ये आर्टिकल 'दी लल्लनटॉप' के लिए ताबिश सिद्दीकी ने लिखा है. 'इस्लाम का इतिहास' नाम की इस सीरीज में ताबिश इस्लाम के उदय और उसके आसपास की घटनाओं के बारे में जानकारी दे रहे हैं. ये एक जानकारीपरक सीरीज होगी जिससे इस्लाम की उत्पत्ति के वक़्त की घटनाओं का लेखाजोखा पाठकों को पढ़ने मिलेगा. ये सीरीज ताबिश सिद्दीकी की व्यक्तिगत रिसर्च पर आधारित है. आप ताबिश से सीधे अपनी बात कहने के लिए इस पते पर चिट्ठी भेज सकते हैं - writertabish@gmail.com
इस्लाम से पहले का अरब
इस्लाम के आने से पहले अरब और उसके आसपास की परिस्थितियां और संस्कृति कैसी थी, ये सवाल अक्सर लोगों को परेशान करता है. ख़ास तौर से उन्हें जो मुसलमानों और इस्लामिक विद्वानों से हमेशा ये सुनते रहते हैं कि अरब में इस्लाम से पहले चारों ओर अज्ञानता फैली हुई थी. त्राहि-त्राहि मची हुई थी. औरतों की कोई इज्ज़त नहीं थी. लोग आपस में लड़ मर रहे थे. सब कुछ अस्त-व्यस्त था एक तरह से. आजकल मौजूद इस्लामिक हदीसों में उस दौर को जाहिलियह कहा गया है. क्या सच में वो दौर इतना ही खराब था? और इस्लाम के आने के बाद सब कुछ रामराज्य जैसा हो गया अरब में?इस्लाम के आने से पहले का लिखित अरबी इतिहास बहुत थोड़ी मात्रा में ही उपलब्ध है. इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि उस दौर के अरब बहुत कम पढ़े लिखे हुआ करते थे. लिखने से ज़्यादा इतिहास और कविताओं को याद करना पसंद करते थे. कंठस्थ करने के पीछे एक बड़ी वजह ये बताते थे कि जिस भी बात को कंठस्थ कर लिया जाता है, उस बात में बदलाव की संभावना बहुत कम हो जाती है.
इस्लाम के शुरुआती दौर में कुरान को कंठस्थ करने के पीछे यही वजह थी. बाक़ी का इतिहास, जो कुछ भी लिखित मात्रा में अरब में था, वो बाद के ख़लीफ़ाओं के दौर में या तो युद्ध में नष्ट हो गया या फिर नष्ट कर दिया गया.
सिर्फ खूंरेजी की दास्तानें सुनाई जाती हैं इस्लाम से पहले. (प्रतीकात्मक इमेज, सोर्स: हिस्ट्री ऑफ़ जेहाद.कॉम)
बिना दस्तावेजों के कैसे जानें इस्लाम?
इस्लाम आने से पहले के अरब का इतिहास और उसके सामाजिक परिवेश को हम उस दौर की कविताओं, कुछ हदीसों, पैगंबर की जीवनी और अरब के आसपास के क्षेत्रों में लिखी गई इतिहास की कुछ किताबों द्वारा जान और समझ सकते हैं. इस इतिहास को आज के समय में जानना बेहद ज़रूरी है. इसलिए क्योंकि इस्लाम और उसकी मान्यताएं आज जिस दौर से गुज़र रही हैं, उसकी जड़ वहीं पुराने अरब में मौजूद है. जो इस्लाम के आने के साथ लुप्त हो गया.अद्वैत और द्वैत की जो लड़ाई इस्लाम के आगमन से शुरू हुई, उसने अरब समेत पूरी पृथ्वी का राजनैतिक और सामाजिक तौर से नक्शा ही बदल डाला. जिस वजह ये सब हुआ उसके पीछे धर्म और राजनीति का घालमेल था. इस्लाम जो धर्म से शुरू होकर राजनीति तक पहुंचा, उसने अपने मानने वाले लोगों द्वारा लिखित हदीसों में अपने पुरखों को जाहिल घोषित किया. मुस्लिम समाज उस दौर के लोगों को अनपढ़, जाहिल और क्रूर जैसे शब्दों से ही संबोधित करता है.ऐसे एक पूरे समाज को जाहिल घोषित कर देने के पीछे जो भी राजनैतिक या धार्मिक चाल रही हो, मगर ये चाल थी बड़ी सोची समझी और दिलचस्प.
