होली पर समाज में विभाजन की सारी सीमाएं टूटती हैं. सामुदायिक पर्व के रूप में होली लोगों के जीवन में आनंद और उल्लास के खूब रंग भरती है. इसका असर ऐसा व्यापक है कि लोक से लेकर शास्त्रीय साहित्य तक में विषय के तौर पर होली के चटक रंगों की दमदार उपस्थिति है. चाहे वह जोगीरा के रूप में सदियों से लोगों के कंठ में विराजे लोकगीत हों या फिर साहित्य में भक्ति और श्रंगार का आलंबन लेकर लिखी गई कविताएं, दोहे, कवित्त, गीत या फिर शायरी हो. कविता और साहित्य की दुनिया में होली का रंग अमीर खुसरो, भारतेंदु हरिश्चंद से लेकर निराला और कुंवर बेचैन तक के काल तक फैला हुआ है.
होली पर ये कविताएं, ग़ज़लें ना लिखी जातीं तो हिंदी-उर्दू काव्य का 'रंग' इतना गाढ़ा ना होता
चाहे वह जोगीरा के रूप में सदियों से लोगों के कंठ में विराजे लोकगीत हों या फिर साहित्य में भक्ति और श्रंगार का आलंबन लेकर लिखी गई कविताएं, दोहे, कवित्त, गीत या फिर शायरी हो. कविता और साहित्य की दुनिया में होली का रंग अमीर खुसरो, भारतेंदु हरिश्चंद से लेकर निराला और कुंवर बेचैन तक के काल तक फैला हुआ है.

संस्कृत साहित्य में होली और बसंत को एक साथ ही संबोधित किया गया है. जब तमाम रंगों से सराबोर प्रकृति भी कोई रंगोत्सव में भाग लिए दिखाई पड़ती है. होली के अवसर पर जोगीरा गाने की लोक परंपरा है. इसके बारे में कहते हैं कि जोगियों की हठसाधना और बैराग्य पर व्यंग्य के लिए इस विधा की उत्पत्ति हुई. समय के साथ होली के लिए खासतौर पर मशहूर जोगीरा गीतों में तत्कालीन राजनैतिक परिदृश्य के विडंबनापूर्ण विषयों को शामिल किया गया और रोचक तरीके से व्यंग्य करते हुए विषमताओं की ओर ध्यान आकर्षित कराने की कोशिश की गई. जोगीरा मनोरंजन, चुटकी और हंसी-ठिठोली से भरपूर होती है, जिसे प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत किया जाता है. जैसे-
किसके बेटा राजा रावण किसके बेटा बाली
किसके बेटा हनुमान जी जे लंका जारी.
विश्रवा के राजा रावण बाणासुर का बाली
पवन के बेटा हनुमान जी, ओहि लंका के जारी.
जोगीरा के ऐसे गीतों के साथ 'जोगीरा सारारारा' या 'वाह जोगीजी वाह' कहने का चलन है. भोजपुरी लोक साहित्य में फगुआ गीत बसंत पंचमी से ही शुरू हो जाते हैं और होली तक गाए जाते हैं. ज्यादातर शिव, कृष्ण और राम के होली खेलने को प्रसंग बनाकर ऐसे गीत रचे जाते हैं और गांवों में इसे गाने वाली टोलियां होती हैं, जो होली के दिन घर-घर जाकर इसे गाती हैं.
'खेलें मसाने में होली दिगंबर, खेलें मसाने में होली'
'होली खेले रघुबीरा अवध में, होली खेले रघुबीरा
केकरे हाथे कनक पिचकारी, केकरे हाथे अबीरा
रामजी के हाथे कनक पिचकारी, लक्षमन हाथे अबीरा
होली खेले रघुबीरा'
हिंदी काव्य की शुरुआत ब्रज भाषा में होती है और लंबे समय तक कविता लेखन में यही भाषा प्रयोग में लाई गई. ब्रज में होली का भी खास महत्व है. यहां की होली खूब मशहूर भी है. यहां राधा और कृष्ण या फिर कृष्ण और गोपियों के बीच होली खेलने के तमाम प्रसंग लोक परंपरा में मौजूद हैं. कृष्ण से जुड़े 'महारास' को भी रसों के 'उत्सव' से जोड़ा जाता है. ब्रज में होली को लेकर कई गीत लिखे गए हैं, जो श्रंगार के अलावा भक्ति रस से भी भरे हैं. भक्तिकाल के कवियों में सूरदास, रसखान, मीराबाई और बिहारी ने भी तमाम पद होली विषय पर लिखे हैं, जिनमें उनके आराध्य के साथ होली खेलने की चर्चा है.
