आमिर खान मराठा सेना के सबसे ताकतवर कमांडर हुआ करते थे. उनके पास 8000 घुड़सवार और 10,000 पैदल सैनिक हुआ करते थे. टोंक का नवाब बनने के बाद आमिर खान अपने इलाके को बढ़ाने की कोशिश में लग गया. उत्तर भारत के मुसलमानों को अपने पक्ष में खड़ा करने के लिए उसने इस पूरी कोशिश को मजहबी रंग दे दिया. उत्तर भारत के कई मुस्लिम नौजवान आमिर खान से जुड़ने लगे. 1810 के साल में रायबरेली का एक ऐसा ही नौजवान आमिर खान की सेना में बतौर घुड़सवार शामिल हुआ. नाम सैयद अहमद. छह साल तक वो आमिर खान के लश्कर में फिरंगियों से लड़ते रहा. 1817 में अंग्रेजों और मराठों के बीच तीसरी मर्तबा जंग हुई. पेशवा बाजीराव, मल्हार राव होलकर, माधोजी भोंसले, दौलत राव शिंदे और पिंडारियों की संयुक्त सेना को ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना से मात खानी पड़ी. मल्हार राव होलकर की हार के बाद टोंक नवाब आमिर खान ने भी अंग्रेजों के सामने हथियार डाल दिए. अंग्रेजों के साथ हुई संधि में उन्हें टोंक का नवाब बने रहने दिया गया.
सैयद अहमद बरेलवी की याद में लगा पत्थर. अब यह पत्थर ही उनकी आखिरी निशानी है.
सैयद अहमद इस आत्मसमर्पण से खुश नहीं थे. वो भारत में फिर से इस्लामी राज की स्थापना के सपने के साथ रायबरेली से टोंक पहुंचे थे. लेकिन आमिर खान के आत्मसमर्पण ने उनके सपने को तोड़कर रख दिया. मायूस होकर वह टोंक से दिल्ली चले आए. अपने उस्ताद शाह अब्दुल अजीज़ के पास. अब्दुल अजीज़ सूफियों के नक्शबंदी सिलसिले से ताल्लुक रखते थे. लेकिन अरब में खड़े हो रहे वहाबी आंदोलन से काफी प्रभावित थे. उन्होंने सैयद अहमद को दो चीजें दीं.
पहली चीज कि वो इस्लाम के सही सिद्धांतों का मुसलमानों के बीच प्रचार करें. दूसरी चीज इस मिशन को पूरा करने के लिए दो साथी. पहले उनके भतीजे शाह इस्माइल और दूसरे मौलाना अब्दुल. सैयद अहमद शाह अजीज़ के बताए मिशन पर निकल गए. पूरे देश में घूम-घूम कर इस्लाम का प्रचार किया. मुसलमानों को 'हिंदुओं के रिवाज़' छोड़ने की सलाह दी. मुस्लिम रियासतों का समर्थन और चंदा हासिल किया. सैयद अहमद के अवध और बिहार में अच्छे खासे समर्थक थे. इस्लामिक राज की स्थापना के लिए जरूरी संसाधन वो जुटा चुके थे.
पहला जिहादी
फ्रेंच पॉलिटिकल साइंटिस्ट ओलिवियर रॉय ने अपनी किताब 'Islam and Resistance in Afghanistan' में सैयद अहमद के बारे में मार्के की बात दर्ज की. ओलिवियर लिखते हैं कि सैयद अहमद आधुनिक दौर के पहले इस्लामिक लीडर थे, जिन्होंने ऐसा आंदोलन खड़ा किया जो अपनी तासीर में धार्मिक होने के साथ-साथ राजनीतिक और सैन्य आंदोलन भी था. सैयद अहमद सियासत और मजहब के बारीक संबंधों की समझ हसिल कर चुके थे. अब उन्हें एक बेस की जरूरत थी जहां से वो जिहाद की शुरुआत कर सकें. उन्होंने बड़ी सावधानी से खैबर पख्तूनख्वा इलाके को अपने बेस के लिए चुना. इसके तीन कारण थे. पहला कि खैबर इलाके में मुस्लिम बहुसंख्यक थे. दूसरा इस इलाके पर अंग्रेजों का कब्जा नहीं था. वो अपने मिशन के शुरुआती दौर में ही अंग्रेजों के साथ नहीं उलझना चाह रहे थे. तीसरा कि खैबर इलाके में रहने वाले पठान कबीलों का लंबा सैनिक इतिहास था. ऐसे में वहां से जिहाद के लिए मुजाहिद्दीन आसानी से मिल सकते थे.
