नार्वे की डिजाइनर सिरेन एलिसे विल्हेमसन ने एक अलग तरह की घड़ी बनाई. जिसका नाम है ‘365 निटिंग क्लॉक (365 knitting clock)’. इसकी खास बात ये है कि ये टाइम कुछ अलग तरीके से बताती है. ये तरीका है बुनाई करके . सही पढ़ा, बुनाई. इस घड़ी में साल खत्म होते-होते एक मफलर बनके तैयार हो जाता है. ‘आम के आम मफलर के दाम’. खैर हमारी घड़ियां भी कुछ कम मेहनती नहीं हैं. दिन-रात एक ही काम करती हैं; दिन-रात बताने का… इनकी मेहनत का आलम तो ये है कि बेचारी घड़ी खराब होने बाद भी, दिन में दो बार सही समय बता ही देती हैं. खैर आपने कभी सोचा है कि हर घड़ी में सेकेंड लगभग एक जैसा कैसे चलता है. और भला घड़ी में लिखे ‘QUARTZ’ का क्या मतलब होता है.
खराब घड़ी भी दिन में दो बार सही समय बताती हैं, मगर सही घड़ियां कैसे काम करती हैं?
पानी, रेत, मोमबत्ती से लेकर सूरज, सभी का इस्तेमाल समय बताने के लिए किया गया है. फिर दौर आया पेंडुलम घड़ियों का. लेकिन इनके साथ एक दिक्कत थी. ये हर जगह सही से काम नहीं करती थीं. इससे निपटने के लिए मैकेनिकल घड़ियों (Mechanical Watches) को बनाने की जरूरत पड़ी. जिसके काम करने का तरीका बड़ा दिलचस्प है (How watch works).
जैसे मीटर से लंबाई नापते हैं, वैसे ही सेकेंड से समय. ये तो हम जानते हैं. लेकिन एक सेकेंड कितना होता है, ये कैसे तय किया जाए? यह समस्या लोगों के सामने सदियों से रही है. पहले लोग एक सेकेंड को एक सूर्य दिवस का 1/86,400वां हिस्सा बताते थे. सूर्य दिवस माने, एक साल में धरती के अपनी धुरी में धूमने का औसत समय.
खैर धीरे-धीरे और सटीक समय बताने की जरूरत हुई, जो इस तरीके से संभव नहीं हो पा रहा था. फिर 1956 में इंटरनेशनल कमिटी ऑन वेट एंड मेजरमेंट, मतलब दुनिया में नाप-जोख बताने वाली संस्था ने कहा कि साल 1900 का 1/31,556,925.9747 वां हिस्सा एक सेकेंड होगा. लेकिन ये सब धरती की गति पर निर्भर करते थे.
तो एक सटीक सेकेंड की परिभाषा बताने के लिए, एटॉमिक क्लॉक का सहारा लिया गया. जिसमें सीजियम-133 एटम की मदद से सेकेंड का मानक तय किया गया. दरअसल कोई भी एटम खुद में किसी पेंडुलम की तरह वाइब्रेट करता है.
फिर इसमें तीम-ताम लगाकर तय किया गया कि सीजियम-133 के 9,192,631,770 रेडिएशन साइकल से एक सेकेंड निकाला जाएगा. इतने बड़े नंबरों से घबराने की जरूरत नहीं. ये तो बस एक सेकेंड की जानकारी के लिए है, जो एटॉमिक घड़ी के लिए हैं. हमारी हाथ वाली घड़ी का अलग मामला है समझते हैं.
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घड़ियों का रहा है मजेदार इतिहासपानी, रेत, मोमबत्ती से लेकर सूरज सभी को समय बताने के लिए इस्तेमाल में लिया गया है. दिन में सूरज की रोशनी से सौर्य घड़ी, तो रात में मोमबत्ती में कीलियां लगाकर उसके पिघलने की रफ्तार से समय का अंदाया लगाया जाता था. लेकिन ये अंदाजा था. ठीक-ठीक टाइम बताने के लिए कुछ दूसरी तकनीक की जरूरत थी.
फिर दौर आया पेंडुलम वाली घंटा घड़ियों का. लेकिन इनके साथ एक दिक्कत थी. ये समंदर में सही से काम नहीं करती थीं. इसी दिक्कत से निपटने के लिए मैकेनिकल घड़ियों (Mechanical Watches) को बनाने की जरूरत पड़ी. जिसके काम करने का तरीका बड़ा दिलचस्प है.
मैकेनिकल घड़ी में क्या छिपा हैमैकेनिकल घड़ी माने वो वाली घड़ी, जिसको खोलने पर उसमें गियर और चकरी वगैरह नजर आते हैं. जो घूम कर एक गति के साथ चलते हैं और समय बताते हैं. वहीं डिजिटल घड़ी में कोई ऐसे गियर की जरूरत नहीं होती. इसमें एक इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड और डिस्प्ले के जरिए समय बताया जाता है. इस पर बाद में आएंगे. पहले घड़ियों के काम करने के पीछे का जुगाड़ समझते हैं.
