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...जब स्मॉग ने 12,000 लोगों को मार डाला था

इस गलती से सबक नहीं लिया, इसीलिए दिल्ली की हालत ऐसी हो गई है.

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यूरोपीय देशों ने इस घटना से काफी सीख ली. आधुनिक दौर में हम इंसानों ने पर्यावरण की हिफाजत के जो कानून बनाने शुरू किए, उनके पीछे सबसे ज्यादा इसी लंदन स्मॉग का असर था.

दिल्ली में स्मॉग का सालाना मौसम धमका चुका है. इसके असर से आंखें जल रही हैं. खांसते-खांसते दम बेदम है. पूरी दिल्ली पर एक स्याह-गंदला सा छाता तना है. लग रहा है, अभी-अभी कोई आंधी आई थी. हवा का रंग नहीं होता. स्मॉग की अकेली शिकार दिल्ली नहीं. कई दूसरे शहर भी सहोदर हैं. पिछले कुछ सालों में स्मॉग ने काफी नाम कमाया है. हमें इसकी आदत पड़ गई है. शुरू-शुरू में मुझे लगा था कि ब्रैड पिट और एंजेलिना जॉली को जोड़कर ब्रैंजलिना और करीना-सैफ को जोड़कर सैफिना नाम रखनेवालों ने स्मॉग शब्द (फॉग+स्मोक) का अविष्कार किया होगा. लेकिन मैं गलत थी. ये शब्द ब्रैंजलिना और सैफिना से कहीं-कहीं ज्यादा पुराना है. एक सदी से भी ज्यादा पुराना.

1905 के करीब पहली बार इस्तेमाल हुआ. तब ये बीमारी बड़े-बड़े विकसित देशों को लगती थी. हम इससे अछूते थे. दुनिया में आज तक का जो सबसे मशहूर स्मॉग लगा, वो लगा ब्रिटेन में. ये ऐतिहासिक स्मॉग था. ब्रिटेन के सामने पेश हुए सबसे बड़े संकटों में से एक. कई लोगों की जान ली इसने. ये क्या था, कैसे हुआ, पूरी हिस्ट्री जानिए.


लंदन को गहरे और घने कोहरे की आदत थी. मगर 1952 के उस दिसंबर में लंदन के आसमान पर बस धुंध नहीं छाई थी. वो जहरीला स्मॉग था, जिसने हजारों लोगों की जान ली.
लंदन को गहरे और घने कोहरे की आदत थी. मगर 1952 के उस दिसंबर में लंदन के आसमान पर बस धुंध नहीं छाई थी. वो जहरीला स्मॉग था, जिसका एहसास लोगों को देर से हुआ. इस स्मॉग ने हजारों लोगों की जान ली.

जहरीले स्मॉग ने 12,000 से ज्यादा लोगों की जान ले ली
एक जमाना गुजर गया उस बात को. मगर बदनामी में वो आज भी मशहूर है. बल्कि, अपनी कैटगरी में पहले नंबर पर है. ये 1952 के साल की बात है. तारीख, 5 दिसंबर से 9 दिसंबर . धुंध और जहरीले धुएं के मेल से बना स्मॉग लंदन शहर पर छाया था. इस स्मॉग ने हजारों की जान ले ली. आंकड़े कहते हैं कि 12,000 लोग मारे गए. दो लाख से ज्यादा लोग बीमार पड़े. ये वाकया लंदन के इतिहास के सबसे बड़े नागरिक संकटों में से एक था. इसे नाम दिया गया, ग्रेट स्मॉग ऑफ लंदन.
पूरे पांच दिन तक लोगों को सूरज नजर ही नहीं आया. धुंध की मोटी परतों के बीच वो कहीं छुपा हुआ था.
पूरे पांच दिन तक लोगों को सूरज नजर ही नहीं आया. धुंध की मोटी परतों के बीच वो कहीं छुपा हुआ था.

