कल्पना कीजिए, पांच सालों के भीतर ऑस्ट्रेलिया में कोई भी रहने वाला नहीं बचे. पूरा देश अचानक से वीरान हो जाए. आप कहेंगे, ऑस्ट्रेलिया की आबादी ढाई करोड़ है. ये कैसे संभव है कि इतने लोग अचानक से गायब हो जाएं? लेकिन अतीत में ऐसा हो चुका है. 14वीं शताब्दी में एशिया और यूरोप में ब्यूबॉनिक प्लेग के चलते कम-से-कम ढाई करोड़ लोग मारे गए थे. इस आपदा को इतिहास में ब्लैक डेथ के नाम से जाना जाता है. इस रहस्यमयी महामारी का उद्गम कहां से हुआ, इसको लेकर अभी तक कयास ही लगाए जा रहे थे. अब रिसर्चर्स ने दावा किया है कि उन्हें ताले की चाबी मिल गई है.
कैसे 'ब्लैक डेथ' ने करोड़ों लोगों की जान ले ली?
ब्लैक डेथ की पूरी कहानी क्या है? और, रिसर्चर्स ने कौन सा रहस्य खोल दिया है?

आज हम जानेंगे,
ब्लैक डेथ की पूरी कहानी क्या है?
और, रिसर्चर्स ने कौन सा रहस्य खोल दिया है?
बात एक और रहस्य की होगी. 05 जून को ब्राज़ील के जंगलों में गायब हुए दो लोगों का राज़ और गहरा हो गया है. गुमशुदा लोग कौन हैं और इस घटना की आंच ब्राज़ील के राष्ट्रपति ज़ाएर बोल्सोनारो तक कैसे पहुंची?
कई सौ साल पहले की बात है. इटली में एक नगर-राज्य हुआ करता था. रिपब्लिक ऑफ़ जेनोवा. इसने समुद्री व्यापार के ज़रिए बहुत पैसा कमाया था. जेनोआ के व्यापारिक संबंध सेंट्रल एशिया और चाइना से भी थे. साल 1347 की बात है. जेनोआ साम्राज्य के 12 जहाज इटली में सिसली के तट पर रुके. ये जहाज ब्लैक सी से लौट रहे थे. जब तट पर लंगर डाला गया, तब पोर्ट पर मौजूद लोग सामान उतारने के लिए जहाजों में चढ़े. जैसे ही वे अंदर घुसे, उनके दिल की धड़कन तेज़ हो गई. उन्होंने जो नज़ारा देखा, वो कल्पना से परे था. अंदर क्षत-विक्षत लाशों का अंबार लगा हुआ था. लाशों के ऊपर मक्खियां भिनभिना रहीं थी. चूहे मांस कुतर रहे थे. जहाजों के अंदर कुछ ही लोग ज़िंदा बचे थे. जो ज़िंदा बचे थे, उनके पूरे शरीर पर फोड़ा था. उन्हें बुखार था. उल्टियां हो रहीं थी. कोई अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हो पा रहा था.
जब नगर प्रशासन को ये ख़बर मिली, उन्होंने आदेश दिया कि जहाजों को तट से दूर ले जाया जाए. ऐसा इसलिए ताकि बीमारी का प्रकोप नगर तक ना पहुंचे. आदेश के अनुसार जहाजों को दूर हटाया गया. लेकिन तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी. बीमारी का अंश मक्खियों और चूहों के ज़रिए शहर में दाखिल हो चुका था. जब एक गांव में बीमारी फैलती, तब वहां के बचे-खुचे लोग जान बचाकर पड़ोस में भागते. शुरुआत में पड़ोसी गांव वालों ने बीमारों का इलाज किया. उनकी देखभाल की. जब वे भी बीमारी की चपेट में आने लगे, तब उन्होंने अपनी सीमाएं बंद कर दीं. लेकिन तब तक समय काफ़ी आगे निकल चुका था. डॉक्टर्स मरीज़ों को देखने से डरने लगे. लोगों ने लाशें उठानी बंद कर दीं. अनगिनत इलाके घोस्ट टाउन्स में बदल गए. जहां पहले लोग रहा करते थे, वहां जंगल उग आए. इनमें से कई शहरों के बारे में दूसरे विश्वयुद्ध में पता चला. जब एरियल फ़ोटोग्राफ़ी की तरकीब विकसित हुई. ब्लैक डेथ ने धीरे-धीरे पहले पूरे इटली और फिर समूचे यूरोप को अपनी चपेट में ले लिया. पांच सालों के भीतर ब्लैक डेथ के कारण ढाई करोड़ से अधिक लोगों की जान जा चुकी थी. ये यूरोप की कुल आबादी का एक-तिहाई हिस्सा था.
