बीते दिनों भारत की एक प्राइवेट डिफेंस कंपनी SSS Defence के सीईओ Vivek Krishnan का एक बयान सामने आया. उन्होंने कहा कि वो जल्द ही भारत में एक स्नाइपर स्कूल खोलेंगे. ऐसा स्कूल जो खास तौर पर स्नाइपर बनने की ट्रेनिंग देगा. SSS Defence कंपनी खुद भी कुछ स्नाइपर राइफल्स का निर्माण करती है. जिसमें Viper Sniper Rifle सबसे मशहूर है. इस खबर को पढ़ कर मन में आता है सवाल कि जब फौज के पास इतने सिपाही, तोप , हथियार आदि होते हैं, फिर अलग से इन खास तरह की बंदूकों से, खास तरीके से सटीक निशाना लगाने वालों की जरूरत क्यों पड़ती है? चाहे सेना हो , पैरामिलिट्री हो और यहां तक की पुलिस में भी आज इनकी जरूरत क्यों है? क्या खास बात होती हैं इनमें और कहां से हुई इसकी शुरुआत? एक-एक करके समझते हैं.
'पट्ट से हेडशॉट' मारने वाले स्नाइपर्स, जिनसे जंग के मैदान में दुश्मन खौफ खाते हैं
19वीं सदी की शुरुआत में Sharp Shooter शब्द ज्यादा प्रचलित था. पर समय के साथ-साथ Sniper शब्द ने इसकी जगह ले ली.
अंग्रेज जब भारत आए तो उनकी नजर भारत के खजाने, पैसे पर तो थी ही, पर इसके साथ इनके निशाने पर थी एक चिड़िया. वो चिड़िया जिसे मारने की कला से शब्द ईजाद हुआ स्नाइपर. स्नाइप दरअसल एक तरह का पक्षी होता है जो तालाबों के आसपास पाया जाता है. 1770 के दशक में भारत के ब्रिटिश सैनिकों के बीच स्नाइप नाम की चिड़िया का शिकार करना एक प्रिय शगल माना जाता था. इसी शिकार के शौक से एक शब्द प्रचलन में आया, स्नाइपर. माने जो इस चिड़िया स्नाइप का शिकार करे. इससे पहले सटीक निशाना लगाने वालों को शार्प शूटर कहा जाता था. ये शब्द भी जर्मन शब्द Scarf Schütze से आया था. ब्रिटिश उस समय दुनिया को ऐसा लूट रहे थे कि शब्द तक नहीं छोड़े. 19 वीं सदी की शुरुआत में शार्प शूटर शब्द ही ज्यादा प्रचलित था. पर समय के साथ-साथ स्नाइपर शब्द ने इसकी जगह ले ली. प्रथम विश्वयुद्ध आते-आते बड़े पैमाने ऐसे सैनिकों का इस्तेमाल होने लगा जो खास तौर पर दूरी तक निशाना लगाने के लिए प्रशिक्षित थे.
एक गोली, एक कमांडरट्रिगर पर हल्का हाथ, लंबी सांस, सोच मत, गोली चला. फिर गोली चलती है और करीब 300 मीटर दूर एक जर्मन सैनिक की खोपड़ी पर लगती है और वो ढेर हो जाता है. ये सीन है 2013 में आई डायरेक्टर Don Michael Paul की फिल्म Company Of Heroes का. द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में इस सीन के बाद नेट बरोस नाम के किरदार को उसका सार्जेंट कहता है कि अब से तुम मेरे नए 'स्नाइपर' हो. यानी अब नेट बरोस ही दूर बैठे दुश्मनों को मारने का काम करेगा.
वैसे तो फौज की सिखलाई ये कहती है कि हर गोली कीमती है. एक गोली मतलब एक दुश्मन. पर एक स्नाइपर की सिखलाई कहती है, एक गोली एक कमांडर. एक स्नाइपर का काम सिर्फ दुश्मन को मारना नहीं बल्कि उसकी नजर हमेशा एक हाई वैल्यू टारगेट पर होती है. हाई वैल्यू टारगेट के मरने का मतलब है दुश्मन को कमजोर बनाना. इतना कि अपने कमांडर के मरने के बाद उसका मनोबल ही टूट जाए. और इस तरह से शूट करने के लिए चाहिए होती है उम्दा ट्रेनिंग, खुद पर काबू, सांसों पर नियंत्रण, खूब सारा धैर्य और सबसे जरूरी जबरदस्त शूटिंग स्किल. मॉडर्न सेनाओं में अलग से स्नाइपर की ट्रेनिंग दी जाती है. इसके लिए मौजूदा सैनिकों में से ही कुछ को चुना जाता है.
