लेकिन जरा ठहरिए. सोचिए, समझने की कोशिश करिए. क्या ये कहानी इतनी-सी लगती है. थोड़ा जोर देंगे, तो समझ आएगा कि इस एक शख्स ने जो कर दिया है, उसके बारे में उस वक्त में सोचना भी संभव नहीं था, करने की तो बात ही छोड़ दीजिए.
2017 में गूगल ने नैन सिंह रावत के लिए ये डूडल बनाया था.
भारत में अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के लिए 1857 में लंबा संघर्ष हुआ था, जो नाकाम रहा था. इसे भारत की आजादी का पहला आंदोलन माना जाता है. इस आंदोलन से कुछ ही पहले 1850 के आस-पास तक, भारत पर राज करने वाले अंग्रेज पूरे देश का नक्शा तैयार कर रहे थे. उन्होंने लगभग पूरे देश का नक्शा तैयार भी कर लिया था. बस वो तिब्बत का नक्शा तैयार नहीं कर पा रहे थे. इसके पीछे एक वजह भी थी. उस वक्त भी तिब्बत में बौद्ध भिक्षु रहा करते थे. वहां पर किसी भी विदेशी के आने-जाने की मनाही थी. इसके लिए अंग्रेजों को किसी भारतीय की तलाश थी, जो उस काम को अंजाम दे सके.
ऐसे भारतीय की तलाश के लिए कैप्टन माउंटगुमरी को लगाया गया था. घूमते-घूमते माउंटगुमरी को 1863 में नैन सिंह रावत के बारे में पता चला. नैन सिंह रावत आज के उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के मुन्स्यारी तहसील के मिलम गांव में पैदा हुए थे. नैन सिंह रावत के पिता अमर सिंह थे, जो गरीब थे. गांव में ही शुरुआती पढ़ाई के बाद नैन सिंह तिब्बत चले गए, जहां उन्होंने व्यापार के तरीके सीखने के साथ ही तिब्बत की स्थानीय भाषा, वहां का रहन-सहन और वहां की संस्कृति के बारे में जाना था. इससे पहले भी नैन सिंह जर्मन व्यापारियों के लिए एक यात्रा कर चुके थे. ये यात्रा 1855 से 1857 के बीच हुई थी, जब नैन सिंह रावत ने मानसरोवर और राकास ताल झील और फिर गार्टोक और लद्दाख तक गए थे.
नैन सिंह चचेरे भाई मनी सिंह के साथ यात्रा पर निकले थे. (फोटो: Twitter)
अंग्रेजों को ऐसे ही किसी शख्स की तलाश थी. इस काम में मदद के लिए आगे आए नैन सिंह के चचेरे भाई मनी सिंह. दोनों को अंग्रेज देहरादून लेकर आए और वहां ट्रेनिंग देने की कोशिश की. लेकिन दिशा और दूरी नापने के यंत्र इतने बड़े थे कि उनके साथ तिब्बत में घुसना संभव ही नहीं था. इसके बाद नैन सिंह और मनी सिंह ने बौद्ध भिक्षुओं का वेश बनाया, अपने चीवर (बौद्ध भिक्षुओं के पहनने का खास कपड़ा) में कंपास (दिशा बताने वाला यंत्र) और थर्मामीटर (तापमान मापने वाला यंत्र) रखा और पैदल ही निकल गए. इसके बाद शुरू हुई उनकी असली यात्रा, जिसने दुनिया को कई नई चीजों के बारे में बताया.
नैन सिंह काठमांडू के रास्ते तिब्बत के लिए निकले और मानी सिंह को कश्मीर के रास्ते तिब्बत भेजा गया. ये यात्रा 1863 में शुरू हुई. मानी सिंह तो बीच रास्ते ही वापस आ गए, लेकिन नैन सिंह ने अपनी यात्रा जारी रखी. दूरी तय करके वो बौद्ध भिक्षु के रूप में तिब्बत पहुंच गए, जहां से उन्हें अपनी असली यात्रा शुरू करनी थी. इसके लिए नैन सिंह ने अपने दोनों पैरों में 33.5 इंच की एक रस्सी बांधी, जिससे उनके कदम निश्चित दूरी पर ही पड़ें. उन्होंने इस हिसाब से बताया कि उनके 2000 कदम चलने पर एक मील यानी 1.6 किलोमीटर का रास्ता तय हो रहा है. उन्होंने 100 मनकों की एक माला साथ में रखी. जितने मील वो चलते थे, माला पर मनका फेरकर गिनते जाते थे.