अब सवाल आता है कि इस बीमारी को ब्लैक डेथ क्यों कहा गया?
इसके पीछे भी एक कहानी है. शुरुआती सालों में इस महामारी को ग्रेट मोर्टेलिटी के नाम से जाना जाता था. ब्यूबॉनिक प्लेग से पीड़ित व्यक्ति के कांख और जांघों पर काले रंग के बड़े-बड़े फोड़े बन जाते थे. ऐसा क्यों होता था? क्योंकि मरीज़ के शरीर में इंटरनल ब्लीडिंग होती रहती थी. ये ख़ून बाहर नहीं निकलता था. कुछ समय के बाद ख़ून जमकर काला पड़ जाता. जिसकी वजह से चमड़ी और फोड़े का रंग भी काला हो जाता था. इसी वजह से इस आपदा को ब्लैक डेथ का नाम दे दिया गया.
आज हम ब्लैक डेथ की कहानी क्यों सुना रहे हैं?
जैसा कि हमने ऐपिसोड की शुरुआत में बताया, रिसर्चर्स ने ब्लैक डेथ के ओरिजिन का पता लगा लिया है. उनका दावा है कि ब्लैक डेथ मध्य एशिया के देश किर्गिस्तान से निकला था.
ब्रिटिश अख़बार गार्डियन की रिपोर्ट के अनुसार, जर्मनी के मैक्स प्लैन्क इंस्टिट्यूट फ़ॉर इवॉल्युशनरी एंथ्रोपोलॉजी के रिसर्चर्स ने इसकी पुष्टि की है. उन्होंने बताया कि हमने ब्लैक डेथ की पैदाइश की जगह और समय का पता लगा लिया है. सिर्फ़ ब्लैक डेथ ही नहीं, बल्कि आज के समय में दुनिया में जितने भी प्लेग के वेरिएंट मौजूद हैं, उन सबके उद्गम का पता चल गया है.
रिसर्चर्स इस नतीजे तक पहुंचे कैसे?स्कॉटलैंड में एक नामी-गिरामी यूनिवर्सिटी है, यूनिवर्सिटी ऑफ़ स्टर्लिंग. इसमें इतिहास पढ़ाने वाले डॉ फ़िलिप साल्विन किर्गिस्तान में कुछ क़ब्रिस्तानों की स्टडी कर रहे थे. उन्होंने देखा कि 1248 से 1345 ईसवी के बीच में 467 लाशें दफ़्न हुईं. इनमें से 118 लाशें दो सालों के भीतर दफ़नाईं गई थी. 25 प्रतिशत से अधिक लोगों की मौत 1338 और 1339 के बीच हुईं थी. इनमें से कुछ क़ब्र पर मौत की वजह ‘मवताना’ बताई गई थी. हिंदी में इसका मतलब होता है, महामारी.
ये जानकारी आगे जर्मनी की दो यूनिवर्सिटीज़ से साझा की गई. उन्होंने उन कंकालों के दांत का डीएनए टेस्ट किया. रिसर्चर्स के मुताबिक, दांतों में रक्त-शिराएं होतीं है. इससे उन्हें पैथोजन्स के बारे में जानने का ज़्यादा मौका मिलता है. इससे व्यक्ति की मौत की वजह पता करने में मदद मिलती है.
