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भारत में पहली बंदूक कब आई? क्या है Guns का इतिहास?

History of Guns: खानवा के मैदान में Rana Sanga और मुग़ल बादशाह Babur के बीच जंग हुई. इसमें बड़े पैमाने पर बारूद का इस्तेमाल हुआ. और यही Gunpowder किसी गन का सबसे मुख्य कंपोनेंट होता है.

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आज के समय मेंं बंदूक सबसे बेहतर हथियार है (PHOTO-एडॉब स्टॉक)

बीते दिनों एक खबर आई कि महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री बाबा सिद्दीकी (Baba Siddique) की गोली मारकर हत्या कर दी गई. उससे पहले हमने देखा कि करणी सेना के सुखदेव सिंह गोगामेड़ी (Sukhdev Singh Gogamedi) को गोली मार दी गई. फिर अतीक अहमद (Atiq Ahmed) की पुलिस हिरासत में हत्या. और ये सिर्फ भारत में नहीं हुआ. अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों के प्रचार के दौरान डॉनल्ड ट्रंप (Donald Trump) पर गोलियां चलीं. कुल मिलाकर देखें तो ऐसी बहुतेरी घटनाएं मिलेंगी, जिनमें एक चीज़ कॉमन है, और वो है बंदूक का इस्तेमाल. 

अगर आपने अजय देवगन और इमरान हाशमी स्टारर फिल्म ‘Once Upon A Time In Mumbai’ देखी है तो आपने उसमें इमरान हाशमी के किरदार का एक डायलॉग सुना होगा जिसमें वो बंदूक के बारे में कहता है-                                                                 

“ये घोड़ा है घोड़ा, बड़े-बड़े इसके आगे जिंदगी की रेस हार जाते हैं."

तो जानते हैं क्या है इस घोड़े की कहानी?

बंदूक और क्रांति

1857 की क्रांति और मंगल पांडे की कहानी- सैनिकों में बात फ़ैल गई कि कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी है. कारतूस को मुंह से छीलना पड़ता था. इसलिए हिन्दू और मुसलमान सिपाही बगावत पर उतर आए. मंगल पांडे को फांसी पर चढ़ा दिया गया. इस घटनाक्रम से हम सभी वाफिक हैं. इस कहानी में हालांकि एक दिलचस्प सवाल छुपा है. आखिर कारतूस को मुंह से खोलने की जरुरत क्यों थी? कारतूस में चर्बी क्यों लगाई जाती थी? और 1857 से पहले भी कारतूसों का इस्तेमाल होता रहा था, फिर 1857 में ही ये सारा हंगामा खड़ा क्यों हुआ?
इन सारे सवालों का जवाब है एक बंदूक- 1853 Enfield Musket राइफल.

1853 Enfield Musket
इसी राइफल की वजह से सैनिकों में क्रांति की आग भड़की (PHOTO-विकीपीडिया)

नाम से जाहिर है कि ये 1853 में बनी थी. लेकिन भारतीय सिपाहियों को इसे 1857 में इशू किया गया. बंदूक बेहतर थी. लेकिन इसमें कारतूस भरने का तरीका अलहदा था. दरअसल, पुरानी बंदूकों को मज़ल लोड किया जाता था. माने बंदूक में गोली और बारूद नाल के मुंहाने से डाला जाता था. अंग्रेज़ों की स्टैंडर्ड इशू बंदूकें थीं ब्राउन बेस. ये एक तरह की मस्केट्स थीं. इनमें भी पहले बैरल के मुंह से गनपाउडर भरा जाता था. इसके बाद लेड यानी शीशे की दो गोलियां अलग से डाली जाती थीं. इसके बाद एक छड़ी से इन्हें अंदर ठूंस दिया जाता था. जब बंदूक चलाने की बारी आती, छड़ी के मुंह पर कपड़ा लगाकर दोबारा उसे बैरल के अंदर ठूंसा जाता था ताकि गन पाउडर और गोली सही से सेट हो जाए. 

चूंकि ये तरीका झंझट भरा और टाइम लेने वाला था. इसलिए कंपनी ने अपनी फौज को एक नया हथियार दिया - Enfield Pattern 1853, or P53. 53. 1853 नाम में इसलिए था, क्योंकि इसी साल ये बनी थी. थी p53 भी एक मस्केट ही, लेकिन इसमें गोली लोड करने को सिंपल बनाने का प्रयास किया गया. चूंकि p53 में राइफल बोर था, उसकी गोली घूमते हुए निकलती थी. हवा में कलाबाज़ी नहीं खाती थी. इसीलिए ब्राउन बेस की गोलियों की तुलना में काफी एक्यूरेट थी.