कवि पद्माकर लिखते हैं-
फाग के भीर अभीरन में गहि गोविन्द लै गई भीतर गोरी
भाई करी मन की 'पद्माकर' ऊपर नाई अबीर की झोरी
छीन पिताम्बर कम्मर ते सु बिदा दई मीड़ कपालन रोरी
नैन नचाइ, कही मुसकाइ लला फिरी अइयो खेलन होरी
होली के दिन कृष्ण को कोई गोपी अपने घर में खींच ले जाती है और उनके कपाल पर रंग मल देती है. बाद में चपलता से नैन मटकाते मुस्काते हुए कहती है कि फिर होली खेलने आना. वात्सल्य के ऐसे अनेक रंग भक्तिकाल के कवियों में देखने को मिलते हैं. मीराबाई अपने स्वामी गिरिधर नागर के साथ होली खेलने का वर्णन ऐसे करती हैंः
रंग भरी राग भरी रागसूं भरी री.
होली खेल्यां स्याम संग रंग सूं भरी, री
उड़त गुलाल लाल बादला रो रंग लाल
पिचकाँ उड़ावां रंग रंग री झरी, री
चोवा चन्दण अरगजा म्हा, केसर णो गागर भरी री
मीरां दासी गिरधर नागर,चेरी चरण धरी री.
सूरदास लिखते हैं,
हरि संग खेलति है सब फाग
इहिं मिस करति प्रगट गोपी उर अंतर कौ अनुराग
श्याम के साथ गोपियां होली खेल रही हैं और इस तरीके से कृष्ण के प्रति अपने भीतर के अनुराग को प्रकट कर रही हैं. होली में श्रंगार रस वर्णन का बिहारी का अंदाज अलग ही है. वह लिखते हैंः
छिरके नाह-नवोढ़-दृग, कर-पिजकी-जल-ज़ोर.
रोचन-रंग-लाली भई, बियतिय-लोचन-कोर॥
अर्थ ये कि नायक ने नायिका की आंखों में पिचकारी से जल छिड़क दिया लेकिन उसकी लाली अन्य नायिकाओं की आंखों में दिखाई दी जो ईर्ष्या के कारण लाल हो गई थीं. साहित्य की यात्रा आगे बढ़ी तो होली भक्ति के विषय से निकलकर श्रंगार के रंग में रंगने लगी. प्रकृति के श्रंगार उत्सव का वर्णन होली का वर्णन होने लगा. नरेंद्र शर्मा लिखते हैंः
मदोन्मत्त फाल्गुन फिर आया,
फिर रंजिश नभ नील!
फिर सतरंग ब्रजरज उड़ती बन
नयन कल्पनाशील!
सतरंग ब्रजरज को देख नयन कल्पनाशील हुए जाते हैं. निराला के यहां प्रकृति को देखने की अद्भुत दृष्टि है. होली पर लिखी उनकी एक कविता में फागुन लोगों का मन लूट रहा हैः
फागुन के रंग राग,
बाग़-वन फाग मचा है,
भर गए मोती के झाग,
जनों के मन लूटे हैं.
माथे अबीर से लाल,
गाल सेंदुर के देखे,
आँखें हुई हैं गुलाल,
गेरू के ढेले कूटे हैं.
