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ग्रैंड ट्रंक रोड असल में कितनी पुरानी है?

ग्रैंड ट्रंक रोड का नाम पहले क्या था?

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ग्रैंड ट्रंक रोड का इतिहास हजारों साल पुराना है. मौर्य काल से लेकर अंग्रेजों के समय तक इसमें कई बदलाव आए (तस्वीर: stockton.edu)

दिल्ली में शासन करने वाले अनेक शासकों में से एक का नाम था शेर शाह सूरी. शेर शाह सूरी ने सिर्फ 5 साल तक दिल्ली पर शासन किया. लेकिन फिर भी शेर शाह सूरी का नाम पूरा हिंदुस्तान जानता है. दो कारण रहे. एक अदना सा मुग़ल सैनिक इतना ताकतवर हो गया कि उसने हुमायूं की फौज को हरा दिया. इतना ही नहीं हुमायूं को दिल्ली छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा. दूसरा कारण - शेर शाह सूरी ने एक रोड का निर्माण कराया. जिसे हम ग्रैंड ट्रंक रोड के नाम से जानते हैं . लेकिन ये कोई ऐसी वैसी रोड नहीं थी. इस रोड के चलते एक विशाल साम्राज्य को एक सूत्र में पिरोया जा सका. और इसी रोड के कारण 1857 की क्रांति के दौरान अंग्रेज़ दिल्ली में विद्रोह की आग को बुझा पाए. क्या है ग्रैंड ट्रंक रोड की कहानी. चलिए जानते हैं. (grand trunk road history)

Grand Trunk Road से पहले 

जिसे हम ग्रैंड ट्रंक रोड के नाम से जानते हैं. इसका नाम हमेशा से ये नहीं था. समय समय पर इसे अलग अलग नामों से बुलाया गया. मसलन उत्तरापथ. (uttarapath) सड़क-ए-आज़म, बादशाही सड़क, जरनैली रोड. नक़्शे में देखेंगे तो ग्रैंड ट्रंक रोड, अफ़ग़ानिस्तान में काबुल से लेकर बांग्लादेश में चटगांव तक जाती है. और बीच में उत्तर भारत के कई बड़े शहरों से होकर गुजरती है. जिनमें एक राजधानी दिल्ली है. ये पूरी रोड लगभग 2400 किलोमीटर लम्बी है.

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 मौर्यकाल में उत्तरापथ के माध्यम से गंधार तक बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ. (तस्वीर: swarajyamag.com/Wikimedia Commons)

बचपन से हम पढ़ते आए कि ग्रैंड ट्रंक रोड का निर्माण शेर शाह सूरी ने किया था. बात सही है लेकिन टेक्निकली इसमें कुछ पेंच हैं. मसलन शेर शाह सूरी के वक्त में इसका नाम ग्रैंड ट्रंक रोड नहीं था. और ऐसा भी नहीं था कि शेर शाह से पहले कोई रास्ता नहीं था. बल्कि ये रास्ता ईसा से भी पहले से मौजूद था. कौटिल्य के लिखे से पता चलता है कि मौर्यकाल में उत्तरा पथ नाम का एक रास्ता हुआ करता था. जो उत्तरी भारत को क्रॉस करता था. वहीं एक दूसरा रास्ता था दक्षिणा पथ. जो दक्षिण में वर्तमान महाराष्ट्र तक जाता था. दोनों रास्ते सारनाथ में मिलते थे. जिसके कारण उस समय में सारनाथ एक महत्वपूर्ण नगर के रूप में विकसित हुआ. 

बौद्ध और पौराणिक ग्रंथों में जिक्र मिलता है कि उत्तरा पथ का इस्तेमाल विशेष रूप से घोड़ों के व्यापार के लिए किया जाता था. और आगे चलकर ये सिल्क रूट का हिस्सा भी बना. उत्तर में खैबर दर्रे को पार कर आने वाले व्यापारी और यात्री इसी मार्ग का इस्तेमाल किया करते थे. मेसोपोटामिया, और यूनान से व्यापार भी इसी रास्ते होता था. मौर्य काल में यूनान का एक राजदूत मेगस्थनीज चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था. मेगस्थनीज ने अपने लिखे में उत्तरापथ का जिक्र किया है. वो लिखता है,

"ये मार्ग आठ चरणों में बना हुआ है. तक्षशिला से सिंधु तक. वहां से झेलम तक. आगे सतलज तक और सतलज से यमुना तक".