अब बारूद और गोली अलग अलग लेकर चलने की ज़रूरत नहीं थी. एक कारतूस आया, जिसमें बारूद और गोली दोनों साथ थे. P53 के कारतूस में एक 0.577 इंच की गोली होती थी और साथ में बारूद. ये बारूद भीगकर खराब न हो, इसीलिए कारतूस को वॉटरप्रूफ पेपर से लपेटा गया. उस ज़माने में पेपर को वॉटरप्रूफ करने का एक ही तरीका था, किसी तरह उसे ग्रीस कर दिया जाए. कुछ कुछ बटर पेपर की तरह.

चर्बी या ग्रीस का काम था इस कारतूस को नमी से बचाकर रखना, ताकि ज़रूरत पड़ने पर वो दगे. वक्त आने पर सिपाही मुंह से कागज़ को फाड़ता. इसके बाद गनपाउडर भरता और गोली डाल देता. अंत में जो कागज़ बचता उसे उसी तरह इस्तेमाल किया जाता, जैसे पुराने तरीके में कागज़ या कपड़े को किया जाता था. चूंकि इस तरीके में कारतूस पर लगे कागज़ को चबाना पड़ता था, बखेड़ा खड़ा हो गया. बात चल निकली कि कागज़ में सुअर और गाय की चर्बी लगी है. इससे हिंदू भी आहत हुए और मुस्लिम भी. 

वैसे इस बात के प्रमाण नहीं मिलते हैं कि कारतूसों पर सुअर की चर्बी लगाई गई थी, लेकिन गाय की चर्बी का ज़िक्र मिलता है. इंडियन एक्सप्रेस पर 5 अगस्त 2018 को प्रतीक कांजीलाल का एक लेख छपा. इसमें Instruction of Musketry नाम के एक मैन्युअल का हवाला दिया गया है, जिसके मुताबिक अंग्रेज़ सैनिकों को बंदूकों को भरना और चलाना सिखाया जाता था. इसके 1855 वाले संस्करण में कारतूस बनाने का तरीका भी बताया गया है. दरअसल तब सिपाही ही खाली वक्त में कारतूस बांधा भी करते थे. 

विधि ये थी कि गोली ली जाए, उसे बारूद के साथ कागज़ में लपेटा जाए और फिर इस कारतूस को डुबाया जाए ग्रीस में. ग्रीस कैसे बनेगा - 6 हिस्से टैलो और 1 हिस्सा मधुमक्खी का मोम मिलाने से. टैलो, उस ज़माने में गाय की चर्बी को कहा जाता था. जब अंग्रेज़ों ने समझाने के लिए ये कहा कि लगाने को कारतूस पर मक्खन या घी भी लगाया जा सकता है, तब सैनिकों का शक जैसे पक्का हो गया और ये कारतूस बगावत की एक तात्कालिक वजह बनकर उभरे.

1857 की क्रांति ने अंग्रेज़ों को सकते में डाल दिया था. और ये सब हुआ था एक बंदूक के चलते. इसलिए क्रांति के बाद जब ब्रिटिश सरकार ने सत्ता हाथ में ली. उन्होंने सबसे पहले Enfield Musket के बदले एक नई राइफल इश्यू की. कहानी का सार ये कि बंदूक से साम्राज्य चलाने वाले अंग्रेज़ों की सत्ता एक बंदूक के कारण ही खतरे में आ गई थी. और ऐसा एक बार नहीं हुआ. इतिहास का एक लम्बा चैप्टर बंदूकों से सहारे बताया जा सकता है. 