तीन साल में जो हासिल किया
# नैन सिंह ने बताया कि तिब्बत की लंबाई और चौड़ाई कितनी है. # नैन सिंह ने बताया कि लहासा की समुद्र तल से ऊंचाई कितनी है. # नैन सिंह ने ब्रह्मपुत्र नदी के साथ 800 किमी की लंबी पैदल यात्रा की और दुनिया को बताया कि सांग पो और ब्रह्मपुत्र एक ही नदी है. तिब्बत में जो सांगपो है, भारत में उसे ही ब्रह्मपुत्र कहा जाता है.
तीन साल बाद भी यात्रा जारी रही और बहुत कुछ बता दिया
1866 में नैन सिंह रावत मानसरोवर होते हुए देहरादून लौट आए और अंग्रेजों को अपनी खोज से रू-ब-रू करवाया. इसके बाद अंग्रेजों ने उनकी खोज को दुनिया के सामने रखा. नैन सिंह रावत ने तिब्बत की दो और यात्राएं कीं. 1867-68 में नैन सिंह एक बार फिर तिब्बत गए. इस बार वो उत्तराखंड के चमोली जिले से निकले और वहां से तिब्बत के थोक जालूंग पहुंचे. वहां उन्हें सोने की खदानें मिलीं, जिसके बारे में दुनिया को तब तक पता नहीं था.
गूगल ने अपना ये डूडल ट्वीट भी किया था.
तिब्बत के बारे में अंग्रेजों को बताने और उन्हें सोने की खदान की सूचना देने के बाद अंग्रेज सरकार की ओर से नैन सिंह रावत को अंग्रेजों ने 1877 में उन्हें गिफ्ट के तौर पर तीन गांवों की जागीरदारी दी. इसके अलावा उनको 'कम्पेनियन ऑफ द इंडियन एम्पायर' का खिताब भी दिया गया. आजादी के बाद भारत सरकार को भी नैन सिंह रावत की उपलब्धियों का भान हुआ और 2004 में नैन सिंह के नाम का डाक टिकट जारी किया. उनके 187 वें जन्मदिन पर गूगल ने उनके नाम का डूडल बनाया था. यह डूडल इंडियन पेपरकट आर्टिस्ट हरि और दीप्ति के बनाए गए रेखाचित्रों की तस्वीर है, जिसे हरि और दीप्ति के इंस्टाग्राम से लिया गया है.
नैन सिंह पर भारत सरकार की ओर से 2004 में डाक टिकट जारी किया गया था. (फोटो: Twitter)
और भी सम्मान मिले थे नैन सिंह रावत को
तिब्बत के बारे में दुनिया को बताने वाले नैन सिंह के बारे में 1876 में जियोग्राफिकल मैगजीन में एक लिखा गया था. इससे पहले 1868 में रॉयल जियोग्राफिक सोसायटी ने नैन सिंह को इनाम के तौर पर सोने की घड़ी दी थी. 1877 में जियोग्राफिक सोसायटी ने नैन सिंह को विक्टोरिया पेट्रन्स मेडल दिया. इस दौरान सोसायटी की ओर से उन्हें कर्नल यूल ने सम्मानित किया था और कहा था-
ये इंसान कोई भौगौलिक जगहों को नापने वाली मशीन या कई कर्मचारियों में एक बहुत जानकार आदमी या एक औसत पढ़ाई-लिखाई वाला है. ये वो शख्स है, जिसने एशिया के बारे में दुनिया के ज्ञान को बढ़ाया है और वो भी उस वक्त में, जब कोई और इस काम को नहीं कर सकता था.नैन सिंह पर Saga Of A Native Explorer नाम से एक किताब लिखी गई है. इसे लिखने वाले हैं रिटायर्ड आईएएस अधिकारी एसएस पांगती. किताब में दावा किया गया है कि नैन सिंह ने इन खोजों के अलावा अक्षांश दर्पण नाम की एक किताब भी लिखी है, जो भू-विज्ञान पर लिखी गई पहली किताब है. इसके अलावा नैन सिंह की इस साहसिक यात्रा के बारे में डेरेक वालेर ने द पंडित्य और शेखर पाठक-उमा भट्ट ने एशिया की पीठ पर नाम से किताब लिखी है. नैन सिंह ने दो जर्मन वैज्ञानिकों स्लागिंटवाइट एडोल्फ और राबर्ट के साथ मिलकर मानसरोवर और राक्षस ताल झील के साथ ही पश्चिम तिब्बत के मुख्य शहर गढ़तोक से लेह-ल्हासा तक की यात्रा की थी. वहां से लौटकर नैन सिंह ने अपने गांव में ही स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया था. बाद में उनके नाम के आगे पंडित लग गया था. उस वक्त पंडित उन लोगों को कहा जाता था, जिनके पास ज्ञान था और लोग अब नैन सिंह को उस श्रेणी में रखने लगे थे. 1895 में नैन सिंह का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था.
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