फूलों से भरा रास्ता. जिस पर सफेद पोशाक पहने एक शख्स चल रहे हैं. हाथ में तलवार है. सिर पर भी सफेद रंग की झलक दिखती है. पूरे राजपूत परिधान में मुस्कुराते हुए शख्स आगे बढ़ते हैं. ये विश्वराज सिंह मेवाड़ हैं. हाल ही में जिनका ये वीडियो चर्चा में आया. दरअसल पिता महेंद्र सिंह मेवाड़ की मृत्यु के बाद, यह इन्हें 77 वां महाराणा बनाने का समारोह था. जगह चित्तौरगढ़ का फतेह प्रकाश महल.
महाराणा प्रताप के वंशज जिस महल की खातिर भिड़ गए, उस उदयपुर सिटी पैलेस की कहानी
Udaipur City Palace कॉम्प्लेक्स में एक संग्रहालय भी है. जिसमें मेवाड़ के राजघरानों के तमाम हथियार, कीमती चीजें और कवच वगैरह संजो कर रखे गए हैं. महाराणा प्रताप का कवच और हथियार भी यहां संजोए गए हैं. James Bond वाली फिल्म Octopussy में भी इस महल को दिखाया गया है.
कुछ वक्त बाद सलूंबर के रावल, देवव्रत सिंह नजर आते हैं. जो चूंडा राजपरिवार के वंशज हैं. वो हाथ पकड़कर विश्वराज सिंह को सिंहासन पर बैठाते हैं. फिर एक शख्स अपने अंगूठे में चाकू से एक निशान लगाता है. खून निकलता है और इसी खून से तिलक किया जाता है. वफादारी और त्याग को दर्शाने वाली ये परंपरा, इस राज परिवार में सदियों से निभाई जाती रही है.
बहरहाल इसके बाद, वो उदयपुर सिटी पैलेस की तरफ निकलते हैं ताकि एक लिंग नाथ मंदिर में दर्शन कर सकें. पर उन्हें दरवाजे से अंदर नहीं जाने दिया जाता. महेंद्र सिंह मेवाड़ के भाई अरविंद सिंह मेवाड़, इस रस्म को नहीं मानते. वो कहते हैं कि मेवाड़ राजघराना एक ट्रस्ट के जरिए चलता है जिसका जिम्मा उन्हें दिया गया है. उनके मुताबिक, पिता ने महेंद्र सिंह और उनके परिवार को गद्दी से बेदखल कर दिया था.
इसके बाद दोनों ही पक्षों के समर्थकों में तनाव का माहौल होता है. और उदयपुर शहर भी इसकी गर्माहट महसूस करता है. ये सब आपने खबरों में देख ही रखा होगा. उदयपुर और इसके सिटी पैलेस की कहानी समझने से पहले हमें थोड़ा सा इस परिवार का इतिहास जानना चाहिए. इसलिए बात करते हैं शुरुआत से. डॉ भवान सिंह राणा अपनी किताब, महाराणा प्रताप में लिखते हैं,
“ईसा से कई सदी पहले भी मेवाड़ में लोगों के रहने के सुराग मिलते हैं. अहार में मिले अवशेषों से पता चलता है कि यहां नदी के किनारे प्राचीन बस्तियां थीं. वहीं महाराणा प्रताप के पूर्वजों ने यहां अपना साम्राज्य छठी सदी में स्थापित किया. वंश की नींव रखने वाले गुहादित्य थे. जो बलामी राज्य से थे. पर पिता की मौत के बाद उन्हें बलामी छोड़ना पड़ा. और वहां से वो नागदा पहुंच गए. और फिर नागदा से मेवाड़ पर हमला कर, उसे जीत लिया. इसीलिए शुरुआत में वंश का नाम, गुहिल या गुहिलोत वंश था. इसी की एक शाखा को बाद में सिसोदिया वंश भी कहा गया.”
कालभज उर्फ बप्पा रावल भी इसी राजवंश के थे. जिन्होंने चित्तौड़ के राजा मानसिंह को हराकर, चित्तौड़ जीता था. जिसके बाद चित्तौड़ भी मेवाड़ राज्य का हिस्सा बन गया. खैर कई पीढ़ियों बाद समर सिंह यहां के शासक हुए. जिनके समय में शाहबुद्दीन गोरी ने भारत पर हमला किया था. सुमेर सिंह के आठवें वंशज रतन सिंह थे. जिनकी पत्नी का नाम पद्मिनी था. साल 1303 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब चित्तौड़ पर हमला किया. तब से रानी पद्मिनी की जौहर की कहानी प्रसिद्ध है. इसी से प्रेरित होकर मलिक मोहम्मद जायसी ने बाद में पद्मावत लिखी. अवधी में लिखी पद्मावत के मुताबिक, रानी पद्मिनी की सुंदरता के बारे में सुनकर ही खिलजी ने चित्तौड़ पर हमला किया था. हालांकि इतिहास की किताबों में इस कहानी का जिक्र नहीं मिलता. पर इसी वक्त खिलजी ने चित्तौड़गढ़ किले पर हमला किया था. किले को भेदना आसान नहीं था. ये संघर्ष कई महीनों तक चला. पर आखिर में खिलजी ने चित्तौड़ के किले पर कब्जा कर लिया. कब्जा कुछ वक्त तक था पर फिर एक और शासक आए.