रिसर्च कर रही टीम को तीन कंकालों के दांत में येरसिनिया पेस्टिस नामक बैक्टीरिया मिले. यही बैक्टीरिया ब्यूबॉनिक प्लेग का कारण है. जानकारों की मानें तो ये बड़ी उपलब्धि है. दुनिया से प्लेग का पूरी तरह खात्मा नहीं हुआ है. गाहे-बगाहे ये बीमारी कई देशों में फैलती रहती है. अगर मरीज सही समय पर इलाज ना कराए तो मौत की आशंका भी बढ़ जाती है. हालिया समय में साफ़-सफ़ाई, रोडेन्ट से दूरी और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की वजह से इसे महामारी में बदलने से रोका गया है. हालांकि, ख़तरा पूरी तरह टला नहीं है. उम्मीद जताई जा रही है कि हालिया रिसर्च प्लेग को जड़ से मिटाने की मुहिम की ज़रूरी कड़ी बन सकती है.
प्लेग के चैप्टर को यहीं पर विराम देते हैं. अब चलते हैं ब्राज़ील.05 जून की बात है. ब्रिटिश पत्रकार डॉम फ़िलिप्स और मूलनिवासियों के एक्सपर्ट ब्रूनो परेरा अमेज़ॉन के वर्षावनों में काम करने निकले. डॉम गार्डियन और फ़ाइनेंशियल टाइम्स जैसे अख़बारों में उनके ऑर्टिकल्स छपते थे. वो दस सालों से ब्राज़ील में ही रह रहे थे. हाल-फिलहाल वो अमेज़ॉन को बचाने की मुहिम पर एक किताब लिख रहे थे. ब्रूनो इस इलाके को अच्छे से जानते थे. उनकी मूलनिवासियों और कबीलों में अच्छी जान-पहचान थी. ब्रूनो अपने कॉन्टैक्ट के ज़रिए डॉम फ़िलिप्स की मदद कर रहे थे. दोनों पहले भी इस इलाके में आ चुके थे. इसलिए, उनके लिए ये प्रोजेक्ट बहुत मुश्किल नहीं होने वाला था. लेकिन 05 जून को ये भरोसा टूट गया. दोनों अचानक से गायब हो गए. दोनों जिन लोगों के साथ संपर्क में थे, उनसे उनकी बात नहीं हो पा रही थी. ख़बर बाहर आने के बाद खोजबीन शुरू हुई. 06 जून से आर्मी, नेवी और पुलिस की टीम तलाश में जुट गई. इसके अलावा, वॉलंटियर्स ने भी उन दोनों को खोजने का अभियान चलाया. लेकिन दस दिनों तक उनके बारे में कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिल पा रही थी.

15 जून को पुलिस ने इस मामले में दो भाईयों को गिरफ़्तार किया. पूछताछ के बाद एक भाई ने पुलिस के सामने अपना गुनाह कबूल कर लिया है. उसने क़बूला कि उसी ने डॉम फ़िलिप्स और ब्रूनो परेरा की हत्या की. उसने वो जगह भी बताई, जहां दोनों की लाशों को दफ़नाया. दूसरे भाई ने हत्या में किसी तरह की संलिप्तता से इनकार किया है. पुलिस का कहना है कि फिलहाल हत्या के मकसद का पता नहीं चला है. जैसे-जैसे पड़ताल आगे बढ़ेगी, इस मामले में और लोगों को अरेस्ट किया जा सकता है.
अब समझते हैं कि पूरे मामले में राष्ट्रपति जाएर बोल्सोनारो का नाम क्यों आया?
डॉम फ़िलिप्स और ब्रूनो परेरा अमेज़ोनाज़ स्टेट की जावारी वैली में गायब हुए. ये ब्राज़ील के सबसे सुदूर इलाकों में से एक है. कई विलुप्तप्राय प्रजातियां पाईं जाती हैं. ये इलाका आम लोगों की नज़रों से दूर रहता है. अधिकारियों की निगाह भी इस तरफ़ नहीं पड़ती. इसके चलते जावारी वैली अवैध शिकार का गढ़ बन चुका है.
