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क्या हाई कोर्ट जज भी अंट शंट बातें करते हैं? ये लिस्ट पढ़कर कहेंगे- 'सवाल तो बनता है'

किसी जज ने कहा स्किन-टू-स्किन टच नहीं तो यौन उत्पीड़न नहीं, किसी ने कहा- शादी में महिलाओं को मारपीट सह लेनी चाहिए. किसी ने बेंगलुरु के एक इलाके को पाकिस्तान ही बता दिया. ऐसे तमाम मामले हैं जब हाई कोर्ट के जजों की टिप्पणियों ने अदालतों पर ही सवाल खड़े कर दिए.

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सांकेतिक तस्वीर. (Aaj Tak)

इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक फैसले को लेकर बहस चल रही है. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि लड़की के ‘ब्रेस्ट पकड़ना और उसकी सलवार का नाड़ा तोड़ना रेप या रेप का प्रयास नहीं’ माना जाएगा, बल्कि गंभीर यौन उत्पीड़न माना जाएगा. कोर्ट ने जिस केस में यह फैसला सुनाया वह मात्र 11 साल की एक बच्ची से जुड़ा था. 

इस विवादित फैसले को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने ‘अन्यायपूर्ण’ बताया है और राज्य सरकार से तत्काल इसके खिलाफ अपील करने को कहा है. वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने सुप्रीम से इस फैसले के खिलाफ स्वत: संज्ञान लेने को कहा है. 

आदेश के सार्वजनिक होने के बाद से तय था कि विवाद होगा. और ऐसा पहली बार नहीं है जब जजों के बयान की वजह से न्यायपालिका पर सवाल उठे हों. पहले भी ऐसे कई मामले आ चुके हैं जब हाई कोर्ट्स की टिप्पणियां और फैसले विवाद की जड़ बने.

'गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाए'

31 मई, 2017 को राजस्थान हाई कोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान कहा कि गाय को 'राष्ट्रीय पशु' घोषित किया जाना चाहिए. कोर्ट ने राज्य सरकार से इस पर कदम उठाने को की सिफारिश भी की. जस्टिस महेश चंद्र शर्मा जयपुर की हिंगोनिया गोशाला को लेकर दायर एक याचिका की सुनवाई कर रहे थे. अपने आदेश में उन्होंने 'गोहत्या के लिए आजीवन कारावास का प्रावधान' किए जाने की भी सिफ़ारिश कर दी थी.

लेकिन जस्टिस शर्मा सिर्फ अपने इस फैसले के लिए चर्चा में नहीं आए. कोर्ट में फैसला सुनाने के बाद वो बाहर निकले और पत्रकारों से बात करने लगे. उन्होंने कहा, "कानून का उदय धर्म से हुआ है. धर्म कानून से नहीं आया." इस दौरान उन्होंने राष्ट्रीय पक्षी मोर को लेकर भी विचित्र बयान दे दिया. कहा,

“मोर में भी अपना गुण होता है. वह आजीवन अविवाहित रहता है. वह मोरनी के साथ समागम नहीं करता. मोरनी मोर के आंसुओं से गर्भवती होती है. तब एक मोर या मोरनी का जन्म होता है.”

जस्टिस शर्मा का ये फैसला उनके करियर का आखिरी फैसला था.  

'महिलाओं को बर्दाश्त करना चाहिए'

साल 2012 में कर्नाटक हाई कोर्ट के जज के भक्तवत्सला ने पत्नियों पर पति की मारपीट को ही जायज ठहरा दिया था. उनकी ये टिप्पणी फैमिली मैटर की सुनवाई के दौरान आई. इसमें उन्होंने कहा,

"शादी में सभी महिलाएं कष्ट झेलती हैं. आप विवाहित हैं और आपके दो बच्चे हैं और आप जानती हैं कि एक महिला के तौर पर कष्ट झेलना क्या होता है. आपके पति अच्छा व्यवसाय करते हैं. वह आपका ख्याल रखेंगे. आप अभी भी उनकी पिटाई के बारे में क्यों बात कर रही हैं."

भक्तवत्सला सिर्फ यहीं तक नहीं रुके. उन्होंने वकीलों पर भी टिप्पणी की,

"पारिवारिक मामलों में केवल विवाहित लोगों को ही बहस करनी चाहिए, अविवाहित महिलाओं को नहीं. आपको केवल देखना चाहिए. शादी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की तरह नहीं है. बेहतर होगा कि आप शादी कर लें और आपको ऐसे मामलों में बहस करने का बहुत अच्छा अनुभव मिलेगा."

