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अक्साई चिन पर चीन ने कैसे कब्ज़ा किया?

अक्साई चिन का असली इतिहास क्या है?

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चीन अक्साई चिन के 38000 हज़ार बर्ग किलोमीटर क्षेत्र पहले से ही कब्ज़ा कर के बैठा है (तस्वीर: Wikimedia/getty)

चीन को देखकर कभी कभी उस मीम की याद आती है. प्यारा सा एक बच्चा चारों ओर उंगली दिखाते हुए कह रहा है, तू भी मेरा, ये भी मेरा, अलाना भी मेरा, फलाना भी मेरा, ढिकाना भी मेरा और वो, वो तो मेरा था ही(China-India Border Dispute). साल 2017 की बात है. आर्मी चीफ़ बिपिन रावत ने चीन के साथ बॉर्डर तनाव के मसले पर कहा, भारत टू एंड हाल्फ मोर्चों पर लड़ाई के लिए तैयारी रखता है. चीन के विदेश मंत्री का जवाब आया,

"भारत को इतिहास याद रखना चाहिए".

इतिहास यानी 1962 का युद्ध. इसी मुद्दे पर सवाल जवाब के दौरान जब चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता से पूछा गया,

"डोकलाम के मुद्दे पर भूटान के सवाल का चीन के पास क्या जवाब है".

तो प्रवक्ता ने लगभग इसी लहजे में बोला,

“अरे डोकलाम, वो तो हमारा था ही”.

इसीलिए हमने कहा, चीन को देखकर मीम याद आता है, अरुणाचल मेरा, ताइवान मेरा, भूटान मेरा, साऊथ चाइना सी मेरा, और अक्साई चिन? वो तो मेरा था ही. मीम और असलियत में अन्तर ये है कि चीन प्यारा सा बच्चा नहीं है. महाशक्ति है. इस सच से हम कतई इंकार नहीं कर सकते. इसलिए साल 2023, ब्रिक्स सम्मेलन के तुरंत बाद जब चीन अपना नक्शा(China's new 'standard map') जारी करता है, हम कतई इस फेर में नहीं रह सकते कि ये तो चीन हमेशा करता रहता है. अपने हिस्से की बात हमें कहनी होगी. और उसके लिए पहले अच्छे से समझनी होगी. (Aksai Chin)

aksai chin history
शिनजियांग प्रांत कभी तारिम घाटी के नाम से जाना जाता था (तस्वीर: Wikimedia Commons )

अक्साई चिन में चिन क्या है? 

सबसे पहले नाम से शुरू करते हैं. अक्साई चिन में जो चिन है. उसका मतलब चीन नहीं है. 19 वीं सदी में ये नाम मोहम्मद अमीन नाम के एक वीगर मुसलमान ने दिया था. अमीन एक गाइड था. जिसने रॉबर्ट, हरमन और अडोल्फ़ नाम के तीन भाइयों की इस इलाके को तलाशने में मदद की थी. ये तीनों भाई जर्मन थे. और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के कहने पर इस इलाके का मुआयना करने आए थे. Ethnolinguistic Prehistory नाम की किताब में डच भाषाविद, जॉर्ज वैन ड्रियम लिखते हैं,

"अमीन ने इस जगह को नाम दिया था, अक्साई चोल. वीगर भाषा में जिसका मतलब होता है, पत्थरों वाला सफ़ेद रेगिस्तान. बाद में यही नाम अंग्रेज़ी में अक्साई चिन के नाम से फेमस हो गया.”

नाम के बाद अब बात नक़्शे की. अक्साई चिन का नक्शा(Aksai Chin Map) आप सभी ने देखा होगा. भारत में ये लद्दाख का हिस्सा है. लेकिन चीन इसे अपने शिनजियांग प्रांत का हिस्सा बताता है. शिनजियांग अक्साई चिन से एकदम लगा हुआ है. नीचे की तरफ देखेंगे तो आपको तिब्बत दिखाई देगा. वहीं अक्साई चिन के उत्तर पश्चिम में सियाचिन पड़ता है. सियाचिन लद्दाख और अक्साई चिन- ये तीनों जिस एक बिंदु पर मिलते हैं, वो है काराकोरम पास. काराकोरम पास एक समय में लदाख को शिनजियांग से जोड़ता था. हालांकि ये तब की बात है जब शिनजियांग था भी नहीं. एक तारिम घाटी हुआ करती थी.

