क़रीब 23 सौ फ़ीट लम्बा एक पुल जिसमें साढ़े 26 हज़ार टन स्टील का इस्तेमाल किया गया है. लेकिन पूरे पुल में एक भी नट-बोल्ट नहीं है. क्यों? आसमान से गिराए बम भी जिस पुल का कुछ ना उखाड़ सके. उसे केसरी ज़ुबान वालों ने थूक-थूक कर आधा कर दिया. कैसे? रोज़ाना जिस पुल से 5 लाख लोग ट्रैवल करते हैं, उसका कभी उद्घाटन ही नहीं किया गया. क्या तीन बातें, तीन सवाल. जवाब एक कहानी में. (Howrah bridge)
बिना नट-बोल्ट के कैसे बना हावड़ा ब्रिज?
रोज़ाना जिस पुल से 5 लाख लोग ट्रैवल करते हैं, उसका कभी उद्घाटन ही नहीं किया गया. जानिए हावड़ा ब्रिज के बनने की कहानी.
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शुरुआत से पहले एक दिलचस्प बात आपको बताते हैं. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार को लगा, जापानी कलकत्ता(Kolkata) पर हमला नहीं करेंगे. वजह- नेताजी सुभाष चंद्र बोस(Subhas Chandra Bose). जापानी फ़ौज की मदद से INA ने अंडमान में आज़ाद हिंद सरकार का गठन किया था. नेताजी जापानी सेना की मदद ले रहे थे, इसलिए अंग्रेजों को लगा वो जापान को उनके प्रिय शहर पर हमला नहीं करने देंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बर्मा पर क़ब्ज़ा होते ही जापानी बम वर्षक विमानों ने कलकत्ता पर बमबारी शुरू कर दी. जिसमें शहर की कई इमारतें नष्ट हो गई. (History of howrah bridge)
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इस हमले के दौरान एक बम हावड़ा ब्रिज के काफ़ी नज़दीक गिरा था लेकिन क़िस्मत से पुल को कोई नुक़सान नहीं हुआ. अंग्रेजों की सांस में सांस आई क्योंकि ये एकमात्र पुल था जो हावड़ा और कलकत्ता को जोड़ता था. अब एक और दिलचस्प बात सुनिए. 1944 में हावड़ा ब्रिज की सलामती की दुआ मांग रहे अंग्रेज कभी इस को बड़े माली नुक़सान की तरह देखते थे. इसलिए इसे बनाने में दशकों का वक्त लग गया.
पहले बना था पीपे का पुल
18 वीं सदी के मध्य की बात है. अंग्रेज भारत के बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर चुके थे. और अब अपना शासन मज़बूत करने में लगे थे. इस दिशा में रेलवे को मज़बूत करना था. बंगाल में शुरुआत हुई हावड़ा से. जून 1853 में हावड़ा में पहला ट्रेन स्टेशन बना. इस स्टेशन से जुड़ा एक दिलचस्प क़िस्सा है. दरअसल हावड़ा में रेलवे लाइन एक साल पहले यानी 1852 में ही डल गई थी. रेल के डिब्बे और इंजन लंदन से लाए जा रहे थे. लेकिन हुआ यूं कि डिब्बे ला रहा जहाज बीच में ही डूब गया, जबकि लोकोमोटिव इंजन गलती से ऑस्ट्रेलिया पहुंच गया.
बहरहाल हावड़ा स्टेशन से रेल चलना शुरू हुई और पहले चार महीने में एक लाख लोगों ने ट्रेन की सवारी का लुत्फ़ लिया. भारत से विदेश जाने वाले लोग तब कलकत्ता से जहाज़ पकड़ते थे. इसलिए धीरे-धीरे हावड़ा स्टेशन में भीड़ बढ़ने लगी. हावड़ा और कलकत्ता को तब जुड़वा शहर कहा जाता था. क्योंकि दोनों के बीच सिर्फ़ हुगली नदी का अंतर था. हावड़ा से कलकत्ता पहुंचने के लिए नाव की सवारी करनी पड़ती थी. इसमें एक दिक़्क़त थी. हावड़ा में ईस्ट इंडिया कम्पनी के कच्चे माल के भंडार थे. बारिश के मौसम में जब नदी में बाढ़ आती तो सामान लाने, ले जाने पर रोक लग जाती.