रुक गया पूरा शहर, लगा जैसे सब ठहर गया

सर्दियों का महीना. तारीख, 5 दिसंबर. सुबह का वक्त. जाड़ों में वैसे भी सुबह अलसायी सी होती है. वो सुबह भी ऐसी ही थी. जब लोग उठे, तो बाहर घुप्प अंधेरा था. एकदम घना, मोटा-मोटा कोहरा छाया था. लंदन को ऐसे घने कोहरे की खूब आदत थी. सो किसी को कुछ अजीब नहीं लगा. मगर वो धुंध अजीब थी. घड़ी की सुइयां आगे बढ़ने लगीं, लेकिन धुंध छंटा नहीं. सुबह बीत गई. एक पहर गुजर गया. मगर धुंध में कोई कमी नहीं आई. घड़ी ने दोपहर भी बजा दिए. मगर सूरज का कोई नामो-निशान नहीं. अब लोग बैचेन होने लगे. सूरज ढलने का टाइम हो गया, लेकिन कोहरा वैसे ही मुंह बाये पसरा रहा. शाम होते-होते शहर पागल हो गया जैसे. लोगों को महसूस हुआ कि धुंध ने उनकी जिंदगी रोक दी है. सारे काम बंद हो गए हैं. स्कूल-कॉलेज सब बंद. दफ्तर बंद. सब बंद. धुंध ने शहर में कर्फ्यू लगा दिया था जैसे.


लंदन शहर रुक गया था जैसे. सारे काम बंद हो गए थे. गाड़ियां बंद हो गईं. बीमार लोग अस्पताल भी नहीं जा पा रहे थे. ऐसा लगता था मानो घर से निकलेंगे और खो जाएंगे.
लंदन शहर रुक गया था. सारे काम बंद हो गए थे. गाड़ियां बंद हो गईं. बीमार लोग अस्पताल भी नहीं जा पा रहे थे. ऐसा लगता था मानो घर से निकलेंगे और खो जाएंगे.

वो पांच दिन लंदन में सूरज दिखाई तक नहीं दिया

5 तारीख बीती. 6 तारीख बीती. 7 तारीख बीती. 8 तारीख बीती. और फिर आई 9 तारीख. ये पांच दिन एक जैसे गुजरे. धुंध में बेदम. सूरज निकला ही नहीं जैसे. नजर ही नहीं आया. हाथोहाथ कुछ दिखता नहीं आता था. कई जगहों पर तो देखने की क्षमता एक फीट रह गई थी. माने, आपको अपने ही हाथ-पैर नहीं दिखेंगे. लोग घरों में बंद हो गए जैसे. उन्हें धुंध में खो जाने का डर लग रहा था. ये स्मॉग इमारतों के अंदर भी घुस आया था. यहां तक कि सिनेमा घर भी बंद करने पड़े. जैसे पहले रात होती थी, वैसे दिन होने लगे. रातें और काली लगने लगीं. घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया. जो लोग खरीद सकते थे, उन्होंने खुद को बचाने के लिए मास्क खरीदा. इस 'ग्रेट लंदन स्मॉग' में बस पांच दिनों की गिनती होती है. मगर असल में ये दिसंबर 1952 से लेकर मार्च 1953 तक चला. आंकड़े कहते हैं कि इसकी वजह से 12,000 से ज्यादा लोगों की मौत हुई. एक हफ्ते के भीतर ही 4,000 से ज्यादा लोग मारे गए थे. हजारों लोग बीमार पड़े. इस स्मॉग का असर खत्म होने में कई महीने लग गए.


इसके बाद ब्रिटेन में कानून बना. क्लीन एयर ऐक्ट. साफ हवा का अधिकार. 1956 में बना था ये कानून. अब ब्रिटेन में मांग हो रही है कि इस कानून में बदलते वक्त के मुताबिक सुधार होना चाहिए.
इसके बाद ब्रिटेन में कानून बना. क्लीन एयर ऐक्ट. साफ हवा का अधिकार. 1956 में बना था ये कानून. अब ब्रिटेन में मांग हो रही है कि इस कानून में बदलते वक्त के मुताबिक सुधार होना चाहिए.

इस ऐतिहासिक धुएं की वजह क्या थी?
वो ब्रिटेन ही था, जिसने इस दुनिया को कारखाने दिए. मशीनों से उत्पादन करना सिखाया. 20वीं सदी का ब्रिटेन भी ऐसा ही था. कल-कारखानों से भरा हुआ. लाखों कारखाने थे. जिन्हें चलाने के लिए सबसे ज्यादा इस्तेमाल कोयले का होता था. उनकी चिमनियों से दिन-रात धुआं निकलता रहता था. इसके अलावा, लोग अपने घरों को गर्म रखने के लिए भी कोयला ही जलाते थे. जितनी ज्यादा ठंड होती थी, उतना कोयला जलता था. 5 दिसंबर की उस सुबह और उससे पहले 4 दिसंबर की रात को भी लंदन के ऊपर आम दिनों की ही तरह धुंध छाई हुई थी. ऐसे में, लोगों के घरों से और कारखानों से निकला धुआं ऊपर हवा में उठा. वहां धुंध की नमी थी. धुआं और नमी एक-दूसरे से मिले और स्मॉग बन गया. ठंडी और भारी धुंध के कारण धुआं ऊपर नहीं उठा. बल्कि जमीन की ओर बढ़ आया. हवा भी नहीं चल रही थी. ऐसे में वो स्मॉग शहर के ऊपर ठहरा रहा. वहीं जमा रहा. वैसे लंदन की हवा एकाएक नहीं बिगड़ी थी. पिछले कई सौ सालों से धीरे-धीरे बिगड़ती जा रही थी. लगातार. तेरहवीं सदी के बाद से ही लंदन के लोगों को खूब कोयला चलाने की आदत पड़ गई थी. लंदन के आकाश अक्सर धुएं से सने नजर आते थे.
कोयले से न केवल बहुत ज्यादा प्रदूषण होता है, बल्कि सेहत पर भी इसका बहुत बुरा असर पड़ता है. भारत और चीन जैसे देश आज भी कोयले का काफी इस्तेमाल करते हैं.
कोयले से न केवल बहुत ज्यादा प्रदूषण होता है, बल्कि सेहत पर भी इसका बहुत बुरा असर पड़ता है. भारत और चीन जैसे देश आज भी कोयले का काफी इस्तेमाल करते हैं.

