतते दिन के साथ मज़बूत हो रहा है. अपनी तेज़ आर्थिक चढ़ाई और सैन्य विस्तार के बल पर एक दुर्जेय वैश्विक ताक़त बना, जिसने अमेरिका के नेतृत्व वाली व्यवस्था को चुनौती दे डाली है.

- रूस का क़द कोल्ड वॉर की तुलना में घटा है, मगर अभी भी एक अहम प्लेयर है. क्रीमिया पर कब्ज़ा और यूक्रेन पर हमले ने यूरोपीय स्थिरता में कंकड़ डाल दिया है. NATO के साथ नए सिरे से तनाव पैदा हुआ और यूरोप में क्षेत्रीय आक्रामकता की वापसी के बारे में चिंताएं हो रही हैं.

- कोविड-19 महामारी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को बाधित किया, दुनिया की परस्पर संबद्धता को उजागर किया और बहुपक्षीय (मल्टी-लैट्रल) सहयोग की ज़रूरत को रेखांकित किया है. ताक़त में भी शिफ़्ट आया है. सप्लाई चेन और वैश्विक बाज़ार में अपनी पकड़ के ज़रिए चीन ने तेज़ रिकवरी की है, और नंबर दो का स्थान पक्का कर लिया है.

इन घटनाओं के अलावा भी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में लाइफ़-ऑल्टरिंग घटनाएं घटीं. मगर वर्ल्ड ऑर्डर का कुल-जमा ही यही है: जॉर्ज ऑर्वेल के बकौल, ‘सब जानवर बराबर हैं, लेकिन कुछ जानवर बाक़ी जानवरों से ज़्यादा बराबर हैं’.

दुनिया बहुध्रुवी हो भी रही है या बस कही-सुनी बातें?

अंतरराष्ट्रीय संबंधों और जियो-पॉलिटिक्स के जानकारों में इस विषय को लेकर दो धड़े हैं. एक कहता है कि मौजूदा वक़्त में विश्व व्यवस्था उथल-पुथल की स्थिति में है और बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ रही है. वहीं, दूसरे का कहना है कि बहुध्रुवीय दुनिया का कॉनसेप्ट किताबों से बाहर नहीं है.

यूरोप के कुछ नेताओं का मानना है कि बहुध्रुवीयता वक़्त की ज़रूरत है. चाहे यूरोपीय परिषद के अध्यक्ष चार्ल्स मिशेल हों या फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रोन, दोनों ने अलग-अलग विश्व मंचों से कहा है कि यूरोपीय संघ एक बहुध्रुवीय दुनिया की तरफ़ बढ़ रहा है. फिर जर्मन चांसलर ओलाफ़ स्कोल्ज़ जैसे नेता हैं, जो दूसरे शब्दों में वही बात कर रहे हैं. हाल ही में उन्होंने X पर पोस्ट किया था- “दुनिया बहुध्रुवीय है, इसलिए हमें वैसे ही काम करना होगा.”

ब्राज़ील के राष्ट्रपति लुइज़ इनासियो लूला दा सिल्वा और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भी इसी में स्वर जोड़ते हैं.

फिर दूसरा पक्ष है. वे कह रहे हैं कि बहुध्रुव हैं ही नहीं. एक तो अमेरिका बहुत आगे है. अर्थ, बल, कैपिटल. हर मापदंड में. चीन कुछ जगहों पर टक्कर दे रहा है, मगर वह भी ठीक-ठाक पीछे. और उसके अलावा तो कोई लिस्ट में ही नहीं. दरअसल, राष्ट्र-राज्यों का मुख्य अजेंडा उनकी घरेलू राजनीति से तय होता है. विदेश नीति सीधे-सीधे सैन्य ताक़त जैसे संसाधनों पर निर्भर करती है. आर्थिक या सॉफ़्ट पावर (सांस्कृतिक, कूटनीतिक) भी ताक़त के अनुक्रम में जगह तय करते हैं.

इस पक्ष का तर्क है कि ‘बहुध्रुवीयता’ का प्रसार मुख्यतः रूस और चीन को सूट करता है, क्योंकि वे अमेरिका के प्रभुत्व को चुनौती देना चाहते हैं. हवाला यह कि एक बहुध्रुवीय व्यवस्था ज़्यादा समावेषी और न्यायसंगत होगी. 

