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स्क्रीन पर सोनाली बेंद्रे को देख कच्ची बेर की महक भर जाती थी

पहले-पहल जब देखा था तब सात-आठ साल का रहा होऊंगा. इश्क करने को ये उम्र भी कम नही होती.

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कच्ची बेर की महक भर जाती है सोनाली को देखकर

छुटपन में बेर ऐसी नाजुक होती है कि दांतों के बीच रख हल्के से दबा दो तो 'कच्च से' हो जाए. उस बेर के 'कच्च से' हो जाने का अपना स्वाद है. थोड़ा कसैला सा. बेर के हरे टुकड़ों के बीच गुठली के भी टुकड़े रह जाते हैं. सारे मुंह में बेर के दूध सा कुछ लग जाता है. ये स्वाद भी बस उनको पता होता है जो इतना भी सब्र नहीं कर पाते कि बेर को बढ़ जाने दें. पक जाने दें. याद रहने को रह जाती है कच्ची बेर की वो महक जो मुंह से नाक तक पहुंचती है.
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उसकी नजर के उठने में कुछ तो था

पहले-पहल जब देखा था तब सात-आठ साल का रहा होऊंगा. इश्क करने को ये उम्र भी कम नहीं होती.  'ए नाजनीं सुनो न,हमें तुमपे हक तो दो न' किसी ऊंची चट्टान पर जिसके हर तरफ समंदर उछल रहा हो,वहां सोनाली हाथ फैलाए खड़ी है. हीरो लाल जैकेट पहने उसकी ओर बढ़ता है. हाथ बढ़ाता है. मुझे फर्क नहीं पड़ता था अगर सोनाली उसका हाथ पकड़ भी ले. सोनाली उसका हाथ नहीं पकड़ती. वो खड़ी रहती है, आंखों को जरा सा झुकाकर. फिर नजरें उठाती है. उसकी नजर के उठने में कुछ तो था जो आज तक अटका है.
https://www.youtube.com/watch?v=bnSeLxfs6H8

ये बेर के कच्चे होने की निशानी है 

काला गाउन,काली आंखें. कोई काले में इतना भी सुन्दर लग सकता है. रेसिस्ट मन नही मानता. कैमरा एंगल बदलता है. सोनाली की पीठ की ओर से आते कुणाल सिंह दिखते हैं. खुदा जन्नत बख्शे कुणाल को. कोई तीस बरस की उम्र में यूं भी जाता है क्या. पर मेरा ध्यान कुणाल पर नहीं सोनाली के ब्लैक गाउन की स्ट्रिप पर अटका था. कैसा तो लगा था. क्या लगा था? पता नहीं. ये बेर के कच्चे होने की निशानी थी. और सोनाली से पहले इश्क़ की भी.
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जब मैं भी अफ्रीकन सफारी वाला गाइड हो जाता

उसका ऐड याद है. सौन्दर्य साबुन निरमा. दूरदर्शन पर चलता. 'श्री कृष्णा' के टाइम पर. आसपास सयाने होते जब ऐड आता आंखे छुपाने लगाते. स्क्रीन पर नहाती हुई लड़की देख लें ये उनसे न हो पाता, या शायद वो ऐसा दिखाते. पर मुझसे हो पाता. इंतजार रहता. कब विज्ञापन शुरू हों. कब सोनाली दिखे. वो जिराफ दौड़ते देख खुश होती. मैं भी खुश हो लेता. वो शेर के दो-दो बच्चों को गोद में उठा लेती. मैं सिहर जाता. मैं आज भी इतनी हिम्मत न कर पाऊं. अंत में वो ट्रेन से चली जाती अफ्रीकन सफारी कराने वाला गाइड दोस्त उसे टेडी बियर नहीं दे पाता. ट्रेन के बाहर से हाथ हिलाता. सोनाली ट्रेन में बैठी मुस्कुराती. मैं मायूस हो जाता. टीवी स्क्रीन के सामने बैठा. जिसपर  सिर्फ दूरदर्शन आता था. उस वक़्त मैं अफ्रीकन सफारी वाला गाइड हो जाता. एक बार फिर सोनाली से इश्क़ हो जाता.
https://www.youtube.com/watch?v=CBCnrOIq61U

हिवड़ा में मोर नाचता हमारी आंखों में झुमका

वही सोनाली. फिल्मों में देखो तो लगता मानो चौमासे में पानी बरस कर मौसम खुल गया है. उस खुले मौसम में जितना साफ़ आसमान दिखता. वैसी ही दिखती सोनाली. उसके हिवड़ा में मोर नाचता और हमारी आंखों के सामने उसका वो झुमका नाचता रहता जो हाथी पर बैठे उसने पहन रखा है. हमने ही तो पहनाया था. एक नहीं हजार बार. हर बार वो झुमके पहनाने के बाद पहले से ज्यादा इश्क हो जाता.
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चूमकर जो गुलाब तुम पर फेंका था वो हमने फेंका था.

गाना बजता 'सावन बरसे तरसे दिल' सोनाली पीले वन पीस में भीगती. झूला झूलती. पैर हमारे भीग जाते. आसमान तब भी साफ़ नजर आता. 'होशवालों को खबर क्या' बजता सोनाली भले फ्लैशबैक में जाती. हमारी आंखो के सामने तो फ्यूचर घूम जाता. वो डीयू के नार्थ कैम्पस से गुजरती. बालों में बंधा उसका स्कार्फ जो उड़ता तो आमिर नहीं हमारे चेहरे पर आ गिरता. 'जो हाल दिल का' ख़त्म होता. सोनाली जामुनी-नारंगी कुर्ता पहने बढ़ी आती है. चूमकर जो गुलाब तुम पर फेंका था वो हमने फेंका था.
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और फिर वो किसी और की हो गई

सात-आठ के थे तब इश्क़ हुआ था. दस के हुए होंगे कि ब्याह कर लिया उनने. पर इश्क जो था वो कहीं न कहीं बचा रहा. अफ़सोस उम्र का था. उम्र बढ़ी और चीजें पीछे छूटतीं गईं. पर टीवी पर जब भी सोनाली दिखती. एक मुस्कान तैर जाती. फिर एक दिन वो हुआ जो हमने सोचा नही था. वो फिल्मों में लौटीं. रियलिटी शो करने लगी. सीरियल्स में दिखने लगी. किताब लिखने लगीं. वो बढीं-बदलीं,थोड़ा हम भी बदल लिए. बातें दुनियावी हैं. छुपाना सीख गए हैं बड़े होकर. आज जन्मदिन है. तो याद आ गई फिर से. फिर से क्योंकि इश्क अब भी है सोनाली से.
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दी लल्लनटॉप के लिए ये स्टोरी अाशीष ने लिखी थी. 


 

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