'ग्रेट स्मॉग ऑफ लंदन' के बाद क्या हुआ?

इस स्मॉग ने ब्रिटेन को घुटनों पर ला दिया. कोयले के इस्तेमाल पर बहस शुरू हुई. इसके पहले भी लोग रिसर्च करते थे. कि कोयले का धुआं इंसानों की सेहत बिगाड़ता है या नहीं. इस स्मॉग आपातकाल के बाद इस बहस की जरूरत नहीं रह गई थी. नतीजा सामने था, बहस की जरूरत ही नहीं बची थी. इससे पहले किसी को नहीं लगता था कि बिगड़ा पर्यावरण इतने लोगों की जान ले सकता है. किसी जंग से कहीं ज्यादा लोगों की जान ले सकता है. शुरू में प्रशासन ये मानने को तैयार नहीं था. मगर बाद में उसके पास कोई और रास्ता नहीं बचा. प्रदूषण घटाने के लिए कानून बनाया गया. केवल ब्रिटेन ही नहीं, बाकी दुनिया के लिए भी ये घटना एक चेतावनी थी.


ऐसा नहीं कि केवल राजधानी दिल्ली ही इस जहरीले स्मॉग का शिकार हो. बाकी कई शहर भी इसके शिकंजे में है. बीते कुछ सालों में स्मॉग बहुत आम हो चला है. इसके बावजूद हम इतने कुंद हैं कि हालात सुधारने के लिए कुछ नहीं कर रहे (फोटो: ट्विटर)
ऐसा नहीं कि केवल राजधानी दिल्ली ही इस जहरीले स्मॉग का शिकार हो. बाकी कई शहर भी इसके शिकंजे में है. बीते कुछ सालों में स्मॉग बहुत आम हो चला है. न लोग कुछ कर रहे हैं, न सरकारें परवाह कर रही हैं (फोटो: ट्विटर)

हमने न सीखने की कसम खा रखी है जैसे

माना जाता है कि इस 'ग्रेट स्मॉग ऑफ लंदन' के बाद ही दुनिया को पर्यावरण से जुड़े कानून बनाने की सीख मिली. 1956 में वहां कानून बना. राइट टू क्लीन एयर. लंदन का वो स्मॉग आधुनिक इतिहास में वायु प्रदूषण के कारण होने वाला सबसे बड़ा हादसा माना जाता है. दुनिया के किसी कोने में जब भी स्मॉग छाता है, तब लंदन का जिक्र जरूर आता है. हालांकि एक बात अखरती भी है. लंदन और कई यूरोपीय देशों ने इस वाकये से सीख ली. ऐसा नहीं कि वहां प्रदूषण खत्म हो गया. मगर हां, उन्होंने काफी काम किया है और कर रहे हैं. दूसरी तरफ हम हैं. 'तीसरी दुनिया' के नाम से पुकारे जाने वाले देश. हम प्रदूषण से लड़ने का मन तक नहीं बना पाए हैं. हम अब भी उसी बर्बादी की राह पर हैं. हमारे यहां भी गंदी हवा-पानी से लोग मर रहे हैं. अंतर इतना है कि हमारी सरकार उन मौतों की परवाह नहीं कर रही. लोग खुद जागरूक नहीं. उनके लिए साफ हवा-पानी कोई मुद्दा ही नहीं है. तभी तो ये स्मॉग लौट-लौटकर आता है. पहले से कहीं ज्यादा जहरीला होकर आता है.




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