गुजरात में चुनाव हैं. 5 दिसंबर को आखिरी चरण का मतदान है. 8 दिसंबर को नतीजे आने हैं. इस चुनाव में कई फ़ैक्टर्स रहें जिनकी खूब चर्चा रही. पेपर लीक, बेरोज़गारी, बिलक़िस बानो के बलात्कारियों की रिहाई, नरेंद्र मोदी का 'कल्ट', आम आदमी पार्टी का प्रदेश में प्रचार, मोरबी ब्रिज हादसा, बिजली की महंगाई. इसके अलावा स्थानीय मुद्दे तो जो रहे, सो रहे.
कहानी उस गैंगस्टर की जिसके नाम पर नरेंद्र मोदी ने चुनाव पलट दिया था!
शराब कारोबारी से तस्कर, गैंगस्टर और फिर आतंकी बनने की कहानी.
इन सबके अलावा भी एक चर्चा है. चर्चा, एक कुख्यात गैंगस्टर का. वो गैंगस्टर, जिसके ख़ौफ़ से दाऊद को गुजरात छोड़कर भागना पड़ा. 80 के दशक का एक गैंगस्टर. जिसे नरेंद्र मोदी ने मुद्दा बनया. और अहमदाबाद म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन में BJP को पहली जीत मिली. गैंगस्टर का नाम- अब्दुल लतीफ़, जिसका ज़िक्र इन चुनावों में भी बहुत हो रहा है.
हमारा वीकली पॉलिटिकल शो है, नेतानगरी. नेतानगरी के हालिया एपिसोड में हमने गुजरात चुनाव के समीकरणों पर बात की. किस पार्टी ने क्या रणनीति अपनाई, से लेकर चुनावी वादों में किनका ज़िक्र आया. सबके बारे में इत्मिनान से चर्चा की. गुजरात के ग्राउंड-ज़ीरो पर काम कर रहे पत्रकारों से संवाद हुआ. चर्चा के दौरान 'नवगुजरात समय' के समूह संपादक अदय उमात ने गुजरात के पोलाराइज़िंग फ़ैक्टर पर बात की. कहा कि चर्चा करने के लिए कितनी भी थियरीज़ पर बात हो, लेकिन ज़मीन पर जाति और मज़हब पर ही चुनाव लड़े जा रहे हैं. इसी में ज़िक्र आया लतीफ़ अब्दुल का. और, उनसे जुड़ी धमकियों का.
2017 में एक फ़िल्म आई थी 'रईस'. राहुल ढोलकिया ने बनाई थी. शाहरुख ख़ान ने रईस का रोल किया था. ये फिल्म मोटे तौर पर लतीफ़ अब्दुल की कहानी पर बनी है. शराब कारोबारी से तस्कर, फिर गैंगस्टर और फिर आतंकी बने लतीफ़ की कहानी, जिसने 1985 में जेल से चुनाव लड़ा और 5 सीटों पर जीत दर्ज की थी.
गुजरात के पत्रकार प्रशांत दयाल ने नेतानगरी में बताया कि 80 के दशक में अहमदाबाद में एक 19 साल का लड़का आया. अहमदाबाद के दरियापुर इलाक़े में रहता था. देसी शराब के धंधे में घुस गया. धीरे-धीरे टेस्ट बदला, तो अंग्रेजी शराब बेचनी भी शुरू कर दी. इसकी कमाई से शहर कोट इलाक़े में रहने वाले बदमाशों को इकठ्ठा किया. अपने मुहल्ले के लोगों को तस्करी में शामिल किया और अपनी गैंग बना ली. बाद के दिनों में लतीफ़ ने हथियार सप्लाई करने वाले शरीफ़ ख़ान से टाई-अप कर लिया. शराब के साथ-साथ हथियारों की भी तस्करी करने लगा.
लतीफ़ शातिर था. किसी गैंगवार में कभी सामने से नहीं आता था. अंग्रेज़ों जैसा चालाक था. दूसरी गैंग में फूट करवाकर उनके गुर्गों को अपनी गैंग में मिला लेता था. धीरे-धीरे अहमदाबाद के साथ उसका 'दबदबा' पूरे गुजरात में फैल गया. ऐसा ख़ौफ़ कि कोई भी बुटलेगर बिना उसकी मर्ज़ी के शराब नहीं बेच सकता था. लतीफ़ गुजरात में 40 से भी ज़्यादा मर्डर केस में आरोपी था. इतने ही अपहरण के मामले भी उसके नाम थे.
शहर के मुस्लिम इलाक़ों में लतीफ़ की ख़ूब ख्याती थी. ग़रीबों का मसीहा माना जाने लगा था. दारूवाला रॉबिनहुड टाइप्स. करता क्या था, कि वो बेरोजगार लड़कों को अपनी गैंग में शामिल कर लेता था. लड़कों को पैसा मिलते थे. घर का खर्चा चलता. पेट फुल. जनता ख़ुश. जनता में पॉपुलर था, तो ज़ाहिर है पॉलिटिक्स में उसका साफ़ रास्ता था.