भारत में बंदूक 

अंतरराष्ट्रीय हथियार विशेषज्ञ रॉबर्ट एलगुड ने भारतीय हथियारों पर एक कम्प्रेहैन्सिव बुक लिखी है- The Maharaja of Jodhpur's Guns'. किताब में एलगुड बताते हैं, भारतीयों का बंदूकों से पहला सामना 1527 में हुआ. खानवा के मैदान में राणा सांगा और मुग़ल बादशाह बाबर के बीच जंग हुई. इसमें बड़े पैमाने पर बारूद का इस्तेमाल हुआ. इतिहासकार यदुनाथ सरकार के अनुसार राजपूतों के लिए ये एकदम अलग चीज थी. राजपूतों में एक बड़े तबके का मानना था कि बंदूक से शस्त्र कला नहीं पता चलती. राजपूत मानते थे कि किसी को बंदूक से मार गिराना और उसे तलवार से सामने-सामने की लड़ाई में मारने में ज़मीन-आसमान का अंतर है. राजस्थान का इतिहास लिखने वाले जेम्स टॉड के अनुसार 

“राजपूत बंदूक को पसंद नहीं करते. वो बंदूकों को कोसते हैं. अपने विरोधियों के सामने बराबरी से उतरने की बजाए वो अपने घोड़े से गिर कर मरना ज़्यादा गरिमा से भरा मानते हैं.”

समय के साथ हालांकि रजवाड़ों ने भी बंदूक का इस्तेमाल किया. मुग़ल इतिहासकार बदायुनी के अनुसार बाबर के हिंदुस्तान आने के बाद से राजपूत सेनाओं ने भी अपने वॉरफेयर का तरीका बदला. बदायुनी के अनुसार हल्दीघाटी के युद्ध में एक हाथी को गोली लगी थी. जिससे ये ज़ाहिर होता है कि दोनों तरफ से बारूद, बंदूक का इस्तेमाल किया जाने लगा था.
बंदूकों ने भारतीय इतिहास पर क्या असर डाला, इसकी एक बानगी अकबर के चित्तौरगढ़ अभियान में मिलती है. 

जब मुग़लों ने चित्तौरगढ़ पर हमला किया तो लाख कोशिश के बावजूद वो किले को भेद नहीं पा रहे थे. जितना नुकसान वो करते, चित्तौरगढ़ की सेना उसकी मरम्मत करती जाती. एक रात बादशाह अकबर एक ऊंचे टीले पर चढ़कर मुआयना कर रहे थे. तभी उन्हें किले पर कोई खड़ा दिखाई दिया. ऐसे किले पर किसी का दिखना कोई नई बात नहीं थी, पर उस इंसान की बॉडी लैंग्वेज से बादशाह अकबर को लगा कि ये कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति है. अकबर ने निशाना लगाया और गोली चला दी. गोली अपने निशाने पर लगी और वो इंसान गिर गया.

 कुछ समय बाद मुग़ल सेना को पता चला कि मारा गया व्यक्ति और कोई नहीं, महाराणा उदय सिंह के ख़ास जयमल राठौर थे. जयमल राठौर के ज़िम्मे ही किले को छोड़कर महाराणा पहाड़ी पर चले गए थे. कहते हैं कि अगर वो गोली उस रात जयमल राठौर को न लगती तो चित्तौरगढ़ का इतिहास आज कुछ और होता. इस तरह बंदूकों ने इतिहास के कई मोड़ों पर निर्णायक असर डाला. चलिए अब जानते हैं कि बंदूकों के शुरुआत कहां से हुई? 

पहली बंदूक 

बकिंघम पैलेस का नाम आपने सुना होगा. ब्रिटिश राजशाही का राजमहल. ऐसा ही एक राजमहल और है- विंडसर कैसल. 14 वीं शताब्दी में विंडसर कैसल में एक शस्त्र तैनात रहता था. 
एक मशीन थी जिसमें गोलों को रखकर तेज़ झटके से फेंका जाता था. आपने अगर बाहुबली मूवी देखी हो तो उसमें एक सीन है जिसमें कालकेय से लड़ाई के दौरान बाहुबली बड़े-बड़े गोले फेंकता है. बाद में उसमें कपड़ा बांधकर भी फेंकता है जिससे आग लग जाती है. विंडसर कैसल में खड़ा शस्त्र कुछ इसी प्रकार का था. और इसका नाम था - डोमिना गनिल्डा. इस नाम के दूसरे हिस्से से ही बना है गन यानी हिंदी में बंदूक. 

पहली बंदूक कब बनाई गई. इसका ठीक ठीक उत्तर बताना मुश्किल है. लेकिन सबसे पहली बंदूक चीन में बनी, ये निश्चित है. 9वीं शताब्दी में चीन के लोगों ने ही गनपाउडर का आविष्कार किया. गनपाउडर ही वो बेसिक चीज़ बनी जिसने बंदूकों के विकास में अहम भूमिका निभाई. शुरुआत के दिनों की बंदूक को नाम दिया गया फायर लांस. इसमें एक लंबे से बांस के आगे एक भाला जैसा लगा रहता था. बांस के अंदर गन पाउडर भरा जाता, साथ ही उसमें कीलें, लोहे के छर्रे भर दिए जाते थे. जैसे ही गन पाउडर में आग लगाई जाती, लोहे के छर्रे बाहर आते. इस शुरुआती बंदूक की रेंज हालांकि बमुश्किल 3-4 मीटर होती थी. 