तारिम घाटी का सबसे बड़ा शहर था, खोतान, जिसे अब होतान के नाम से जाना जाता है. और स्थानीय लोग इसे गोस्थान भी बुलाते थे. 1900 के आसपास औरल स्टाइन नाम के एक आर्कियोलॉजिस्ट को यहां प्राकृत भाषा के ग्रन्थ मिले. औरल स्टाइन के अनुसार खोतान को तक्षशिला से आए भारतीयों ने बसाया था. लोक कथाओं के अनुसार ईसा से तीन सौ साल पहले इस शहर का निर्माण हुआ था. कहानी कहती है, सम्राट अशोक के पुत्र को एक बार एक कबीले के किसी आदमी ने अंधा कर दिया. लिहाजा इन लोगों को मौर्य साम्राज्य से निष्कासित कर दिया गया. और ये लोग खोतान में जाकर बस गए.

एक कहानी ये भी है कि खुद अशोक के पुत्र ने इस शहर का निर्माण कराया था. कहानियों में सच का कुछ हिस्सा हमेशा होता है. लिहाजा तारिम घाटी में मिले बौद्ध ग्रंथ इस बात की तस्दीक करते हैं कि इस जगह का भारत से गहरा रिश्ता था. खोतान में पांचवी सदी की एक शिव की पेंटिंग भी मिली है. जिससे ये बात निश्चित हो जाती है. बल्कि अकादमिक इतिहास से थोड़ा बाहर जाएं तो भारत के पौराणिक ग्रंथों में इस इलाके का जिक्र मिलता है. रोमन भूगोलशास्त्री टॉलेमी ने 200 AD में लिखा कि चीन के पूर्वी हिस्से में उत्तर कोराई नाम की एक जगह है. इस कथन का महत्व इसलिए है क्योंकि भारतीय पौराणिक ग्रंथों में उत्तर की तरफ उत्तर कुरु नाम की एक जगह का वर्णन है, जिसका महाभारत में भी जिक्र आता है.

बहरहाल, खोतान से भारत तक रास्ते की बात करें तो दो रास्ते थे. पहला काराकोरम दर्रे को पार करते हुए हुंजा तक. हुंजा पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर में पड़ता है. हुंजा से आगे गांधार और तक्षशिला तक रास्ता जाता था. एक दूसरा रूट दक्षिण की तरफ जाने के लिए भी था. लेह की तरफ. काराकोरम दर्रे से होते हुए सिल्क के व्यापारी भारत में दाखिल होते थे. यानी ये सिल्क रूट का हिस्सा था. शक, कुषाण, हूण भी इसी रास्ते भारत में दाखिल हुए थे. काराकोरम दर्रे को पार करते ही आप उस स्थान पर पहुंचते थे. जिसे हम दौलत बेग ओल्डी के नाम से जानते हैं. साल 2023 में दौलत बेग ओल्डी लद्दाख में सबसे ऊंची हवाई पट्टी है. और चीन के साथ तनाव को देखते हुए भारत ने लेह से दौलत बेग ओल्डी तक एक सड़क का निर्माण किया है. दौलत बेग ओल्डी से कच्चा रास्ता लेह तक जाता था. और वहां से आगे हिमांचल और तिब्बत तक रास्ता मौजूद था. ये रास्ता बहुत ही दुर्गम हुआ करता था. जिसका जिक्र चीनी यात्री फा-यान ने अपने संस्मरणों में किया है.

Aksai chin conflict
भारतीय महाद्वीप के सर्वे के दौरान लद्दाख और तिब्बत का सर्वे भी पूरा हुआ (तस्वीर: wikimedia Commons)

Aksai Chin किसका था? 

इस सब के बीच अभी तक हमने अक्साई चिन इलाके का जिक्र नहीं किया है. दरअसल अक्साई चिन वाला हिस्सा बेजान बंजर रेगिस्तान हुआ करता था. इसलिए एक लम्बे समय तक इस इलाके पर किसी ने कब्ज़े की कोशिश नहीं की. अक्साई चिन का सिर्फ एक महत्व था. तारिम घाटी से पश्चिमी तिब्बत तक जाने का रास्ता यहीं से गुजरता था. लेकिन सिर्फ व्यापारी कारवां इसका इस्तेमाल करते थे. तिब्बत के हालांकि लद्दाख से काफी पुराने संबंध हैं.

