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क्या होते हैं फास्ट ट्रैक कोर्ट्स और कैसे काम करते हैं?

इन अदालतों ने हफ्तेभर के रिकॉर्ड समय में भी फैसले सुनाए हैं.

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सुप्रीम कोर्ट देश की सर्वोच्च अदालत है.
तेलंगाना का रंगा रेड्डी ज़िला. 27 नवंबर, 2019 की रात एक महिला डॉक्टर का रेप हुआ. अगले दिन सुबह उसकी जली हुई लाश एक पुल के नीचे मिली. अब तक चार आरोपियों को गिरफ्तार किया जा चुका है. घटना के विरोध में लोग सड़कों पर उतर आए हैं. घटना में शामिल लोगों को फांसी की सज़ा देने की मांग हो रही है. वो भी जल्द से जल्द. तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने 1 दिसंबर को कहा कि मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में होगी. ताकि पीड़िता और उसके परिवार को जल्द से जल्द इंसाफ मिल सके.
लेकिन ये फास्ट ट्रैक कोर्ट होते क्या हैं, कैसे काम करते हैं और इनका कॉन्सेप्ट कैसे आया? इस आर्टिकल में हम इन्हीं सवालों के जवाब तलाशेंगे.
Justice Delayed is Justice Denied. मतलब न्याय मिलने में देरी न्याय नहीं मिलने के बराबर है.
भारत की अदालतों में लाखों केस पेंडिंग हैं. ऐसे में कई गंभीर मामलों की सुनवाई शुरू होने में ही सालों का वक्त लग जाता था. फास्ट-ट्रैक कोर्ट का मकसद है कम से कम समय में पीड़ित पक्ष को कानूनी मदद उपलब्ध कराना. और जल्द से जल्द इंसाफ दिलवाना.
फास्ट ट्रैक अदालत का फैसला अंतिम नहीं होता.
फास्ट ट्रैक अदालत का फैसला अंतिम नहीं होता.

आगे बढ़ने से पहले कुछ आंकड़ों पर नज़र डालते हैं-
- 27 जून, 2019. राज्यसभा में कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बताया, देशभर के उच्च न्यायालयों में लगभग 43.55 लाख केस पेंडिंग हैं. इसमें से 8 लाख केस ऐसे हैं जो 10 साल से भी ज्यादा समय से चल रहे हैं.
- 4 अगस्त, 2019. दिन रविवार. सु्प्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई गुवाहाटी हाई कोर्ट के एक फंक्शन में पहुंचे थे. अपने भाषण में उन्होंने कहा कि देश में 1 हजार से ज्यादा केस ऐसे हैं जो 50 से भी अधिक साल से पेंडिंग हैं. और दो लाख से ज्यादा केस 25 साल से अधिक समय से पेंडिंग हैं.
- अगर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के साथ निचली अदालतों में धूल खा रहे मामलों को जोड़ लें तो अप्रैल, 2018 में देश की अदालतों में लगभग 3.3 करोड़ मामले पेंडिंग थे.
फास्ट-ट्रैक कोर्ट का इतिहास
साल 2000 में 11वां फाइनेंस कमीशन बना. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व वीसी प्रोफेसर सैयद अली मोहम्मद खुसरो इसके चेयरमैन थे. कमीशन ने अदालतों में पेंडिंग मामलों को निपटाने के लिए 1734 फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की राय दी. फाइनेंस मिनिस्ट्री ने इसके लिए 502.90 करोड़ रुपये जारी किए. ये पैसे सीधे राज्य सरकारों के पास भेजे गए. ताकि वो अपने यहां के हाईकोर्ट से सलाह-मशविरा करके फास्ट-ट्रैक कोर्ट बना सकें और लटके पड़े मामलों को जल्द से जल्द खत्म करें. ये फंड पांच साल के लिए जारी किया गया था. उम्मीद थी कि 5 साल में पेंडिंग मामलों का निपटारा कर लिया जाएगा.
A M Khusro
11वें फाइनेंस कमीशन के चेयरमैन ए. एम. खुसरो.