इस समस्या से निजात पाने के लिए साल 1861 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने प्लान बनाया कि क्यों ना नदी पर एक पुल बना दिया जाए. बंगाल सरकार ने जॉर्ज टर्नबुल नाम के ईस्ट इंडियन रेलवे कम्पनी के एक इंजीनीयर को ये काम सौंपा. टर्नबुल इससे पहले हावड़ा स्टेशन के निर्माण का काम पूरा कर चुके थे. टर्नबुल ने पुल के डिज़ाइन के कई मसौदे सौंपे लेकिन किसी कारण पुल का काम शुरू नहीं हो पाया.
इसके बाद 1871 में सरकार ने हावड़ा ब्रिज ऐक्ट पास किया. और निर्माण की ज़िम्मेदारी सर ब्रैडफ़ोर्ड लेस्ली को सौंप दी. लेस्ली ईस्ट इंडियन रेलवे कम्पनी के चीफ़ इंजिनीयर थे. उन्होंने एक पॉन्टून ब्रिज का डिज़ाइन बनाया. जो स्वीकार भी हो गया. पॉन्टून ब्रिज यानी हिंदी में कहें तो पीपे या नावों से बना एक प्रकार का पुल. जो तैरते पीपों या नावों के ऊपर बनाया जाता है. ऐसे पुल अक्सर युद्ध के दौरान टेम्पररी इस्तेमाल के लिए बनाए जाते हैं. हालांकि चूंकि ये बनाने में आसान होते हैं, वक्त और पैसा कम लगता है. इसलिए इनका इस्तेमाल सिविलियन इलाक़ों में भी होता है. हावड़ा में हुगली के ऊपर बने पॉन्टून ब्रिज को बनाने में 3 साल का वक्त लगा.
हावड़ा पुल बनाने की जरूरत क्यों पड़ी?
ब्रिज के अधिकतर पार्ट्स ब्रिटेन में बनकर आते थे. और कलकत्ता में उन्हें असेंबल किया जाता था. पुल को बनाने में कई दिक्कतें भी सामने आई. मसलन मार्च 1874 में एक तूफ़ान ने पुल को काफ़ी क्षति पहुंचाई. वहीं दूसरी बार एक स्टीमर ब्रिज से टकरा गया, जिसने पुल के 200 फ़ीट हिस्से को नष्ट कर डाला था. जब तक पुल बनकर तैयार हुआ, इसकी लंबाई 1528 फ़ीट और चौड़ाई 62 फ़ीट थी. इसके दोनों तरफ़ पैदल चलने वालों के लिए 7 फ़ीट चौड़ा रास्ता था. पुल को बनाने में कुल लागत 22 लाख रुपए आई थी. ब्रिज की ख़ासियत थी कि इसके बीच के हिस्से को अलग किया जा सकता था. और हर रोज़ बाक़ायदा अख़बार में घोषणा होती थी कि पुल अमुक समय पर खुलेगा. ताकि स्टीमर और बाक़ी नावें पास हो सकें.
यहां पर एक बात और जानिए कि हावड़ा पर पॉन्टून ब्रिज बनाने वाले इंजिनीयर लेस्ली ने हुगली के ऊपर ही एक और पुल बनाया था. जिसे 1885 में खोला गया. इस पुल का नाम जुबली ब्रिज है, जिसे 129 साल सेवा देने के बाद 2016 में डिकमीशन कर दिया गया. बहरहाल वापस हावड़ा ब्रिज की कहानी पर लौटते हुए जानते हैं वर्तमान हावड़ा ब्रिज के बनने की शुरुआत कैसे हुई. पॉन्टून ब्रिज शुरुआत में एक सस्ती व्यवस्था के तौर पर बनाया गया था. लेकिन राजधानी होने के चलते जैसे-जैसे कलकत्ता में भीड़ बढ़ी, पुल भी अपनी क्षमता छूने लगा.