नियम ज़रूरी हैं. मगर उसे तैयार और संशोधित वही करते हैं, जो सत्ता में हावी हों. 

नॉर्वेजियन इंस्टीट्यूट फ़ॉर डिफ़ेंस स्टडीज़ में सीनियर फेलो जो इंगे बेकेवोल्ड्स ने अपने प्रसिद्ध निबंध 'नहीं, दुनिया बहुध्रुवीय नहीं है' में लिखा है कि आज, केवल दो देश हैं जिन्हें वाक़ई में ध्रुव माना जा सकता है. जिनके पास आर्थिक आकार, सैन्य ताक़त और वैश्विक उत्तोलन है – अमेरिका और चीन. उभरती हुई ताक़तें या बड़ी आबादी और बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले गुटनिरपेक्ष देश, ध्रुव नहीं माने जा सकते.

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इंडियन एक्सप्रेस में अंतर्राष्ट्रीय मामलों के स्तंभकार सी राजा मोहन भी लिखते हैं कि मौजूदा ताक़तों में केवल चीन ही एक ध्रुव के क़रीब है. ऊपर से चीन की मंदी इस स्थिति को और जटिल बना देती है. भारत सहित अन्य ताक़तें ध्रुव का दर्जा पाने से दूर हैं.

अमेरिका ने लंबे समय तक वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में अपना एक-चौथाई हिस्सा - लगभग 26 प्रतिशत पर - बनाए रखा है. यूरोज़ोन, जिसे कभी अमेरिका के आर्थिक समकक्ष के रूप में देखा जाता था, लगातार अपनी ज़मीन खोता जा रहा है; चीन की गति धीमी हो गई है.

फिर उभरती ताक़तों के भीतर मतभेदों को पाटना और उन्हें अमेरिका के ख़िलाफ़ एकजुट करना भी असंभव के क़रीब है. अमेरिका-विरोधी कैंप का हर देश उसके साथ समझौते के लिए तैयार है.

जर्मन इंस्टीट्यूट फ़ॉर इंटरनैशनल एंड सिक्योरिटी अफ़ेयर्स में एशिया रिसर्च डिविज़न के प्रमुख डॉ फ़ेलिक्स हेदुक और उप-प्रमुख डॉ जोहान्स थिम्म ने अपने लेख "कौन सी बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था और किसके लिए?" में लिखते हैं कि शीत युद्ध की संक्षिप्त समीक्षा से पता चलता है कि अगर हम पश्चिम से परे देखें, तो ध्रुवों वाली थियरी कमज़ोर पड़ जाती है. 

दुनिया के कई हिस्सों में द्विध्रुवीय व्यवस्था न तो स्थिर थी, न ही कोल्ड वॉर असल में 'कोल्ड' था. वियतनाम युद्ध जैसे उस दौर के कई अन्य सशस्त्र संघर्षों से ज़ाहिर ही है. इसी तरह यूरोप और अमेरिका तो मानते हैं कि 1990 के बाद अमेरिका इकलौता मुखिया था. मगर निश्चित रूप से अफ़ग़ानिस्तान या इराक़ में इसे अलग नज़र से देखा गया होगा.

जहां तक यूरोप से उठ रही आवाज़ों की बात है, तो डॉ हेदुक और डॉ थिम्म लिखते हैं कि नेता लोग अलग-अलग इरादे से काम करते हैं. पहला यह संकेत देना कि अमेरिका या वेस्ट का प्रभुत्व ख़त्म हो गया है और कथित ग्लोबल साउथ को वर्ल्ड ऑर्डर में सुना जाएगा. दूसरा इरादा कि अमेरिका और चीन की सीधी लड़ाई न हो, क्योंकि इससे फिर एक द्विध्रुवीय सिस्टम बनेगा और नए शीत युद्ध की तर्ज़ पर पक्ष चुनने पड़ेंगे. ख़राब डिप्लोमेसी.

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इस पूरे डायनैमिक्स में रूस का चक्कर भी इंट्रेस्टिंग है. एक वक़्त पर दूसरी दुनिया का लीडर अब दूसरी स्थितियों से निपट रहा है. MP-IDSA में फ़ेलो और जियो-पॉलिटिकल ऐनालिस्ट डॉ स्वस्ति राव ने दी लल्लनटॉप को बताया कि रूस भले ही दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मिलिट्री पावर है, मगर हर पैमाने पर गिरती जा रही है.

