आज 2 फरवरी है और आज की तारीख़ का संबंध है भारतीय द्वीपों पर पुर्तगाली आधिपत्य की घटना से. # समुद्री यात्रियों का आगमन- बात शुरू होती है यूरोप और अफ्रीकी देशों के साथ भारत के मसालों और कपड़ों के व्यापार से. इसके लिए 15वीं सदी में भारत से यूरोप तक लैंड रूट का इस्तेमाल होता था. लेकिन 1453 में कांस्टेंटिनोपल यानी कुस्तुन्तुनिया यानी आज के इंस्तांबुल पर तुर्की के उस्मानियों का कब्जा हो गया. उस्मानी सुल्तान मेहमद द्वितीय ने यूरोप की बुनियाद हिला दी थी. कुस्तुन्तुनिया इसके पहले तक बाईजेंटाइन एम्पायर की राजधानी थी. उस्मानी लोग भारत से आने वाले माल पर भयंकर टैक्स लेने लगे. यूरोप वालों को ये सामान महंगा पड़ने लगा और आख़िरकार उस्मानियों की वजह से इस लैंड रूट से व्यापार बंद हो गया. दूसरी तरफ़ यूरोप के वेनिस और जेनेवा भी एशिया के साथ ज़मीनी रूट से व्यापार कर रहे थे. जिससे कई यूरोपीय देशों ख़ास तौर पर स्पेन और पुर्तगाल को दिक्कत थी. इनके पास अब एक ही रास्ता था - समन्दर का. पुर्तगाल और स्पेन के शासक समुद्री रास्तों से दुनिया के दूसरे हिस्सों को खोजने के लिए अपने नाविक भेजा करते थे. खुशी-खुशी इन लंबी यात्राओं की फंडिंग की जाती थी. स्पेन से एक नाविक चला- नाम था कोलंबस, इरादा भारत पहुंचने का था लेकिन पहुंच गया अमेरिका. और अमेरिका की खोज हो गई. कोलंबस को आखिर तक यही लगता रहा कि उसने भारत की खोज कर ली है. इसके बाद 1487 में पुर्तगाल से एक समुद्री यात्री भारत के लिए निकला. नाम- बार्थो लोम्यो डियास. ये अफ्रीका के किनारे-किनारे चला और साउथ अफ्रीका के एक द्वीप तक पहुंच गया. इस द्वीप को नाम दिया गया केप ऑफ़ होप. बार्थो ने करीब आधी दूरी तय कर ली थी लेकिन भारत तक नहीं पहुंच सका. इसके बाद साल 1497 में पुर्तगाल से एक और समुद्री यात्री ने सफ़र शुरू किया.‘जुड़वां द्वीप उस जगह का एक आदर्श उदाहरण हैं जहां इतिहास और प्रकृति मिलते हैं. शांति वह है जो दमन और दीव द्वीप समूह के समुद्र तटों का प्रतीक है. दमन चार शताब्दियों से अधिक समय तक पुर्तगाली उपनिवेश रहा और 1961 में भारतीय संघ में शामिल हो गया.’

कोलंबस (फोटो सोर्स - Wikimedia Commons)
# वास्को-डि-गामा- उस वक़्त पुर्तगाल के शासक थे- मैनुएल प्रथम. 8 जुलाई, 1497 को पुर्तगाली(Portuguese) नाविक वास्को-डि-गामा ने भारत की तरफ कूच किया. पुर्तगाल का लिस्बन शहर जैसे कोई त्यौहार मना रहा था. ये पुर्तगाल की राजधानी भी थी और बंदरगाह भी. लिस्बन के लोग लाखों की तादाद में सैनिकों और नाविकों को विदा करने के लिए समंदर किनारे पहुंच रहे थे. चार बड़े जहाज अपना सफ़र शुरू करने वाले थे. जिनमें तोप, जरुरी सामान और नक़्शे रखे गए थे. अफ्रीका के तटों का वो नक्शा भी था जिसे किंग मैनुएल के पहले पुर्तगाल के शासक रहे प्रिंस हेनरी ने तैयार कराया था. तमाम समुद्री अभियानों के बाद. इन्हीं के सहारे यात्रा शुरू की गई. फिल्म पाइरेट्स ऑफ़ द करबीएन का कोई सीन याद कर लीजिए. वैसा ही समुद्री सफ़र इन जहाज़ों का भी था. वास्को-डि-गामा पहले आशा अंतरीप यानी केप ऑफ़ गुड होप और फिर मेडागास्कर और अफ्रीका के बीच से होते हुए, मोजाम्बिक और फिर केन्या तक पहुंचा. यहां वास्को-डि-गामा की मुलाक़ात एक गुजराती व्यापारी अब्दुल मनीक से होती है. ये समुद्री इलाका मनीक की फिंगर टिप्स पर था, यानी अच्छे से रटा हुआ. मनीक की मदद से वास्को-डि-गामा हिन्द महासागर को पार करते हुए इंडिया में केरल के कालीकट पर पहुंचता है. करीब दस महीने के लंबे सफर में 12,000 मील की दूरी तय करने और दर्जनों साथियों को खो देने के बाद. तारीख़ थी 20 मई 1498. आज इस कालीकट को कोझीकोड कहते हैं.