साल 1906 में सरकार ने पुल की निगरानी के लिए कमिटी बनाई. कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि पुल पर बैलगाड़ियों का जाम लगने लगा है. इसलिए शहर को एक नए पुल की ज़रूरत है. 1911 में नया पुल बनाने की बात शुरू हुई लेकिन बात आगे नहीं बढ़ सकी. वजह - उसी साल अंग्रेजों से अपनी राजधानी दिल्ली शिफ़्ट कर दी. और कुछ साल बाद प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो गया. जिसके कारण नए पुल का काम टाल दिया गया. तय हुआ कि पुराने पुल पर ही लक्कड़ पलस्तर लगाकर उसे मज़बूत किया जाएगा. ऐसे कुछ साल काम चलता रहा लेकिन बिना नया पुल बने काम चलने वाला नहीं था.इसलिए मजबूरन कुछ साल बाद पुल पर दुबारा चर्चा शुरू की गई.
उस दौर में बंगाल के एक प्रतिष्ठित इंडस्ट्रीयलिस्ट हुआ करते थे- राजेंद्र नाथ मुखर्जी. मुखर्जी मार्टिन कम्पनी लिमिटेड नाम की एक कम्पनी के मालिक थे, जो सिविल इंजीनियरिंग के कांट्रैक्ट लेती थी. इसी कम्पनी ने कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरीयल का निर्माण कार्य पूरा किया था. साल 1921 में बंगाल सरकार ने मुखर्जी की अध्यक्षता में एक कमिटी का निर्माण किया. कमिटी ने न्यू हावड़ा ब्रिज कमीशन के सामने अपनी रिपोर्ट सौंपी. 1926 में सरकार ने न्यू हावड़ा ब्रिज ऐक्ट पास किया और नए पुल के लिए टेंडर निकाले. टेंडर के जवाब में सबसे कम बोली एक जर्मन कम्पनी ने लगाई. लेकिन बात आगे बढ़ती, तब तक जर्मनी और ब्रिटेन के बीच रिश्ते ख़राब होने लगे, और 1935 में सरकार ने कॉंट्रैक्ट कैंसिल कर दिया.
टाटा ने दिया 23 हजार टन स्टील
उसी साल सरकार ने हावड़ा ब्रिज अमेंडमेंट नाम का एक बिल पास किया और ब्रेथवेट, बर्न एंड जोसेप कंस्ट्रक्शन नाम की एक दूसरी कम्पनी को कांट्रैक्ट दे दिया. जानकारी के लिए बता दें वर्तमान में ब्रेथवेट, बर्न एंड जोसेप कंस्ट्रक्शन एक PSU है और रेलवे के प्राजेक्ट्स संभालती है. हुगली के ऊपर बना दूसरा पुल, विद्यासागर सेतु, जिसे 1992 में खोला गया था, वो भी इसी कम्पनी ने बनाया था.
कंपनी ने साल 1936 में न्यू हावड़ा ब्रिज का निर्माण कार्य शुरू किया और 1943 में ये पूरा हो गया. अब इस पुल के बारे में कुछ डिटेल्स भी जान लीजिए -
- हावड़ा ब्रिज कैंटिलीवर प्रकार का पुल है. यानी पूरा पुल नदी के दोनों किनारों पर बने 280 फीट ऊंचे दो स्तंभों पर ही टिका है. इन स्तंभों को बनाने से जुड़ा एक दिलचस्प क़िस्सा है. हुआ यूं कि एक रात जब नदी के तट से गाद निकाली जारी रही थी, एक टावर सीधा दो फ़ीट ज़मीन में घुस गया. असर इतना ज़ोरदार था कि कोलकाता के पास खिदिरपुर में लगे सिस्मोग्राफ में एक हल्का भूकम्प दर्ज हो गया. गाद को हटाने में अठारवीं सदी की तोपें, तोप के गोले और सिक्के भी मिले थे. कुल मिलाकर हावड़ा पुल की नींव डालने में 2 साल का वक्त लगा और 1940 में बाक़ी हिस्से का निर्माण शुरू हुआ.