जस्टिस भक्तवत्सला ने इस तरह की महिला विरोधी टिप्पणी पहली बार नहीं की थी. वह पहले भी न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर महिलाओं को कमतर आंक चुके थे. 12 मई, 2011 को उन्होंने एक केस में फैसला सुनाते हुए कहा कि 21 साल की लड़कियां इतनी सक्षम नहीं होतीं कि वह अपना जीवनसाथी चुन सकें. फैसले में उन्होंने कहा,

“हमारी राय में 21 साल से कम उम्र की लड़कियां, प्यार में पड़े लड़के के बारे में तर्कसंगत निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं. हमारा सुझाव है कि 21 वर्ष से कम आयु की लड़की के प्रेम संबंध के मामले में यह शर्त होनी चाहिए कि लड़की के माता-पिता विवाह को मंजूरी दें. अन्यथा ऐसे विवाह को अमान्य घोषित किया जाना चाहिए.”

'स्किन टू स्किन टच नहीं तो यौन उत्पीड़न नहीं'

​साल 2021 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया कि 'स्किन टू स्किन' संपर्क के बिना गुप्तांगों को छूना, यौन उत्पीड़न के तहत नहीं आता है. यह निर्णय न्यायमूर्ति पुष्पा गनेड़ीवाला की एकल पीठ ने दिया था. पीठ ने अपने फैसले में कहा कि यौन उत्पीड़न के लिए शारीरिक संपर्क, यानी 'स्किन टू स्किन' संपर्क, जरूरी है. और केवल कपड़ों के ऊपर से छूना पॉक्सो अधिनियम के तहत यौन उत्पीड़न नहीं माना जाएगा.

अदालत ने कहा कि अगर आरोपी ने बच्चे के कपड़े नहीं हटाए या कपड़ों के अंदर हाथ नहीं डाला, तो बच्चे की छाती को छूना यौन उत्पीड़न नहीं होगा.

जस्टिस गनेड़ीवाला का भी यह इकलौता मामला नहीं था जो विवादित बना. 29 जनवरी, 2021 को ​नागपुर बेंच की न्यायमूर्ति पुष्पा गनेड़ीवाला ने एक मामले में आरोपी को बलात्कार के आरोप से बरी कर दिया. उन्होंने कहा कि यह ‘अत्यंत असंभव’ प्रतीत होता है कि एक अकेला व्यक्ति बिना किसी संघर्ष के पीड़िता का मुंह बंद करे, उसके और अपने कपड़े उतारे और जबरन यौन क्रिया करे. अदालत ने यह भी उल्लेख किया कि मेडिकल साक्ष्य पीड़िता के दावे का समर्थन नहीं करते हैं.

बेंगलुरु में जज को दिख गया पाकिस्तान

पिछले साल सितंबर में कर्नाटक हाई कोर्ट के ​न्यायमूर्ति वी श्रीशनंदा ने एक मामले की सुनवाई के दौरान बेंगलुरु के एक मुस्लिम बहुल इलाके की तुलना ‘पाकिस्तान’ से कर दी. ​न्यायमूर्ति वी श्रीशनंदा ने एक मामले की सुनवाई के दौरान यातायात संबंधी मामलों का उल्लेख करते हुए कहा कि आजकल किसी भी निजी स्कूल में जाएं, तो आप देखेंगे कि स्कूटर पर तीन से अधिक बच्चे सवार होते हैं. प्रिंसिपल और माता-पिता इस पर कोई कार्रवाई नहीं करते. ऑटो रिक्शा में 13-14 छात्र होते हैं. पुलिस निष्क्रिय है.

इसी संदर्भ में उन्होंने कहा,

"मैसूर रोड फ्लाईओवर की ओर, हर ऑटो रिक्शा में 10 लोग होते हैं, और बाजार से गोरिपल्या तक का मैसूर रोड फ्लाईओवर भारत में नहीं, बल्कि पाकिस्तान में है."