ट्रेनिंगस्नाइपर अक्सर जोड़े में या अकेले ही ऑपरेट करते हैं. जोड़े में ऑपरेट करने के दौरान उनके साथ होता है उनका स्पॉटर. वो व्यक्ति जो टारगेट को ढ़ूंढने में मदद करता है. जंग में मैदान में बाकियों से अलग स्नाइपर हमेशा किसी हाई वैल्यू टारगेट की तलाश में रहते हैं. एक स्नाइपर की सबसे बड़ी ताकत है उसकी छिपने की कला. अगर दुश्मन को वो नजर आ गया तो उसमें और बाकी सैनिकों में कोई अंतर नहीं रह जाएगा. लिहाजा उन्हें सबसे पहले किसी भी तरह के वातावरण में खुद को छिपाना सिखाया जाता है. इस काम में उनकी मदद करता है उनके लिए बना खास सूट. जंगल हो, घास के मैदान हों, पहाड़ी हो या बर्फ़ीला इलाका; स्नाइपर को जगह के मुताबिक वर्दी या सूट दिया जाता है. इसे Camouflage सूट कहते हैं. हमने देखा है कि फौज की वर्दी का रंग उन्हें छिपने में मदद करता है. पर स्नाइपर का सूट उससे एक कदम आगे की चीज है. संभव है कि कोई सैनिक अपनी वर्दी पहन कर जंगल में छिपा हो तो भी दिख जाए, पर स्नाइपर अगर अपनी वर्दी के साथ कहीं बैठा या लेटा है, तो उसे ढूंढ पाना लगभग नामुमकिन है.
भारत की बात करें तो यहां सिर्फ स्नाइपर की ट्रेनिंग के लिए ऐसा कोई स्पेशल स्कूल नहीं है. फौज के ट्रेनिंग सेंटर्स में ही इंडियन आर्म्ड फोर्सेज़ के जवानों को स्नाइपर बनने की ट्रेनिंग दी जाती है. इसमें सबसे ऊपर नाम आता है, मध्य प्रदेश के महू (MHOW) स्थित इन्फैंट्री स्कूल का. ये भारत की सबसे बड़ी फैसिलिटी है जहां फौज की ट्रेनिंग होती है. इस ट्रेनिंग सेंटर में अलग-अलग तरह के कई कोर्स होते हैं. इन्हीं में से एक है स्नाइपर का कोर्स. जो भी सैनिक इसमें अच्छा प्रदर्शन करते हैं, उन्हें आगे एडवांस ट्रेनिंग के लिए भेजा जाता है. इसके अलावा अलग-अलग बटालियंस अपने स्तर पर भी स्नाइपिंग की ट्रेनिंग देती हैं. इस विधा में आंखों का रोल सबसे अहम है क्योंकि आपको सिर्फ गोली नहीं चलानी, बल्कि गोली को निशाने पर ही चलाना है. अगर सैनिक की आंख की पावर 20/20 नहीं होती तो उन्हें स्नाइपर के लिए नहीं चुना जाता. साथ ही सैनिक को राइफल की सही समझ होनी चाहिए.
अगर प्रेम में पड़े किसी व्यक्ति से पूछो कि उसकी सबसे प्रिय चीज क्या है, तो वो कहेगा उसकी प्रेमिका. उसी तरह अगर एक स्नाइपर से पूछा जाए की उसकी सबसे प्रिय चीज क्या है तो वो कहेगा मेरी राइफल. ट्रेनिंग और स्किल के अलावा राइफल ही है जो एक आम सैनिक को एक स्नाइपर से अलग बनाती है. स्नाइपर राइफल्स की नली या बैरल बाकी बंदूकों से लंबी होती है. यही वजह है कि इसकी गोली काफ़ी लंबी दूरी तक टारगेट को मार गिराती है. वैसे तो दुनिया में एक से बढ़ कर एक स्नाइपर राइफल्स हैं, पर भारत में मुख्य रूप से 7 स्नाइपर राइफल्स का इस्तेमाल किया जाता है. ये बंदूकें हैं-
Mauser SP66ये एक जर्मन बंदूक है जिसमें 7.62X51mm की गोली लगती है. इसकी लंबाई करीब 1,120 मिलीमीटर, बैरल की लंबाई 730 मिलीमीटर और वजन करीब 6.12 किलोग्राम है. इस राइफल में 3 राउंड वाली एक मैगजीन बॉक्स का इस्तेमाल किया जाता है. ये एक बोल्ट एक्शन राइफल है माने हर गोली चलने के बाद इसे लोड करना पड़ता है. अगर आपने पब्जी खेला है तो आप Kar98k राइफल से परिचित होंगे. जिस तरह से उसकी लोडिंग होती है, उसी को बोल्ट एक्शन कहा जाता है. माउज़र एसपी 66 , 800 मीटर तक दुश्मन पर सटीक ढंग से निशाना लगाने में सक्षम है.