बकौल डॉ भवान सिंह राणा, 1326 से 1364 के बीच, चित्तौड़ पर हामिर नाम के राजा का शासन रहा. जिन्होंने कम समय में ही सैन्य शक्तियों को पुख्ता किया. और चित्तौड़ फिर से कब्जा किया था. इन्होंने ही पहली बार महाराणा का टाइटल लिया. जो आगे चलके इनके वंशज भी लेते हैं. खैर इन्हीं के शासन में आस-पास मेवाड़ का साम्राज्य बढ़ना शुरू होता है. तुगलकों के साथ भी इनकी लड़ाई होती है जिसमें जीत दर्ज की जाती है. नतीजतन, भीलवाड़ा, चेतखयालपुर, पालनपुर वगैरा मेवाड़ में शामिल हो जाते हैं. आगे इनके बेटे ने जहाजपुर वगैरा पर भी हक बनाया.
1433 में साम्राज्य महाराणा कुम्भा के हाथों में गया. इसे मेवाड़ के इतिहास का स्वर्णिम काल कहा जाता है. इन्होंने मालवा और गुजरात के शासकों को कई लड़ाइयों में हराया. इन्हीं के समय कई किले भी बनवाए गए. राज्य ने विस्तार किया. सब ठीक चल रहा था. पर इन्हीं के बेटे ने इनकी हत्या कर दी और इनका शासन खत्म हुआ और वो राज करने लगा. पर चीजें ठीक नहीं थीं, सामंत नाखुश थे. फिर बेटे को हराकर, सामंतों के समर्थन से रायमल मेवाड़ की गद्दी पर काबिज हुए. आगे राज्य ने उतार-चढ़ाव देखे. फिर दौर आया राणा संग्रामसिंह का.
गद्दी का संघर्षराणा संग्राम सिंह, जिन्हें राणा सांगा के नाम से जाना जाता है. साल 1508 में मेवाड़ की गद्दी पर बैठे. इन्होंने भी कई हथिया लिए गए इलाके, वापस राज्य में शामिल किए. पर इसका भी अंत हुआ. इस बारे में डॉ भवान सिंह लिखते हैं,
“30 जनवरी 1528 को महाराणा सांगा की मौत के बाद मेवाड़ में अव्यवस्था फैली. उन्होंने अपनी रानी कर्मवती के बेटों विक्रमजीत और उदय सिंह को रणथंभोर का इलाका दे दिया. ऐसा मेवाड़ के इतिहास में पहली बार हुआ था. इसके पीछे रानी कर्मवती का हाथ बताया जाता है. इस फैसले की वजह से मेवाड़ का माहौल गर्म हो गया. क्योंकि सांगा के बाद उनके बेटे रतनसिंह का मेवाड़ की गद्दी पर अधिकार था. गद्दी पर बैठते ही उन्होंने रणथंभोर को वापस पाने की कोशिश की और विवाद राजपरिवार में पनपा.”
वो आगे लिखते हैं कि कर्मवती उस वक्त अपने भाई, सूरजमल की सुरक्षा में रहती थीं और अपने बेटे को मेवाड़ का शासक बनाना चाहती थीं. जब रतन सिंह ने रणथंभोर का इलाका वापस मांगा तो वो बहाने बनाने लगीं. फिर एक योजना में - कर्मवती के भाई सुरजमल ने रतनसिंह को शिकार का निमंत्रण दिया और साल 1531 बूंदी में में उनकी हत्या कर दी.
रतनसिंह की हत्या के बाद विक्रमजीत मेवाड़ की गद्दी पर बैठते हैं. अपनी किताब, महाराणा प्रताप में डॉ भवान सिंह राणा बताते हैं कि वो गर्म दिमाग के शख्स थे. जिन्हें राजनीति और युद्ध की जानकारी नहीं थी. और वो हमेशा महिलाओं और शराब में लिप्त रहते थे. उनके लिए शासन विलसता का एक जरिया भर था. नतीजतन राज्य में अव्यवस्था फैल गई. कुछ नाराज सामंत गुजरात के शासक बहादुर शाह तक पहुंचे और मिलकर मेवाड़ पर हमला कर दिया. कर्मवती ने हुमांयूं से मदद मांगी. पर शायद वो अपने ही धर्म के शख्स से नहीं लड़ना चाहते थे. लिहाजा हुमायूं ने मदद नहीं की. फिर सन 1300 में कर्मवती ने महिलाओं और बच्चों के साथ जौहर कर लिया. मार्च 1535 में बहादुर शाह ने मेवाड़ की राजधानी पर कब्जा कर लिया. राजपूतों ने हालांकि हमला कर, एक बार फिर चित्तौड़ अपने अधिकार में ले लिया पर विक्रमजीत ज्यादा वक्त गद्दी संभाल ना सके.