लेकिन, लतीफ़ क़ौम का नेता एक तंज़ से बना. प्रशांत दयाल ने हमें बताया कि 1985 के दंगों के वक़्त लतीफ़ के सामने वाली गैंग ने उसे चूड़ियां भेजीं. तंज़ किया कि जब गुजरात में मुसलमानों मर रहे हैं, वो कुछ नहीं कर रहा है. और, इस तंज़ ने लतीफ़ पर बहुत असर किया. इसके बाद सबसे पहले एक सब-इंस्पेक्टर की हत्या हुई. इसी हत्या के चार्ज में उसे जेल भी जाना पड़ा, लेकिन वो मुसलमानों के मसीहा के तौर पर उगने लगा. प्रशांत कहते हैं,
"एक तरफ़ लतीफ़ क़ौम का नेता बनता है और उसी समय नरेंद्र मोदी प्रचारक से प्रमोट हो कर सह-मंत्री के तौर पर गुजरात भाजपा में आते हैं. 1986 में अहमदाबाद के नगर निगम चुनाव थे. कांग्रेस की सत्ता थी, भाजपा विपक्ष में. भाजपा का प्रचार होना चाहिए था नाला, खड़ंजा, सड़क, पानी पर. लेकिन ऐसा नहीं होता है. सीन में आता है एक गेम-चेंजर. नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार में लतीफ़ के नाम का इस्तेमाल करते हैं. उन्हें गटर, सड़क, पानी पर बात करनी थी, लेकिन वो बस यही बात बार कहते हैं - ‘आप लतीफ़ को भूलना मत!’. उस समय लतीफ़ पर ख़ूब छपता भी था. लोग लतीफ़ के आतंक की स्टोरी पढ़ते थे.
लतीफ़ उस समय साबरमती जेल में बंद था. वो भी चुनाव लड़ना चाहता था. लेकिन कांग्रेस ने उसे टिकट नहीं दिया. जेल में बंद रहते हुए उसने अहमदाबाद में पांच सीटों पर चुनाव लड़ा. एक तरफ़ भाजपा प्रचार कर रही थी. सांप्रदायिक ऐंगल और लतीफ़ के आतंक का फ़ायदा उठाने का भरसक प्रयास कर रही थी. दूसरी तरफ़ था लतीफ़, जो एक दिन भी चुनाव प्रचार में नहीं गया. चुनाव के नतीजे आए. और, दोनों की जीत हुई. भाजपा पहली बार अहमदाबाद कॉर्पोरेशन का चुनाव जीती और जेल में बंद लतीफ़ भी पांचों वॉर्ड्स से चुनाव जीत गया."
प्रशांत दयाल ने तो ये तक कहा कि अगर लतीफ़ न होता, तो भाजपा चुनाव नहीं जीतती. उन्होंने पहली बार इस सांप्रदायिक ऐंगल को भुनाया था. भारतीय जनता पार्टी ने इस जुमले के लोगों के ज़हन में फ़िट कर दिया, कि 'कांग्रेस आई तो मुसलमानों को खुल्ली छूट मिल जाएगी'.
लतीफ़ और दाऊदलतीफ़ के समय गुजरात में एक और शख़्स हाथ-पैर मार रहा था. कुख्यात डॉन दाऊद इब्राहिम. दाऊद वडोदरा में अपना ड्रग्स का नेटवर्क खड़ा कर चुका था. शराब, ड्रग्स, हथियार और तस्करी. हुआ ये कि दाऊद और लतीफ़ के बीच गैंगवार छिड़ गया. लतीफ़ के गुर्गों ने दाऊद को घेर लिया था और दाऊद को वडोदरा से भागना पड़ गया था.
90 के दशक में दोनों फिर आमने-सामने आए. लेकिन इस बार एक मक़सद के लिए. लतीफ़ मुंबई जाकर दाऊद से मिला. उसका काम देखकर अपने काम में कुछ बदलाव किए. दाऊद के एक ख़ास आदमी को अपने साथ लाया था. अपने काम को और व्यवस्थित करने के लिए. बकौल प्रशांत दयाल, उस व्यक्ति की तनख़्वाह गुजरात पुलिस के सबसे ऊंचे अफ़सर से भी ज़्यादा थी. इस व्यक्ति के साथ मिलकर लतीफ़ ने अपने कारोबार के साथ दहशत भी फैलाई. हत्या और अपहरण. और, ये दहशत भाजपा के फ़ायदे में जा रहा था.
हर अच्छी-बुरी चीज़ में एक चीज़ कॉमन है -- अंत. लतीफ़ का भी यही हुआ. तस्कर और गैंगस्टर के बाद 1993 तक लतीफ़ आतंकवादी भी बन गया. उसे पाकिस्तान भागना पड़ा. गुजरात राजनीति में उथल-पुथल के बीच वो अचानक वापस आ जाता है. कथित तौर पर भाजपा के कई नेताओं के साथ उसने सरेंडर की शर्तें तय की थीं. इसके बाद 1995 में दिल्ली में उसे धर लिया गया. नवंबर 1997 में गुजरात पुलिस ने लतीफ़ को एक एंकाउंटर में मार दिया.
हालांकि, चुनाव के समय अलग-अलग पार्टियां उसे सहूलियतानुसार ज़िंदा कर लेती हैं.
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