कोस कोस में बदले पानी चार कोस में वाणी. लेकिन रंग और स्पर्श कहीं नहीं बदलते, वो हर जगह एक से रुचिकर होते हैं. होली में आंख और त्वचा, यानी देखने और स्पर्श, का सुख तो लगभग पूरे भारत में एक सा ही रहता है. अबीर-गुलाल के साथ अपनों के गले लगने का सुख होली की सबसे खास बात है. लेकिन कुमाऊं, ख़ास तौर पर अल्मोड़ा में होली, रंगों से साथ-साथ सुरों का त्यौहार है. दृश्य के साथ-साथ श्रव्य का त्यौहार है.

अल्मोड़ा शहर लगभग तीन महीने तक होली के रंगो से नहीं होली के सुरों से गुलज़ार रहता है. पौष महीने के पहले रविवार से शुरू होकर ये छरड़ी पे जाकर उद्यापित होता है.
अल्मोड़ा में होली तीन तरह से संगीत से जुड़ती है – बैठकी होली, खड़ी होली और महिला होली.
# बैठकी होली
जैसा कि नाम से ज़ाहिर है, बैठ के गाई जाने वाली होली को बैठकी होली कहा जाता है. बैठकी होली दरअसल एक संगीत परंपरा है जो सदियों पुरानी है. 15वीं शताब्दी में चंद शासन के दौरान कलि कुमाऊं, सुई और गुमदेश के आस-पास के इलाकों में ब्रज के साथ कुमाऊं की संगीत परंपराओं का जो फ्यूजन हुआ उसी का परिणाम है - बैठकी होली.बैठकी होली के गीत शास्त्रीय संगीत पर बेशक आधारित हों लेकिन उसमें कुमाऊं का लोक संगीत घुला रहता है.

बैठकी होली (इमेज: euttarakhand.com)
किसी मंदिर के प्रांगण से बैठकी होली की शुरुआत होती है. होल्यार लोग हारमोनियम तबला लेकर और बाकी लोक श्रोता बनकर मंदिर में इकट्ठा होते हैं और बैठकी सजती है.
पहले दिन गुड़ की भेली तोड़कर सभी कलाकारों और श्रोताओं में बांटी जाती है. बीच बीच में कुछ विशेष अवसरों पर – जैसे वंसत, शिवरात्रि या रंगभरी एकादशी में होली की ‘विशेष’ बैठकें होती हैं, ये सुबह तक चलती हैं. बाकी दिनों सांयकालीन बैठकें आयोजित की जाती हैं.
कुमांऊनी होलियां लगभग सभी शास्त्रीय रागों पर आधारित हैं. हर बैठक की शुरुआत राग श्याम कल्याण या काफी से की जाती है और क्रमवार जंगला-काफी, खमाच, सहाना, झिझोटी, विहाग, देश, जैजैवंती, परज और भैरव तक पहुंचते-पहुंचते सुबह कब होती है पता ही नहीं चलता.
(वीडियो: गिर्दा की होली)
दिन को आयोजित होने वाली बैठकों में मुख्य रूप से राग पीलू, सारंग, भीमपलासी, मारवा, मुल्तानी, भूपाली आदि रागों पर आधारित होलियों का गायन किया जाता है. तबले पर सभी होली गीतों में चांचर ताल को ही बजाय जाता है. गाने की बढ़त सितारखानी और तीन-ताल से की जाती है और कहरूवे तक पहुंचती है. गायक जब गीत की अंतरा से स्थाई पर आता है तो फिर ताल विलंबित होकर चांचर में आ आती है. कुछ होली गीत रूपक, तीन ताल और झप ताल में भी गाए जाते हैं.
यह कहना बड़ा कठिन है कि शुरुआत में इसका स्वरूप क्या था, लेकिन ये निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कुमांऊ की यह विधा अपने आप में एक लंबा इतिहास समेटे हुए है. इसकी पहली गूंज हमें चंद राजाओं के शासन काल से सुनाई देती है. एक होली धमर गीत की ये अंतिम पंक्ति इस बात का स्पष्ट आभास देती है कि तत्कालीन राजा महाराजाओं के दरबार में होली गायन की यह विधा विद्यमान थी – तुम राजा महाराजा प्रद्युमनशाह, मेरी करो प्रतिपाल, लाल होली खेल रहे हैं. सुर सम्राट तानसेन भी होली-गीतों में छाए हुए थे – मियां तानसेन आज खेलें होली तुम्हारे दरबार. सप्त सुरन को रंग बनो है और आलाप तान की फुहार.
वे आगे कहते हैं,
सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में ही राम-लीला और बैठकी होली की शुरुआत हुई और यहीं पल्लवित भी हुई. दरअसल ऐतिहासिक रूप से अल्मोड़ा को ही कुमाऊं कहा जा सकता है, क्यूंकि बागेश्वर, पिथौड़ागढ़ और चंपावत तो पहले अल्मोड़ा में ही थे साथ ही नैनीताल, उधमसिंह नगर का भी कमोबेश यही हाल था.
उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में बैठकी होली गायन का श्री गणेश अल्मोड़ा के मल्ली बाज़ार स्थित हनुमान मंदिर से हुआ. कुछ मुस्लिम गायक भी अल्मोड़ा आते रहे. उस्ताद अमानत हुसैन का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है, क्यूंकि उन्होंने ही होली को एक उप-शास्त्रीय रूप दिया. उन्हीं के द्वारा चांचर ताल की भी रचना की गई, जिसका प्रयोग बैठकी होली में किया जाता है.
रामपुर और दरभंगा के नवाबों और राजाओं के दरबार में इस होली गायन का बाकायदा समारोह सा हुआ करता था और अल्मोड़ा से श्रेष्ठ होली गायक बुलाए जाते थे.
स्व. जुगल किशोर जोशी के अनुसार,
उन्नीसवी सदी के अंत तक परिवारों में सितार ढोलक तथा पेशेवरों में सारंगी व तबले को साज के रूप में प्रयोग किया जाता था. तबले का सर्वमान्य प्रयोग 1905-1910 के दौरान हुआ. हारमोनियम जिसे धौंकनी-वाला कहते का प्रयोग सर्वप्रथम लक्ष्मीदत्त जोशी (जुगल किशोर जी के पिताजी) द्वारा किया गया.