आठवीं सदी में तिब्बत के राजाओं ने लदाख पर हमला कर उस पर कब्ज़ा कर लिया. इसी समय में तारिम घाटी में तुर्कों ने अपना कंट्रोल जमा लिया था. ये सभी राज्य एक दूसरे के अगल बगल में थे. और इनमें सत्ता को लेकर खींचतान चलती रहती थी. इसके बावजूद अक्साई चिन के इलाके पर कब्ज़े की कोई कोशिश नहीं हुई क्योंकि यहां कब्ज़ा करने लायक कुछ था ही नहीं. आठवीं सदी में चूंकि लद्दाख तिब्बतियों के कंट्रोल में था. इसलिए चीन लद्दाख को भी अपना बताता है. जबकि असलियत ये है कि लद्दाख के इतिहास में लम्बे समय तक चीन कहीं पिक्चर में था ही नहीं. बाकायदा जिसे शिनजियांग नाम दिया जाता है. वो इलाका भी 18 वीं सदी में अस्तित्व में आया. जब चीन के किंग साम्राज्य ने तारिम घाटी और आसपास के इलाके को मिलाकर उसे शिनजियांग नाम दे दिया. इस दौरान भी किंग साम्राज्य ने अक्साई चिन के इलाके में दखल देने की कोई कोशिश नहीं की. क्योंकि जैसा पहले बताया, इस इलाके में  रिसोर्सेज नहीं थे.इसलिए ये किसी के काम का नहीं था.अब सवाल ये कि फिर अक्साई चिन को लेकर पंगा शुरू कहां से हुआ?

अक्साई चिन का रोल 19 वीं सदी में अचानक बढ़ जाता है . जब शुरुआत होती है एक ग्रेट गेम की. ग्रेट गेम यानी रूस और ब्रिटिश साम्राज्य के बीच शह मात का एक लम्बा खेल. ब्रिटिशर्स को डर था कि रूस सेन्ट्रल एशिया में अपनी पहुंच बढ़ाना चाहता है. जो कि एक वाजिब डर था. इसलिए 18 वीं सदी के अंत में तिब्बत और शिनजियांग का इलाका अंग्रेजों के लिए बड़ा महत्त्व रखने लगा. हालांकि कहानी ग्रेट गेम से भी पीछे जाती है. अठारवीं सदी में फ़्रांस और ब्रिटेन आपस में गुत्थमगुत्था थे. फ़्रांस के सम्राट नेपोलियन ने मैसूर के टीपू सुल्तान के साथ संधि कर भारत में आक्रमण का प्लान बनाया. नेपोलियन ने रूस के ज़ार से मदद मांगी. लेकिन ये आक्रमण शुरू होने से पहले ही फेल हो गया. अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को युद्ध में हराया. वहीं नेपोलियन यूरोप की लड़ाइयों में ही फंसकर रह गया. यानी अब अकेला बच गया रूस. रूस अफ़ग़ानिस्तान और तिब्बत में एंट्री चाहता था. लिहाजा अंग्रेजों ने भी अपनी तैयारी शुरू कर दी.

19 वीं सदी में मध्य तक लद्दाख सिख साम्राज्य के कंट्रोल में था. बाद में कश्मीर के डोगरा सरदार गुलाब सिंह का ने लद्दाख पर आधिपत्य जमाया. गुलाब सिंह यहीं तक सीमित नहीं रहे. साल 1841 में उनके एक सेनापति जोरावर सिंह कहलुरिया ने तिब्बत पर हमला कर दिया. तिब्बत की मदद के लिए चीन के किंग सम्राट की सेना आई और इस जंग में कहलुरिया मारे गए. इसके बाद तिब्बती और चीनी फौज ने मिलकर लद्दाख पर हमला कर दिया. लद्दाख पर कुछ दिनों के लिए तिब्बतियों का कंट्रोल हो गया. लेकिन जल्द ही डोगरा फौज ने उन्हें वापस पीछे खदेड़ दिया. सितम्बर 1842 में डोगरा साम्राज्य और तिब्बत के बीच एक संधि हुई. जिसे चुसूल की संधि कहा जाता है. संधि में साफ़ था कि लदाख डोगरा साम्राज्य का हिस्सा है. और बदले में उन्होंने तिब्बत पर अपना अधिकार छोड़ दिया.