रूस एक डिक्लाइनिंग पावर है. मगर तीन साल तक युद्ध करने के बावजूद उनके पास युद्ध सस्टेन करने के लिए एक अच्छा इकोनॉमिक नेटवर्क है. वे दुनिया के बाज़ार में तेल और गैस बेचते हैं. साथ ही तमाम सैंक्शन्स के बावजूद उनके पास प्राइवेट आर्मीज़ का नेटवर्क है, जो दुनिया भर में सप्लाई किया जा रहा है.

फिर डॉनल्ड ट्रम्प के जीतने पर राष्ट्रपति पुतिन का उन्हें बधाई देना, उन्हें एक बहादुर आदमी बताना और यह कहना कि रूस अमेरिका से बात करने के लिए तैयार है, इससे रूस की स्थिति ज़ाहिर होती है. गेंद अब अमेरिका के पाले में है.

जब भी हम पावर सेंटर्स की बात करते हैं, मिडल ईस्ट या वेस्ट एशिया को नहीं गिनते. जबकि वैश्विक संसाधनों का एक बड़ा और अहम हिस्सा वहीं से आता है. मगर फिर यह भी विश्व-ज्ञात है कि उस इलाक़े में कितने अलग-अलग विवाद हैं. इसीलिए हमने बिट्स लॉ स्कूल, मुंबई में राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पढ़ाने वाले डॉ मुश्ताक़ हुसैन से बात की. उन्होंने दी लल्लनटॉप को बताया,

एथनिसिटी के हिसाब से अरब लोग एक लगते हैं. इसलिए हम इस एरिया को मिडल ईस्ट या वेस्ट एशिया के नाम पर एक बता देते हैं. मगर कोलोनियल पावर्स ने जो पॉलिटिकल बाउंड्रीज़ खींचीं और नतीजतन जो फ़साद हुए, इससे निजात मुश्किल है. इस वजह से कभी वेस्ट एशिया किसी एक प्रतिनिधि के ज़रिए अपने इंट्रेस्ट की बात नहीं रख पाएगा.

इसमें डॉ हुसैन ने एक बात और जोड़ी कि अरब देशों के शासकों का वर्ल्ड व्यू, अरब स्ट्रीट के व्यू से अलग है. उनकी आकांक्षाएं, संघर्ष, उनका अप्रोच ही अलग है.

मल्टीपोलैरिटी पर डॉ हुसैन ने भी वही बात कही. चीन कहीं आस-पास नहीं है. आर्थिक ग्रोथ तेज़ है. मिलिट्री मामले में कुछ-कुछ बराबरी है. मगर अभी एक दशक लगेगा, कि वह अमेरिका के बराबर आ कर खड़े हों.

चीन बेशक अमेरिका के लिए सिरदर्द पैदा करता है, या बढ़ाता है. अपने प्रॉक्सी और साथियों के मिलकर कई ऐसी चीज़ें कीं, जिसका जवाब अमेरिका के पास नहीं है. मगर उसकी वजह यह है कि वह जटिल सवाल हैं. तो अमेरिका कमज़ोर लगता है, क्योंकि चीन की शातिर डिप्लोमेसी से अमेरिका के लिए चैलेंज बढ़ रहा है. 

दुनिया बहुध्रुवीय या मल्टी-पोलर हो रही है या नहीं, इसके सारांश में डॉ स्वस्ति राव की एक बात मार्के की है. उनका कहना है कि तीनों अलग-अलग आधार पर पोलैरिटी जांची जानी चाहिए. जैसे ग्लोबल सेक्योरिटी ऑर्डर में अमेरिका का प्रभुत्व है. ग्लोबल जियो-इकोनॉमिक ऑर्डर में मल्टी-पोलैरिटी दिखती है. अलग-अलग उभरते हुए मार्केट्स हैं, और संसाधनों का नैचुरल वितरण ही ऐसा है कि किसी एक हाथ में ताक़त आ नहीं सकती. ग्लोबल डिजिटल ऑर्डर अभी बहुत नया-नया है. हर देश ही इसमें अपना हिस्सा चाहता है. मगर टेक्नोलॉजी और टेक मार्केट पर केवल सरकारों की नहीं, कुछ प्राइवेट प्लेयर्स (टेक की दिग्गज कंपनियां) की भी चलेगी.

