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किताब लिखना चाहते हैं? जानिए आपको कैसे मिलेगा बुकर पुरस्कार?

हर एक स्टेप बता दिया, पढ़ लो.

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एपी फोटो/डेविड क्लिफ

गीतांजलि श्री (Geetanjali Shree) के उपन्यास “टूम ऑफ सैंड” (Tomb of Sand) को अंतरराष्ट्रीय बुकर प्राइज (International Booker prize) मिला है. किताब थी हिंदी भाषा में लिखा गया उपन्यास रेत समाधि. अनुवाद हुआ 'टूम ऑफ सैंड’ के नाम से और अनुवाद किया डेज़ी रॉकवेल ने. और इसके साथ अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतने वाली किसी भी भारतीय भाषा की पहली किताब बन गई है.

इस स्टोरी में हम जानेंगे कि बुकर पुरस्कार की कहानी क्या है? कैसे शुरू हुआ? कैसे नामांकन होता है? क्या अर्हता है? कितना पैसा मिलता है? और भी दूसरी जरूरी बातें.

क्यों शुरू किया गया?

मैन बुकर प्राइज 1969 में शुरू हुआ.इसे शुरू करने के पीछे का मकसद 'फिक्शन' यानी उपन्यास लेखन को बढ़ावा देना था. और इसीलिए आज भी इस प्राइज के लिए साल की बेस्ट फिक्शन यानी उपन्यास या गल्प पर आधारित किताब को ही चुना जाता है.

डेजी रॉकवेल (बाएं) और गीतांजलि श्री (दाएं) | फोटो: Twitter/TheBookerPrizes
इसका नाम बुकर कैसे पड़ा?

जब यह शुरू हुआ था तब इसका नाम बुकर-मैककोनेल प्राइज था. ऐसा इसलिए था क्योंकि इसका पूरा पैसा (50 हजार पाउंड) बुकर मैककोनेल नाम की एक कंपनी से आता था. बुकर मेककोनेल आज भी ब्रिटेन की सबसे बड़ी ‘फ़ूड’ कंपनियों में से एक है. इस कंपनी की पूरे ब्रिटेन में बड़े-बड़े रेस्टोरेंट और दुकाने हैं. हर साल इसे करोड़ों रुपए की कमाई होती है.

'मैन' बुकर क्यों कहा जाता है?

'बुकर मेककोनेल' कंपनी की फंडिंग के चलते ही इस कंपनी की फंडिंग के चलते ही इस प्राइज के नाम में बुकर जुड़ा. अब इस प्राइज के साथ 'मैन' नाम कैसे जुड़ा यह भी बताते हैं. कुछ लोग समझते हैं कि मैन बुकर प्राइज में मैन इसलिए जुड़ा है कि इसे केवल आदमी ही देते होंगे या फिर ये केवल आदमियों को ही दिया जाता होगा. लेकिन ये एकदम गलत है क्योंकि यह पुरस्कार न तो केवल मैन ही देते हैं और न ही ये केवल आदमियों को मिलता है.

दरअसल, प्राइज में 'मैन' शब्द जुड़ने की वजह भी इसकी फंडिंग से जुड़ी है. कई साल तक इस प्राइज को 'बुकर मैककोनेल' कंपनी फंड देती रही. लेकिन कई साल पहले इसकी फंडिंग भारी इन्वेस्टमेंट कंपनी ‘मैन ग्रुप’ के हाथ में चली गई. हालांकि, 'मैन ग्रुप' ने पूरी फंडिंग देने के बाद भी प्राइज का पूरा नाम नहीं बदला क्योंकि बुकर प्राइज बहुत ज्यादा चर्चित हो चुका था. इसलिए 'मैन ग्रुप' ने ‘बुकर’ नाम नहीं बदलने का फैसला किया और प्राइज का नया नाम ‘मैन बुकर’ रख दिया.

फोटो: bookerprizes.com

18 साल तक मैन ग्रुप द्वारा फंडिंग की गई. साल 2019 का जब पुरस्कार घोषित हुआ, तो उसके बाद फंड करने वाले नए लोग जुड़े. क्रैंकस्टार्ट नाम की. जिसकी नींव रखी थी पूर्व पत्रकार और लेखक माइकल मॉरिट्ज़ और पत्रकार हैरियट हेमैन ने. और अभी तक क्रैंकस्टार्ट ही इस सालाना पुरस्कार की फंडिंग करता आया है.

क्या अर्हता है?

अंतरराष्ट्रीय मैन बुकर प्राइज किताबों (उपन्यास) के लिए दिए जाने वाले सबसे बड़े पुरस्कारों में से एक है. ये प्राइज हर साल किसी एक ऐसी किताब को दिया जाता है, जो पहले किसी अन्य भाषा में लिखी गई हो और फिर उसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया गया हो. साथ ही अंग्रेजी में ये किताब ब्रिटेन या आयरलैंड में प्रकाशित हुई हो.

किन देशों के लोगों को मिलेगा?

प्राइज शुरू होने से लेकर कई सालों तक ये प्राइज केवल कॉमनवेल्थ देशों, यानी वो देश जो ब्रिटेन के अधीन रहे हैं, के साथ-साथ आयरलैंड और ज़िम्बाब्वे के लेखकों को मिलता था. लेकिन, 2014 में बड़ा फैसला लिया गया और 52 कॉमनवेल्थ देशों के अलावा दुनिया के अन्य देशों में छपने वाली हर किताब भी इस प्राइज के लिए एलिजिबल हो गई.

फोटो: AP
कितना पैसा मिलता है?

अंतरराष्ट्रीय मैन बुकर प्राइज दुनिया के सबसे अमीर पुरस्कारों में से एक है. 50 हजार पाउंड मतलब 49 लाख रुपए से ज्यादा की रकम मिलती है इसे जीतने वाले लेखक को.

कैसे होगा नामांकन?

हर साल नामांकन के लिए आती है डेडलाइन. बुकर वाले अपनी वेबसाइट पर घोषणा करते हैं. फिर मूल हों या अनूदित किताबें ऊपर लिखी एलिजिबिलिटी या अर्हता के दायरे में आते हैं, उनका नामांकन किया जाता है. किसी लेखक ने अगर अपनी किताब खुद से छापी है, तो वो नामाकंन नहीं कर सकता है. पूरा नियम कायदा लिखा है बुकर की वेबसाइट पर. यहां - क्लिक करके पढ़ लीजिए.

और इस वीकेंड उठाइए एक किताब. पढ़ जाइए और हमको बताइए सोशल मीडिया पर कि क्या पढ़ा और कैसा लगा?

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