1826 में हज से लौटने के तीन साल बाद सैयद अहमद बरेलवी ने रायबरेली से पंजाब की तरफ कूच किया. उस समय पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह का राज हुआ करता था और कश्मीर से लेकर पेशावर तक उनके राज्य की सरहद फैली हुई थी. पहले दौर में सैयद अहमद ने रणजीत सिंह के राज्य की सीमा के साथ लगी मुस्लिम रियासतों को अपने पक्ष में लेने कोशिश की. बहावलपुर के नवाब और सिंध के सुल्तान ने सैयद अहमद के जिहाद में भाग लेने से इनकार कर दिया. यहां मायूस होकर वो पेशावर की तरफ बढ़ गए.
महाराजा रणजीत सिंह.
जनवरी 1827 में सैयद अहमद पेशावर पहुंचे. पेशावर उस समय महाराजा रणजीत सिंह के राज्य का हिस्सा था. पख्तूनों के प्रभावशाली बरकजाई कबीले के दो भाइयों यार मोहम्मद खान और सुल्तान मोहम्मद खान को रणजीत सिंह की तरफ से पेशावर का गवर्नर नियुक्त किया गया था. जिस समय सैयद मोहम्मद पेशावर पहुंचे यहां के पख्तूनों को उनके मिशन के बारे में कोई अंदाजा भी नहीं था. शुरुआती दौर में पख्तून कबीलों के सरदारों ने उनका स्वागत किया और जिहाद में उनकी मदद करने की कसमें भी खाईं. लेकिन जल्द ही शरिया के हिसाब से चलने वाले राज का स्वाद मालूम होने लगा.
1827 में सैयद अहमद ने खुद को खैबर पख्तूनख्वा इलाके का इमाम घोषित कर दिया. 1830 की शुरुआत में सैयद अहमद बरेलवी ने होती और मरदान के खानों के साथ मिलकर पेशावर पर कब्जा कर लिया. लेकिन शरिया का शासन पख्तून कबीलों को बहुत रास नहीं आया. परम्परागत खानों के समानांतर उलेमाओं को नियुक्त करके राजनीतिक सत्ता को हथियाने की शुरुआत हुई. सैयद अहमद बरेलवी अपने साथ लगभग 1000 घुड़सवारों का लश्कर लेकर खैबर पहुंचे थे. शरिया कानून लागू करने के नाम पर इन लोगों ने खैबर पख्तूनख्वा के इलाके के कबीलाई रिवाजों को तोड़ना-मरोड़ना शुरू किया. कई दफा ये नमाज़ के वक्त गांवों में घुस जाते और ऐसे हर आदमी को सजा देते जो नमाज़ अदा करने मस्जिद नहीं गया हो. सैयद अहमद ने अपने साथ आए मुजाहिद्दीनों की पठान लड़कियों के साथ जबरदस्ती शादियां भी करवानी शुरू कर दीं. उन्होंने खुद एक पठान लड़की के साथ अपना तीसरा निकाह किया. इसके अलावा उन्होंने शरिया के हिसाब से कबीलों से फसल का दसवां हिस्सा बतौर टैक्स वसूलना शुरू कर दिया.
1830 का आखिर आते-आते पठानों का सब्र चुक गया. पेशावर में यूसुफजाई, बरकजाई जैसे कई कबीलों ने मिलकर आधी रात में सैयद अहमद के जिहादी लश्कर पर हमला बोल दिया. सैकड़ों जिहादी मौत के घाट उतार दिए गए. सैयद अहमद बरेलवी और बचे-कुचे जिहादियों को पेशावर खाली करके भागना पड़ा. पेशावर से हटकर ये लोग कश्मीर की सीमा से सटे बालाकोट कस्बे में पहुंचे और इसे अपने कब्जे में ले किया. कश्मीर बरेलवी की इस्लामिक राज्य की योजना में पहले से था. बालाकोट कश्मीर का दरवाजा था. यह कस्बा तीन तरफ से पहाड़ से घिरा हुआ था और एक तरफ नदी थी. सामरिक दृष्टि से यह बहुत सुरक्षित ठिकाना था. बरेलवी ने यहां अपना अड्डा जमा लिया और कश्मीर पर हमले की तैयारी करने लगा. इस दौरान महाराजा रणजीत सिंह तक बरेलवी के जिहाद की खबरें पहुंच चुकी थीं और इसे कुचले जाने का फैसला लिया जा चुका था.