वर्ल्ड ऑर्डर में भारत का ऑर्डर

बीते दशकों में भारत के वज़न में इज़ाफ़ा हुआ है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जानकार यहां तक कहते हैं कि भारत की कूटनीति बहुत चालाक रही है. हमारी कोर वैल्यू है - 'रणनीतिक स्वायत्तता'. राष्ट्रीय हितों और पारंपरिक गुटनिरपेक्ष आदर्शों को मिलाकर चलना. इस रुख ने भारत को अमेरिका, रूस और चीन, तीनों को साधने के सक्षम बनाया है. रक्षा के क्षेत्र में रूस के साथ लंबे संबंध, फिर QUAD जैसे फ़ोरम्स के ज़रिए अमेरिका के साथ घनिष्ठ साझेदारी है. विशेषज्ञों का कहना है कि यह बैलेंसिंग ऐक्ट भारत को चीन के प्रभाव से बचा लेता है.

भारत को एक बहुध्रुवीय दुनिया चाहिए. इसके लिए कुछ क़दम भी उठाए गए. जैसे कि भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा, जिसे वैकल्पिक व्यापार मार्ग के तौर पर शुरू किया गया. इस पहल को दो नज़रों से देखा गया. एक कि मध्य-पूर्व और यूरोप के साथ संबंध मज़बूत हुए. दूसरा, पारंपरिक पश्चिमी नियंत्रित गलियारों पर निर्भरता को कम करने और एशिया और उससे आगे के देशों के साथ जुड़ने के प्रयास के तौर पर भी देखा गया. इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन, भारत के डिजिटल और हरित ऊर्जा के लिए प्रयास, प्रौद्योगिकी और सतत विकास पर वैश्विक एजेंडे में योगदान, G20 के भीतर भारत का नेतृत्व, अफ्रीकी संघ के समावेश के लिए इसका समर्थन और शंघाई सहयोग संगठन (SCO) जैसे संगठनों में इसकी सक्रिय भागीदारी. इससे साफ़ तौर पर बताया जा सकता है कि भारत एक मल्टी-पोलर वर्ल्ड में अपनी जगह चाहता है.

मगर केवल चाहने भर से तो नहीं हो जाता. नॉमिनल GDP के मामले में अमेरिका, भारत की तुलना में लगभग सात गुना बड़ा है. रक्षा के क्षेत्र में उन्होंने 2023 में 800 बिलियन डॉलर ख़र्चे थे, और भारत ने 76. UN, NATO और वर्ल्ड बैंक जैसी जगहों पर अमेरिका की सीधी मुखियागिरी है. भारत अपनी कूटनीति और संसाधन के बल पर बढ़त बना रहा है, मगर ध्रुव में गिने जाने के हिसाब से रेस लंबी है.

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डॉनल्ड ट्रंप के जीतने के बाद, जैसा दी लल्लनटॉप की कवरेज में सामने आया, भारत पर बहुत असर नहीं पड़ेगा. प्रधानमंत्री मोदी और उनके बीच संबंध अच्छे ही हैं. पारंपरिक तौर पर अमेरिका के साथ भी संबंध अच्छे हैं. मगर अंतरराष्ट्रीय राजनीति बूझने वालों का कहना है कि अमेरिका के लिए 'एक ताक़त' फ़ॉर्मुला बहुत सहज है. वह नहीं चाहते कि कोई प्रतिद्वंदी खड़ा हो. ऐसा डेमोक्रैट्स और रिपब्लिकन्स, दोनों के शासनकाल में देखा गया है.

हालांकि, तमाम बात करने के बाद बताना ज़रूरी है कि कुछ जानकार तो यहां तक कहते हैं कि ध्रुव के चक्कर में ही नहीं पड़ना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक मुद्दों से निपटने के लिए ताक़त के बंटवारे के बजाय इस बात पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि अलग-अलग देश अपनी ताक़त का इस्तेमाल कैसे करते हैं और एक-दूसरे से कैसे बातचीत करते हैं. 

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