वास्को डी गामा (फोटो सोर्स - Wikimedia Commons)
# कालीकट का शासक जमोरिन- इस वक़्त तक भारत से अरब के व्यापारी व्यापार किया करते थे. ये पहली बार था कि कोई यूरोपियन व्यापारी सीधे भारत आया था. जिस तट पर वास्को-डि-गामा पहुंचा था उसे मालाबार तट कहते हैं. और उस वक़्त इस पूरे इलाके यानी कालीकट का स्थानीय शासक था जमोरिन. जमोरिन दरअसल एक उपाधि थी जो इस हिंदू शासक को पुर्तगालियों ने ही दी थी. जैसे मुग़ल शासक को बादशाह कहा जाता है, हिंदू शासक को राजा या महाराजा वैसे ही पुर्तगाल में शासक को जमोरिन कहा जाता है. जमोरिन ने वास्को-डि-गामा का शानदार स्वागत किया. उसकी आव-भगत में कोई कमीं नहीं छोड़ी. वजह कि पहली बार विदेशियों से व्यापार करने का दूसरा विकल्प मिला था.
जब वास्को-डि-गामा ने ज़मोरिन से भारत में व्यापार बढ़ाने की बात की तो ज़मोरिन ने व्यापार करने की हामी तो भर दी. लेकिन कोई फैक्ट्री वगैरह लगाने से मना कर दिया. वजह अरबी व्यापारियों का प्रभाव और उनका कंट्रोल. दूसरी वजह ये कि जिस वास्को-डि-गामा को राजा ने शाही यात्री समझा था उसने राजा को बड़ी तुच्छ भेंटें दीं- लाल रंग की हैट, पीतल के कुछ बर्तन, कुछ किलो चीनी और शहद. जमोरिन और लोकल जनता ने समझा कि वास्को डि-गामा एक अदना सा समुद्री लुटेरा है, कई पुर्तगालियों को मार डाला गया. हालांकि उसकी तोपों का जवाब जमोरिन के पास नहीं था. जब वास्को डि-गामा ने गुस्साकर तोपों से हमला कर दिया तो राजा जमोरिन को शहर के अन्दर भागना पड़ा.
इसके बाद वास्को-डि-गामा वापस पुर्तगाल चला गया. दो चीज़ें लेकर, एक बहुत सारे मसाले और जड़ी-बूटियां. कहा जाता है जितना सामान लेकर वास्को-डी-गामा पुर्तगाल गया था, उसकी बिक्री से उसे आने-जाने का खर्च निकालकर 60 गुना मुनाफ़ा हुआ था. और दूसरी चीज़ जो वास्को-डि-गामा लेकर गया था वो थी- एक सीख. ये कि अरब से जो भी जहाज भारत व्यापार करने आते हैं, उनके पास ज्यादा हथियार नहीं होते. इन 1500 से ज्यादा अरबी जहाज़ों का उद्देश्य सिर्फ व्यापार का होता है, इसलिए अगर एक मजबूत नौसेना लाकर इन पर हमला कर दिया जाए तो भारत में व्यापार के लिए मनमाना रास्ता खुल जाएगा.