हूर के हाथ की खीर
1831 की शुरुआत में सिख सेना ने बालाकोट पर घेरा कसना शुरू कर दिया. महाराजा रणजीत सिंह के कमांडर हरी सिंह उस समय कश्मीर के गवर्नर हुआ करते थे. उन्होंने चतुराई से काम लेते हुए शेर सिंह के नेतृत्व में अपनी सेना का एक दस्ता मुज़फ्फराबाद की तरफ भेजा और उसे रुके रहने का आदेश दिया. सिख सेना की दूसरी टुकड़ी ने रणनीति के हिसाब से महत्वपूर्ण पहाड़ी मिट्टीकोट पर कब्जा कर लिया. यहां से बालाकोट कस्बे पर पूरी निगरानी रखी जा सकती थी. सिखों के साथ जंग को लेकर बरेलवी के मन में कुछ अलग ही योजनाएं चल रही थीं. टोंक के नवाब के साथ उनका करीबी संबंध था. वो अपनी दोनों बीवियों को टोंक छोड़कर खैबर आए थे. 25 अप्रैल 1831 को टोंक के नवाब को लिखे एक खत में वह कहते हैं-
"मैं फिलहाल पखली की पहाड़ियों में हूं. यहां के लोगों ने हमारी अच्छी मेहमाननवाज़ी की है. हमें रुकने के लिए जगह भी दी है. लोगों ने जिहाद में हमारा साथ देने की बात भी कही है. फिलहाल मैंने बालाकोट में डेरा डाल रखा है जोकि कुंहर दरिया के किनारे है. काफिरों (सिख आर्मी) का डेरा हमसे बहुत दूर नहीं है. बालाकोट महफूज़ जगह है. काफ़िर हम तक नहीं पहुंच सकते. हम अपनी मर्जी से उन पर धावा बोल सकते हैं और जंग की शुरुआत कर सकते हैं. और हम अगले दो या तीन दिन में जंग छेड़ने जा रहे हैं. अल्लाह के करम से हम यह जंग जीतेंगे. अगर हम ये जंग जीतते हैं तो हम झेलम दरिया के किनारे-किनारे कश्मीर के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लेंगे. आप दिन-रात हमारे लिए दुआ कीजिए."हालांकि खत में बरेलवी जल्द ही धावा बोलने की बात कह रहे थे, लेकिन जमीन पर उनकी रणनीति बिल्कुल अलग थी. वो सिखों की तरफ से हमले के इंतजार में बैठे हुए थे. उन्हें उम्मीद थी कि सिख सेना पहाड़ी से नीचे उतरकर बालाकोट पर हमला बोल देगी. लिहाजा उन्होंने कस्बे और पहाड़ी के बीच फैले चावल के खेतों में पानी भरवा दिया. बरेलवी का यह अंदाजा था कि पहाड़ी से उतरती सिख सेना के घोड़े चावल के खेतों के दलदल में फंसकर धीमे पड़ जाएंगे और उन्हें आसानी से निशाना बनाया जा सकेगा. पहाड़ी पर मौजूद सिख सेना भी यह सब देख रही थी. इसलिए दोनों सेनाओं में से कोई भी जंग का आगाज़ करने के लिए तैयार नहीं था.
कई बार त्रासदी मजाकिया अंदाज में शुरू होती है. बालाकोट की जंग में भी ऐसा हुआ. साल था 1831. जुम्मे का दिन था. बरेलवी के मुजाहिद्दीन फज्र की नमाज़ अदा करके नाश्ता कर रहे थे. इस बीच मुजाहिद्दीनों में से एक सैयद चिराग अली पटियालवी को खीर खाने की तलब लगी. लेकिन नाश्ते में खीर परोसी नहीं गई थी. ऐसे में उन्होंने कहा कि वो खुद खीर पकाकर खाएंगे और एक मटके में खीर पकाने बैठ गए. इधर चूल्हे की आंच पर दूध खौल रहा था और उधर चिराग अली की निगाह मिट्टीकोट पर जमी हुई थी. जंग के दबाव के चलते चिराग मियां अपना दिमागी संतुलन खो बैठे. उन्हें लाल रंग के कपड़े पहने हुए एक हूर पहाड़ी से उतरती नजर आने लगी. खीर को भूलकर वो दीवानों की तरह पहाड़ी की तरफ बढ़ने लगे. पानी पड़े चावल के खेतों में हूरी-हूरी चिल्लाते हुए वो सिख बंदूकों की जद में पहुंच गए. वो मिट्टीकोट से दागी गई गोली का शिकार हुए और दलदल में ढेर हो गए.