एक टिपिकल क्लासिकल गन या राइफल जैसी हम आज देखते हैं, वो डिज़ाइन 1500 के आसपास तैयार हुआ. इन्हें मस्कट कहा गया. ऐसी ही एक मस्कट जिसे मैचलोक कहते है, उसे पुर्तगालियों ने बनाया था. पुर्तगाली मैचलोक को भारत लेकर आए. इसमें एक जलने वाली बत्ती लगाई जाती थी, जैसा मोमबत्ती में होता है. उसकी मदद से पहले गन पाउडर में आग लगती थी, और वो गोली को बाहर फेकती थी. 

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पुर्तगाली मैचलॉक (PHOTO-विकीपीडिया)

पुर्तगालियों की मैचलॉक के अलावा ऑटोमोन साम्राज्य से हासिल की गई बंदूकें मुग़लों के जरिए भारत आई. भारत में भी हालांकि लोकल बंदूकें बनती थी. जिन्हें तोरादर कहा जाता था. ये शुरुआती राइफल्स थीं. छोटी एक हाथ से चलने वाली बंदूकों के विकास में क्रांति लाने का श्रेय जाता है एक शख्स को. नाम सैमुअल कोल्ट. 

1836 में सैमुअल कोल्ट ने लॉक और स्प्रिंग डिज़ाइन वाली एक रिवॉल्वर का पेटेंट कराया. कोल्ट के डिज़ाइन में आगे चलकर और बदलाव हुए. स्मिथ एंड वेसन के साथ मिलकर कोल्ट ने रिवॉल्वर का एक ऐसा मॉडल बनाया, जिसमें गोलियों का कम्पार्टमेंट, साइड से बाहर निकल जाता था. बिलकुल जैसा गब्बर सिंह की रिवॉल्वर में था. ये मॉडल इतना लोकप्रिय हुआ कि 20 वीं सदी आते-आते रिवॉल्वर के बाज़ारों में इसका एकछत्र राज हो गया.

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कोल्ट रिवॉल्वर (PHOTO-विकीपीडिया)

 

फेमस बंदूकें

रिवॉल्वर और राइफलों का विकास साथ साथ हुआ. 20 वीं सदी में कई तरह की बंदूकें अस्तित्व में आईं. अपनी अलग-अलग खूबियों की वजह से ये सभी गन्स लोगों के बीच खूब प्रचलित हुई. एक एक कर इनके बारे में भी जानते हैं. 

डबल बैरल शॉटगन

जैसा कि नाम से ज़ाहिर है, इस बंदूक में दो बैरल थी. और पावर के लिहाज़ से ये गन बहुत ही ताकतवर थी. 12 गेज की गोली वाली शॉटगंस के बारे में एक कहावत है कि ये धरती पर पाए जाने वाले किसी भी जीव का, चाहे गैंडा हो या हाथी, एक गोली में काम तमाम कर सकती है. इसके साथ ही शिकार और स्पोर्ट्स में भी शॉटगंस बहुत लोकप्रिय हुईं.

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डबल बैरल शॉटगन (PHOTO-विकीपीडिया)
स्पेंसर रिपीटिंग राइफल

इस बंदूक को ये नाम मिला इसे डिज़ाइन करने वाले क्रिस्टोफर स्पेंसर के नाम पर. सात राउंड वाली मैगज़ीन के साथ आने वाली स्पेंसर रिपीटिंग राइफल. अमरिकन सिविल वॉर में घुड़सवार फौजों की सबसे पसंदीदा राइफल बन गई ये स्पेंसर राइफल. रिपीटिंग राइफल्स को ऑटोमैटिक हथियारों की शुरुआत माना जाता है, क्योंकि इनमें बंदूक को बार बार लोड करने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. मैग्ज़ीन खाली होने तक ये बंदूक राउंड दागती रहती थी.