किंग मैनुएल ने स्पेन की महारानी इसाबेला और शाह फर्डीनांड को ख़त लिखा,
लेकिन सवाल ये था कि दसियों हजार किलोमीटर दूर से व्यापार होगा कैसे? ऊपर से अरबी जहाज़ों का समुद्री इलाके पर कब्जा भी चिंता की बात थी."ऊपरवाले के करम से वो व्यापार जो इस इलाक़े के मुसलमानों को मालदार बनाता है, अब हमारी सल्तनत के जहाज़ों के पास होगा और ये मसाले तमाम ईसाई दुनिया तक पहुंचाए जाएंगे."
इसके बाद पुर्तगाल में भारत से व्यापार करने के लिए साल 1498 में ही एक कंपनी बनाई गई, नाम था- एस्तादो दी इंडिया. इस पुर्तगाली कंपनी का व्यापार के अलावा भी एक उद्देश्य था, धार्मिक और राजनीतिक प्रभाव बढ़ाना. उस्मानियों के हमले और कुस्तुन्तुनिया के पतन से हुई ईसाईयत की हानि का हर्जाना भी अब भारत से वसूला जाना था.

वास्को डी गामा और ज़मोरिन (फोटो सोर्स - Wikimedia Commons)
# दूसरी पुर्तगाली आमद- साल 1500 में पेड्रो अल्वारेस काबराल (Pedro Alvares Cabral भारत आया. 13 जहाज और काफ़ी तादात में हथियार बंद नौसैनिकों के साथ.
काबराल को पुर्तगाली बादशाह ने लिखित सन्देश भेजा,
पेड्रो ने दो दिनों तक कालीकट पर बमबारी की, लोग जगह छोड़कर भागने को मजबूर हो गए. इसके बाद पेड्रो कोचीन के राजा से मिला, जिसे अब कोच्चि कहते हैं, ये केरल के एनार्कुलम जिले का एक बंदरगाह है. इसके अलावा पेड्रो कर्नाटक के कन्नूर भी गया, यहां के तत्कालीन शासक से भी मिला. इसी दौरान इसने अरब के एक व्यापारी जहाज पर हमला भी किया और उसे जीतकर भारतीय राजाओं को तोहफ़े में दे दिया. भारतीय राजा पेड्रो से डरे हुए थे, उन्होंने पेड्रो को अपने यहां व्यापारिक ठिकाने स्थापित करने की अनुमति दे दी. इसके बाद पेड्रो काफ़ी सामान लेकर वापस चला गया.‘तुम्हें समंदर में मक्का के मुसलमानों का जो भी जहाज़ मिले उस पर हर संभव क़ब्ज़ा करो, और लादे गए माल और जहाज़ पर मौजूद मुसलमानों को अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करो. उन से जंग करो और जितना भी हो सके उन्हें नुक़सान पहुंचाने की कोशिश करो.’
पेड्रो के मसालों से लदे जहाज़ जब पुर्तगाल पहुंचे तो लिस्बन में जश्न मनाया गया और वेनिस में मातम. कारण कि समुद्री व्यापार, हिन्द महासागर और भारत के दक्षिणी तटों पर पुर्तगालियों का प्रभुत्व जमने लगा था.
इसके बाद साल 1502 में वास्को-डी-गामा वापस भारत आया. और 1503 में कोचीन में पहली पुर्तगाली फैक्ट्री लगाई. ये फैक्ट्री दरअसल कारखाने नहीं होते थे, गोदाम कह सकते हैं. यहां बस क्षेत्रीय लोगों से सामान खरीदकर उसे स्टोर किया जाता था और बाद में पुर्तगाल भेज दिया जाता था. फैक्ट्री लगाने के बाद वास्को-डी-गामा वापस पुर्तगाल चला गया. # पहला पुर्तगाली गवर्नर- साल 1505 में पुर्तग़ाल के किंग एमनुएल ने फ्रांसिस्को डी अल्मीडा (Francisco de Almeida) को भारत भेजा. पुर्तग़ाली कंपनी का पहला वाइसरॉय या गवर्नर बनाकर. इसने ब्लू वाटर पॉलिसी बनाई. इस पॉलिसी का मुख्य उद्देश्य था, अरबी जहाज़ों को समंदर के रास्ते भारत में व्यापार करने से रोकना. इसी के तहत हिंद महासागर में अरबी जहाज़ों पर हमले होने लगे, उन पर कब्जा किया जाने लगा. और दूसरा उद्देश्य था भारत में राजनीतिक आधिपत्य ज़माना.