मेगस्थनीज के लिखे में आगे इस रास्ते के कन्नौज, प्रयागराज और पाटलिपुत्र तक जाने का जिक्र है. मेगस्थनीज़ ने लिखा है कि ये पूरा रास्ता नदियों के किनारे बना था और अधिकतर व्यापार के लिए इस्तेमाल होता था. मेगस्थनीज़ के अलावा सांची के बौद्ध स्तूपों में कस्सापागोला नाम के एक बौद्ध मुनि का जिक्र है, जिसने इसी रास्ते का इस्तेमाल किया था ताकि हिमालय के क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रचार कर सके. मौर्य काल के बाद अब चलते है सीधे 16 वीं सदी में.

Sher Shah Suri ने क्या किया? 

शेर शाह सूरी का राज़ साल 1540 में शुरू हुआ. 1539 और 40 में शेर शाह सूरी और हुमायूं के बीच दो युद्ध हुए. जिसमें हारकर हुमायूं को भागना पड़ा. इसके बाद शेर शाह सूरी ने हिंदुस्तान पर अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरू की. इसी उद्देश्य के चलते उन्होंने सड़कों का निर्माण शुरू किया. इन सड़कों के निर्माण के पीछे मुख्य उद्देश्य ये था कि सेना आराम से ट्रेवल कर सके. लेकिन धीरे धीरे ये पूरा रास्ता, जिसे शेर शाह सूरी के वक्त में सड़क-ए-आज़म कहा जाता था, व्यापार का एक सुलभ साधन बन गया.

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सोलहवीं शताब्दी में दिल्ली के सुल्तान शेरशाह सूरी ने इसे सड़क-ए-आज़म का नाम दिया/ सासाराम में शेर शाह की कब्र (तस्वीर: Wikimedia Commons)

शेर शाह सूरी ने इस रास्ते को पक्का करवाया. लेकिन ऐसा नहीं था कि पूरा रास्ता उन्होंने ही बनाया हो. बकायदा लोकल सामंत भी अपने एरिया में सड़क बनाते थे. लेकिन शेर शाह सूरी को विशेष क्रेडिट इसलिए जाता है क्योंकि उनके समय में ये रास्ता लोजिस्टिक्स और कम्युनिकेशन का ऐसा बेजोड़ सिस्टम बना, जिसकी उस वक्त में दूसरी मिसाल नहीं मिलती.  शेर शाह सूरी के समय में इस सड़क को पक्का किया गया. यात्रा के लिए जगह जगह पर सराय बनाए गए. दिल्ली में ये जितने सराय आप सुनते हैं. कालू सराय, बेर सराय, सराय काले खां, ये सब ग्रांट ट्रंक रोड और उससे जुड़ी सड़कों पर ही बनाए गए थे. इन सराय में न सिर्फ रहने का इंतजाम था. बल्कि मुफ्त खाना भी मिलता था.

शेख़ रिज़ोउल्लाह मुश्तक़ी अपनी किताब 'वकियत -ए- मुश्तक़ी' में लिखते हैं,

"शेर शाह ने हर दिन 500 तोले सोने की रकम तय की हुई थी, जिसे बेचकर भूखे लोगों के लिए खाने का इंतजाम किया जाता था"

इतना ही नहीं. इस रोड के आसपास हर आठ कदम पर एक पेड़ लगाया गया. ताकि खाने के लिए फलों और छाया का इंतजाम हो सके. साथ ही सड़क के किनारे कुएं खुदवाए गए. ताकि यात्रियों के लिए पानी का बंदोबस्त हो जाए. तो क्या शेर शाह ने ये सब महज परोपकार के लिए किया था? जवाब है नहीं. शेर शाह सूरी को एक काबिल बादशाह माना जाता था. ग्रैंड ट्रंक रोड के जरिए उन्होंने छोटे छोटे कस्बों तक पहुंच बनाई. इसके दो फायदे होते थे. एक ये कि शाही फरमान आसानी और तेज़ी ने पहुंचाया जा सकता था. और टैक्स कल्केशन का दायरा बढ़ जाता था.

एक तीसरा फायदा और था. रोड के किनारे जो सराय बने हुए थे. उनमें रुकने वाले यात्रियों की लिस्ट बादशाह के पास भेजी जाती थी. जिससे वो किसी भी संभावित विद्रोह या जासूसी या बाहरी आक्रमण पर नज़र रख सकता था. हर सराय की देखभाल के लिए एक विशेष आदमी नियुक्त किया जाता था. और हर रुकने वाले को उनके ओहदे के हिसाब से सरकारी सुविधा मिलती थी.