बरेलवी की लाश सिखों ने दरिया में बहा दी थी.
गोली की आवाज के चलते बरेलवी के जिहादियों में खलबली मच गई. बरेलवी ने सिख सेना पर हमले के आदेश दे दिए. इधर पहाड़ी पर मौजूद सिख भी नीचे उतरने लगे. दोनों सेनाओं के बीच पूरे दिन युद्ध चला. दिन खत्म होते-होते जंग खत्म हुई और सिख इस जंग को जीतने में कामयाब रहे. सैयद अहमद बरेलवी और उनके साथी शाह इस्माइल के सिर कलम कर दिए गए. बरेलवी की लाश को नदी में बहा दिया गया ताकि उसकी याद को इतिहास के पन्नों से मिटाया जा सके. और इस तरह से दक्षिण एशिया में खड़े हुए पहले जिहाद को सिखों ने कुचलकर रख दिया.
शाह इस्माइल
1980-90 के बीच पाकिस्तान और अमेरिका की मदद से अफगानिस्तान और खैबर में जिहादियों का दूसरा उभार खड़ा हुआ. मुल्ला उमर, हाफिज सईद, मसूर अज़हर इस उभार के शीर्ष पर थे. इन लोगों ने खैबर पख्तूनख्वा और पंजाब के इलाकों से हजारों नौजवानों को बरगलाया और सोवियत-अफगान युद्ध के दौरान 'जिहाद' में उतार दिया. इस समय सैयद अहमद बरेलवी ने उनकी बहुत मदद की. जेहादी नेताओं के भाषण बरेलवी की बहादुरी के किस्सों से भरे होते थे. यही वजह है कि बालाकोट इस्लामी चरमपंथियों के लिए किसी तीर्थ जैसा है. बालाकोट पर सर्जिकल स्ट्राइक के दौरान बम गिराए गए. आतंकी ठिकानों को नष्ट करने के अलावा यह एक मनोवैज्ञानिक हमला था. ऐसे में इसकी चोट काफी गहरी पहुंची होगी.
जिहाद में मारा गया पहला गधा
अपने मेहनती स्वभाव के बावजूद दुनिया के एक बड़े हिस्से में गधा मूर्खता का पर्याय बना हुआ है. बालाकोट की लड़ाई के दौरान यह गधा ही था जिसने सैयद अहमद बरेलवी के जिहादियों को भूखा नहीं मरने दिया. सिख सैनिक मिट्टीकोट पर थे और बालाकोट में हो रही हर गतिविधि पर नजर बनाए हुए थे. जैसे कि किसी भी घेरे में होता है, सिखों ने जिहादियों की सप्लाई लाइन काट दी. बरेलवी के पास राशन की कमी होने लगी. आखिरकार इससे बचने के लिए नायाब तरकीब निकाली गई.
गधे ना सिर्फ मेहनती होते हैं बल्कि उनकी याद्दाश्त भी आला दर्जे की होती है. वो रास्ते याद करने में माहिर होते हैं. बरेलवी ने माल ढोने वाले एक गधे के जरिए सप्लाई लाइन पर मौजूद सिखों की घेरेबंदी को तोड़ दिया. होता यह था कि रात के अंधेरे में इस गधे को पास के कस्बे के लिए रवाना किया जाता और रातभर में यह जरूरी राशन लेकर फिर से बालाकोट लौट आता. इस तरह से बरेलवी के पास रसद की कमी नहीं हुई. लंबे समय तक यह खेल चलता रहा. एक रात अंधेरे में गधे के पैरों की आवाज को इंसानी पैर की आवाज होने की सुबहे में सिख सैनिक ने गोली मार दी. सुबह गधे की लाश के पास बिखरे राशन की वजह से बरेलवी की चालाकी का पर्दाफाश हुआ. बरेलवी के लोग इस गधे के इतने अहसानमंद थे कि उन्होंने इसे पूरे सम्मान के साथ दफनाया. इस गधे की कब्र तो बाद के दौर में कहीं खो गई लेकिन लोगों के जेहन में इसकी याद बनी रही. बालाकोट के पास ही हारो दरिया के किनारे एक जगह है जिसे आज भी लोग 'खोता कबर' के नाम से बुलाते हैं. हालांकि बाद में इसका नाम मुस्लिमबाद कर दिया गया. लेकिन लोग अब भी इसे खोता कबर के नाम से ही बुलाते हैं.
विंग कमांडर अभिनंदन की वापसी तक सब्र नहीं कर सके ये लोग। The Lallantop Show। । Episode 165