अल्मोड़ा से सटे कुमाऊं के दूसरे जिले नैनीताल की बैठकी होली ( इमेज: प्रदीप पांडे)
अलखनाथ उप्रेती बैठकी होली की टाइमलाइन के बारे में लिखते हैं –
# पौष (दिसंबर से बसंत पंचमी तक) –बैठकी होली के इतिहास में स्व. ब्रजेन्द्र लाल साह, स्व. मोहन उप्रेती और स्व. बसंत वर्मा का नाम उनके योगदान के लिए हमेशा हमेशा के लिए अमर है.
होली का श्री गणेश. चिंतनशील स्तब्धता इस काल में वेग धारण करती है. इस समय होली गायकी मुख्यतः भक्ति भाव पर आधारित होती है तथा श्रृंगार रस का न्यूनतम पुट होता है. जैसे –क्या ज़िंदगी का ठिकाना, कहां गए भीम, कहां दुर्योधन, कहां पार्थ बलवान.
# बसंत पंचमी से शिवरात्रि तक –
सुमधुर मनमोहक बसंत की चमक रसों के द्वार खोलती है और इसी प्रकार होली में भी श्रृंगार रस का हल्का सा रुझान प्रारंभ होता है. ऋतु संबंधी गीत, मदमस्त करने वाले बसंत का वर्णन के गीत तथा सूरदास तथा मीराबाई के पदों से अब महफिल में समां बंधने लगता है. -आयो नवल बसंत, ऋतुराज कहायो
# शिवरात्रि से अंतिम दिन (छलड़ी तक) –
अब हर ओर केवल श्रृंगार रस का प्रभुत्व छा जाता है. कृष्ण राधा प्रेम के मधुर वर्णन अंतिम दिन तक पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है. जैसे –चल उड़ जा भंवर तोहे मारेंगे
उड़ी उड़ी भंवरा गालन बैठे, गालन को रस ले भंवरा.
हर संस्कृति की तरह ही बैठकी होली भी ‘बदलते दौर’ की भेंट चढ़ रही है. थियेटर निर्देशक, नाटककार और संगीतकार स्व. मोहन उप्रेती कहते हैं,
बंदिशों को लोग नहीं जानते, जितने सही गाने हैं, जब तक उन गानों की कविता मालूम नहीं है, तब तक उनकी धुन नहीं गा सकते.

मोहन उप्रेती
# खड़ी होली
खड़ी होली और बैठकी होली के बीच सबसे महत्वपूर्ण अंतर तो यही है कि जहां बैठकी बैठ के गाई जाती है, वहीं खड़ी होली पूरे गांव, पूरे शहर का फेरा लगाकर, घर घर जाकर मनाई और गाई जाती है.खड़ी होली में कोई भी पार्टिसिपेट कर सकता है, और करता भी है. होल्यारों की टोली में कहीं से कहीं तक कोई भी जुड़ जाता है. खास तौर पर बच्चे.
सिद्धि को दाता, विघ्न विनाशन होली खेलें, गिरिजापति नन्दनइसके लिए किसी विशेष राग की जरूरत नहीं होती. इसे संगीतमय मस्ती कहा जा सकता है. मगर ये मस्ती बिना किसी अश्लीलता के होती है. इसमें गाए जाने वाले गीत भी काफी पॉपुलर होते हैं. साथ ही जहां बैठकी में सुरों का ज़्यादा ध्यान रखा जाता है वहीं खड़ी होली में लिरिक्स यानी बोलों का ज़्यादा महत्व होता है.
गौरी को नन्दन, मूषा को वाहन होली खेलें, गिरिजापति नन्दन
लाओ भवानी अक्षत चन्दन तिलक लगाओ गिरजापति नन्दन होली खेलें गिरजापति नन्दन.
लाओ भवानी पुष्प की माला गले पहनाओ गिरजापति नन्दन होली खेलें गिरजापति नन्दन.
लाओ भवानी, लड्डू वन थाली भोग लगाओ, गिरजापति नन्दन होली खेलें गिरजापति नन्दन.
गज मोतियन से चौक पुराऊं होली खेलें गिरजापति नन्दन.
ताल बजाये अंचन-कंचन डमरु बजावें शम्भु विभूषन होली खेलें गिरजापति नन्दन.