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स्पेंसर रिपीटिंग राइफल (PHOTO-विकीपीडिया)
मैक्सिम गन

मैक्सिम गन को बनाया था एक अमेरिकन बॉर्न ब्रिटिश व्यक्ति हिरेम मैक्सिम ने. इस गन ने मशीनगंस की दुनिया में क्रांति ला दी. इसमें हर गोली चलने के बाद जो रिकॉयल माने झटका होता, उसी झटके का इस्तेमाल कर के अगली गोली भी चलती. 1884 की बनी मैक्सिम गन 600 राउंड प्रति मिनट की क्षमता से फायर करती थी. इस वजह से ये गन ब्रिटिश, जर्मन, इटालियन, स्विस, ऑस्ट्रिया और रशियन सेनाओं की फेवरेट हो गई. पहले विश्वयुद्ध में इसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हुआ. ये मैक्सिम की मशीन गन की ही देन थी कि ट्रेंच वॉरफेयर शुरू हुई. ट्रेंच एक तरह की खंदक होती है जिसमें कुछ-कुछ दूरी पर मशीन गन की पोस्ट बनाई जाती थी. इसकी वजह से आगे बढ़ते हुए दुश्मन को रोकने के साथ-साथ उसे भारी नुकसान पहुंचाया जा सकता था.

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मैक्सिम गन (PHOTO-विकीपीडिया)
पबजी वाली गन

अगर आपने पबजी खेला है तो आप इस अगले नाम से ज़रूर परिचित होंगे. टॉमी गन या थॉमसन गन. एक हल्का पर असरदार हथियार. इसके अविष्कारक जॉन थॉमसन ने इसे लॉ एनफ़ोर्समेन्ट एजेंसियों के लिए बनाया था. पर ये उन क्रिमिनल्स के पास भी पहुंच गया जिन्हें लॉ एनफ़ोर्समेंट वाले ढूंढ़ रहे थे. इस गन का क्रेज़ गैंगस्टर्स में इतना बढ़ गया कि अमेरिकी सरकार ने इसे बैन कर दिया. फिर भी इस गन ने सेकंड वर्ल्ड वॉर में अपना जलवा दिखाया और ब्राउनिंग आटोमेटिक राइफल के बाद टॉमी गन सैनिकों का सबसे पसंदीदा हथियार बनी.

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थॉमसन बंदूक (PHOTO-विकीपीडिया)
गन का बादशाह

बंदूकों की बात हो तो AK-47 के ज़िक्र के बिना कहानी अधूरी लगती है., AK-47 यानी आटोमेटिक क्लाशनिकॉव 47. लॉ एनफ़ोर्समेंट एजेंसियां हों, सेना हो, टेररिस्ट्स हों या क्रिमिनल्स. एके 47 ने किसी को निराश नहीं किया. इस गन के बारे में एक कहावत है कि मानव इतिहास में अगर किसी हथियार ने सबसे ज़्यादा लोगों की जान ली है, तो वो एके 47 है. 
इस गन को बनाने वाले व्यक्ति का नाम था मिखाइल क्लाशनिकॉव ने. उन्हीं के नाम पर इस बंदूक का नाम आटोमेटिक क्लाशनिकॉव 47 पड़ा. 47 इसलिए क्योंकि इसे 1947 में बनाया गया था. मिखाइल ने इसे सोवियत मिलिट्री के लिए बनाया था. बाद में इस गन की इतनी कॉपीज़ बनी कि आज ये अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है कि दुनिया में क़ितनी एके 47 हैं. 

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एके 47 (PHOTO-विकीपीडिया)

हाल ही में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति और अमेरिका के अगले राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प पर गोली चली. सीक्रेट सर्विस ने हमलावर को तो मार गिराया पर उसके पास से मिली बंदूक ने लोगों का ध्यान खींचा. ये बंदूक थी AR15 असॉल्ट राइफल. 21 सदी के सबसे लोकप्रिय और सटीक हथियारों में से एक. आम लोगों में इस राइफल का आटोमेटिक वर्जन M16 काफी पॉपुलर है. खासकर अमेरिका के मास शूटर्स में. इस बंदूक के दो वर्जन हैं, फुली और सेमी आटोमेटिक. फुली आटोमेटिक में जहां एक बार ट्रिगर दबाने पर कई राउंड फायर होते हैं, वहीं सेमी आटोमेटिक में एक ट्रिगर पर एक गोली निकलती है. बस समानता इतनी है कि मैगज़ीन खाली होने तक इन्हें रिलोड नहीं करना पड़ता.

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