अमृतसर की संधि और ग्रेट गेम 

इस संधि के 4 साल बाद एक और संधि हुई. अमृतसर की संधि, जो महाराजा गुलाब सिंह और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच हुई थी. इस संधि के तहत जम्मू कश्मीर का राज्य महाराजा गुलाब सिंह को सौंप दिया गया. जिसके बदले में उन्हें एक निश्चित रकम कंपनी को देनी होती थी. अमृतसर की संधि का अक्साई चिन से एक खास संबंध है. वो ये कि डोगरा महाराजा लद्दाख के पूर्व के सारे हिस्से को अपने अन्दर लाना चाहते थे. लेकिन अंग्रेजों ने इससे इनकार कर दिया. उनके मुताबिक लद्दाख में सिर्फ काराकोरम दर्रे तक लद्दाख की सीमा थी. गुलाब सिंह के बाद महाराजा बने रणबीर सिंह ने इसे मानने से इंकार कर दिया. और काराकोरम से 100 किलोमीटर आगे, शाही दुल्ला में अपनी फौज बिठा दी. शाही दुल्ला शिनजियांग प्रान्त में पड़ता है. रणबीर सिंह ज्यादा दिन यहां अपनी पोस्ट बरक़रार नहीं रख सके और 1867 में उन्होंने अपनी फौज वापस बुलानी पड़ी.  

यहां तक की कहानी तब तक है जब तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी थी. 1857 की क्रांति के बाद कंपनी की जगह ब्रिटिश सरकार ने ले ली. और उन्होंने सबसे पहले जो काम किया, वो था अपने साम्राज्य का सर्वे करना. इसी सर्वे के तहत पहली बार चीन और भारत के बीच सीमा रेखा की बात शुरू हुई. और चूंकि आगे चलकर सारा हंगामा इसी सीमा रेखा को लेकर हुआ, इसलिए इसे अच्छे से समझना जरूरी है.

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माओ ने अपने कई भाषणों में फाइव फिंगर पालिसी का जिक्र किया जिसमें लद्दाख और अरुणाचल को चीन का हिस्सा बताया (तस्वीर: wikimedia commons)

साल 1865 में एक ब्रिटिश सर्वेयर, विलियम जॉनसन ने लद्दाख का सर्वे शुरू किया. इस सर्वे के चक्कर में विलियम जॉनसन शाही दुल्ला तक गए. और उन्होंने पूरे लद्दाख का एक नक्शा तैयार किया. इसी सर्वे के दौरान पहली बार गलवान घाटी का भी सर्वे हुआ. लद्दाख के एक गाइड हुआ करते थे. ग़ुलाम रसूल गलवान. एक बार जब एक ब्रिटिश सर्वे दल गलवान में भटक गया, तब गुलाम रसूल ने उनकी मदद की थी. इसी कारण अंग्रेजों ने इस घाटी का नाम गलवान घाटी रख दिया. लद्दाख का जो नक्शा बना, उसी के आधार पर भारत और चीन की सीमा रेखा तय हुई. इस रेखा को जॉनसन लाइन या आर्डाघ- जॉनसन लाइन कहा जाता है. (Ardagh Johnson Line) यही वो लाइन है जो भारत के आधिकारिक नक़्शे में चीन और भारत की सीमा रेखा बनाती है. लेकिन चीन इसे नहीं मानता. चीन के ना मानने के अपने तर्क हैं. पहला तर्क ये कि ये सीमा रेखा चीन की मंजूरी के बिना बनाई गई थी. जबकि सच ये है कि चीन तब नेगोशिएशन की टेबल पर था ही नहीं.  

जॉनसन लाइन को मानता रहा चीन  

अंग्रेजों ने अधिकारिक रूप से जॉनसन लाइन (Johnson Line) को सीमा रेखा माना. लेकिन यहां अपनी कोई मिलिट्री पोस्ट नहीं बनाई. उनका एकमात्र मकसद था कि चीन इस इलाके में रूस को एंटर न होने दे. चीन ने इस मामले में दिलचस्पी भी दिखाई. 1899 में उन्होंने शाही दुल्ला को अपना पोस्ट बना लिया. लेकिन ये इलाका इतना दुर्गम था कि यहां सर्दियों में पोस्ट बरकरार रखना काफी मुश्किल साबित होता था. लिहाजा 20 वीं सदी की शुरुआत तक अक्साई चिन में चीन ने कभी कोई दखल नहीं दिया.