खड़ी होली (इमेज: euttarakhand.com)
ये समझ लीजिए कि डांस में जिस तरह स्टेज-परफोर्मेंस और डीजे के बीच अंतर है वैसे ही संगीत में बैठकी और खड़ी में अंतर है.
# महिला होली

वैसे तो महिला होली बैठकी ही होती है लेकिन ये रही खड़ी होली (इमेज: euttarakhand.com)
महिला होली पुरुष बैठकी/खड़ी होली की तरह ही होती है. लेकिन गीत कुछ फेमिनाईन होते हैं. जैसे -
मत जाओ पिया होली आई रही!
# छरड़ी या छलड़ी
धुलंडी, यानी होली, जिसे कुमाऊं में छरड़ी कहा जाता है. दरअसल छरड़ का अर्थ फूल के अर्क, राख और पानी के मिश्रण से बनने वाला एक अवलेह होता है जिसे होली खेलने के लिए यूज़ किया जाता है.
होली, छरड़ी, छलड़ी या धुलंडी (इमेज: euttarakhand.com)
# होल्यार
जिस तरह मैं गाड़ी ड्राइव करते वक्त ड्राईवर हो जाता हूं, उसी तरह कोई भी सरकारी कर्मचारी, दुकानदार, किसान कुमाऊं में होली के दिनों में होल्यार हो जाता है. झक्क सफेद कपड़े, जो ज़्यादा देर तक सफ़ेद नहीं रहते, नेताओं वाली टोपी जो ज़्यादा देर तक सर पर नहीं रहती पहन के गाते हुए घर-घर जाते हैं और एक दो रुपए के लिए झिक-झिक करते हैं.एक ही रुपया दिनोंछा, ग्वाजा महंगा हैरोछा!अर्थात एक ही रुपया दे रहे हो, गुझिया तो बहुत महंगी हो गई हैं.

होल्यार (इमेज: euttarakhand.com)
ऐसा नहीं है कि वे बहुत जरूरतमंद लोग हैं. कुछ लोग तो अपने पैसे आस पास खड़े बच्चों को भी दे देते हैं. लेकिन एक तरह के स्वांग का अपना ही रस है. कुछ होल्यार, कुछ ज़्यादा ‘होल्यार’ होते हैं इसलिए उनकी ज़्यादा पूछ होती है.
अरे मोहन दा को बुलाओ यार उनकी जैसी हुडुकी (डमरू से मिलता जुलता एक वाद्य यंत्र) कौन बजाने वाला हुआ फिर.
# चीर बंधन और चीर दहन
कुमाऊं में होलिका को चीर के रूप में जाना जाता है. जिसमें होली से पन्द्रह दिन पहले चीर बंधन किया जाता है (यानी एक पैयां के पेड़ के तने को कपड़ो से सजाया जाता है, या उसमें छोटे छोटे कपड़े बांधे जाते हैं). एक मुहल्ले के चीर की उस मुहल्ले वाले पूरे पन्द्रह दिनों तक सुरक्षा करते हैं, ताकि आस पड़ौस के मुहल्ले वाले उसे चुरा न ले जाएं. होली की पहली रात को यह चीर जलाई जाती है और इसके आस पास ‘मिनी समारोह’ सा वातावरण होता है. इसे चीर दहन कहते हैं. लोग गाते बजाते हैं. ख़ास तौर पर होल्यार!
चीर
कैले* बांधी चीर, हो रघुनन्दन राजा (कैले - किसने)
गणपति बांधनी चीर, हो रघुनन्दन राजा ब्रह्मा विष्णु बाधनी चीर, हो रघुनन्दन राजा शिव शंकर बांधनी चीर, हो रघुनन्दन राजा रामीचन्द्र बांधनी चीर, हो रघुनन्दन राजा लछिमन बांधनी चीर, हो रघुनन्दन राजा लव-कुश बांधनी चीर,हो रघुनन्दन राजा श्री कृष्ण बांधनी चीर, हो रघुनन्दन राजा बलिभद्र बांधनी चीर, हो रघुनन्दन राजा नवदुर्गा बांधनी चीर, हो रघुनन्दन राजा गोलूदेव बांधनी चीर, हो रघुनन्दन राजा भोलानाथ बांधनी चीर, हो रघुनन्दन राजा सब देव बांधनी हो चीर, हो रघुनन्दन राजा
यह लेख अल्मोड़ा के लोगों, खासतौर पर मनमोहन चौधरी, शिवचरण पांडे, पवन साह और अलखनाथ उप्रेती के इनपुट्स पर आधारित है.