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अमेरिकी डॉलर को क्यों सलाम ठोकती है दुनिया? जानें इसके 'बादशाह' बनने की कहानी

क्यों यूएस डॉलर दुनिया में हर जगह लेन-देन में इस्तेमाल होता है? किसने लिया ये फैसला और क्यों हम सब ‘यस यस’ कर मानते चले गए?

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कभी सोचा है कि जब भी ‘मनी’ की बात होती है, तो डॉलर को इतनी तवज्जो क्यों दी जाती है?

“न बीवी न बच्चा, न बाप बड़ा न भैया ... the whole thing is that कि भैया सबसे बड़ा रुपैया!” पैसे की महत्ता को समझाता ये गाना हम सभी ने सुना है. मौका देख कर स्टाइल से डायलाग की तरह इस्तेमाल भी किया है! In short, जेब भरी होनी ज़रूरी है. पर डॉलर के सामने गिरते रुपये से क्या वाकई जेबें भरी रहेंगी?

कभी सोचा है कि जब भी पैसे की बात होती है, ‘मनी’ की बात होती है, तो डॉलर को इतनी तवज्जो क्यों दी जाती है? हां, दुनिया की सबसे मज़बूत मुद्राओं में से एक है, पर क्यों है ऐसा?

‘अमेरिकी डॉलर है भैया!’ डॉलर का इतना भौकाल? सब देश अपना फोरेक्स रिज़र्व डॉलरों में क्यों मेंटेन करते हैं? ऐसा कब से शुरू हुआ? किसने लिया ये फैसला और हम सब ‘यस यस’ कर मानते चले गए? 

अमा... ये रिज़र्व मनी क्या बला है?

आरक्षित मुद्रा या रिज़र्व मनी, केंद्रीय बैंकों और प्रमुख फाइनैंशियल संस्थानों (financial institutions) द्वारा अंतरराष्ट्रीय लेन-देन के लिए इस्तेमाल की जाने वाली मुद्रा की एक बड़ी राशि को कहते हैं. जैसे अपने देश का सेंट्रल बैंक आरबीआई (RBI) फोरेक्स रिज़र्व डॉलर में मेंटेन करता है. सो हम वैश्विक स्तर पर व्यापार करते वक़्त, डॉलर में ही भुगतान करते हैं. साथ ही पेमेंट्स भी डॉलर में ली जाती हैं.  

अमेरिकी डॉलर

आरक्षित मुद्रा के अनेक फायदे भी होते हैं. रिज़र्व करेंसी एक्सचेंज रेट के रिस्क को कम करती है. ऐसा इसीलिए, क्योंकि किसी देश को व्यापार करने के लिए अपनी करेंसी/मुद्रा को आरक्षित मुद्रा के साथ एक्सचेंज करने की आवश्यकता नहीं होती. केवल यही नहीं, यही रिज़र्व वैश्विक लेन-देन (global transactions) को सुविधाजनक बनाने में भी सहायक होता है.

दुनियाभर में वस्तुओं की कीमत रिज़र्व करेंसी में होती है. मसलन डॉलर. सो देशों को उसी करेंसी में रिज़र्व मेंटेन करना पड़ता है, ताकि इन वस्तुओं को खरीद या बेच सकें. दूसरे देश इसीलिए अमेरिका की मौद्रिक नीतियों (monetary policies) की बारीकी से निगरानी करते हैं, ताकि सुनिश्चित कर सकें कि उनके फॉरेन रिजर्व इन्फ्लेशन या बढ़ती कीमतों से प्रभावित न हो.

डॉलर के ‘लीडर’ बनने की कहानी 

# ब्रेटन वुड्स समझौता

अमेरिका में कागजी मुद्रा का इतिहास औपनिवेशिक काल से है. पहला अमेरिकी डॉलर साल 1914 में छपा था. और ये हुआ था फ़ेडरल रिज़र्व अधिनियम की स्थापना के एक साल बाद. दरअसल डॉलर एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय आरक्षित मुद्रा (reserve currency) तो प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही बन गया था. पर इसने पाउंड स्टर्लिंग को दुनिया की प्राथमिक आरक्षित मुद्रा के रूप में विस्थापित किया दूसरे विश्व युद्ध के अंत में.  

साल 1944. दुनिया में चल रहा था उलटफेर. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान 44 देशों की बैठक ने एक फैसला लिया. अपनी मुद्राओं को अमेरिकी डॉलर से जोड़ने का फैसला. पर अमेरिका ही क्यों? क्योंकि मित्र राज्यों में अमेरिका सबसे मज़बूत देश था. युद्ध समाप्त होने के बाद एक्सिस पावर्स (Axis Powers) की पुनर्गठित सरकारों ने अपने अपने मुद्रा रिज़र्व के लिए डॉलर का उपयोग करने की हामी भर दी.