1899 में ब्रिटिश सरकार ने चीन के किंग साम्राज्य को एक नई सीमा रेखा का प्रस्ताव दिया. जिसके तहत लगभग आधा अक्साई चिन चीन के हिस्से में आता. इस रेखा को मैकार्टनी- मैक्डोनाल्ड लाइन कहा जाता है.  इस नई रेखा के पीछे सोच ये थी कि काराकोरम पर्वत श्रृंखला एक नेचुरल बॉर्डर है. जिसकी सुरक्षा ज्यादा आसान है. इसलिए ब्रिटिश अधिकारियों ने काराकोरम से आगे का एक बढ़ा इलाका चीन के हवाले करना चाहा. उन्होंने  ये प्रस्ताव चीन के पास भेजा. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वहां से कोई जवाब नहीं आया. इसके बाद अंग्रेज़ अपने नक्शों में आर्डाघ- जॉनसन लाइन को ही सीमा रेखा के तौर पर इस्तेमाल करते रहे. 1940 तक नक्शा ज्यों का त्यों रहा. चीन ने भी कोई आपत्ति नहीं की. यहां तक कि 1917 से 1933 तक चीन का पोस्टल एटलस, जॉनसन लाइन को ही सीमा रेखा दिखाता रहा. बीजिंग यूनिवर्सिटी एटलस से छपने वाले नक़्शे भी इसी रेखा को छापते रहे.

1941 में चीजें एक बार फिर बदलना शुरू हुईं. ब्रिटिश इंटेलिजेंस को खबर मिली कि रूस के अधिकारी अक्साई चिन का सर्वे कर रहे हैं. रूस के इस नए इंटरेस्ट का कारण था, सेंग शिकाई नाम का एक सामंत. जिसने 1933 में सत्ता पलट कर शिनजियांग पर अपना अधिकार जमा लिया था. सेंग शिकाई के सोवियत रूस से अच्छे संबंध थे. और उसी के बिना पर रूस अक्साई चिन में सर्वे करना चाहता था. यहां एक बार फिर ब्रिटिश सरकार ने जॉनसन लाइन का हवाला दिया. लेकिन फिर भी अक्साई चिन में कोई मिलिट्री पोस्ट तैयार नहीं की.

इस बीच 1947 में भारत आजाद हुआ. तब भी कोई दिक्कत नहीं आई थी. असली मुसीबत शुरू हुई जब माओ ने चीन में कब्ज़ा कर लिया. 1947 से 1954 तक नेहरु सरकार लदाख को नक़्शे में ‘अनडीमार्केटेड ' दिखाती रही. यानी सरकार सीमा रेखा को लेकर किसी विवाद से बचना चाहते थी लेकिन विवाद होना तय था. क्योंकि माओ के लिए लद्दाख, चीन की फाइव फिंगर पॉलिसी का हिस्सा था.

1941 के बाद माओ ने कई भाषणों में फाइव फिंगर पॉलिसी का जिक्र किया. जिसके अनुसार तिब्बत चीन का दायां हाथ. और उसकी पांच उंगलियां- सिक्किम, नेपाल, भूटान, अरुणाचल और लद्दाख. ये पालिसी कभी चीन की अधिकारिक विदेश नीति का हिस्सा नहीं बनी. विदेश नीति में पंचशील था. अप्रैल 1954 में भारत और चीन के बीच पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर हुए. भोला नाथ मलिक तब IB के हेड हुआ करते थे.

अपनी किताब My Years with Nehru: The Chinese Betrayal में वो लिखते हैं,

“नेहरू चीन के साथ 25 साल का समझौता चाहते थे. लेकिन चीन सिर्फ आठ साल के लिए तैयार हुआ”.

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साल 1960 में सीमा विवाद का निपटारा करने के लिए चु इन्लाई भारत आए थे (तस्वीर: wikimedia commons )

अक्साई चिन पर कब्ज़ा 

पंचशील मुद्दे पर जब बातचीत शुरू हुई. भारत चाहता था कि बॉर्डर सहित सभी मुद्दों पर बात हो जानी चाहिए. लेकिन पंचशील वार्ता में ये मुद्दा न भारत ने उठाया न चीन ने. हालांकि पंचशील के तुरंत बाद एक चीज हुई. 18 जून 1954 को विदेश सचिव को लिखे ख़त में नेहरु लिखते हैं

"कोई भी देश दूसरे देश की भलमनसाहत पर निर्भर नहीं रह सकता. हो सकता है कल चीन के साथ हमारे रिश्ते ख़राब हो जाएं. इसलिए हमें सावधानी बरतनी होगी".