कैसा था अरब का नक्शा?
आज के सऊदी अरब के पश्चिमी हिस्से को पहले हिजाज़ के नाम से जाना जाता था. हिजाज़ क्षेत्र में इस्लाम के दो सबसे पवित्र क्षेत्र मक्का और मदीना बसे हुए थे. मक्का में इस्लाम धर्म का प्रतीक काबा है. मदीना में अल-मस्जिद अन-नबवी स्थित है, जो कि पैगंबर मुहम्मद के दफ़न होने की जगह भी है. मदीना उस समय यसरिब के नाम से जाना जाता था. जब हम इस्लाम और उसके आगमन की बात करते हैं, तो हमारा ध्यान पूरी तरह हिजाज़ पर ही रहता है. क्योंकि यही वो क्षेत्र है, जहां से इस्लाम ने सर उठाया और सारी दुनिया में फैल गया.आज की तारीख में अल-मस्जिद-अन-नबवी. (इमेज सोर्स: हिस्ट्री ऑफ़ जिहाद.कॉम)
इस्लाम के आगमन से पहले भी काबा अरबों की आस्था का मुख्य केंद्र बना हुआ था. काबा अपने शुरुआती दिनों में मक्का में निर्जन पहाड़ियों से घिरी हुई धूल भरी तलहटी में बना था. तब के काबा में और आज के काबा में बहुत अंतर है. पहले काबा आयताकार था, जबकि आजकल क्यूब के आकार का है. कहा जाता है कि उस समय काबा की दीवारें आज के मुकाबले इतनी छोटी होती थीं कि एक बकरी भी छलांग मारकर उसे पार कर सकती थी.
मुक़द्दस काबा की एक पुरानी तस्वीर. (इमेज सोर्स: Destination Economy.com)
काबा बिना किसी छत के, पत्थरों की चार दीवारों से बना हुआ था. जो कि एक दूसरे के ऊपर फंसाकर रखे गए थे. छत की जगह इसे बड़े से कपड़े से ढका जाता था. जैसा कि आज भी है मगर आजकल छत है. इसमें भीतर प्रवेश करने के लिए दो छोटे दरवाज़े थे.
क्या था काबे के अंदर?
भीतर प्रवेश करने पर अंदर देवताओं और देवियों की मूर्तियां थीं. जिनमें प्रमुख थे अरब देवता हबल, सीरियन चंद्र देवी अल-उज्ज़ा, मिस्र की देवी ईसिस जिसे ग्रीस के लोग Aphrodite के नाम से जानते थे. नबाती देवी कुत्बा के साथ-साथ ईसाईयों के ईसा और मरियम की मूर्तियां भी भीतर थीं.बाहर की तरफ से काबा तीन सौ साठ देवी-देवताओं की मूर्तियों से घिरा हुआ था. वो अरब के विभिन्न क्षेत्रों के देवी देवता थे. हर अरबी कबीले और कुल का अपना अलग देवता या देवी होती थी. काबा के आसपास अरबियों ने लगभग हर उस देवी देवता को जगह दे रखी थी, जो किसी कुल या कबीले के लिए पूजनीय था.
मूर्तियों से घिरे काबे की एक प्रतीकात्मक पेंटिंग. (इमेज सोर्स: parhlo.com)
अरब ऐसा इसलिए करते थे ताकि विभिन्न क्षेत्र, कबीले, कुल और भिन्न भावना के लोगों के लिए भी काबा आस्था का केंद्र बना रहे. धार्मिक महत्व से कहीं ज्यादा, इसका राजनैतिक महत्व था. क्योंकि हर साल हज के लिए लोगों का दूर दराज़ के इलाकों से मक्का आना व्यापारिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण था.
क्यों थी इतनी मूर्तियां काबे में?