31 मार्च, 2005 को फास्ट-ट्रैक कोर्ट का आखिरी दिन था. उस वक्त 1562 फास्ट-ट्रैक अदालतें काम कर रही थीं. सरकार ने इनको जारी रखा. 5 साल का वक्त और दिया. 509 करोड़ की राशि भी दी. 2010 में इनका कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा दिया गया.
2011-12 में केंद्र से मिलने वाला सहयोग बंद होने वाला था. 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि राज्य सरकारें फास्ट-ट्रैक कोर्ट चलाने या बंद करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र हैं. केंद्र सरकार ने 2015 तक फास्टट्रैक कोर्ट चलाने के लिए मदद देने का फैसला किया. केंद्र ने जजों की सैलरी के लिए सालाना 80 करोड़ देने का फैसला किया.
जुलाई, 2019 में केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद में बताया कि 2021 तक देशभर में 1,023 फास्ट ट्रैक अदालतें बनाई जाएंगी. महिलाओं से जुड़े अपराधों की सुनवाई के लिए. 18 राज्यों ने कोर्ट बनाने पर सहमति जताई है. सरकार ने इसके लिए 767 करोड़ के ख़र्च की मंज़ूरी दी है जिसमें 474 करोड़ रुपये का ख़र्च केंद्र सरकार उठाएगी.
 कैसे काम करते हैं फास्ट ट्रैक कोर्ट?
- फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने का फैसला उस राज्य की सरकार हाई कोर्ट से चर्चा के बाद करती है.
- हाई कोर्ट फास्ट ट्रैक कोर्ट के लिए टाइमलाइन तय कर सकता है कि सुनवाई कब तक पूरी होनी है. टाइमलाइन के आधार पर फास्ट ट्रैक कोर्ट तय करता है कि मामले को हर रोज़ सुना जाना है या कुछ दिनों के अंतराल पर.
- सभी पक्षों को सुनने के बाद फास्ट ट्रैक कोर्ट तय टाइमलाइन में अपना फैसला सुनाता है.
क्या हैं फास्ट ट्रैक कोर्ट के फायदे?
- फास्ट ट्रैक कोर्ट की डिलीवरी रेट काफी तेज़ है.
- इससे सेशन कोर्ट्स में आने वाले मामलों का बर्डन कम हुआ है.
कई मामलों में फास्ट-ट्रैक कोर्ट ने हफ्ते के अंदर भी दोषियों को सजा सुनाई है.
फास्ट ट्रैक अदालतों में फैसला आ जाने  के बाद भी मामले सालों तक ऊपरी अदालतों में अटके रहते हैं. 2012 का दिल्ली गैंगरेप-मर्डर केस इसका बड़ा उदाहरण है.
16 दिसंबर, 2012 की घटना के बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन का आदेश दिया था. तय हुआ कि मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक बेसिस पर होगी. कुछ छह आरोपी थे, जिनमें से एक की सुनवाई के दौरान मौत हो गई. वहीं, एक आरोपी नाबालिग था. सितंबर, 2013 में फास्ट ट्रैक कोर्ट ने सभी आरोपियों को दोषी करार दिया. चार दोषियों को फांसी की सज़ा हुई. अपील हाईकोर्ट में पहुंची. 2014 में हाईकोर्ट ने मौत की सजा को  बरकरार रखा. जून, 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने इन चारों दोषियों की मौत की सजा पर मुहर लगा दी. अब दोषियों की दया याचिका राष्ट्रपति के पास पेंडिंग है. हाल ही में दिल्ली सरकार ने उनकी दया याचिका खारिज करने की सिफारिश की है. फास्ट ट्रैक कोर्ट बनने के बावजूद घटना के सात साल बाद भी दोषियों को फांसी नहीं हुई.


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