इसी से जुड़ा है ब्रेटन वुड्स समझौता (Bretton Woods Agreement). इसी के तहत वर्ल्ड बैंक (World Bank) और इंटरनेशनल मोनेटेरी फंड (IMF) भी अस्तित्व में आए. ब्रेटन वुड्स समझौते के कारण अमेरिकी डॉलर को आधिकारिक तौर पर दुनिया की आरक्षित मुद्रा बनाया गया. ऐसा इसीलिए भी क्योंकि इसी करेंसी को दुनिया का सबसे बड़ा स्वर्ण भंडार (gold reserve) समर्थन दे रहा था. 

ब्रेटन वुड्स समझौता, 1944 (सोर्स: ब्रिटानिया एन्साइक्लोपीडिया) 

1944 से देशों ने अपनी एक्सचेंज दरों को डॉलर में आंका, जो उस समय सोने में कन्वर्ट की जा सकती थीं. सोना समर्थित डॉलर काफी स्थिर था. परिणामस्वरूप, अन्य देश अपनी मुद्राओं को स्थिर करने में सक्षम बनते गए.

पर ये मुद्रा गोल्ड समर्थित (gold-backed) थी. तो सोने की सप्लाई मेंटेन करने के बजाय अन्य देशों ने अमेरिका डॉलर का भंडार जमा किया. इन्हीं डॉलर्स को स्टोर करने के लिए देशों ने अमेरिकी ट्रेज़री सिक्योरिटीज खरीदनी शुरू कीं, जो इसी मुद्रा का एक सुरक्षित भंडार था.

ट्रेज़री सिक्योरिटीज के बारे में भी जान लीजिए. ये अमेरिकी सरकार द्वारा समर्थित सबसे सुरक्षित निवेशों में से एक है. हालांकि इन्हें कम रिस्क वाला माना जाता है, पर कुछ जोखिम साथ आते हैं. मसलन ब्याज दरों में बदलाव, इन्फ्लेशन वगैरह.

# डॉलर का गोल्ड समर्थित न रहना

ट्रेज़री सिक्योरिटीज की बढ़ती मांग, वियतनाम युद्ध जैसी परिस्थितियों ने अमेरिका को पेपर मनी को बढ़ावा देने पर मजबूर किया. पेपर मनी की मानो बाढ़ ही आ गई. डॉलर की मौद्रिक स्थिरता पर चिंताएं बढ़ रही थीं. इसके चलते देशों ने डॉलर के भंडार को सोने में बदलना शुरू कर दिया.  

गोल्ड रिज़र्व (सांकेतिक तस्वीर)

सोने की मांग ऐसी थी कि उस वक़्त के अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को हस्तक्षेप करना पड़ा. एक ही रास्ता था, मजबूरी में डॉलर को सोने से डी-लिंक करना. इसी वजह से फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट्स आए, जो आज भी प्रचलन में हैं.

हालांकि स्टैगफ्लेशन की स्थिति रही है, पर अमेरिकी डॉलर दुनिया की आरक्षित मुद्रा यानी रिज़र्व करेंसी बना हुआ है. स्टैगफ्लेशन तब होता है, जब बेरोज़गारी और महंगाई दोनों बहुत बढ़ी होती हैं.

आज के समय में अमेरिकी डॉलर

1970 के दशक में अमेरिकी डॉलर सोने के मानक से नीचे चला गया था. इससे समकालीन फ्लोटिंग रेट्स में इजाफा हुआ. लेकिन डॉलर आज भी दुनिया की आरक्षित मुद्रा बना हुआ है. IMF के अनुसार, दुनिया के ज्यादातर केंद्रीय बैंक अपने रिज़र्व को लगभग 59 पर्सेंट अमेरिकी डॉलर में रखते हैं. 

साथ ही, ये वैश्विक व्यापार और लेन-देन के लिए सबसे रिडीमेबल (Redeemable) मुद्रा है. रिडीमेबल मतलब वो करेंसी जो माल या धन के बदले आसानी से एक्सचेंज की जा सके. अमेरिकी अर्थव्यवस्था, ताकत और वित्तीय बाज़ारों का प्रभुत्व भी इसमें एक अहम भूमिका निभाता है. 

बहुत से लोगों का ये मानना होगा कि यही करेंसी दुनिया की सबसे मज़बूत करेंसी है, पर ऐसा नहीं है. सीएमसी मार्केट्स (CMC Markets) के अनुसार, वैश्विक बाज़ारों में सबसे मज़बूत मुद्रा है कुवैती दीनार. ब्रिटिश पाउंड पांचवें और यूरो आठवें स्थान पर हैं. अमेरिका डॉलर आता है दसवें नंबर पर.  

यूरो, कुवैती दीनार, अमेरिकी डॉलर और ब्रिटिश पाउंड

अंतरराष्ट्रीय लेन-देन में डॉलर सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल होने वाली और साथ ही एक फ्री-फ्लोटिंग मुद्रा है. ये कई देशों में आधिकारिक और अन्य देशों में वास्तविक करेंसी है. 1944 से, बहुत सारे देश अमेरिकी डॉलर को ही मुख्य रूप से रिज़र्व करेंसी के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं. यही वजह है कि डॉलर का आज इतना महत्त्व है.

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