तो पूरा मामला है, एक सेकेंड सही-सही बताने का. घड़ी एक सेकेंड सही बताए, तो जोड़-घटा कर मिनट और घंटा बनाया जा सकता है. लेकिन ये सेकेंड कैसे बताया जाए. या कहें ऐसी चीज कहां से लायी जाए, जो एक सेकेंड में ही हरकत या दोलन (oscillation) करती हो. या जिनके दोलन से एक सेकेंड निकाला जा सके.
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शुरुआत में तो पेंडुलम घड़ियों में पेंडुलम की लंबाई और वजन से ये जुगत बिठा ली जाती थी. कि पेंडुलन एक सेकेंड में ही इधर से उधर करे. और फिर पेंडुलम के इस मूमेंट को गियर वगैरह की मदद से सेकेंड और मिनट की सुई को चलाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था.
लेकिन पेंडुलम के साथ कई समस्या थीं. मसलन ये हर जगह नहीं काम कर सकते थे. तब इस्तेमाल किया गया ‘क्वाइल्ड स्प्रिंग’ का. चाभी भरने वाले खिलौनों के भीतर आपने लोहे वगैरह की चकरीनुमा स्रिंग देखी होगी, ये भी वैसा ही कुछ है. फर्क बस इताना है कि घड़ी में ये बहुत छोटी होती है. और एक सटीक तरीके से बनाई जाती है. ताकि इसका दोलन ऐसे हो कि उससे एक सेकेंड बार चकरी घुमाई जा सके.
लेकिन ये दोलन हमेशा एक जैसा तो चलेगा नहीं. जैसे पेंडुलम कुछ देर बाद धीरे होने लगता है. ये समस्या इसके साथ भी थी. इसलिए इस्तेमाल किया गया सेल की इलेक्ट्रिसिटी का. जिससे इसके दोलन को एक सटीक फ्रीक्वेंसी या आवृत्ति पर फिक्स रखा जा सके.
स्प्रिंग वाली मैकेनिकल घड़ियों के समय बताने से भी लोग खुश न थे. जायज भी है. इंटरनेट से लेकर सैटेलाइट सब में समय की सटीकता का काम है. यहां तक कि बैंक के ट्रांजेक्शन भी इस पर निर्भर करते हैं. ताकि दुनिया के अलग-अलग कोनों पर एक सा टाइम समझा जा सके. फिर दौर आया QUARTZ का, जो कोई ब्रांड नहीं बल्कि एक तरह का क्रिस्टल है.
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QUARTZ की झनझनाहट से निकला सेकेंड!QUARTZ ऑक्सीजन और सिलिकॉन (रेत में पाया जाने वाला) तत्वों से बना एक तरह का मिनरल है. जो क्रिस्टल के तौर पर रहता है. सरल करके समझें, तो इसमें ये तत्व एक ढांचे में बंधे होते हैं. इस ढांचे की वजह से इनमें एक खास गुण होता है. जिसे पिजोइलेक्ट्रीसिटी कहते हैं. इसमें होता ये है कि जब इसके क्रिस्टल को दबाया जाता है तो इससे कुछ इलेक्ट्रिक वोल्टेज निकलता है. इसका उल्टा भी होता है. जब इसके क्रिस्टल को एक फिक्स वोल्टेज दिया जाता है, तो ये एक सटीक फ्रीक्वेंसी में दोलन करता है. मतलब ये एक सेकेंड में एक निश्चित बार 'डोलते' हैं.
QUARTZ घड़ियों में ये 32,768 बार होता है. या कहें QUARTZ के क्रिस्टल को इस तरह से ट्यून किया जाता है कि इनकी फ्रीक्वेंसी 32,768 hz या 2 के घाते 15 हर्ट्ज हो. ये इसलिए रखा गया है क्योंकि इंसान 20,000 से ऊपर की फ्रीक्वेंसी नहीं सुन सकते. इससे कम फ्रीक्वेंसी का क्रिस्टल रखा जाए, तो पता चले घड़ी दिन-रात ‘चे-चें’ करती रहे. इसलिए इस सब से बचने के लिए ये फ्रीक्वेंसी चुनी गई.
खैर अब ये तो फिक्स हो गया कि ये क्वार्ट्ज एक सेकेंड में निश्चित बार दोलन करता है. फिर इसको सेकेंड में बदलने के लिए एक ‘माइक्रोचिप सर्किट’ का इस्तेमाल किया जाता है. ये काम कैसे करता है वो बताने के लिए अलग लेख में चर्चा करते हैं. अभी बस ये समझते हैं कि ये काम क्या करता है. तो इसका काम है, क्वार्ट्स के 32,768 hz दोलन को एक सेकेंड के गैप वाले रेगुलर इलेक्ट्रिक सिग्नल में बदलने का. फिर…
1. घड़ी अगर डिजिटल है तो इस सिग्नल को सीधा सेकेंड, मिनट और घंटे में बदलकर डिस्प्ले में दिखाया जाता है.
2. वहीं मैकेनिकल घड़ी में इस सिग्नल से एक बेहद छोटी मोटर चलाई जाती है. जिसे ‘स्टेपर मोटर’ कहते हैं. और फिर छोटे गियर के जरिए इस मोटर की गति से सेकेंड, मिनट और घंटे की सुई घुमाई जाती हैं.
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