IMI गलीलगलील एक इजरायल में बनी रोटेटिंग बोल्ट गैस ऑपरेटेड, यानी हर गोली चलने के बाद अपने आप लोड होने वाली स्नाइपर राइफल है. इजरायल के ऐतिहासिक शहर गलील के नाम पर इस राइफल का नामकरण किया गया है. गैस का इस्तेमाल कर ये राइफल फायर करने के बाद ये दोबारा लोड हो जाती है. इसमें 7.63X51mm की गोली लगती है. गलील की लंबाई 1,112 मिलीमीटर, बैरल की लंबाई 508 मिलीमीटर और वजन 6.4 किलोग्राम है. इस राइफल में 25 राउंड की मैगजीन लगती है. ये बंदूक 300-500 मीटर तक अपने टारगेट पर सटीक ढंग से निशाना लगा सकती है. वर्तमान में इसका इस्तेमाल इंडियन नेवी के मार्कोस कमांडोज़ और इंडियन एयरफोर्स के गरुड़ कमांडोज़ द्वारा किया जाता है.
हेक्लर एंड कोच PSG1Heckler and Koch PSG1 जर्मनी में बनी है. इसे सैनिकों द्वारा खूब पसंद किया जाता है. इस राइफल को 1972 में हुए म्यूनिख ओलंपिक्स में इजरायली खिलाड़ियों की हत्या के बाद जर्मनी द्वारा डेवलप किया गया था था. उस हमले के दौरान जर्मन स्पेशल फोर्स के पास कोई ऐसी बंदूक नहीं थी जो सटीक हो. लिहाजा इस बंदूक का निर्माण हुआ. इसमें 7.62X51mm की गोली लगती है जो 5, 10 और 20 राउंड वाली मैगजीन के साथ आती है. इसकी लंबाई 1,230 मिलीमीटर, बैरल की लंबाई 650 मिलीमीटर और वजन 7.2 किलोग्राम है. हेक्लर एंड कोच PSG1 की रेंज 800 मीटर है. इसका इस्तेमाल भारत के एनएसजी कमांडो, मार्कोस और इंडियन आर्मी द्वारा किया जाता है.
ड्रैगनोव SVD 59अगर आपने IGI नाम का कंप्यूटर गेम खेला है तो आप इस बंदूक से जरूर परिचित होंगे. ये सोवियत यूनियन में बनी राइफल है जिसमें 7.62X54mm की गोली का इस्तेमाल किया जाता है. ये एक ऐसी बंदूक है जिसने अपनी काबिलियत का पूरे विश्व में लोहा मनवाया है. सैनिकों को ये पसंद आने के पीछे इसकी सबसे बड़ी वजह है इसका भरोसेमंद होना. बर्फ, बारिश, नमी, गर्मी; किसी भी तरह का मौसम हो, कहा जाता है कि ड्रैगनोव राइफल कभी धोखा नहीं देती. इसकी लंबाई 1,225 मिलीमीटर, बैरल की लंबाई 620 मिलीमीटर, और वजन 4.68 किलोग्राम है. ड्रैगनोव 800 मीटर तक अपने टारगेट को मार गिराने में सक्षम है. इसका इस्तेमाल इंडियन आर्मी में बड़े पैमाने पर किया जाता है.
OSV-96 स्नाइपररूस में बनी इस स्नाइपर राइफल को भारत के मार्कोस कमांडोज़ इस्तेमाल करते हैं. इसमें 12.7X108mm की गोली लगती है जिसे इस्तेमाल करने के लिए 5 राउंड वाले एक मैगजीन बॉक्स का इस्तेमाल किया जाता है. ये एक बहुत ही घातक हथियार है जो 2 हजार मीटर तक अपने टारगेट को मार गिराने में सक्षम है. इसकी लंबाई 1,746 मिलीमीटर, बैरल की लंबाई 1 हजार मिलीमीटर, और वजन 12.9 किलोग्राम है.