इसके बाद 1 जुलाई को नेहरु निर्देश जारी करते हुए लिखते हैं,

“सीमा से जुड़े हमारे सभी पुराने नक़्शे अच्छी तरह जांचे जाने चाहिए. किसी सीमा का सन्दर्भ दिए बिना हमारे हिस्सों को नक्शों पर चिन्हित किया जाना चाहिए. और नए नक़्शे हमारे विदेशी दूतावासों को भेजे जाने चाहिए”

इन नक्शों में अक्साई चिन को भारत का हिस्सा दिखाया गया. लेकिन यहां नेहरु सरकार ने एक बड़ी चूक कर दी. उन्होंने जमीन पर अक्साई चिन पर कब्ज़े की कोई कोशिश नहीं की. बल्कि 1958 तक भारत ने अक्साई चिन के पास एक बॉर्डर पोस्ट तक नहीं बनाई. और तब तक बहुत देर हो चुकी थी. साल 1956 में चीन ने शिनजियांग और तिब्बत के बीच एक पक्की रोड का निर्माण कर लिया. जो अक्साई चिन से होकर गुजरती थी. 1200 किलोमीटर लम्बी ये रोड एक साल में तो बनी होगी नहीं. इसलिए ज्यादा संभावना इस बात की है कि चीन काफी पहले से इस रोड का निर्माण शुरू कर चुका था.

फ्रेंच पत्रकार क्लॉड आर्पी अपनी किताब, "The Fate of Tibet: When Big Insects Eat Small Insects",में CIA के कुछ दस्तावेजों का हवाला देते हैं. जिनके अनुसार 1951 में पहली बार चीन की सेना ने अक्साई चिन का दौरा किया. और 1953 में रोड निर्माण का काम शुरू कर दिया. भारत को इस रोड का पता साल 1957 में चला. और 1958 में चीन ने इसकी आधिकारिक घोषणा भी कर दी. जैसे ही भारत में ये खबर फ़ैली. देश में हंगामा शुरू हो गया. इसके अगले ही साल चीन ने तिब्बत में भी खेल कर दिया. और दलाई लामा को भारत में  शरण लेनी पड़ी. भारत सरकार इसके बाद हरकत में आई और फॉरवर्ड पॉलिसी की शुरुआत हुई. जिसके बाद 1960 में भारत ने दौलत बेग ओल्डी में एक बॉर्डर पोस्ट बनाई और जुलाई 1962 में गोरखा सैनिकों की एक प्लाटून ने गलवान घाटी में पोस्ट का निर्माण कर लिया.

इस बीच 1960 में चीन के प्रधानमंत्री चू इन्लाई ने भारत का दौरा किया. इन्लाई बॉर्डर विवाद पर बात करना चाहते थे. उनका प्रस्ताव था कि अगर भारत अक्साई चिन पर अपना दावा छोड़ दे तो वो  NEFA यानी अरुणाचल पर दावा छोड़ देगा. अब तक नेहरू की हालत दूध के जले जैसी हो चुकी थी. यूं भी देश में माहौल चीन के खिलाफ था. और नेहरु अपनी पॉलिटिकल कैपिटल तिब्बत और पंचशील पर खर्च कर चुके थे. वार्ता विफल रही. इसके बाद जैसा हम जानते हैं 1962 में पूर्वी और पश्चिमी दोनों मोर्चों पर लड़ाई शुरू हो गई. अरुणाचल से चीन वापस हट गया लेकिन अक्साई चिन पर उसने अपना कब्ज़ा कभी नहीं छोड़ा.

चीन की ब्रॉडर विदेश नीति को आप देखेंगे तो आपको एक बात समझ आएगी. अरुणाचल के मुद्दे को चीन हमेशा एक प्रेशर टैक्टिक के तौर पर इस्तेमाल करता है. जबकि असली खेल लद्दाख में है. झड़प की घटनाएं भी इसी एरिया में ज्यादा होती हैं. भारत का अधिकतर मिलिट्री इन्फ्रास्ट्रक्चर इसी एरिया में तैयार हो रहा है. भारत ने दौलत बेग ओल्डी से लेह तक एक सड़क भी तैयार कर ली है. चीन के लिए ये चिंता की बात है क्योंकि तिब्बत पर कंट्रोल करने के लिए अक्साई चिन बहुत जरूरी है. और वो किसी भी हालत में लद्दाख में भारत को मजबूत होने नहीं देना चाहता. अरुणाचल को नक़्शे में दिखाने का असली मकसद आप देखेंगे तो पाएंगे अक्साई चिन के मोर्चे पर भारत पर दबाव डालना है. इसलिए जब जब बात लद्दाख की होगी, चीन अरुणाचल का नक्शा जारी करता रहेगा.

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