इस टिप्पणी के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय से रिपोर्ट मांगी. न्यायमूर्ति श्रीशनंदा ने अपनी टिप्पणी पर खेद व्यक्त करते हुए कहा कि उनका उद्देश्य किसी भी व्यक्ति या समुदाय को आहत करना नहीं था. सुप्रीम कोर्ट ने उनकी माफी स्वीकार करते हुए मामले को रफादफा कर दिया, लेकिन यह भी कहा कि भारत के किसी भी हिस्से को ‘पाकिस्तान’ कहना देश की अखंडता के खिलाफ है.

आरक्षण पर गुजरात हाई कोर्ट के जज की टिप्पणी

गुजरात में साल 2015 में हार्दिक पटेल की अगुआई में पटेल आरक्षण के लिए आंदोलन किया गया. इस मामले में हार्दिक पटेल पर राजद्रोह का मुकदमा भी चला. जिसे बाद में सरकार ने वापस ले लिया. इसी मामले की सुनवाई के दौरान दिसंबर 2015 में गुजरात हाई कोर्ट के जज जेबी पारदीवाला ने एक टिप्पणी की. उन्होंने कहा,

“आज देश के सामने सबसे बड़ा खतरा भ्रष्टाचार है. देशवासियों को खून बहाने और आरक्षण के लिए हिंसा करने के बजाय, सभी स्तरों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खड़ा होना चाहिए. आरक्षण ने केवल लोगों के बीच फूट के बीज बोने वाले एक राक्षस की भूमिका निभाई है. किसी भी समाज में योग्यता का महत्व कम करके नहीं आंका जा सकता. इसलिए, योग्यता के महत्व दिया जाना चाहिए – योग्यता पर जोर देना और उसे पुरस्कृत करना समाज में अच्छे माने जाने वाले लक्ष्यों को प्राप्त करने का एक तरीका है. स्थिति की विडंबना यह है कि भारत शायद एकमात्र ऐसा देश है जहां कुछ नागरिक खुद को पिछड़ा कहलाने की लालसा रखते हैं.”

जस्टिट पारदीवाला की इस टिप्पणी पर विवाद हो गया. बाद में गुजरात हाई कोर्ट ने इसे कार्रवाई से हटा दिया.

'बहुसंख्यक के अनुसार ही देश चलेगा'

एक मामला और है जिस पर कुछ महीने पहले ही खूब विवाद हुआ था. यह मामला किसी बेंच की टिप्पणी से तो नहीं जुड़ा है. लेकिन बयान एक हाई कोर्ट के जज का ही है. जस्टिस शेखर यादव. 8 दिसंबर को विश्व हिन्दू परिषद के विधि प्रकोष्ठ (लीगल सेल) ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के लाइब्रेरी हॉल में एक कार्यक्रम का आयोजन किया था. इसमें जस्टिस शेखर यादव को भी बुलाया गया था. उन्होंने भाषण दिया. और जो कहा उस पर लंबा विवाद हुआ.

जस्टिस शेखर यादव ने कहा,

 "ये कहने में बिल्कुल गुरेज़ नहीं है कि ये हिन्दुस्तान है. हिन्दुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यक के अनुसार ही देश चलेगा. यही क़ानून है. आप यह भी नहीं कह सकते कि हाई कोर्ट के जज होकर ऐसा बोल रहे हैं. क़ानून तो भैया बहुसंख्यक से ही चलता है. परिवार में भी देखिए, समाज में भी देखिए. जहां पर अधिक लोग होते हैं, जो कहते हैं उसी को माना जाता है."

इस दौरान जस्टिस शेखर यादव ने 'समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक अनिवार्यता' विषय पर बोलते हुए कहा कि देश एक है, संविधान एक है तो क़ानून एक क्यों नहीं है? जस्टिस शेखर यादव ने ये भी कहा कि 'कठमुल्ले' देश के लिए घातक हैं.

उन्होंने कहा,

"जो कठमुल्ला हैं, 'शब्द' ग़लत है लेकिन कहने में गुरेज़ नहीं है, क्योंकि वो देश के लिए घातक हैं. जनता को बहकाने वाले लोग हैं. देश आगे न बढ़े इस प्रकार के लोग हैं. उनसे सावधान रहने की ज़रूरत है."

मंजर भोपाली एक शेर कह गए हैं-

आप ही की है अदालत आप ही मुंसिफ़ भी हैं
ये तो कहिए आप के ऐब-ओ-हुनर देखेगा कौन

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