सिग सॉर एस एस जी 3000ये जर्मनी में बनी एक स्नाइपर राइफल है जिसमें 7.62X51mm की गोली का इस्तेमाल किया जाता है. ये भी एक बोल्ट एक्शन राइफल है. इसकी लंबाई 1,180 मिलीमीटर, बैरल की लंबाई 600 मिलीमीटर, और वजन 5.44 किलोग्राम है. ये स्नाइपर 900 मीटर की दूरी तक दुश्मन पर सटीक ढंग से वार के सकती है.
साको टी आर जी 42Sako TRG 42 फिनलैंड में बनी एक बोल्ट एक्शन स्नाइपर राइफल है. इसे फिनलैंड की SAKO फायरआर्म्स ने बनाया है. इस स्नाइपर राइफल के कई सारे वेरिएंट हैं. भारत इसके 42 मॉडल का इस्तेमाल करता है. इसमें. 338 की लापुआ मैगनम की गोली लगती है. वही मैगनम जिसे आपने पब्जी की बंदूक AWM में इस्तेमाल किया होगा. इस बंदूक की लंबाई 1,200 मिलीमीटर, बैरल की लंबाई 690 मिलीमीटर और वजन 5.8 किलोग्राम है. ये एक ऐसी बंदूक है जिसकी मारक क्षमता की पूरी दुनिया कायल है. 1,100 मीटर तक ये बंदूक अपने टारगेट को मार गिराने के सक्षम है.
इन सभी स्नाइपर राइफल्स में निशाना लगाने लिए अलग-अलग तरह के टेलीस्कोप लगाए जाते हैं जिनसे शूटर को निशाना लगाने में मदद मिलती है. जैसी जरुरत, वैसा स्कोप. स्नाइपर राइफल्स के बारे में जानने के बाद अब इससे जुड़ा एक किस्सा भी जान लेते हैं. ये किस्सा है दुनिया के सबसे उम्दा स्नाइपर कहे जाने वाले व्यक्ति का. ऐसा शूटर जिसकी बंदूक ने 500 से अधिक दुश्मनों को मौत के घाट उतारा था.
पट्ट से हेडशॉट'पट्ट से हेडशॉट', पब्जी खेलने के दौरान आपने भी शायद ये डायलॉग सुना होगा. पर द्वितीय विश्वयुद्ध में एक ऐसा स्नाइपर हुआ जिसने इतने हेडशॉट मारे कि दुश्मन की सेना उसके नाम से ही खौफ खाने लगी. इस स्नाइपर का नाम था सिमो हायहा. 17 दिसंबर 1905 को फ़िनलैंड के एक छोटे से राज्य करेलिया में सिमो हायहा की पैदाइश हुई. 17 की उम्र में फौज जॉइन की और 1939 आते आते वो एक काबिल स्नाइपर बन गए थे. 1939 में जब सोवियत फौज ने फिनलैंड पर आक्रमण किया, सिमो ने भी इस युद्ध में हिस्सा लिया.
ये युद्ध कुल 109 दिन चला और सिमो खुद 98 दिनों तक युद्ध के मैदान में रहे. हालांकि इन 98 दिनों में उन्होंने सोवियत फौज में ऐसी दहशत फैला दी कि सोवियत सैनिक उन्हें वाइट डेथ के नाम से बुलाते लगे. युद्ध के दौरान एक दिन तो ऐसा गुजरा जब उन्होंने अकेले 25 सोवियत सैनिकों को अपना निशाना बनाया. सिमो हायहा की ज़िंदगी पर, 'द व्हाइट स्नाइपर' नाम से किताब लिखने वाले तापियो सारेलाइनेन एक आर्टिकल में लिखते हैं,
"स्नाइपर्स को लेकर ये मिथक रहता है कि वे पेड़ों या ऊंची जगहों पर चढ़कर निशाना लगाते हैं. लेकिन हायहा से जब इस बारे में पूछा गया, तो उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया, पेड़ों से ना सिर्फ़ सटीक निशाना लगाना मुश्किल होता है, बल्कि अगर आपकी पोजीशन पता चल गई तो आपके पास भागने का भी कोई ऑप्शन नहीं होता".
अब सवाल ये कि वो बंदूक कौन सी थी, जिससे सिमो हायहा ने ये कारनामा किया, और इसमें ख़ास ऐसा क्या था? हायहा के पास एक M/28 राइफल थी. जो फिनलैंड की फ़ौज की स्टैंडर्ड इश्यू राइफल हुआ करती थी. इसमें खास क्या था? हायहा की माने तो ख़ास कुछ भी नहीं. ख़ास खुद हायहा थे. उनके साथियों के अनुसार वो बाक़ी सैनिकों के मुकाबले सबसे पहले अपनी राइफल साफ किया करते थे. और मेंटेनेंस का काम लड़ाई के पहले और लड़ाई के बाद, दोनों बार करते थे. लड़ाई खत्म होने के बाद जब हायहा से उनकी सफलता का राज पूछा गया तो उन्होंने सिर्फ़ एक शब्द में जवाब देते हुए कहा, 'प्रैक्टिस'.