कालीकट के शासक जेमोरिन और उसके लोगों ने वास्को डि-गामा की पहली यात्रा के वक़्त तमाम पुर्तगालियों को मारा था, दूसरा जब फैक्ट्री लगाई गई तो उसका भी विरोध किया गया, और तीसरा ये कि कोचीन और कालीकट के शासकों में 1503 में भिडंत हो चुकी थी. जिसमें कालीकट के जमोरिन का पलड़ा भारी पड़ा था. इन्हीं वजहों से 1504 में कोचीन का युद्ध हुआ. जिसमें एक तरफ़ जमोरिन था और दूसरी तरफ़ उसके दो दुश्मन. # कोचीन का युद्ध- केरल तब मसालों में काली मिर्च के व्यापार के लिए बहुत मशहूर था. साल 1504 में मार्च से लेकर जुलाई तक कोचीन का युद्ध लड़ा गया था. ये युद्ध पुर्तग़ालियों ने कोचीन के राजा तिरमुमपरा के साथ मिलकर कालीकट के शासक जमोरिन के खिलाफ़ लड़ा. यानी पुर्तग़ाल + कोचीन वर्सेज कालीकट यानी आज का कोझीकोड.
इस युद्ध में ज़मोरिन की हार हुई. और इसी के साथ कोचीन पर पुर्तग़ालियों का अधिकार हो गया. कोचीन के युद्ध में मिली जीत को ही भारत में पुर्तगाल के राजनीतिक दखल की असली शुरुआत बताया जाता है. # दीव का युद्ध- साल 1526 में जब बाबर भारत में मुग़ल सल्तनत के पैर जमा रहा था तब पुर्तगाल कई तटीय इलाको पर पहले ही अपने कदम मजबूत कर चुका था. भारत में पुर्तग़ाल के आगमन के बाद या फिर कोचीन के युद्ध के बाद पूरी दुनिया में स्थितियां काफी बदल चुकी थी. सोने की चिड़िया को लूटा जा सकता है, दुनिया ये बात समझ गई थी. लेकिन इधर ज़मोरिन पुर्तग़ालियों से बदला लेना चाहते थे. अरब के लोगों का व्यापार भी पूरी तरह से चौपट हो गया था. पुर्तग़ालियों के कारण वेनिस का व्यापार भी बर्बाद हो रहा था. यानी अब चारों तरफ से सब मिलकर पुर्तग़ाली को खदेड़ना चाहते थे.
इस वक़्त तक पुर्तगाल ने दूसरे वाइसराय अलफांसो डी अल्बुकर्क को भारत भेज दिया था. उधर गुजरात के सुल्तान महमूद बेगड़ा ने दीव का गवर्नर मलिक अयाज़ को नियुक्त किया था. मिस्त्र के मामलूक साम्राज्य के लोग भी पुर्तग़ालियों के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार थे. वजह वही, उनका व्यापारिक नुकसान. मामलूकों का लीडर आमिर हुसैन कई सैनिकों और जहाजों के साथ साल 1505 में गुजरात के लिए रवाना हुआ और साल 1507 में दीव पहुंचा. मलिक अयाज़ से मदद की गुहार लगाई. पुर्तग़ाली भी कोचीन के साथ-साथ समुद्री रास्तों से होते हुए दमन और दीव पर भी अपना कब्ज़ा करना चाहते थे. साल 1508 में पुर्तगाली जहाज़ों का सामना जेमोरिन और मामलूकों से महाराष्ट्र के चौल में हुआ. जिसे ‘चौल का युद्ध’ कहते हैं. इसमें पुर्तग़ालियों की हार हुई. फ्रांसिस्को डी अल्मीडा (Francisco de Almeida) के पुत्र लॉरेंसो डी अल्मीडा (Lourenço de Almeida) की इस युद्ध में मौत हो गई. मामलूकों ने उसका जहाज डुबा दिया था. हालांकि इस युद्ध में एजिप्ट के मामलूकों की हालत भी पस्त हो गई थी. वो पुर्तगालियों के अड्डे यानी कोचीन तक जाना चाहते थे. लेकिन आगे नहीं बढ़ सके.