प्रकृति के बासंतिक श्रंगार पर निराला का कवि मन अटका रहता है. वह देखते हैं कि मनुष्य बाद में होली खेलते हैं. शीत और पतझड़ के बाद प्रकृति पहले तमाम रंगों में रंगकर होली खेलने लगी है. उनकी एक कविता हैः
"केशर की, कलि की पिचकारी
पात-पात की गात संवारी
राग-पराग-कपोल किए हैं
लाल-गुलाल अमोल लिए हैं
तरू-तरू के तन खोल दिए हैं
आरती जोत-उदोत उतारी
गन्ध-पवन की धूप धवारी"
अंग्रेजों के अधीन भारत में होली के गीत भी लोगों के स्वाभिमान को झकझोरने के लिए प्रयोग में लाए गए. प्रताप नारायण मिश्र के इस पद को देखें कि कैसे वह सोई पड़ी देश की जनता को होली गीत के जरिए धिक्कार रहे हैंः
भारत सुत खेलत होरी
प्रथम अविद्या अगिनि बारिकै, सर्वसु फूँकि दियो री
आलस बस पुरिखन के जस की, चूरि उड़ाइ बहोरी
रंग सब भंग कियो री
निज करतूत भयो मुख कारो,ताको सोच तज्यो री
देखो यह परताप कुमति को,दुख में सुख समझ्यो री
निलज सब देश भयो री॥
स्वतंत्रता संग्राम के वक्त में होली के आनंद में देशभक्ति की छौंक कविताओं में खूब देखने को मिली. मैथिली शरण गुप्त तो राष्ट्रीय कवि कहे जाते हैं. अपनी तमाम कविताओं में उन्होंने देश के लोगों को स्वाभिमान को स्वर दिया है. ऐसे में जब होली पर लिखने की बारी आई तो उनका देशभक्त मन पीछे नहीं रहा. उन्होंने लिखा,
"जो कुछ होनी थी, सब होली!
धूल उड़ी या रंग उड़ा है,
हाथ रही अब कोरी झोली.
आँखों में सरसों फूली है,
सजी टेसुओं की है टोली.
पीली पड़ी अपत, भारत-भू,
फिर भी नहीं तनिक तू डोली."
छायावादी कवि हरिवंश राय बच्चन के लिए होली अपरिचित को परिचित बनाने और मित्र को पलकों पर धर लेने का त्योहार है. अपनी एक कविता में वे लिखते हैं:
यह मिट्टी की चतुराई है
रूप अलग और रंग अलग
भाव-विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग.
आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!
निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,
आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो.
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!
केदारनाथ अग्रवाल ने अपनी एक कविता में प्रकृति की होली को अपनी कविता का विषय बनाकर सुंदर संदेश देने की कोशिश की. उनकी कविता कहती है कि फूल फूल से होली खेल रहे हैंः
फूलों ने
होली
फूलों से खेली
लाल
गुलाबी
पीत-परागी
रंगों की रँगरेली पेली
काम्य कपोली
कुंज किलोली
अंगों की अठखेली ठेली
मत्त मतंगी
मोद मृदंगी
प्राकृत कंठ कुलेली रेली
सिर्फ हिंदी कविता में ही नहीं, उर्दू शायरों ने भी होली विषय पर खूब कलम चलाई है. हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद ने भी एक गजल होली को समर्पित करते हुए लिखीः
गले मुझ को लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ मेरे यार होली में
नहीं ये है गुलाल-ए-सुर्ख़ उड़ता हर जगह प्यारे
ये आशिक़ की है उमड़ी आह-ए-आतिश-बार होली में
गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझ को भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जान-ए-मन त्यौहार होली में
'रसा'गर जाम-ए-मय ग़ैरों को देते हो तो मुझ को भी
नशीली आँख दिखला कर करो सरशार होली में.
नजीर अकबराबादी की होली पर लिखी नज्म किसने नहीं पढ़ी. बहार के मौसम के इस शानदार त्योहार को लेकर वह लिखते हैंः
गुलज़ार खिले हों परियों के और मज्लिस की तय्यारी हो
कपड़ों पर रंग के छींटों से ख़ुश-रंग अजब गुल-कारी हो
मुंह लाल,गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग-भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की
जूलियस नहीफ़ देहलवी का शेर है-
हम से नज़र मिलाइए होली का रोज़ है
तीर-ए-नज़र चलाइए होली का रोज़ है
सूफियाना कविताओं के लिए विख्यात अमीर खुसरो के 'रंग है री' की चर्चा किए बिना बात अधूरी रह जाएगी. बसंत पर अमीर खुसरो का गीत ‘सकल बन फूल रही सरसो’ खूब प्रसिद्ध है. इसके अलावा निजामुद्दीन औलिया की मोहब्बत में रंगे अमीर खुसरो का एक होली गीत दुनिया भर में खूब गाया-गुनगुनाया जाता हैः
आज रंग है ऐ मां रंग है री
मेरे महबूब के घर रंग है री
अरे अल्लाह तू है हर,
मेरे महबूब के घर रंग है री.
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