एक उन्नत डाक सिस्टम 

ग्रांट ट्रंक रोड का एक मुख्य उद्देश्य कम्युनिकेशन सिस्टम को पक्का करना भी था. हर सराय अपने आप में एक डाक पोस्ट हुआ करता था. जिसमें हर समय दो घुड़सवार हरकारे मौजूद रहते थे. एक सराय से संदेश आता और हरकारा तुरंत उसे लेकर दूसरे सराय की ओर रवाना हो जाता. इस तरह आप चटगांव से लेकर काबुल तक संदेश भेज सकते थे. और वो भी कुछ ही दिनों में. इस दौर में दुनिया में और जगह भी रोड नेटवर्क बनाए गए थे. बाकायदा रोमन साम्राज्य के समय से सड़कों का इस्तेमाल होता आया था. लेकिन ग्रैंड ट्रंक रोड जैसा उन्नत सिस्टम कहीं और नहीं था.

शेर शाह सूरी ने ये मजबूत सड़क तो बनाई लेकिन दिल्ली पर वो महज 5 साल राज़ कर पाए. इसके 10 साल बाद सूरी वंश का खात्मा हो गया. और हुमायूं ने एक बार फिर दिल्ली हथिया ली. मुग़ल बादशाहों ने इस सड़क का बखूबी इस्तेमाल किया. उनके समय में इसे बादशाही सड़क के नाम से जाना जाता था. मुग़ल काल में इस रोड के किनारे कोस मीनारें बनाई गई. ये मीनारें हर 3 किलोमीटर की दूरी पर बनाई जाती थीं. हालांकि इनका निर्माण शेरशाह के वक्त में ही शुरू हो गया था. लेकिन मुग़ल बादशाह अकबर के वक्त इनकी संख्या में काफी इजाफा हुआ. 

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शेरशाह सूरी के बाद अंग्रेजों ने इस मार्ग का फिर से निर्माण करवाया और इसका नाम बदलकर ग्रांड ट्रंक रोड (जीटी रोड)कर दिया (तस्वीर: wikimedia commons)

जहांगीर के समय तक ग्रैंड ट्रंक रोड के किनारे 600 कोस मीनारें बनाई जा चुकी थीं. इनके अलावा मुग़ल काल में सराय भी और भव्य बनाए गए. बाकायदा सराय ऐसे बनाए गए जिनमें बादशाह के रहने के लिए कमरा बना होता था. और पूरे ठाठ बाट का इंतजाम होता था.

ब्रिटिश रूल के दौरान 

मुग़लों के बाद आया अंग्रेजों का काल. इस दौर तक एक खास बात जो देखने में आई थी वो ये थी कि ग्रैंड ट्रंक रोड के आसपास के इलाके काफी तेज़ी से फले फूले थे. इनका विकास बाकी इलाकों से ज्यादा तेज़ी से हुआ था. जिसका एक मुख्य कारण था, रोड के आसपास ट्रेड को बढ़ावा मिलना. इसलिए जब अंग्रेज़ आए तो उन्होंने अपने फायदे के लिए इस रोड को पक्का करवाने का काम शुरू किया. ब्रिटिश रिकार्ड्स के अनुसार तब हर एक मील को पक्का करने पर 1000 पौंड रकम का खर्चा आया था. बाकायदा जिसे हम PWD के नाम से जानते हैं. यानी पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट, उसकी शुरुआत अंग्रेजों ने इसी सड़क के निर्माण और रख रखाव के लिए की थी.

अंग्रेजों के जमाने में ही इस रोड को ग्रैंड ट्रंक रोड का नाम दिया गया था. और ये उनके बड़े काम की भी साबित हुई. खासकर 1857 के सन्दर्भ में देखें तो दिल्ली में विद्रोह को तेज़ी से दबाने में इसी सड़क का हाथ रहा था. 1856 में अंग्रेजों ने अंबाला से करनाल तक रोड को पक्का कर लिया था. दिल्ली में जब विद्रोह शुरू हुआ. अम्बाला छावनी से फौज तुरंत दिल्ली पहुंची और विद्रोह व्यापक होने से पहले ही ख़त्म कर दिया गया. (grand trunk road)

वर्तमान समय की बात करें तो ग्रैंड ट्रंक रोड दुनिया में एक खास मुकाम रखती है क्योंकि ये दुनिया की सबसे पुरानी सड़क है जो चार देशों की राजधानी को आपस में जोड़ती है. भारत में ये NH 19 और NH 44 का हिस्सा है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ये एशियन हाईवे 1 का हिस्सा है. जो एशिया का सबसे लम्बा हाईवे है और जापान से भारत, ईरान, तुर्की होते हुए पुर्तगाल तक जाता है.

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