काबा के आसपास तीन सौ साठ मूर्तियों का होना इस बात की ओर इशारा करता है कि अन्य सभ्यताओं की तरह अरब के लोग भी ग्रहों की पूजा करते थे. कैरेन आर्मस्ट्रॉन्ग अपनी किताब 'Islaam - a short story' में इस धारणा की पुष्टि करती है. उनके हिसाब से तीन सौ साठ मूर्तियों का होना साल के तीन सौ साठ दिनों की ओर इशारा करता है. और वहां ग्रहों से सम्बंधित देवी-देवताओं का होना इस बात को और मज़बूत करता है.कहा जाता है कि पहले के समय में काबा के भीतर बीचो-बीच धरती में एक खूंटी गड़ी हुई थी. इसे लोग धरती का केंद्र समझते थे. पुराने समय में काबा में प्रवेश करने के बाद कुछ धार्मिक लोग जोश में आने पर अपने कपड़े फाड़कर अपनी नाभि को उस खूंटी पर टिकाकर लेट जाते थे. इस कर्मकांड के द्वारा वो समझते थे कि उनके शरीर के केंद्र का संबंध अब पृथ्वी के केंद्र से हो गया है और उनका शरीर पूरे ब्रम्हांड के साथ एक हो गया है.पवित्र महीनों में हज के लिए मक्का में आना और काबा के सात चक्कर लगाना भी खगोलीय पूजा का हिस्सा माना जाता था. ये परिक्रमा उसी तरह थी, जैसे पृथ्वी और अन्य ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं. ये उसी समझ से उपजा कर्मकांड था.
आब-ए-ज़मज़म की दिलचस्प कहानी
काबा के पास ही ज़मज़म का कुआं है. उस बीहड़ इलाके में इस तरह का कुआं होना अपने आप में एक आश्चर्य था. इसलिए बीहड़ रेगिस्तान के उस इलाके में ऐसे कुएं को पवित्र माना जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. क्योंकि पानी वहां सबसे कीमती चीज़ थी. आज भी है. इसलिए इसके साथ बहुत सारी किवदंतियां जुड़ गईं. इस्लामिक किवदंती कहती है कि एक बार पैगंबर इब्राहिम की पत्नी हाजरा अपने बेटे को इस बीहड़ में छोड़कर पानी की तलाश में इधर उधर दौड़ रही थीं. तभी इस्माईल, जो कि दूध पीते बच्चे थे, के पैरों की रगड़ से धरती से पानी का फव्वारा छूट पड़ा. कुछ किवदंतियां कहती हैं कि एक फ़रिश्ते ने आकर उस कुएं को खोदा. जो कि बाद में ज़मज़म के नाम से जाना गया.आब-ए-ज़मज़म को बेहद पवित्र जल माना जाता है. (इमेज सोर्स: islamicblog.in)
कुछ इतिहासकार तो इस बात की भी संभावना जताते हैं कि काबा से अधिक पवित्र ज़मज़म था. काबा इसी ज़मज़म के कुएं की वजह से अधिक पवित्र बना. भारत में जैसे पवित्र नदियों के आस पास मंदिर होते हैं, उसी तरह काबा भी ज़मज़म कुएं के आसपास स्थित एक पवित्र मंदिर जैसा ही था. उस बीहड़ में ज़मज़म एक चमत्कार जैसा था. उसे इस चमत्कार के साथ जोड़ लेना कि ज़मज़म इस्माईल के पैरों की रगड़ से पैदा हुआ, या फ़रिश्ते ने आकर खोदा, बहुत आसान था.
इन बातों के आकलन लगाए गए हैं. वैसे इन आकलनों के मानने वालों की संख्या कम है. क्योंकि ये आकलन उन लोगों के हैं जो विश्वासी नहीं हैं. मगर विश्वासियों के आकलन भी उतने ही प्रमाणिक हैं, जितने कि ये आकलन. कोई भी आकलन वैज्ञानिक रूप से सिर्फ इसलिए प्रामाणिक नहीं माना जा सकता है कि उनमें एक बड़ी संख्या विश्वास करती है. आकलनों की सच्चाइयां जो भी हो मगर एक बात तो तय है कि एक बड़े समूह का आकलन और अटकलें ही धर्म की नींव बनती है.
क्रमशः.....
(Sources: Hisham Ibn Al-Kalb - KITAB AL-ASNAM, Ibn- Ishaq/Ibn-Hisham - Life of Muhammd, Al-tabarai, Michal Wolfe - One thousand road to Mecca)
ताबिश सिद्दीकी के और आर्टिकल्स यहां पढ़ें:
हलाला के हिमायतियों, कुरआन की ये आयत पढ़ लो, आंखें खुल जाएंगी
इस्लाम की नाक बचाने के लिए डॉक्टर कफ़ील को हीरो बनाने की मजबूरी क्यों है?