इसके बाद अल्ब्कुर्क की अगुवाई में 2 फरवरी 1509 यानी आज ही के दिन पुर्तग़ाली दीव पहुंचते हैं, इस बीच छिटपुट लडाइयां चल रही थीं. लेकिन दीव पहुंचने के बाद दोनों बेड़ों का सीधा सामना होता है. इस लड़ाई को दीव का युद्ध कहते हैं. सुबह 11 बजे युद्ध शुरू होता है. पुर्तगालियों की स्ट्रेटेजी तय थी. पहला कि हर तरफ़ से मामलूकों के जहाज़ों पर हमला करो, और उन्हें डुबाओ. इस जंग में पुर्तगालों के खुफिया विभाग ने भी उनकी बड़ी मदद की, दूसरा उनके जहाज माम्लूकों के जहाज़ों से कहीं बेहतर थे और तीसरा गुजरात के गवर्नर मलिक अय्याज़ ने पूरी ताकत से मामलूकों का साथ नहीं दिया. एक और वजह ये थी कि पहले पुर्तगाली गवर्नर फ्रांसिस्को डी अल्मीडा ने इस लड़ाई को पर्सनल ले लिया था. चौल में उसके बेटे की मौत हुई थी. रिटायर किए जाने के बाद भी वो वापस पुर्तगाल नहीं गया. बल्कि लड़ाई में हिस्सा लिया. पुर्तगालियों ने आर-पार की लडाई लड़ी और आखिरकार पुर्तग़ाली जीत गए. हालांकि पुर्तगालियों ने दीव पर कब्ज़ा नहीं किया बल्कि ट्रेड एग्रीमेंट साइन किया और वहां से भी व्यापार शुरू कर दिया. ट्रीटी में समझौते के तहत पुर्तगालियों को 3 लाख सोने के सिक्के मिले, चौल की लड़ाई में बंदी बनाए गए सभी पुर्तगाली छोड़ दिए गए. इसके बाद गुजरात के शाहों ने पुर्तग़ालियों से कई बार समझौते की कोशिश भी की. लेकिन बातचीत विफल रही. अगले साल 1510 में अल्बुकर्क की अगुवाई में पुर्तगालियों ने बीजापुर के शासक युसूफ आदिलशाह से गोवा भी छीन लिया. इसके बाद दमन पर भी पुर्तग़ालियों का नियंत्रण बढ़ता गया. अल्बुकर्क ने 1511 में साउथ ईस्ट एशिया की सबसे ख़ास मंडी कही जाने वाली स्टेट ऑफ़ मलक्का और 1515 में फारस की खाड़ी पर भी कब्जा कर लिया. इसीलिए अल्बुकर्क को भारत में पुर्तगाली ताकत का असली संस्थापक माना जाता है. आगे चलकर पुर्तगालों ने अपनी राजधानी को कोचीन से गोवा ट्रांसफ़र कर लिया.

पुर्तगाल ने दूसरे वाइसराय अलफांसो डी अल्बुकर्क (फोटो सोर्स - Wikimedia Commons)
# भारत पर असर- साल 1504 में हुए कोचीन के युद्ध और 1509 के दीव युद्ध को पुर्तगालियों के लिए टर्निंग पॉइंट माना जाता है. इसके बाद भारत जिसे तब सोने की चिड़िया कहा जाता था, उसे लूटने की जैसे रेस लग गई. साल 1526 में बाबर ने भारत में मुग़ल सल्तनत की नींव रखीं, भारत में यूरोपियन डोमिनेन्स भी बढ़ गई. ईस्ट इंडिया कंपनी, डच, फ्रांसीसी सभी बारी-बारी भारत पर कब्ज़ा करते चले गए. लेकिन पुर्तग़ालियों का शासन भारत की स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहा. और अंततः साल 1961 में भारत से पुर्तग़ाली शासन को हटाया गया. और गोवा, दमन, दीव एवं दादरा और नगर हवेली में भारत का आधिपत्य दोबारा कायम हुआ.