96 दिन की लड़ाई में सिमो हायहा ने औसतन रोज पांच दुश्मनों को अपना निशाना बनाया. इनमें वो लोग शामिल नहीं थे जो हायहा की मशीन गन का निशाना बने थे. युद्ध के अलग अलग दस्तावेजों में हायला के हाथों मारे गए लोगों की गिनती अलग अलग बताई गई हैं लेकिन उनके खुद के संस्मरणों के अनुसार उन्होंने 509 लोगों को स्नाइपर राइफल से निशाना बनाया था. एक खास बात ये भी थी कि हायहा के ये संस्मरण सालों तक छिपाकर रखे गए और साल 2017 में जाकर इन्हें प्रकाशित किया गया.
फिर आई 6 मार्च 1940 की तारीख. युद्ध बंदी की घोषणा में सिर्फ़ एक हफ्ता बचा था जब सिमो हायहा एक लड़ाई में बिजी थे. इस दौरान एक गोली आकर सीधे उनके चेहरे पर लगी और उनका जबड़ा फाड़ते हुए निकल गई. सिमो हायहा वहीं गिर पड़े. उन्हें मृत समझकर बाक़ी मृत सैनिकों के साथ रख दिया गया. क़िस्मत से उनके एक साथी ने देखा कि उनका एक पैर अभी भी हिल रहा था. सिमो को अस्पताल ले ज़ाया गया. उनका आधा चेहरा ग़ायब हो चुका था जिसे ठीक करने के लिए 26 बार ऑपरेशन किया गया.
एक दिलचस्प क़िस्सा ये भी है कि उनकी मौत की खबर जब सोवियत फ़ौज तक पहुंची तो वहां जश्न का माहौल हो गया. सिमो की मौत की खबर अखबारों ने भी छाप दी थी. इसलिए होश में आने के बाद सिमो ने अखबार को एक लेटर लिखकर अपनी गलती सुधारने को कहा. उन्हें पूरी तरह ठीक होने में 14 महीने का समय लग गया. ठीक होने के बाद सिमो एक बार फिर फ़ौज में जाना चाहते थे. लेकिन उनकी सेहत और उनके स्टेटस को देखते हुए उन्हें दुबारा लड़ने की इजाज़त नहीं दी गई. एक लो प्रोफ़ाइल ज़िंदगी जीने के बाद साल 2002 में 96 वर्ष की उम्र में उनकी मौत हो गई.
अब इस खबर के आखिर में समझते हैं सबसे अधिक दूरी से चलाई गई एक गोली के बारे में. एक ऐसे स्नाइपर के बारे में जिसने 3 किलोमीटर से अभी अधिक दूरी से अपने दुश्मन को मार गिराया. इस स्नाइपर का नाम है Vyacheslav Kovalskiy. ये यूक्रेन के एक 58 साल के बिजनेसमैन हैं जिन्होंने रूस-यूक्रेन जंग के दौरान 3.8 किलोमीटर की दूरी से एक रूसी सैनिक को मार गिराया. वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिए अपने इंटरव्यू में Vyacheslav Kovalskiy बताते हैं
"मुझे ये पता था कि रूसी सोचते हैं कि यूक्रेन के लोग सक्षम नहीं हैं. अब वो अपने घर में बैठ कर भी हमसे डरेंगे."
Vyacheslav Kovalskiy और उनके साथी ने टारगेट को ढूँढने के लिए कड़कड़ाती ठंड में घंटों इंतजार किया. जब उनके साथी ने कहा कि उन्हें एक रूसी अफसर दिख रहा है जो सैनिकों को आदेश दे रहा है, उन्होंने निशाना लगाया और गोली 9 सेकेंड में अपने शिकार को जाकर लग गई. इस शॉट के साथ ही Vyacheslav Kovalskiy ने वर्ल्ड रिकार्ड बना दिया. उनसे पहले यह कीर्तिमान एक कनाडा की स्पेशल फोर्स के स्नाइपर के पास था जिसने 2017 में इराक में 3.54 किलोमीटर की दूरी से एक टारगेट को मार गिराया था.
वीडियो: तारीख: कहानी उस सैनिक की जिसे दुनिया ने 'अन-किलेबल सोल्जर' का खिताब दिया