- इसके दो स्तंभों के बीच की दूरी डेढ़ हजार फीट है. इन दोनों स्तंभों के अलावा नदी में कहीं भी ऐसा आधार नहीं दिया गया है, जो पुल को सहारा दे सके. इसके अलावा इस पुल की ख़ास बात है कि इसे बनाने में नट और बोल्ट का इस्तेमाल नहीं किया गया. बल्कि धातु के दो हिस्सों को जोड़ने के लिए धातु की बनी कीलों यानी रिवेट्स का इस्तेमाल किया गया है.
- इस पुल को बनाने के लिए 26 हज़ार टन स्टील की ज़रूरत थी. लेकिन जब 1939 में सेकेंड वर्ल्ड वॉर शुरू हुआ, ब्रिटेन से स्टील का आयात बंद हो गया. लिहाज़ा तब पुल के लिए 23 हज़ार टन स्टील टाटा स्टील ने सप्लाई किया था.
साल 1942 में ये पुल बनकर तैयार हुआ. इसे बनाने में तब ढाई करोड़ रुपए की लागत आई थी. जब ये बना था तब ये दुनिया का तीसरा सबसे लम्बा कैंटिलीवर ब्रिज था. लेकिन सरकार ने जानबूझकर बिना गाजे बाजे के इसे पब्लिक के लिए खोल दिया. कोई उद्घाटन समारोह भी नहीं रखा गया. न अख़बारों में खबर छपी, यहां तक कि कलकत्ता पोर्ट ट्रस्ट की लॉग बुक में भी पुल का खोला जाना दर्ज नहीं किया गया. कारण- दिसंबर 1941 में पर्ल हार्बर पर हुआ हमला. जापान अब तक अंडमान निकोबार पर क़ब्ज़ा कर चुका था. शुरुआत में अंग्रेजों को लगा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के कारण जापानी कलकत्ता पर हमला नहीं करेंगे. लेकिन जल्द ही ये ग़लतफ़हमी दूर हो गई.
20 दिसंबर 1942 को जापान की इंपीरियल एयरफ़ोर्स के बमवर्षक विमानों ने रात के वक़्त कलकत्ता शहर पर चौतरफा बम गिराना शुरू कर दिए. अगले दो सालों तक कलकत्ता पर कई बार बमबारी हुई. जिसमें कई इमारतें तबाह हुई. लेकिन क़िस्मत से हावड़ा ब्रिज बच गया. एक बम पुल के काफ़ी नज़दीक गिरा था लेकिन कोई बड़ा नुक़सान नहीं हुआ. साल 1965 में हावड़ा ब्रिज का नाम गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सम्मान में रविंद्र सेतु रखा गया. लेकिन तब भी आम बोल चाल की भाषा मे इसे हावड़ा ब्रिज ही बुलाया जाता रहा.
हालिया समय की बात करें तो इसी साल यानी 2023 में हावड़ा ब्रिज को पेंट का काम किया जाना है. समय समय पर पुल का इंस्पेक्शन किया जाता है. ऐसे ही एक इंस्पेक्शन के दौरान साल 2011 में एक अजीब बात सामने आई थी. इंस्पेक्शन रिपोर्ट से पता चला कि ब्रिज के पायों की मोटाई लगभग आधी हो गई है. और पुल में लगे हैंगर की मोटाई 6मिलिमीटर से घटकर 3 मिलिमीटर हो गई है. वजह?
पता चला कि पान मसाले आदि की पीक से धातु में जंग लग गई थी. अधिकारियों को जंग से बचाने के लिए पायों के किनारे पर फाइबर ग्लास लगाना पड़ा था. 2023 में इस पुल को 80 साल पूरे हो रहे हैं, आगे ऐसी स्थितियां नहीं आई यो उम्मीद है अगले 70 साल तक हावड़ा ब्रिज यूं ही मज़बूती से खड़ा रहेगा.
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