जावारी वैली पेरू और कोलोंबिया के बॉर्डर के पास है. इस रास्ते से कोकीन की तस्करी भी होती है. डॉम और ब्रूनो इसी अवैध धंधे को रेकॉर्ड कर रहे थे.

जब से ज़ाएर बोल्सोनारो सत्ता में आए हैं, तब से मूलनिवासियों की सुरक्षा के लिए जारी बजट में कमी आई है. जावारी वैली में सर्विलांस कम हुआ है. प्रोटेक्शन एजेंसी की FUNAI की शक्ति घटी है. कानून तोड़ने वालों पर होने वाली सख़्ती भी कम हुई है. ब्रूनो परेरा पहले मूलनिवासियों को बचाने के लिए बनी एजेंसी FUNAI में काम करते थे. लेकिन वहां की लापरवाही देखकर नौकरी छोड़ दी. फिर वो स्थानीय कबीलों के साथ मिलकर काम करने लगे थे. लोगों को ड्रोन उड़ाना और जीपीएस का इस्तेमाल करना सिखा रहे थे. इसी वजह से वो अपराधियों की आंखों में खटकने लगे थे.
हालिया घटना ने जावारी वैली और अमेज़न में चल रहे अवैध धंधों को एक बार फिर से उजागर किया है. हालांकि, इस बात की बहुत कम संभावना है कि बोल्सोनारो के रहते इन घटनाओं पर कोई लगाम लग सकेगी.
ये था हमारा बड़ी ख़बर सेग्मेंट. अब सुर्खियों की बारी.
आज की पहली सुर्खी अमेरिका से है. तारीख 30 मार्च साल 1981. जगह वाशिंगटन डीसी. अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन एक कार्यक्रम के बाद अपनी कार की ओर बढ़े. सुरक्षा का घेरा ऐसा कि परिंदा भी पर ना मार पाए. लेकिन गोलियों ने घेरा भेद दिया. कुल 6 राउंड फायरिंग हुई. एक गोली बुलेटप्रूफ कार से टकराने के बाद रीगन के सीने में लगी. रीगन को अस्पताल ले जाया गया. हमला ज़्यादा गंभीर नहीं था. रीगन की जान तो बच गई. लेकिन उनके प्रेस सेक्रेटरी जेम्स ब्रैडी इतने भाग्यशाली नहीं रहे. गोली लगने से उनका चेहरा हमेशा के लिए अपंग हो गया. इसके बाद अमेरिका में गन रेगुलेशन को लेकर लंबी-चौड़ी बहस शुरू हुई थी. रीगन के ऊपर गोली चलाने वाले शख्स का नाम जॉन हिंकले था.

दरअसल, 15 जून को एक अदालत ने बिना शर्त रिहाई दे दी है. सुनवाई के दौरान जज फ्रीडमैन ने सुनवाई के दौरान कहा कि हिंकले का व्यवहार लगातार अच्छा रहा है. उसकी जांच की गई है, अब वो दूसरों के लिए खतरा नहीं है. इसलिए उसे बिना शर्त रिहाई दी जाती है. तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन पर गोली मारने के बाद से ही हिंकले मानसिक रूप से परेशान था. लेकिन इलाज के बाद वो ठीक भी हो गया. 1985 के बाद से हिंकले में मानसिक बीमारी के कोई लक्षण नहीं दिखे. हिंकले को 30 बरस तक मेंटल हॉस्पिटल में रखा गया. 2016 में उसे कुछ शर्तों के साथ रिहाई मिल गई. तब से हिंकले अपनी मां के साथ रह रहा था. अब जज ने कहा कि इस दौरान हिंकले ने सभी शर्तों का पालन किया. उससे समाज को कोई ख़तरा नहीं है. इसलिए, उसे रिहा किया जा सकता है. अब उसके ऊपर लगी सभी पाबंदियां हटा ली गईं है.
जॉन हिंकले ने जब राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन पर हमला किया था तब उसकी उम्र महज 25 साल थी. पूछताछ में उसने बताया था कि उसने ये हमला एक्ट्रेस ‘जोडी फॉस्टरर’ का ध्यान अपनी तरफ़ खींचने के लिए किया था.