राजा उदय सिंहउदय सिंह उस वक्त छोटे थे. इसलिए राजा विक्रमजीत के गद्दी से हटने के बाद, कुछ सामंतों की सलाह पर वनवीर गद्दी पर बैठे. वो राणा सांगा के भाई पृथ्वीराज के बेटे थे. डॉ भवान सिंह लिखते हैं कि गद्दी में बैठने के बाद वनवीर के मन में ईर्ष्या घर कर गई. उन्होंने असली वारिस उदय सिंह को मारने की सोची. उस वक्त उदय अपनी दाई मां पन्ना की देख-रेख में थे. उदय सिंह को मारने के लिए, जब वनवीर हाथ में तलवार लेकर आए. तो पन्ना को खतरे का अंदाजा हो गया था. इसलिए उन्होंने अपने बेटे को बेड में सुला दिया और उदय सिंह की भागने में मदद की. इसके बाद वनवीर मेवाड़ के शासक बन गए. लेकिन उनका शासन भी ठीक नहीं था. नागरिक उनके खिलाफ होने लगे.
दूसरी तरफ, एक साल तक उदय सिंह के जीवित होने की बात छुपाई रखी गई. पर धीरे-धीरे ये बात बाहर आने लगी. सामंत छिपकर उनसे मिलने पहुंचते और उन्हें समर्थन मिलने लगा. धीरे-धीरे बात वनवीर तक भी पहुंची. दोनों के बीच युद्ध हुआ और उदय सिंह की जीत हुई. फिर कहानी आती है शिकार और उदयपुर के बसने की.ब्रिस्टी बंदोपाध्याय अपनी किताब, MAHARANA PRATAP Mewar 's Rebel King में लिखती हैं.
“एक सुबह राजा उदय सिंह पिछोला झील के पास शिकार कर रहे थे. एक दौड़ता खरगोश निशाने पर था. तभी राजा की नजर संत पर पड़ी. जो ध्यान कर रहे थे. संत को प्रणाम करने के बाद राजा ने चित्तौड़ के कब्जे की कहानी दोहराई और संत से पूछा कि नई राजधानी कहां बनानी चाहिए. संत ने जवाब दिया, बेशक यहीं. जहां तुम्हारा भाग्य मुझसे ये सवाल पूछने के लिए लेकर आया है. और ऐसे उदयपुर बसा.”
राजा ने झील के किनारे एक पैलेस बनवाने की बात भी कही. जिसे आज सिटी पैलेस के नाम से जाना जाता है.
शुरुआत में 1559 में बने इस पैलेस में बाद के सालों में भी काम हुआ. बाद के राजाओं ने करीब चार सदियों तक, पैलेस कॉम्पलेक्स में अपना योगदान दिया. कई बनावटों को जोड़ा गया. इमारतें बनवाई हैं, जो बाद में मानों एक ही इमारत का हिस्सा बनकर उभरीं. इसे देखकर ऐसा लगता है, मानो यह पानी से उभर रहा हो. ऊंची दीवारों और गुंबदों वाला ये पैलेस, हाथी पोल या गेट से, ट्रिपल गेट के मार्बल के मेहराब तक है. वही जगह जहां कभी राजा खरगोश का शिकार करने गए थे.
कॉम्प्लेक्स में कुछ 11 पैलेस हैं. जो ग्रेनाइट और मार्बल वगैरह से बनाए गए हैं. यहीं साल 1969 से एक संग्रहालय भी है. जिसमें मेवाड़ के राजघरानों के तमाम हथियार, कीमती चीजें और कवच वगैरह संजो कर रखे गए हैं. महाराणा प्रताप का कवच और हथियार भी यहां संजोए गए हैं. महल में शेरों के पिंजड़े और हाथियों के लड़ने की जगह भी देखने मिलती है. जेम्स बॉन्ड वाली फिल्म ऑक्टोपसी में भी इस महल को दिखाया गया है. बहरहाल, उदय सिंह नई राजधानी में ज्यादा समय नहीं बिता सके और साल 1572 में उनकी मृत्यु हो गई.
पीढ़ी दर पीढ़ी यह पैलेस एक वंश से दूसरे तक जाता रहा. फिर साल 1947 आया. देश आजाद हुआ. रियासतों का विलय भारत में हुआ. ज्यादातर राजाओं के पास कुछ ही विकल्प थे. या तो अपने महलों को होटलों में बदलें या फिर म्यूजियम में इसी क्रम में उदयपुर का महल भी, संग्रहालय में बदल दिया गया. आज जिसका नाम उदयपुर सिटी पैलेस है.
वीडियो: तारीख: उदयपुर के सिटी पैलेस पर किसका अधिकार? इतिहास जान लीजिए